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मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता के ताने बाने के शिकंजे में फंसे किसानों को कर्जमाफी का फायदा भी जमींदार तबके को। भूमि सुधार के मुद्दे के बिना कोई किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है। हालात तो ये है कि रेलवे स्टेशन बेचने के बाद मोदी जी किसानों के किडनी भी बेचेंगे। इसी तरह सुनहले दिन आयेंगे। पलाश विश्वास

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मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता के ताने बाने के शिकंजे में फंसे किसानों को कर्जमाफी का फायदा भी जमींदार तबके को।

भूमि सुधार के मुद्दे के बिना कोई किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है।

हालात तो ये है कि रेलवे स्टेशन बेचने के बाद मोदी जी किसानों के किडनी भी बेचेंगे। इसी तरह सुनहले दिन आयेंगे।

 

पलाश विश्वास

विकास का नमूना यह कि रेलवे विकास के लिए निजीकरण और कर्मचारियों की बेरहम छंटनी।सरकारी उपक्रमों में विनिवेश।

विकास का नमूना यह कि रक्षा प्रतिरक्षा,परमाणु ऊर्जा तक का निजीकरण और विनिवेश।कृषि विकास तीन साल में डेढ़ प्रतिशत और किसानों की बेलगाम बेदखली।

विकास का नमूना यह कि  ठेके पर नौकरी की तर्ज पर ठेके पर खेती।

किसानों को खेत से,खेती से बेदखल करके बड़े किसानों,जमींदारों की थैली भरने के लिए कारपोरेट कंपनियों और पूंजीपतियों की तर्ज पर करीब दस लाख करोड़ की कर्ज माफी से छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरो को क्या मिलेगा,हिसाब लगाइये।

हिसाब लगाइये कि खेती और आजीविका से बेदखली के विकास के बाद आजीविका और रोजगार से छंटनी के बाद अपनों को रेबड़ियां बांटने की इस नौटंकी से किसानों का क्या होगा और कृषि संकट कितना और किस हद तक सुलझेगा।

हालात तो ये है कि रेलवे स्टेशन बेचने के बाद मोदी जी किसानों के किडनी भी बेचेंगे।इसी तरह सुनहले दिन आयेंगे।

सूदखोरी का स्थाई बंदोबस्त आजादी के बावजूद तनिको ढीला नहीं पड़ा है और जमींदारी उन्मूलन के बावजूद जमींदार तबका भारत की राष्ट्र व्यवस्था की मनुस्मृति सैन्य प्रणाली पर काबिज है और राजनीति उन्हींके हित हरित क्रांति के कायाकल्प के बाद इस अबाध कारपोरेट मुक्तबाजार के हिंदू राष्ट्र में भी साध रही है।

जाहिर है कि खेती के खाते से केंद्र और राज्य सरकार के तमाम खर्च और अनुदान की तरह कर्ज माफी की क्रांति भी आयकर मुक्त उनके खजाने को और समृद्ध करेगी और इससे न कृषि संकट के सुलझने के आसार हैं और किसानों और खेतिहर मजदूरों की खदकशी का सिलसिला रुकने की कोई संभावना है।

पक्ष विपक्ष का यह सारा किसान आंदोलन किसानों के ऐसे किसानविरोधी मजदूरविरोधी सामंती समृद्ध तबके,जाति वर्ण,वर्ग  के हित में हो रहा है,जो भूमि सुधार  के खिलाफ हैं और जिनका खेत या खेती से कोई संबंध नहीं है और वे खेती भी पूंजी निवेश करके मुनाफे के कारोबार की तहत सरकारी खजाना लूटने के लिए करते हैं।

खेती के जरिये इन्हीं की जमींदारियों में खेत जोतने वाले किसानों,खेतिहर किसानों के दमन उत्पीड़न, दलितों और स्त्रियों बच्चों पर निर्मम अत्याचार इस हिंदू सवर्ण सैन्य राष्ट्र का रोजनामचा है, ऐसा हिंदू कारपोरेट राष्ट्र जो किसानों के बुनियादी हकहकूक से इंकार करता है।

भूमि सुधार के मुद्दे के बिना कोई किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है।

किसानों का कोई स्थानीय,प्रांतीय या राष्ट्रीय संगठन के नेतृत्व में या किसानों के नेतृ्त्व में यह आंदोलन नहीं चल रहा है और जिन किसान सभाओं और सगठनों के करोडो़ं सदस्य बताये जाते हैं,इस आंदोलन में उनकी कोई भूमिका नहीं

संकट को सुलझाने के लिए,कारपोरेट अर्थव्यवस्था,बाजार और महाजनी जमींदारी स्थाई इंतजाम से किसानों को रिहा करने,जलजंगल जमीन आजविका से बेदखली रोकने, भूमि सुधार या कृषि आधारित काम धंधों के विकास या प्रोत्साहन या खेती से जुड़े जनसमुदायों के बच्चों को रोजगार और आजीविका दिलाने और उनको बुनियादी जरुरतें,सेवाएं मुहैय्या कराने का कोई कार्यक्रम इस आंदोलन में नहीं है।

यह विशुद्ध सत्ता की राजनीति है,जिससे सत्ता की गोद में पल रहे जमींदार तबके को ही फायदा होगा और इससे कृषि विकास या किसानों के कल्याण की कोई संभावना नजर नहीं आती है।

वर्धा विश्वविद्यालय के शोध छात्र मजदूर झा का संदेश आया था कि वे लोग सारस नाम की एक पत्रिका निकाल रहे हैं,जिसके पहले अंक को किसानों की मौजूदा  हालत पर केंद्रित किया जा रहा है।हिंदी साहित्य में हाल में जनपदों और किसानों पर क्या लिखा गया है,मुझे इसकी खास जानकारी नहीं है।

प्रेमचंद की परंपरा में साठ और सत्तर के दशक तक जो साहित्य लिखा जाता रहा है,वह गौरवशाली भारतीय साहित्य संस्कृति की परंपरा तमाम तरह की रंग बिरंगी महानगरीय उत्तर आधुनिक छतरियों में इस तरह छुपी हुई है कि मुझे जैसे नाकारा अज्ञानी व्यक्ति के लिए उन्हें देख पाना मुश्किल है।हिंदी साहित्य के प्रेमियों को शायद यह दिख रहा होगा।

माफ करें, मुझे किसानों के पक्ष का कोई समकालीन भारतीय साहित्य दिखता नहीं है।इसलिए ऐसे महानगरीय उपभोक्तावादी साहित्य संस्कृति,माध्यम विधा और उनसे जुडे पाखंडी मौकापरस्त तिकड़मी रथी महारथियों और उनकी गतिविधियों में मुझ जैसे अछूत शरणार्थी किसान की कोई दिलचस्पी नहीं है।

मुद्दे की बात यह है कि भारतीय साहित्य में हाल में दिवंगत बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी के अवसान के बाद किसानों के संघर्ष और भारतीय कृषि के अभूतपूर्व संकट के बारे में जानने के लिए हमें पी साईनाथ जैसे पत्रकार की रपट पर निर्भर होना पड़ा रहा है।

बाकी भारतीय कृषि अभी प्रेमचंद की भाषा में मुक्त बाजार की ट्रिलियन डालर डिजिटल अर्थव्यवस्था में महाजनी व्यवस्था से उबर नहीं सकी है।महाजनी सभ्यता की सामंती मनुस्मृति व्यवस्था ही भारतीय कृषि संकट का आधार है।

अभी अभी भारत में नृतात्विक अध्ययन के जनक और झारखंड के आदिवासियों के उत्थान के लिए समर्पित नृतत्व वैज्ञानिक और समाजशास्त्री दिवंगत शरत चंद्र राय के 1936 में छोटानागपुर के आदिवासियों के हालात पर लिखे एक दस्तावेज का अनुवाद करने का मौका मिला है।यह अनुवाद बहुत जल्द आपके हाथों में होगा और उसका कोई अंश मैं इसलिए शेयर नहीं कर पा रहा हूं।

पुणे करार के तहत आदिवासियों को अलग थलग करके जल जंगल जमीन से बेदखली के लिए गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट के तहत आदिवासियों के नरसंहार का जो अबाध अभियान शुरु हुआ और आदिवासियों को बाकी जन समुदायों से अलग करके राष्ट्र के उनके खिलाफ जारी युद्ध और राजनीतिक संरक्षणके वर्चस्ववाद को समझने के लिए यह दस्तावेज बहुत जरुरी है।

शरत चंद्र राय ने आदिवासियों को अल्पसंख्यक का दर्जा देते हुए विरासत में हासिल उनके जल जगंल जमीन के हक हकूक के संरक्षण के लिए उनके अलगाव का बहुत जबरदस्त विरोध आदिवासी नेताओं के सुर में सुर मिलाकर किया था और आदिवासी किसानों के हित में दूसरी तमाम बातों के अलावा सबसे ज्यादा जोर सूदखोरी रोकने के लिए किया था।जिसपर जाहिर है कि ब्रिटिश हुकूमत ने अमल नहीं किया था।

आजादी के बाद भूमि सुधार आंशिक रुप से बंगाल में वाम शासन के तहत लागू होने के अलावा बाकी देश में इसे लागू करने की कोई गंभीर कोशिश पिछले सात दशकों में नहीं हुई और भारतीय कृषि संकट के संकट का एक बड़ा कारण यह भी है कि खेत जोतने वाले किसानों और खेतिहर मजदूरों को पूरे देश में कहीं उनके हकहकूक मिले ही नहीं है।दूसरी ओर भूमिधारी किसानों की जमीन लगातार बेदखल होती जा रही है।

किसानों और खेतिहर मजदूरों की खुदकशी की सबसे बड़ी वजह उनपर कर्ज के बोझ बढ़ते जाना है।साठ के दशक से हरित क्रांति की वजह से खेती की लागत बेलगाम तरीके से बढ़ते चले जाने और पैदावार और श्रम की कीमत न मिलने के साथ साथ मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में बाजार के शिकंजे में देहात और जनपदों के बुरी तरह फंस जाने के नतीजतन बुनियादी जरुरतों और सेवाओं को खरीदने के लिए बेहिसाब क्रयशक्ति के अभाव और उपभोक्ता संस्कृति के मुताबिक अनुत्पादक खर्च बढ़ते जाने से महाजनी सभ्यता का उत्तर आधुनिक कायाकल्प हो गया है।

सिर्फ महाजन,सूदखोर और दूसरे सामाजिक तत्व ही नहीं,भारतीय बैंकिग प्रणाली भी इस महाजनी सभ्यता के नये अवतार हैं।

वैसे ज्यादातर छोटे किसानों के पास जमीन इतनी कम है कि बैंकों से वे कर्ज नहीं लेते और आज भी साहूकारों,महाजनों और बाजार से बहुत ऊंचे ब्याज पर कर्ज लेते हैं।बैंकों से भी उन्हें कोई राहत मिलती नहीं है।

फिलहाल यूपी चुनाव में किसानों के कर्ज माफ करने के लिए भगवा वायदे के बाद मध्यप्रदेश में किसानों पर भगवा फायरिंग में किसानों के मारे जाने के बाद किसानों को जो राजनीतिक आंदोलन देशभर में रोज तेज हो रहा है,उसकी मुख्य मांग कर्ज माफी है।

इस सिलसिले में महाराष्ट्र में किसानों ने  जब आंदोलन तेज कर दिया तो वहां की भगवा सरकार ने किसानों को आम कर्ज माफी का ऐलान कर दिया है और मध्य प्रदेश सरकार ने भी लगातार तेज होते आंदोलन के बजाय केंद्र में भगवा राजकाज के तीन साल परे होने के मोदी जश्न के लगभग गुड़गोबर होने की आशंका के मद्देनजर कर्ज माफी का वायदा कर दिया है।अमल होने के आसार नहीं हैं।

राजस्थान में किसान आंदोलन तेज होता जा रहा है तो बाकी राज्य सरकारों पर दबाव बढ़ता जा रहा है कि वे किसानों का कर्ज माफ कर दें।

इस सिलसिले में बैंकरों का कहना है कि किसान कर्ज इसलिए नहीं चुका रहे हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि सरकार उनका कर्ज माफ कर देगी। गौरतलब है कि केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने किसान आंदोलन के सिलसिले में किसानों को कर्ज माफी की केंद्र सरकार की जिम्मेदार टालने की रणनीति के तहत बैंकरों से मुलाकात की।

गौरतलब है कि पेशे से कारपोरेट वकील जेटली किसानों को कर्ज माफ करने के खिलाफ हैं और इस सिलसिले में उन्होंने पहले ही साफ कर दिया है कि कर्ज माफी का आर्थिक बोझ संबंधित राज्य सरकार को ही उठाना होगा।

बहरहाल मीडिया के मुताबिक जेटली की इस बैठक में कई सरकारी बैंकों के अधिकारी शामिल हुए। इस बैठक में कई बैंकरों ने आरोप लगाया कि किसान सरकार द्वारा कर्ज माफी की उम्मीद में जान बूझकर बैंक द्वारा लिया गया लोन नहीं चुकाते हैं। बैंकरों ने वित्तमंत्री और मंत्रालय के अधिकारियों के साथ हुई बैठक में भी अपनी चिंता बताई।

अब सवाल है कि बैंक किन किसानों को कर्ज देती है और वे किसान कौन हैं जो कर्ज नहीं चुका रहे हैं।समझने वाली बात यह कि भारतीय बैंक छोटे किसानों को कर्ज देने के बाद छोटी सी छोटी रकम वसूलने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते।ऐसा छप्पन इंच का सीना किन किसानों का है जो कर्ज माफी के इंतजार में कर्ज न चुकाने की हिम्मत करें और बैंक भी उनसे कर्ज वसूल न कर सके।जाहिर है कि जानबूझकर कर्ज न चुकाने की हैसियत रखने वाले किसान यकीनन खुदकशी नहीं करते।

जाहिर है कि भारतीय बैंकिग को दुहने वाले पूंजीपतियों,कारपोरट कंपनियों और सत्ता वर्ग के लोगों के अलावा बेहिसाब जमीन रखने वाले बड़े और संपन्न प्रभावशाली किसानों का एक तबका भी है,जो किसी तरह का टैक्स नहीं भरते और न खुद खेत जोतते हैं,आधुनिक काल के वे जमींदार हैं,जो बैंकों का कर्ज बिना चुकाये कर्ज माफी की रकम भी हजम करने वाले हैं।

हालात पर थोड़ा विस्तार से गौर करें तो मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता के ताने बाने  बैंकरों ने कहा, किसानों में कर्ज न चुकाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसकी वजह से बैंकों पर वित्तीय दबाव बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में किसानों पर करीब 10 लाख करोड़ रुपये के कर्ज हैं।

बैंकरों ने कहा कि पिछले कुछ महीनों में किसानों द्वारा लिया गया लोन 50 प्रतिशत बढ़ा है। एक बड़े के अधिकारी ने कहा कि किसान अपने बैंक खाते से पैसे निकाल रहे हैं ताकि उनके कर्ज का पैसा बैंक अपने आप न काट लें।  दक्षिण भारत के एक सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक ने बताया कि कुछ जगह लोन न चुकाने वाले बैंकों से कर्ज माफी की मांग कर रहे हैं. मुंबई स्थित एक बैंक के सीईओ ने कहा कि अगर किसी को ये लगता हो कि कोई उसे एक लाख रुपये का चेक दे देगा तो वो कर्ज क्यों चुकाएगा?

 

 

 


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