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मुक्त बाजार में अब फासीवाद का प्राणपाखी! अब सही मायने में बाजार में राष्ट्र की कोई भूमिका नहीं है और न लोकतंत्र और संविधान की कोई भूमिका बची है।कही कोई राष्ट्र नहीं है और न कोई राष्ट्रनेता हैं।सारे के सारे कारोबारी! सत्ता में वापसी के लिए वे खुद, उनके तमाम मंत्री,सांसद,विधायक और मेयर कटघरे में हैं तो ममता बनर्जी चीख चीख कर कह रही हैं कि बाकी राजनीतिक दलों की आय अघोषित स्रोतों से है और सभी ले रहे हैं तो हमने लिया तो क्या गुनाह कर लिया।यह सच है। पूंजी और खास तौर पर तो देश के सीधे मुक्तबाजार बनने के बाद अबाध है।नागरिकों की कोई स्वतंत्रता हो या न हो, मानवाधिकार सुरक्षित हो या न हो, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो या न हों,समता और न्याय ,सहिष्णुता और बहुलता,भ्रातृत्व और बंधुत्व,धर्मनिरपेक्षता हो न हो,कानून का राज हो न हो,संविधान के प्रावधानों को लागू किया जाये या न किया जाये,लोकतंत्र रहे या भाड़ में जाये, देशी विदेशी पूंजी स्वतंत्र है और उसके लिए तमाम दरवाजे और खिड़कियां खुल्ला रहे ,इसलिए अश्वमेधी वैदिकी हिंसा के जनसंहारी घोड़े और घुड़सवार देश के खेत खलिहान रौंदते हुए अभूतपूर्व विकास कर

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मुक्त बाजार में अब फासीवाद का प्राणपाखी!


अब सही मायने में बाजार में राष्ट्र की कोई भूमिका नहीं है और न लोकतंत्र और संविधान की कोई भूमिका बची है।कही कोई राष्ट्र नहीं है और न कोई राष्ट्रनेता हैं।सारे के सारे कारोबारी!

सत्ता में वापसी के लिए वे खुद, उनके तमाम मंत्री,सांसद,विधायक और मेयर कटघरे में हैं तो ममता बनर्जी चीख चीख कर कह रही हैं कि बाकी राजनीतिक दलों की आय अघोषित स्रोतों से है और सभी ले रहे हैं तो हमने लिया तो क्या गुनाह कर लिया।यह सच है।


पूंजी और खास तौर पर तो देश के सीधे मुक्तबाजार बनने के बाद अबाध है।नागरिकों की कोई स्वतंत्रता हो या न हो, मानवाधिकार सुरक्षित हो या न हो, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो या न हों,समता और न्याय ,सहिष्णुता और बहुलता,भ्रातृत्व और बंधुत्व,धर्मनिरपेक्षता हो न हो,कानून का राज हो न हो,संविधान के प्रावधानों को लागू किया जाये या न किया जाये,लोकतंत्र रहे या भाड़ में जाये, देशी विदेशी पूंजी स्वतंत्र है और उसके लिए तमाम दरवाजे और खिड़कियां खुल्ला रहे ,इसलिए अश्वमेधी वैदिकी हिंसा के जनसंहारी घोड़े और घुड़सवार देश के खेत खलिहान रौंदते हुए अभूतपूर्व विकास कर रहे हैं।जिसे हम नरसंहार कहते हैं या किसानों की थोक आत्महत्या समझते हैं या मेहनतकशों का सफाया और एकाधिकारवादी पितृसत्ता भी कह सकते हैं।

मुक्त बाजार के खिलाफ लड़ाई फिर जनता के मोर्चे के बिना असंभव है।कृपया इसे समझें और जनता की गोलबंदी के लिए जो भी कुछ हम कर सकते हैं,तुरंत शुरु करें वरना जो मारे जा रहे हैं,उनके तुंरत बाद हमारी बारी भी मारे जाने की हो ही सकती है।

पलाश विश्वास

अब लगभग तय है कि मुक्तबाजारी साम्राज्यवाद के ग्लोबल लीडर बनने के लिए मुकाबला मैडम हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रंप के बीच है।नतीजा चाहे कुछ हो,न अमेरिका और न बाकी दुनिया में इंसानियत या कायनात के लिए कोई अच्छी खबर निकलने के आसार हैं।


डोनाल्ड महाशय सिर्फ खाकी हाफ पैंट पहनते हैं  या नहीं,सिर्फ यही पता नहीं है और बाकी वे मुकम्मल बजरंगी हैं।जाहिर है कि उनके अमेरिका का राष्ट्रपति बनने से ग्लोबल हिंदुत्व की ही जय जयकार होगी जैसी जय जयकार फिलहाल हम केसरिया भारत  एक दस दिगंत में सुनने को अभ्यस्त है।


हिलेरी मैडम जीतें और अमेरिका की पहली राष्ट्रपति बनें तो इससे पितृसत्ता की सेहत पर वैसे ही कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है जैसे भारत की राष्ट्रपति मैडम प्रतिभा पाटील के पांच साला कार्यक्रम का भारतीय अनुभव है।


ट्रंप और मैडम हिलेरी,दोनों के अमेरिका के जायनी शक्ति केंद्र से बेहत घनिष्ठ रिश्ते हैं और ट्रंप हार भी जाये तो हिंदुत्व के ग्लोबल एजंडे को अमेरिका का समर्थन जारी रहेगा तबतक ,जबतक न भारत अमेरिकी मुक्तबाजार का उपनिवेश बना रहे।


ट्रंप अमेरिका के बिल्डर टायकून हैं और उनके जैसे धनकूबेर के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने पर यह घटना भविष्य में भारतीय लोकतंत्र के लिए संभावनाओं के नये दरवाजे खोल सकते हैं।


वैसे भी भारत में आल इंडिया बिजनेस पार्टी बन चुकी है और फिलहाल इसके बारे में कुछ ज्यादा खुलासा हुआ नहीं है।फिर राजकाज का मतलब ही भारतीय मुक्तबाजार में बिजनेस है तो जाहिर है कि राजनीतिक दलों को सालाना भारी भरकम चंदा देकर कमसकम पांच साल के लिए उनके बिजनेस बंधु कारोबार का मोहताज होने के बजाय भारत में भी कोई ट्रंप सीधे सत्ता की कमान संभाल लें।


जैसे धनपशुओं और बाहुबलियों की भूमिका भारतीय राजनीति में आजादी से पहले ही शाश्वत सत्य रहा है और वही रघुकुल रीति चली आ रही है और वर्तमान परिदृश्य में अबाध पूंजी के रंगभेदी राजधर्म में पशुबल और धनबल की भूमिका प्रत्यक्ष स्वदेशी विनियोग है।फिर राजनीति अब पेशा है और चुनावों के हलफनामे में भी इस पेशे की बाबुलंद ऐलान होने लगा है।


पेशेवर राजनीति में पूंजी अपने घर से लगायी जाये,फिलहाल ऐसी रीति चली नहीं है।


पराया माल बटोरकर करोड़पति अरबपति खरबपति बनने में भारतीय राजनीति की दक्षता और कुशलता को हम आम मूढ़मति जनगण भ्रष्टाचार दुराचार वगैरह वगैरह कहा करते हैं।


पूंजी और खास तौर पर तो देश के सीधे मुक्तबाजार बनने के बाद अबाध है।नागरिकों की कोई स्वतंत्रता हो या न हो, मानवाधिकार सुरक्षित हो या न हो, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो या न हों,समता और न्याय ,सहिष्णुता और बहुलता,भ्रातृत्व और बंधुत्व,धर्मनिरपेक्षता हो न हो,कानून का राज हो न हो,संविधान के प्रावधानों को लागू किया जाये या न किया जाये,लोकतंत्र रहे या भाड़ में जाये, देशी विदेशी पूंजी स्वतंत्र है और उसके लिए तमाम दरवाजे और खिड़कियां खुल्ला रहे ,इसलिए अश्वमेधी वैदिकी हिंसा के जनसंहारी घोड़े और घुड़सवार देश के खेत खलिहान रौंदते हुए अभूतपूर्व विकास कर रहे हैं।जिसे हम नरसंहार कहते हैं या किसानों की थोक आत्महत्या समझते हैं या मेहनतकशों का सफाया और एकाधिकारवादी पितृसत्ता भी कह सकते हैं।


सच यह है कि आजादी के बाद से सत्ता जिस वर्ग की पुश्तैनी विरासत है,सियासत उनके लिए बेलगाम मुनाफावसूली है और तमाम किस्म के घोटाले उनके जन्म सिद्ध अधिकार है।पहले अखबार पढ़ने वाले कम थे और अखबार सर्वत्र पहुंचते न थे।इसलिए बहुत हल्ला होने के बावजूद कहीं किसी कोे फर्क नहीं पडा़ और अबाध लूटतंत्र जारी रहा।अब सूचना महाविस्फोट,लाइव हजारों चैनल और सोशल मीडिया के शोर की वजह से औचक लग रहा है कि बहुत अजूबा हो रहा है और यकबयक सारे राजनेता भ्रष्ट हो गये हैं और पहले राजनीति दूध से दुली हुई थी।


आर्थिक सुधार लागू होने से पहले भारत केस्वतंत्र होने के तुरंत बाद रक्षा ब्यय बेलगाम रहा और पाकिस्तान और चीन के साथ हुए युद्दों के बाद हथियारों की होड़ देशभक्ति का पर्याय हो गया और शुरु से लेकर अब तक सत्ता वर्ग का कमाने खाने का जरिया यह अंध राष्ट्रवाद है।सरहदों पर बहादुर जवान अपनी कुर्बानी देते रहें और जनता बच्चों की तरह देशभक्ति के गीत गाते रहे और रक्षा सौदों के अबाध कारोबार के जरिये सत्ता पर वर्चस्व कायम रहे।


अब तक किसी रक्षा घोटाले में किसी को सजा होने की कोई नजीर नहीं है।पर्दाफाश और हो हल्ला का सिलसिला बराबर जारी है।

आयात निर्यात,आपदा प्रबंधन,जनकल्याण,निर्माण विनिर्माण से लेकर खेलकूद तक कोई सेक्टर बाकी नहीं बचा है।संपूर्ण निजीकरण और संपूर्ण विनिवेथ के तहत सत्ता वर्ग विकास के नाम पूरा देश नीलमा कर रहा है और हर सौदे में,हर फैसले में कमीशन कितना मिला है, किसी को अता पता नहीं है।


इन दिनों कोलकाता में हंगामा रोज रोज नारदा स्टिंग के तहत आंखों देखी रिश्वतखोरी मामले में मुखयमंत्री ममता बनर्जी के रोजाना बदलते आक्रामक इकबालिया बयान से बरप रहा है।


सत्ता में वापसी के लिए वे खुद, उनके तमाम मंत्री,सांसद,विधायक और मेयर कटघरे में हैं तो ममता बनर्जी चीख चीख कर कह रही हैं कि बाकी राजनीतिक दलों की आय अघोषित स्रोतों से है और सभी ले रहे हैं तो हमने लिया तो क्या गुनाह कर लिया।यह सच है।


थोडा़ सच का सामना करें तो उनकी यह दलील उतनी नाजायज भी नहीं है।हम भारतीय नागरिक जन्मजात राजनीतिक कारोबार और मुनाफावसूली के अभ्यस्त हैं और राजनीतिक फैसले से हमारी तमाम जरुरतों,सेवाओं और रोजमर्रे की जिंदगी प्रभावित होती है तो गादार हो या बेदाग,हमारी सहज प्रवृत्ति सत्ता के साथ नत्थी होकर खाल बचाने की है और यही लोकतंत्र है ,जहां विवेक बहुत काम नहीं करता है और हम अमूमन देखते हैं कि जिसे हम हारा हुआ समझते हैं,जीतता वही है।


दुनियाभर में नफरत उगलते डोनाल्ड ट्रंप के बोल निंदा के विषय रहे हैं और खुद उनकी पार्टी में ही उनका विरोध हो रहा है।फिरभी वे अमेरिका राष्ट्रपति बनने के प्रबल दावेदार हैं वैसे ही देशभर में गुजरात नरसंहार के लिए लगभग अस्पृश्य से समझे जाते रहे किसी नरेंद्र भाई मोदी को हमने पलक पांवड़े पर बिठा दिया है और उनकी मन की बातों से ही तय होता है हमारा भूत भविष्य और वर्तमान।वे हमारे भविष्य का निर्माण कर रहे हैं तो प्रबल जन समर्थन और बहुमत के अटूट समर्थन से वे अतीत और इतिहास भी बदलने लगे हैं।



हम बार बार कहते लिखते रहे हैं कि फासीवाद कोई किसी एक राष्ट्र का मामला नहीं है।मुक्त बाजार में अब फासीवाद का प्राणपाखी है।अब सही मायने में बाजार में राष्ट्र की कोई भूमिका नहीं है और न लोकतंत्र और संविधान की कोई भूमिका बची है।कही कोईराष्ट्र नहीं है और न कोई राष्ट्रनेता हैं।सारे के सारे कारोबारी हैं।


सही मायने में अंध राष्ट्रवाद हवा हवाई है और जमीन पर कोई राष्ट्र या राष्ट्रीयता की गुंजाइश ही नहीं है और सारे राजकाज वैश्विक इशारे सेतय होते हैं और वे ही वैश्विक इशारे ईश्वर के वरदहस्त है। मुक्तबाजार में कोई राष्ट्र नहीं बचा है और ग्लोबल आर्डर की कठपुतलियां है तमाम सरकारें।जिस जनादेश के निर्माण की खुशफहमी में सराकर बनाने या गिराने की कवायदें हम करते रहे हैं,वे सिरे से बेमतलब है क्योंकि सरकारें कहीं और बनती हैं।


हमारी बात समझ में नहीं आ रही है और आप इसे अपनी अपनी राजनीति,वर्गीयहित और जाति धर्म के अवस्थान के हिसाब से बाशौक खारिज कर सकते हैं।


हिंदुस्तान की बात हम करेंगे और हिंदुत्व की बात हम करेंगे तो बहुमत सुनने के लिए कतई तैयार न होगा और हमारे खिलाफ राष्ट्रविरोधी हिंदूविरोधी फतवा लागू हो जायेगा।गनीमत है कि देश के धर्मोन्मादी मुक्ताबाजार बनने से बहुत पहले हमने अपनी पढ़ाई लिखाई 1979 में पूरी कर ली और वे हमें किसी विश्वविद्यालय से निस्कासित नहीं कर सकते।


हो सकें तो अमेरिका में लोकतंत्र के उत्सव पर नजर रखें तो समझ में आ जायेगा कि मुक्तबाजार जनादेश कैसे बनाता है और कैसे सरकारें बनती हैं।


इस निरंकुश ग्लोबल मनुस्मृति अनुशासन को तोड़ने के लिए हम सत्तर के दशक से जनता की सत्ता के खिलाफ मोर्चाबंदी की बात कहते और लिखते रहे हैं और हम जैसे मामूली हैसियत वाले की आवाज कहीं पहुंची नहीं है।


जैसे गांधी ने कहा था कि विकास का यह फर्जीवाड़ा पागल दौड़ है,अब जस कातस हम ऐसा मान नहीं सकते,जैसे हम इस निरंकुश सत्ता को हिटलर शाही भी मान नहीं सकते।यह सीधे तौर पर नागरिकों के वध की वैदिकी हिंसा है और मुक्त बाजार में यह जायज है तो सत्ता वर्ग का जन्मसिद्ध अधिकार भी है।


मुक्त बाजार के खिलाफ लड़ाई फिर जनता के मोर्चे के बिना असंभव है।कृपया इसे समझें और जनता की गोलबंदी के लिए जो भी कुछ हम कर सकते हैं,तुरंत शुरु करें वरना जो मारे जा रहे हैं,उनके तुंरत बाद हमारी बारी भी मारे जाने की हो ही सकती है।

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