Quantcast
Channel: Himalayan Altitudes
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1119

एक आंबेडकर-भक्त के दो साल और दलितों का दर्द

$
0
0

जहां भाजपा दलित वोटों पर बेतहाशा निर्भर है, वहीं पिछले चुनावों में जीत ने इसे लोक सभा में पहली बार साफ बहुमत दिलाया जिसके साथ मोदी की अहंकार भरी शैली ने मिल कर पूरे संघ परिवार को मजबूत किया है. इसके आक्रामक हिंदुत्व की लफ्फाजियों ने देहाती इलाकों में सामंती ताकतों और लंपट तत्वों को इसका हौसला दिया है कि वे दलितों में मुक्ति की उम्मीदों से जुड़ी दावेदारी के रुझान को दबाएं. इस बदलाव ने गांवों में जाति के अंतर्विरोधों को और बदतर बनाया है जो अकसर ही खौफनाक अत्याचारों की शक्ल में सामने आते हैं. हालांकि आर्थिक सुधारों के लागू किए जाने के बाद से ही अत्याचारों के मामलों में भारी इजाफा हुआ है, लेकिन मोदी की हुकूमत में इन अत्याचारों में बढ़त ने गैरमामूली शक्ल ले ली है. राष्ट्रीय अपराध शोध ब्यूरो के पास सिर्फ 2014 के अत्याचारों के आंकड़े हैं, लेकिन वे भी इस बदलाव की प्रकृति को जाहिर करने के लिए काफी हैं. तालिका 3 दलितों पर होने वाले अत्याचारों की झलक देती है, जो यह दिखाती है कि उस साल (2014), उसके पिछले साल (2013) के मुकाबले, जब दलितों के खिलाफ अत्याचार पहले से ही अपने चरम पर थे, 19 फीसदी से भी ज्यादा की खतरनाक वृद्धि हुई.


एक आंबेडकर-भक्त के दो साल और दलितों का दर्द



जब एक स्वयं-भू आंबेडकर भक्त हुकूमत चला रहा है, तो दलितों को यह उम्मीद हो सकती थी कि सियासत की दिशा में बदलाव उनके पक्ष में होंगे. लेकिन असल में नरेंद्र मोदी सरकार के दो बरसों में वे उपलब्धियां ही हाथ से निकलने लगी हैं, जिन्हें हासिल करने में दलितों को कई दशक लगे हैं.आनंद तेलतुंबड़े का लेख. अनुवाद: रेयाज उल हक

अपने को आंबेडकर का भक्त बताने वाले नरेंद्र मोदी के शेखीबाज शासन के हाल ही में दो साल पूरे हुए हैं. स्थापित परंपराओं और मूर्तियों के धुर विरोधी बाबासाहेब आंबेडकर अपने आस-पास भक्तों के होने से नाराज रहा करते थे. लेकिन शायद अपने खास व्यावहारिक तौर-तरीकों के कारण हो सकता है कि शायद वे एक प्रधानमंत्री को अपने भक्त के रूप में पाकर उस पर तरस खा जाते और खुश होते. उन्होंने संकोच के साथ राज्य के ढांचे में दलितों के प्रतिनिधित्व की मांग की थी ताकि वे सवर्ण हिंदुओं की जातिवादी बहुसंख्या से दलित हितों की हिफाजत कर सकें. उन्होंने अपनी जिंदगी में अनुभव किया था कि यह कारगर नहीं रहा था. लेकिन अब उन्हें सर्वशक्तिशाली एक प्रधानमंत्री मिला है, जिसकी खूबी यह है कि वह उनका भक्त है! उन्होंने मोदी से जो थोड़ी सी उम्मीद की होती वो यह थी कि वे देश को आंबेडकर की बताई हुई दिशा में ले जाएंगे, और बेशक यह भी कि वो दलित जनता की जारी बदहाली से कुछ सरोकार रखेंगे. यह बात तो जानी हुई है कि आंबेडकर ने नए शासकों को चेतावनी दी थी कि वे जितनी जल्दी संभव हो सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र ले आएं. उन्होंने इसे हासिल करने के लिए राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में एक साधन भी मुहैया कराया था. हालांकि वे मुनासिब नहीं थे, लेकिन उन्हें देश के शासन के लिए बुनियादी उसूल होना था. लेकिन कांग्रेस के साठ बरसों के शासन में उनकी पूरी तरह अनदेखी की गई. अब एक आंबेडकर भक्त से यह उम्मीद तो होनी ही थी कि वो वापस उन्हें केंद्र में लाएगा. इसी तरह उससे ये उम्मीद भी बननी थी कि वो दलितों की बदहाली के चिंताजनक रुझानों को रोकेगा. अब हो सकता है कि नतीजों के जाहिर होने के लिए दो बरस काफी न हों लेकिन ये यकीनन इसकी झलक देने के लिए तो काफी हैं ही कि बदलाव की दिशा क्या है. क्या मोदी के दो बरसों में इन उम्मीदों की दिशा में बढ़ने की झलक मिली है?
 

हवाबाजी और हकीकत 

पिछले आम चुनावों के ठीक पहले भाजपा ने दलित वोटों के दमदार दलालों को खरीदने में कांग्रेस को काफी पीछे छोड़ दिया. इस निवेश का भारी मुनाफा भी उसे मिला. अपनी जीत के जोश में, इसने आंबेडकर को हथियाने का एक बेलगाम अभियान छेड़ दिया जिसमें तड़क-भड़क वाले प्रचार और हर उस संभावित जगह पर कब्जा शामिल था, जहां आंबेडकर के स्मारक खड़े किए जा सकते हों. मोदी ने आंबेडकर का गुणगान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और इन्हीं को दलितों के लिए अपनी चिंताओं के रूप में पेश किया. जबकि असलियत में, आंबेडकर जिन बातों के पक्ष में खड़े थे, हर उस बात को बेधड़क कुचल दिया गया. उच्च शिक्षा में दलित छात्रों के उत्पीड़न और उनके प्रति बेरहमी का एक सिलसिला शुरू हुआ, जिन्हें निशाना बनाया गया वे छात्र वैसे थे जिनके बारे में आंबेडकर मानते थे कि वे उनका असली प्रतिनिधित्व करेंगे. दलित छात्रों की स्कॉलरशिप में जान-बूझ कर देर की गई, उनके बीच की रेडिकल आवाजों का गला घोंटने की संस्थागत कोशिशें हुईं, सोच-समझ कर उनको हर जगह अपमानित किया गया जिसको आखिर में एक जहीन रिसर्च स्कॉलर रोहिथ वेमुला ने अपनी जिंदगी की कीमत पर उजागर किया. वैसे तो भेदभाव से भरा हुआ व्यवहार दलितों के लिए नया नहीं रहा है लेकिन यह जिस संस्थागत रूप में पिछले दो बरसों में हुआ है, वो यकीनन एक खास बात है. अभी भी, देश भर में रोहिथ वेमुला के इंसाफ के लिए फैले गुस्से और संघर्ष के बावजूद रोहिथ के हत्यारों की पीठ पर मोदी का हाथ बना हुआ है.

मोदी, संविधान को अपना एक पवित्र ग्रंथ बता कर बार-बार उसकी कसमें खाते हैं, लेकिन अपने वास्तविक व्यवहार में उन्होंने संविधान को कूड़ेदान में फेंक दिया है. न सिर्फ उन्होंने नीति निर्देशक उसूलों के प्रति अंजान बने रहने और अनदेखी को जारी रखा है, बल्कि उन्हें तोड़ने-मरोड़ने में भी नहीं हिचके हैं. संविधान की आत्मा को तो छोड़ ही दें, इसमें आए धर्मनिरपेक्षता, बराबरी, आजादी जैसे शब्द इस हुकूमत में बदनाम हो गए हैं. संविधान में 'कानून के आगे बराबरी'का जो बुनियादी उसूल गरीबों और हाशिए के लोगों के लिए अकेला सबसे बड़ा संवैधानिक भरोसा है वो करीब-करीब तहस-नहस कर दिया गया है जैसा कि मालेगांव धमाके के मामले में हिंदुत्ववादी अपराधियों को खौफनाक तरीके से 'क्लीन चिट'देने में दिखाया रहा है. गोमांस (बीफ) खाने पर प्रतिबंध, घर वापसी, शिक्षा का भगवाकरण, राष्ट्रवाद/देशभक्ति को अंधभक्ति के साथ बढ़ावा देना, और अविवेक दलित हितों के लिए सीधे-सीधे नुकसानदेह हैं. दलितों को पहचान (आइडेंटिटी) की अंधी पट्टियों ने यह महसूस करने से रोके रखा है कि भाजपा द्वारा किए जा रहे इन छुपे और बारीक बदलावों का कुटिल मतलब क्या है, लेकिन ये बदलाव पिछली सदी के दौरान हासिल की गई हर उपलब्धि को पूरी तरह से पलट रहे हैं.
 

दलितों के नुकसान  

जगह की कमी की वजह से हम यहां सिर्फ दो योजनाओं में बजट आवंटनों के जरिए यह देखेंगे कि मोदी के शासन में दलितों को वंचित रखने में कितना इजाफा हुआ है. पहला, अनुसूचित जाति उप योजना (एससीएसपी) और आदिवासी उप योजना (टीएसपी) के जरिए उनका कुल विकास और दूसरा, सफाई कर्मचारियों से संबंधित योजनाएं.


 



भारत का संविधान इन समुदायों और बाकी भारतीय आबादी के बीच में सामाजिक-आर्थिक खाई को पाटने की जरूरत की साफ-साफ पहचान करता है और उसने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष सुरक्षा और प्रावधानों के निर्देश दिए हैं. इन पर अमल किया गया, लेकिन काफी देर से, सिर्फ पांचवी पंचवर्षीय योजना की अवधि में 1974-75 में आदिवासी उप योजना की नीति के जरिए और बाद में छठी पंचवर्षीय योजना की अवधि में 1979-80 में विशेष घटक योजना (एससीपी) के जरिए, जिसे बाद में एससीएसपी का नाम दिया गया. ये वैधानिक आवंटन थे, जिनको हर केंद्रीय और राज्य के बजट में किया जाना चाहिए था, ताकि क्रमश: इन समुदायों पर खर्च किया जा सके. उन्हें उनकी आबादी के अनुपात में बजट में रकमों का बंटवारा करने के निर्देश थे. जैसा कि दलितों की किसी भी योजना में होता है, सरकार ने कभी भी अपने वादे नहीं निभाए और बजट में से शुरुआत से ही उनके हिस्से के अधिकारों को सरेआम छीनना शुरू कर दिया. यहां तक कि इनमें से ज्यादातर पैसे ऐसी गतिविधियों में लगाए गए जिनका इन समुदायों की बेहतरी से कोई ताल्लुक ही नहीं था और तब भी खर्च की गई राशि बजट के मुकाबले बहुत कम थी. करतूतों के इस इतिहास में भी, पिछली हुकूमतों की करतूतें मोदी द्वारा पेश किए गए पिछले दो बजटों से शायद बेहतर दिखेंगी (2014-15 अंतरिम बजट था). जैसा कि तालिका 1 दिखाती है, 2015-16 के लिए राशि के कुल बंटवारे में एससीएसपी आवंटन का अनुपात सिर्फ 6.62 फीसदी था, जो 2007-08 के बाद सबसे कम था. इसी तरह टीएसपी का अनुपात 4.29 फीसदी है जो 2011-12 से सबसे कम है. ये अनुपात आबादी के हिसाब से क्रमशः 16.62 और 8.6 फीसदी होने चाहिए. हालांकि बजट के बाद होने वाले अहम राज्यों के चुनावों को देखते हुए मौजूदा बजट में इन अनुपातों में हल्का सा सुधार आया और ये 7.06 और 4.36 फीसदी हैं, लेकिन तब भी ये पहले के अनुपातों के मुकाबले कम ही हैं. यह दिखाता है कि मोदी ने दलितों और आदिवासियों के 13,370,127 करोड़ और 5,689,940 करोड़ रुपए का वाजिब हक मार लिया है. 


सफाई कर्मचारी कुल दलित (एससी) आबादी के करीब 10 फीसदी हैं और दलितों में भी दलित हैं (देखिए  आंबेडकर के जश्न के मौके पर दलितों के आंसूहाशिया, 21 मई 2016). 1993 में एंप्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट नाम से एक अधिनियम पारित हुआ, और एक दूसरे और ज्यादा मजबूत अधिनियम प्रोहिबिशन ऑफ एंप्लॉयमेंट ऐज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देअर रिहेबिलिटेशन एक्ट 2013 ने उसकी जगह ली है. लेकिन इस बेबस जनता के लगातार संघर्षों के बावजूद कुछ नहीं हुआ है. एक तरफ तो हालात ये हैं, ऐसे में इन लोगों के प्रति मोदी के सरोकारों के सबूत पिछले दो बजटों में मिलते हैं जिनमें 'सफाई कर्मियों के छुटकारे और पुनर्वास के लिए स्वरोजगार योजना (सेल्फ-इंप्लॉयमेंट एंड रिहेबिलिटेशन स्कीम)'के लिए आवंटनों में गिरावट आई है (जैसा कि तालिका 2 बताती है) जो 577 करोड़ रु. से गिर कर 439.04 करोड़ और 470.19 करोड़ रह गया है. इसमें और भी कटौती करते हुए 10 करोड़ की एक रस्मी रकम रख दी गई है. '"अस्वच्छ"पेशों में लगे लोगों के बच्चों के लिए मैट्रिक-पूर्व स्कॉलरशिप (प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप फॉर चिल्ड्रेन ऑफ मैनुअल स्कैवेंजर्स)'में तस्वीर तो और भी बुरी है: जहां बजट आवंटन पहले के 9.5 करोड़ रु. से थोड़ा सा बढ़ कर 10 करोड़ रु. हुआ था, यह पिछले बजट में घट कर 2 करोड़ रु. रह गया है.
 

जाति अत्याचारों में तेजी 

जहां भाजपा दलित वोटों पर बेतहाशा निर्भर है, वहीं पिछले चुनावों में जीत ने इसे लोक सभा में पहली बार साफ बहुमत दिलाया जिसके साथ मोदी की अहंकार भरी शैली ने मिल कर पूरे संघ परिवार को मजबूत किया है. इसके आक्रामक हिंदुत्व की लफ्फाजियों ने देहाती इलाकों में सामंती ताकतों और लंपट तत्वों को इसका हौसला दिया है कि वे दलितों में मुक्ति की उम्मीदों से जुड़ी दावेदारी के रुझान को दबाएं. इस बदलाव ने गांवों में जाति के अंतर्विरोधों को और बदतर बनाया है जो अकसर ही खौफनाक अत्याचारों की शक्ल में सामने आते हैं. हालांकि आर्थिक सुधारों के लागू किए जाने के बाद से ही अत्याचारों के मामलों में भारी इजाफा हुआ है, लेकिन मोदी की हुकूमत में इन अत्याचारों में बढ़त ने गैरमामूली शक्ल ले ली है. राष्ट्रीय अपराध शोध ब्यूरो के पास सिर्फ 2014 के अत्याचारों के आंकड़े हैं, लेकिन वे भी इस बदलाव की प्रकृति को जाहिर करने के लिए काफी हैं. तालिका 3 दलितों पर होने वाले अत्याचारों की झलक देती है, जो यह दिखाती है कि उस साल (2014), उसके पिछले साल (2013) के मुकाबले, जब दलितों के खिलाफ अत्याचार पहले से ही अपने चरम पर थे, 19 फीसदी से भी ज्यादा की खतरनाक वृद्धि हुई.
 

ये पुलिस के आंकड़े हैं, जिसके पीछे यह तथ्य काम करता है कि पुलिस राजनीतिक ढांचों से कितनी स्वतंत्र है. भाजपा जिस खुलेआम तरीके से अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए पुलिस का इस्तेमाल कर रही है, उसमें इन आंकड़ों पर पड़ने वाले दबावों को समझने की जरूरत है.
 

कुल मिला कर देखें तो मोदी के दो साल दलितों के लिए फौरी तौर पर भारी नुकसानदेह रहे हैं और लंबे दौर में ये दलितों को पूरी तरह तबाह कर देने वाले हैं. बेहतर होता कि दलितों को इसका अहसास हो पाता कि हिंदू राज बनाने का संघ परिवार का सपना, जो हिटलर के एक राष्ट्र, एक साम्राज्य, एक नेता और मनु के ब्राह्मणवाद का एक अजीबोगरीब घालमेल है, आंबेडकर के सपने का ठीक उलटा है.

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1119

Trending Articles


FORECLOSURE OF REAL ESTATE MORTGAGE


From Male to Female


Pokemon para colorear


Sapos para colorear


OFW quotes : Pinoy Tagalog Quotes


Ligaw Quotes – Courting Quotes – Sweet Tagalog Quotes


RE: Mutton Pies (frankie241)


Ka longiing longsem kaba skhem bad kaba khlain ka pynlong kein ia ka...


Vimeo Create - Video Maker & Editor 1.5.2 by Vimeo Inc


Vimeo 10.7.1 by Vimeo.com, Inc.


UPDATE SC IDOL: TWO BECOME ONE


KASAMBAHAY BILL IN THE HOUSE


Girasoles para colorear


Smile Quotes


Long Distance Relationship Tagalog Love Quotes


Re:Mutton Pies (lleechef)


Re: lwIP PIC32 port - new title : CycloneTCP a new open source stack for...


Hato lada ym dei namar ka jingpyrshah jong U JJM Nichols Roy (Bah Joy) ngin...


Vimeo 10.7.0 by Vimeo.com, Inc.


Vimeo 11.8.1 by Vimeo.com, Inc.