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ये हमारे तमाम नाकाम बेरोजगार बच्चे तन्हाई में जीने मरने को अभिशप्त हैं। हम इस डिजिटल उपभोक्ता मुक्त बाजार का क्या करेंगे? पलाश विश्वास

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ये हमारे तमाम नाकाम बेरोजगार बच्चे तन्हाई में  जीने मरने को अभिशप्त हैं।

हम इस डिजिटल उपभोक्ता मुक्त बाजार का क्या करेंगे?

पलाश विश्वास

पिछले जाड़ों में भी इन दिनों शाम ढलने से पहले हम रोजाना मुंबई रोड स्थित एक्सप्रेस भवन के लिए रवाना हो जाते थे।देर रात घर वापस लौटते थे।यह शाम को घर से निकल जाना और देर रात वापस हो जाना करीब 36 साल तक चलता रहा है।उससे भी पहले 1973 से 1979 तक नैनीताल के मालरोड पर हमारी शाम बीतती थी और बर्फवारी हो या घमासान बारिश माल रोड में तल्ली मल्ली नैनीताल समाचार होकर देर रात तक हम दोस्तों के साथ होते थे।उससे भी पहले बचपन में हमारे लिए अकेले घिर जाने का कोई मौका नहीं था।

हमें अपने दफ्तर से रिटायर हो जाने से पहले कभी तन्हाई का अहसास ही नहीं हुआ।हम हमेशा मित्रों से घिरे रहने वाले प्राणी रहे हैं।घर में सविताबाबू हैं और मेरा कंप्यूटर है।टीवी मैं बहुत कम देख पाता हूं।

ऐसी घमासान तन्हाई होती है जिंदगी में छह सात महीने में इसका अहसास खूब हो गया है।मैंने बूढ़ाते हुए भी बचपन का दामन कसकर पकड़ा हुआ था और डीएसबी के मेरे ठहाकों का सिलसिला एक्सप्रेस भवन तक जारी रहा है।पिछले छह सात महीने में मैं एकबार भी ठहाका लगा नहीं सका,खुलकर खिलखिला नहीं सका।

हम नहीं जानते कि इस देश में हमारे राष्ट्रीय नेता खुलकर कभी ठहाके लगाते भी हैं या नहीं या वे हंसते भी हैं या नहीं।

कामरेड ज्योति बसु हंसते नहीं थे,यह किस्सा मशहूर है।

हालांकि ममता दीदी मुख्यमंत्री बनने के बाद मुस्कुराने भी लगी हैं।

डा.मनमोहन सिंह को हमने कभी हंसते हुए नहीं देखा।

बाकी लोग तो चीखते या दहाड़ते नजर आते हैं।

जो लोग हंस नहीं सकते,उन्हें दूसरों की हंसी की क्या परवाह होगी।

राजनीति अब आम जनता की हंसी छीन रही है।

राजनीति को सिर्फ आम लोगों की चीखों में अपनी जीत नजर आती है।

इस मुक्त बाजार में जिंदगी की मुस्कान सिरे से गायब है।हम नहीं जानते कि कुल कितने लोगों की इसकी परवाह है।

नोटबंदी से लोग कालाधन निकलने की उम्मीद में थे।लोगों को लगा कालाधन वाले बुरी तरह फंसे हैं और आगे सावन ही सावन है।उन्हें लगा कि अब क्रांति हो ही गयी है।उन्हें लगा ऐसा साहसी और ईमानदार छप्पन इंच का सीना इतिहास में कही दर्ज नहीं हुआ।

पढ़े लिखे मर्दों को सबस मजा इस बात को लेकर आया कि घर की महिलाओं का खजाना सार्वजनिक हो गया।

किसी ने नहीं सोचा कि घर में कैद इन औरतों को उनके श्रम और निष्ठा के बदले में हम कितनी आजादी और कितनी खुशी देते हैं।

ये वे औरते हैं जो आस पड़ोस के हाट बाजार में शौक से जाती हैं और एक एक पैसे के लिए मोलभाव करती हैं।यही मोलभाव उनका सार्वजनिक संवाद है।आजादी है।

औरतों की शापिंग के किस्से अलग हैं।

जिनमें हम उनकी हंसी,उनकी आजादी और उनके संवाद देखते नहीं हैं।

नोटबंदी ने इस देश में अपने घर में कैद करोड़ों स्त्रियों की खुशी और आजादी छीन ली है।डिजिटल लेनदेन में संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है।

मैंने छत्तीस साल तक पेशेवर नौकरी की है तो सिर्फ संवादहीन हो जाने से मेरा यह हाल है।

अचानक बूढ़ा हो गया हूं।बूढाने की उम्र भी हो चुकी है,जाहिर है।जबकि मैं सामाजिक गतिविधियों में बचपन से अपने पिता से नत्थी रहा हूं।पत्ररकारिता को भी मैंने सामाजिक सक्रियता बतौर जिया है।यह न नौकरी रही है न यह मेरा कैरियर है।मेरे साथ काम करने वाले जानते हैं कि काम को मैंने कभी बोझ नहीं समझा।अपनी मौज में काम करने की मेरी आदत पुरानी है।वह मौज खत्म है।

बेरोजगारी और शून्य आय की स्थितियों का सामना करते करते मैं सचमुच बूढ़ा हो गया हूं।मैं अपने आस पास तमाम लड़के लड़कियों को देखता हूं जो हमारी तरह झुंड में चलते हैं।हमारे साथ लड़कियां नहीं होती थीं।लड़कियों का झुंड अलग होता था। हालांकि स्कूल कालेज में हमारे साथ लड़कियां जरुर होती थीं,लेकिन उनसे संवाद की कोई स्थिति नहीं बन पाती थी।

देश ने अगर सचमुच तरक्की की है तो मेरे नजरिये से यह तरक्की आज की लड़कियों का अपने इर्द गिर्द चहारदीवारी तोड़ना है और हर क्षेत्र में उनकी सशक्त और सार्थक हिस्सेदारी है।

हम लोगों ने छात्र जीवन में कभी कैरियर नौकरी के बारे में सोचा नहीं था।हम पत्रकारिता,साहित्य और रंगकर्म के रंगों से रंगे हुए थे और हमें कुछ सोचने की फुरसत ही नहीं थी।हम कभी भी कहीं भी गिरदा की तरह झोला उठाकर चल देने की तैयारी में रहते थे।जिनका पत्रकारिता,साहित्य या रंगकर्म से नाता नहीं था,वे भी सूचना और जानकारी की कमी के बावजूद बुनियादी मुद्दों और ज्वलंत समस्याओं से जूझते थे।वे भी हमारी तरह बदलाव के ख्वाब देखते थे और देशभर में वे थे।जिनसे फेसबुक के बिना,मोबाइल के बिना हम तमाम लोगों का निरंतर संवाद जारी रहता था।

आज भी सामाजिक सरोकार और बुनियादी मुद्दों और ज्वलंत समस्याओं से आमना सामना करने वाले छात्र कम नहीं हैं बल्कि उनके साथ बेहद सक्रिय छात्राओं की बहुत बड़ी संख्या हैरतअंगेज हैं।

फिरभी ज्यादातर छात्र छात्राएं कैरियर और नौकरी को लेकर रात दिन बिजी हैं। तमाम परीक्षाओं प्रतियोगिताओं की तैयारी उनकी दिनचर्या है।उन्हें हंसने,सोचने या ख्वाब देखने की फुरसत नहीं है।उनका बचपन भी हमारे बचपन जैसा आजाद नहीं है।

फिरभी हमारे समय की तुलना में इस वक्त सैकड़ों गुणा छात्र छात्राएं कैरियर और नौकरी में कामयाबी के ख्वाब देखते हैं हालांकि बदलाव के ख्वाब भी वे देखते हैं।

पूरे छत्तीस साल पेशेवर पत्रकारिता में बिताने के बाद इन्हीं छह महीने की बेरोजगारी से इतनी तन्हाई है तो इन युवाजनों की बेरोजगारी की तन्हाई की सोचकर मैं भीतर से दहल जाता हूं।

ये हमारे ही बच्चे हैं।

ये ही हमारे भविष्य के निर्माता और उत्तराधिकारी हैं।

सबसे खतरनाक बात यह है कि सत्ता ने उनकी हंसी छीन ली है।

कैंपस में और कैंपस के बाहर हम उन्हें इस देश में उनकी मेधा और योग्यता के मुताबिक रोजगार और आजीविका न दे सकें,तो तरक्की का क्या मायने है,यह हमारी समझ से बाहर है।

ये बच्चे हमसे कहीं ज्यादा समझदार भी हैं और लगता नहीं है कि इनमें रोमानियत का वह जज्बा है,जो हम लोगों में था।हमारे वक्त जो प्रेम करते थे वे नापतौल कर गणित लगाकर प्रेम नहीं करते थे।अब प्रेम हो या विवाह,उसके लिए कैरियर नौकरी या व्यवसाय में कामयाबी बेहद जरुरी है।

कामयाब न हुए तो इन युवाजनों की जिंदगी में न दोस्ती संभव है,न प्रेम की कोई संभावना है और न विवाह या पारिवारिक जीवन की।

पहली नजर में मुहब्बत या आंखों आंखों में प्यार अब मुश्किल ही है।

प्यार और विवाह हो जाये तो दांपत्य मुश्किल है।

मुक्तबाजार में जरुरतें बेहिसाब हैं और उसके मुताबिक न आजीविका है और न रोजगार।क्रयशक्ति के लिए अपराध बढ़ रहे हैं।घरेलू हिंसा बढ़ रही है।घृणा,ईर्षा का महोत्सव है।गला काट प्रतियोगिता है।

हंसी गायब है।खुशी सिरे से गायब है।

कहीं कोई ठहाका नहीं लगा रहा है।

कही कोई खिलखिला नहीं रहा है।

कहीं कोई हंस नहीं रहा है।

कही कोई मुस्कुरा नहीं रहा है।

घर भी अब बाजार है।

संबंधों के लिए भी क्रयशक्ति अनिवार्यहै।

ये हमारे तमाम नाकाम बेरोजगार बच्चे तन्हाई में  जीने मरने को अभिशप्त हैं।

हम इस डिजिटल उपभोक्ता मुक्त बाजार का क्या करेंगे?

गौरतलब है कि हमारे ये काबिल पढ़े लिखे बच्चे असंगठित क्षेत्र के मजदूर य दिनभर की दिहाड़ी कमाने वाले मेहनतकश लोग नहीं हैं।

मुश्किल यह है कि जिन बच्चों को लाड़ प्यार से सबकुछ दांव पर लगाकर हम नौकरी और कैरियर की दौड़ में रेस का घोड़ा बना रहे हैं,वे बड़ी बड़ी डिग्रियां,डिप्लोमा हासिल करके अपनी मेधा,योग्यता और दक्षता के बावजूद बहुत तेजी से असंगठित मजदूरों के हुजूम में शामिल होते जा रहे हैं।

मेधा,योग्यता और दक्षता के बावजूद उनके लिए कहीं कोई अवसर नही हैं।

मेधा,योग्यता और दक्षता के बावजूद उनके लिए कही न रोजगार है और न आजीविका है।

मेधा,योग्यता और दक्षता के बावजूद वे नौकरी या कैरियर शुरु करने से पहले ही हमारी तरह रिटायर हैं।

निजीकरण,उदारीकरण और ग्लोबीकरण का नतीजा यह बेरोजगारी है।

विनिवेश और अबाध पूंजी प्रवाह,संसाधनों की खुली नीलामी का यह नतीजा है।

कारपोरेट अर्थव्यवस्था का यह नतीजा है।

मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था का हमने पिछले पच्चीस सालों के दौरान किसीभी स्तर पर विरोध नहीं किया है,उसका यही नतीजा है।

हमें उत्पादन प्रणाली के ध्वस्त हो जाने की कोई परवाह नहीं थी,जिसका यह नतीजा है।

हमने जंगलों और खेतों में हो रहे लगातार बेदखली और नरसंहारों का कभी विरोध नहीं किया है,जिसका यह नतीजा है।

हमने निजता और गोपनीयता,स्वतंत्रता,संप्रभुता और अपने नागिरक अधिकारों और मौलिक अधिकारों को बचाने के लिए कोई हरकत नहीं की है,जिसका यह नतीजा है।

अब जंगलों और खेतों,चायबागानों और कल कारखानों के बाद बैंकों और एटीएम से लाशें निकलने लगी हैं।फिरभी हम खामोश हैं।

अब डिजिटल लेनदेन के लिए हम अपनी आंखों की पुतलियों की तस्वीर और अपनी उंगलियों की छाप न जाने किसको किसको कितनी संख्या में बांटने को तैयार हैं।

डिजिटल लेनदेन का आधार आधार निराधार है।

हम खुशी खुशी कैशलैस फेसलैस इकानामी चुन रहे हैं।

हमारी इकोनामी में हमारी जान पहचान का कोई नहीं होगा।

हमारी इकोनामी में किसी मनुष्य का चेहरा नहीं होगा।

हम ब्रांड खरीदेंगे और बाजार में कंपनी राज होगा।

हमारे जो बच्चे रोजगार और आजीविका के लिए खुदरा बाजार पर निर्भर हैं,हमने उन्हें रातोंरात कबंध बना दिया है।

हाट बाजार के तमाम लोग अब कबंध हैं।

खेतों से लेकर बैंकों तक जो अंतहीन मृत्यु जुलूस है,वही अब भारतीय बाजार और अर्थव्यवस्था का रोजनामचा है।

2009 के लोकसभा के चुनाव से पहले हम गुजरात गये थे।गांधीग्राम से वापसी के रास्ते अमदाबाद से लेकर कोलकाता तक ट्रेनों में हमने उन मजदूरों को भारी तादाद में घर लौटते देखा जो वोट डालने घर लौट रहे थे।

2014 के चुनाव में भी मजदूर दूसरे राज्यों से वोट डालने,मोदी को चुनने ट्रेनों में भर भर कर घर लौटे।राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी ऐसा होता रहा है।

इसबार फिलहाल बंगाल बिहार में वोट नहीं है।यूपी पंजाब उत्तराखंड में चुनाव होने वाले हैं,मौजूदा हालात में कब चुनाव होंगे,पता नहीं है।लेकिन ट्रेनों में लदकर  देश के तमाम महानगरों और औद्योगिक कारोबारी क्षेत्रों से असंगठित क्षेत्र के मजदूर घर लौट रहे हैं क्योंकि करोडो़ं की तादाद में वे नोटबंदी की वजह से, कैसलैस पेसलैस इकोनामी की वजह से बेरोजगार हो गये हैं।

हमने पिछले दशक के दौरान देश में जहां भी गये,आते जाते ट्रेनों में हजारों की तादाद में बंगाल बिहार यूपी के तमाम बच्चों को नौकरी और आजीविका के लिए भागते देखा है।वह तादाद सरकारी नौकरियां लगभग खत्म हो जाने की वजह से अबतक दस बीस गुणा ज्यादा है।इनमें बंगाल के  मालदह मुर्शिदाबाद,नदिया,,24 परगना जैसे गरीब इलाकों के बच्चे जितने हैं,हुगली हावड़ा मेदिनीपुर वर्दवान जैसे खुशहाल जिलों के बच्चे उनसे कही कम नहीं हैं।

नोटबंदी का महीना बीतते न बीतते वे तमाम हाथ कटे पांव कटे कंबंध बच्चे सर से पांव तक लहूलुहान बच्चे घर लौट चुके हैं या लौट रहे हैं।

ये बच्चे भी आपके और हमारे बच्चे हैं।

नागरिकों की जान माल इस कैशलैस फेसलैस आधार निराधार इकोनामी में कितनी सुरक्षित है,किसी को कोई परवाह नहीं है।

हमने हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांच्यजन्य के ताजा में डिजिटल सुरक्षा को लेकर प्रकाशित मुख्य आलेख फेसबुक पर शेयर किया है।

इस आलेख के मुताबिक आप इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, आपके पास मेल एकाउंट है, सोशल साइट्स पर एकाउंट है, मोबाइल में एप्स हैं- तो समझिए कि आप घर की चाहारदीवारी में रहते हुए भी सड़क पर ही खुले में ही गुजर-बसर कर रहे हैं।आलेख में खुलकर डिजिटल सुरक्षा की खामियों की चर्चा की गयी है।

नोटबंदी से पहले लगातार चार महीने तक एटीएम,डेबिट और क्रेडिट कार्ड के पिन चुराये जा रहे थे और यह सब क्यों हुआ ,कैसे हुआ,न सरकार के पास और न रिजर्व बैंक के पास इसका कोई जवाब अभीतक है।बत्तीस लाख से ज्यादा कार्ड तत्काल रद्द भी कर दिये गये।

आज की ताजा खबर वाशिंगटन पोस्ट के हवाले से है।हैकर योद्धाओं के अंतरराष्ट्रीय संगठन लीजन ने राहुल गांधी ,विजय माल्या,बरखा दत्त और रवीश कुमार के ट्विटर एकाउंट का पासवर्ड तोड़कर उनपर कब्जी कर लिया।इस हैकर योद्धा संगठन का दावा है कि उसने भारत में चालीस हजार से ज्यादा संस्थाओं,प्रतिष्ठानों और निजी कंप्यूटर सर्वरों में मौजूद तमाम तथ्य और जानकारियां हैक कर ली है और इनमें अपोलो अस्पताल समूह से लेकर भारत की संसद तक शामिल है।

मीडिया के मुताबिक हाल के दिनों में पांच हाई प्रोफाइल ट्विटर अकाउंट हैक करने वाले ग्रुप का कहना है कि उसका अगला निशाना sansad.nic.inहै जो भारत के सरकारी कर्मचारियों को ईमेल सर्विस मुहैया कराती है. लीजन (Legion) नाम के इस ग्रुप के एक सदस्य ने यह भी दावा किया है कि उसकी पहुंच ऐसे सभी सर्वर्स तक हो गई है. इनमें अपोलो जैसे मशहूर अस्पताल भी शामिल हैं जहां तमिलनाडु की सीएम जयललिता का निधन हुआ था. लीजन इस वजह ने इन सर्वर्स का डाटा रिलीज नहीं कर रहा है क्योंकि ऐसा करने से देश में अफरातफरी मचने की आशंका है. इन हैकरों का यह भी दावा है कि भारत का डिजिटल बैंकिंग सिस्टम आसानी से साइबर हमले का शिकार हो सकता है.

लीजन के इस दावे के बाद देश की साइबर सिक्योरिटीको लेकर गंभीर होना लाजिमी है. इस ग्रुप ने पिछले दिनों इंडियन नेशनल कांग्रेस, कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी, बिजनेसमैन विजय माल्या, वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त और रवीश कुमार के ट्विटर अकाउंट हैक कर लिए थे. इससे पहले देश के एटीएम नेटवर्क के जरिये करीब 32 लाख डेबिट कार्ड हैक हुए थे. केवल भारत में ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों में हैकिंग की बड़ी घटनाएं इस साल सामने आई हैं. फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग, गूगल के सुंदर पिचाई और ट्विटर के सीईओ जैक दोरजी के सोशल मीडिया अकाउंट हैक हुए थे.

संघ परिवार के मुखपत्र के ताजा विशेष लेख में जो सवाल उठाये गये हैं,उसका लब्वोलुआब यही है कि  क्या हमारे पास डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर इतना दुरूस्त है कि हम आसानी और सुरक्षित तरिके से डिजिटल हो सकते हैं।

इस बारे में हम सिलसिलेवार लिख चुके हैं।

अब एचएल दुसाध ने भी लिखा हैः

खुद संघ उठा रहा है :कैशलेस व्यवस्था की सुरक्षा पर सवाल

पीएम मोदी के कैशलेस अर्थव्यवस्था की सुरक्षा को लेकर खुद संघ अब सवाल खड़ा करने लगा है.उसके मुखपत्र पांचजन्य ने अपने ताजे अंक के आवरण कथा में कैशलेस अर्थव्यवस्था की राह में सबसे बड़ी समस्या पेमेंट मैकेनिज्म की सुरक्षा बताया है.उसके हिसाब से भारत में इनका कोई अपना कोई सर्वर नहीं है ,सारा डाटा विदेशी सर्वर में जाता है इसलिए डाटा चोरी होने और निजता हनन की सम्भावना ज्यादा है.सीमा पार आतंकी अड्डों और सीमा के भीतर कालेधन पर सर्जिकल स्ट्राइक सरीखे कदमों के बाद भारत पर साइबर हमले का खतरा गहराते जा रहा है.अब युद्ध सीमा पर नहीं,बल्कि घरों के अन्दर लड़े जा रहे हैं,जो कई बार हथियारबंद युद्धों से ज्यादा खतरनाक और नुकसान पहुचाने वाले साबित होते हैं.'

संघ की भांति ही उसके आनुषांगिक संगठन भारतीय मजदुर संघ और स्वदेशी जागरण मंच ने भी कैशलेस अर्थव्यस्था की खामियों की ओर इशारा किया है.हद तो दैनिक जागरण के उप संपादक राजीव सचान ने किये है.सचान साहब शुरू में नोटबंदी के फैसले की खूब तरफदारी किये,पर शायद अब उनका धैर्य जवाब दे गया है.इसिलए आज के दैनिक जागरण में 'शेर की सवारी का सबक'शीर्षक से लेख लिखकर मोदी के नोटबंदी के फैसले को प्रायः विफल करार दे दिया है.बहरहाल खुद संघ से जुड़े लोग जिस तरह नोटबंदी के फैसले की खामियां गिनाने लगे हैं,आपलोगों में से कई मित्र शायद यह मान कर चल रहे होंगे कि नोटबंदी से यूपी का चुनाव मोदी के लिए वाटर लू साबित हो सकता है ,पर मैं इससे सहमत नहीं हूँ.इसीलिए कहता हूँ मोदी की नाभि में मारो सामाजिक न्याय का तीर.

The Indian Express की Computer hacking Legion के लिए कहानी चित्र

Legion cyber-attack: Next dump is sansad.nic.in, say hackers

The Indian Express-11 घंटे पहले

Barkha Dutt hacked, Barkha Dutt Twitter, Legion, Legion Hacking, Legion Hacked, Rahul Gandhi, Barkha Dutt hacking: Legion say they have ...

Legion hackers: Who are they and how they are hacking Indian ...

India Today-12/12/2016

Hacker group Legion calls Indian banking system deeply flawed

Economic Times-11 घंटे पहले

Legion says it will now hack government website sansad.nic.in

International Business Times, India Edition-7 घंटे पहले

The man hacking India's rich and powerful talks motives, music ...

अत्यधिक उल्लिखित-Washington Post-11/12/2016

Indian banks flawed, have been hacked several times: Legion

गहरा-Business Standard-7 घंटे पहले

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नोटबंदी से बैंकों का काम तमाम और अब राज्यों का खजाना खाली

#NarcissismWikipedia

#StatesDeprivedofRevenue

#LongLivetheKingPeoplemustDie

भारत की जनता की चुनी हुई सरकार पगला गयी है और यह किसी आत्ममुग्ध पागल तानाशाह का राजकाज है।

न संविधान है।न लोकतंत्र है।न कानून का राज है।न संसदीय प्रणाली है।न स्वतंत्रता है।न संप्रभुता है।न अवसर है।ऩ आजीविका है न रोजगार।न समता है न न्याय है।न सहिष्णुता है और न उदारता है।बहुप्रतचारित विविधता और बहुलता भी सिरे से गायब हैं नरसंहार संस्कृति में।सिर्फ घृणा और हिंसा का राजकाज।

अब यह देश को माफिया गिरोह की तरह टुकड़ा टुकडा़ बांट करके तबाह करने की राजनीति है।यह देश मृत्यु उपत्यका ही नहीं गैस चैंबर है।दम तोड़ रहे हैं लोग।लाशों से घिरे हुए हैं लोग लेकिन इस तिलिस्म का अंध राष्ट्रवाद कुछ और है।


पलाश विश्वास

इस देश को माफिया गिरोह की तरह टुकड़ा टुकडा़ बांट करके तबाह करने की राजनीति है।यह माफियाराज है।ग्रीक मिथकों के राजा नरसिस का राज है यह।

राजा नरसिस को जानने के लिए पढ़ेंः#NarcissismWikipedia

हम ग्रीक त्रासदी में आत्ममुग्ध अहंकारी  निरंकुश तानाशाह के बलिप्रदत्त प्रजाजन हैं तो हम ग्रीक अर्थव्वस्था की त्रासदी को भी मौज मस्ती में जी रहे हैं।

मुझे शुरु से ही यह कहने में कोई हिचक नहीं हुई कि मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था का अश्वमेधी नस्ली नरसंहारी अभियान है।

यह मैंने लगातार 1991 से ही सार्वजनिक सभाओं,सम्मेलनों,यूट्यूब पर कहा है और लिखा है।इसी वजह से कारपोरेट मीडिया की काली सूची में मैं हमेशा के लिए दर्ज हो गया और इसका मुझे कोई अफसोस नहीं है।

मैं जब अमेरिका से सावधान लिख रहा था पहले खाड़ी युद्ध से ही,तब भी प्रबुद्धजनों को लगा कि यह बकवास है।हमने तो सृजन से छुट्टी ले ली है,सृजनशील रचनाकारों ने समाज को अपनी प्रतिष्ठा और पुरस्कारों के बदले दिया क्या है।

नोटबंदी की शुरुआत से ही हम लिखते रहे हैं कि कालाधन बहाना है,कारपोरेट एकाधिकार के लिए कृषि के बाद व्यवसाय से भी आम जनता और खासतौर पर बहुजनों को बेदखल करके सत्तावर्ग का नस्ली वर्चस्व का यह हिंदुत्व का एजंडा है, जिसके लिए असली मकसद कैशलैस इंडिया के जरिये देश में फिर कंपनी राज बहाल करना है।

डिजिटल इंडिया का सीधा मतलब है अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली का विध्वंस और सत्तावर्ग से बाहर मेहनतकशों,बहुजनों और आम जनता का नस्ली नरसंहार।

नोटबंदी के बाद लगातार भारतीय बैंकों के अफसरों और कर्मचारियों से मेरी लगभग रोजाना बातचीत होती रही है।बैंकों को जानबूझकर दिवालिया बनाने और नानबैंकिंग कारपोरेट कंपनियों के हवाले करेंसी सौंपने के बारे में मैं वर्षों से लिख रहा हूं।नोटबंदी ने बैंकों में लोगों की आस्था खत्म कर दी है।

डा.अमर्त्यसेन,कौशिक बसु,अभिरुप सरकार जैसे तमाम अर्थशास्त्री चेता चुके हैं।दीपक पारेख,अरुंधती भट्टाचार्य और एब विमल जालान भी नोटबंदी पर बोलने लगे हैं और बैंकों की समस्याओं का खुलासा करने लगे हैं।

हम कोई अर्थशास्त्री नहीं हैं और न हम फिल्मस्टार हैं कि आप हमारी बात गौर से सुनेंगे।हम बैंकों के तमाम मित्रों को आगाह करते रहे हैं कि बैंकों को दिवालिया बनाकर उन तमाम बैंक अफसरों और कर्मचारियों का कत्लेआम है यह नोटबंदी।

अब बैंकों के घाटे का हजारों करोड़ के आंकड़े आने लगे हैं।लोग अब अपनी नौकरियां बचा लें,बैंक तो बचेंगे नहीं।मसलन

Public sector banks post net loss of Rs 17993 crore in last

Economic Times

Over 2000 Odisha cooperative banks incur losses

India Today

Sensex slips into red, bank, telecom lead losses

Daily News & Analysis

हमने जीवन बीमा निगम और भारतीय स्टेट बैंक के सत्यानाश का ब्यौरा पिछले बीस साल में बांग्ला,हिंदी और अंग्रेजी में सैकड़ों बार दिया है।

आप हमें पढ़ने की तकलीफ नहीं उठाते।फेसबुक पर हमें लाइक भले ही कर दें तो शेयर नहीं करते।हमारे ब्लाग आप पढ़ते नहीं।अखबार हमें छापते नहीं हैं।

हम क्या करें,हमारी समझ से बाहर है।

लिखने के दौरान पोस्ट करने से पहले एक एक लाइन पोस्ट करता हूं कि आपकी कोई प्रतिक्रिया मिल जाये तो ज्यादा जानकारी दे सकता हूं।जो कभी नहीं होता।

पोस्टआफिस और भारतीय स्टेट बैंक का बैंड बाजा बज गया तो भारतीय अर्थव्यवस्था के नाम पर बचेगा सिर्फ भालुओं और सांढ़ों का सर्कस शेयर बाजार।

बहराहाल नोटबंदी के पहले दिनेसे,हम शुरु से कह लिख रहे हैं कि भारत की जनता की चुनी हुई सरकार पगला गयी है और यह किसी आत्ममुग्ध पागल तानाशाह का राजकाज है।

न संविधान है।न लोकतंत्र है।न कानून का राज है।न संसदीय प्रणाली है।न स्वतंत्रता है।न संप्रभुता है।न अवसर है।ऩ आजीविका है न रोजगार।न समता है न न्याय है।न सहिष्णुता है और न उदारता है।बहुप्रतचारित विविधता और बहुलता भी सिरे से गायब हैं नरसंहार संस्कृति में।सिर्फ घृणा और हिंसा का राजकाज।

अब यह देश को माफिया गिरोह की तरह टुकड़ा टुकडा़ बांट करके तबाह करने की राजनीति है।यह देश मृत्यु उपत्यका ही नहीं गैस चैंबर है।दम तोड़ रहे हैं लोग।लाशों से घिरे हुए हैं लोग लेकिन इस तिलिस्म का अंध राष्ट्रवाद कुछ और है।

राज्यों का राजस्व खत्म हुआ जा रहा है।

नोटबंदी के बाद राज्यों का राजस्व आधा हो गया है।

जीएसटी पर सर्वदलीय सहमति है।

डीटीसी पर सर्वदलीय सहमति है।

कर सुधार पर सर्वदलीय सहमति है।

निजीकरण विनिवेश अबाध पूंजी पर सर्वदलीय सहमति है।

कंपनी राज पर सर्वदलीय सहमति है।

बिल्डर माफिया प्रोमोटर राज पर सर्वदलीय सिंडिकेट सहमति है।

सैन्यदमन और सलवा जुड़ुम पर सर्वदलीय सहमति है।

शोरशराबे की नौटंकी संसदीय प्रणाली है।

सुधारों पर सर्वदलीय सहमति है।

राज्य सरकारों और वहां सत्ता पर काबिज ओवरड्राप्ट पैकेज सत्ता के क्षत्रपों को कोई फिक्र नहीं है।उन्हें या कुनबा पालना है या उन्हें कैडर समृद्धि की परवाह है।मूर्तियां गढ़नी हैं।आम जनता किस खेत की मूली है।मूली का जबाव फिर गाजर है।

रोजगार नहीं है तो रोजगार के अवसर नहीं हैं और न रोजगार सृजन है।सिर्फ अंतहीन बेदखली है।अंतहीन विस्थापन है।अंतहीन पलायन है।वोट हैं,लेकिन नागरिक मानवाधिकार नहीं है।नागरिकता भी नहीं है।वोट हैं लेकिन मनुष्य नहीं है।

जीेएसटी लागू होने के बाद राज्य भारतीय बैंकों की तरह दिवालिया होने वाले हैं।अब कश्मीर और तमिलनाडु हमारे सामने हैं,जहां राजकाज केंद्र के पैसे से चलता रहा है।तमिलनाडु का मुख्यमंत्री चाहे कोई हो,केंद्र की सत्ता से नत्थी होना उसकी अनिवार्यता है।नये राज्यों का हाल यही होना है।उत्तराखंड,झारखंड और छत्तीसगढ़ समृद्ध हैं तो वहां सबसे ज्यादा लूटखसोट है।उनकी अकूत प्राकृतिक संपदा की खुली लूट है और जनता दाने दाने को मोहताज बेरोजगार या बेदखल हैं।अंतहीन पलायन है।

इसी तरह कश्मीर में आजादी के बाद से तमाम सरकारें केंद्र की सत्ता से नत्थी रही है।इन दो बड़े राज्यों के अलावा असम को छोड़कर पूर्वोत्तर के सभी राज्यों का यही हाल है।पांडिचेरी और गोवा का भी यही हाल है।

दिल्ली में सरकार किसी की हो,वहां राजकाज केंद्र का होता है।

यूपी बंगाल और बिहार जैसे राज्यों में केंद्र के पैकेज के लिए मारामारी है।केंद्र से ओवरड्राफ्ट लेकर राज्यों की सरकारें चल रही हैं।वेतन भत्ता का टोटा है।कैडर कोटा है।

देश के संघीय ढांचे  को तहस नहस कर दिया गया है।

राज्यों के क्षत्रप इसके खिलाफ कभी प्रतिरोध नहीं कर सकते।

अब यह देश को माफिया गिरोह की तरह टुकड़ा टुकडा़ बांट करके तबाह करने की राजनीति है।यह देश मृत्यु उपत्यका ही नहीं गैस चैंबर है।दम तोड़ रहे हैं लोग।लाशों से घिरे हुए हैं लोग लेकिन इस तिलिस्म का अंध राष्ट्रवाद कुछ और है।


राजनीतिक समीकरण साधने के लिए वे चाहे राजनीति जो करें,राज्यों का राजकाज केंद्र की मदद के बिना नहीं चल सकता।

सही मायने में भारत में राज्य सरकारें केंद्र की बंधुआ सरकारों में तब्दील हैं और इसी वजह से मुक्तबाजारी अश्वमेधी अभियान इतना निरंकुश हैं।

केंद्र की निरंकुश सरकार गिरायी नहीं जा सकती क्योंकि क्षत्रप पिछवाड़ा उठाये हुए हैं।राजनीतिक अस्थिरता है लेकिन कायदा कानून क्षत्रपों के समर्थन से लगातार बेरोकटोक बदल रहे हैं।जनविरोधी कानीन इसीतरह बन रहे हैं।लागू भी हो रहे हैं।

यही हमारा संघीय ढांचा है।लूटखसोट डकैती का स्थाई बंदोबस्त।

जो क्षत्रप केंद्र की मदद के बिना सरकार नहीं चला सकते,वे जनता के हक हकूक के लिए केंद्र से पंगा कैसे लेंगे,समझने वाली बात है।

फिर ये तमाम क्षत्रप दूध के धुले भी कतई नहीं हैं,जिस वजह से सींग चाहे कितनी तेज हों,इन सबकी नकेल केंद्र के हाथ में है।

भ्रष्टाचार के मामलों में केद्रीय जांच एंजसियों खासकर सीबीआई का इस्तेमाल संघ राज्य संबंध और देश के संघीय ढांचे के चरित्र का पैमाना है।सौदेबाजी के तहत सत्ता समीकरण बनाये ऱखना ही संघीय ढांचा है अब।

इतने सारे मामले चल रहे हैं,इतने आरोप प्रत्यारोप हैं,लेकिन क्षत्रपों और उनके अनुयायियों पर कभी कोई छापा जैसे अबतक नहीं पडा़ है,नोटबंदी में कालाधन की तलाश करने वाले रैडर के दायरे के बाहर हैं सारे क्षत्रप और उनके तमाम कमांडर,यह हैरतअंगेज है।

इंडिया टुडे का स्टिंग आपरेशन में दिखाया गया है कि कैसे अकेले गाजियाबाद और नोएडा में क्षत्रपों के यहां कालाधन सफेद करने का खुल्ला खेल फर्ऱूखाबादी चल रहा है।चालीस फीसद कमीशन पर खास दिल्ली की गोद में जब जिला स्तर के क्षत्रप सिपाहसालार दस दस करोड़ का कालाधन सफेद कर रहे हैं तो देश भर में रोजाना करोंडों की नकदी और सोना वगैरह वगैरह बरामद करने वाली सेना की नजर में या गिरफ्त में कोई क्षत्रप या उनका कोई अनुयायी उसीतरह नहीं है जैसे नोटबंदी से पहले तमाम पूंजी पति,उद्योगपति और सत्ता दल से संतरी से लेकर सिपाहसालार को कालाधन सफेद करने का आजादी मिली हुई है।

यानी सीधे तौर पर कालेधन के खिलाप इस मुहिम का राजनेता वर्ग पर कोई असर जैसे नहीं है,वैसे ही पूंजीपति वर्ग पर भी कोई असर नहीं है।सभी भाई बिरादर हैं।मंच पर एकदम फिटमफिट अभिनय कर रहे हैं और किसी का कुछ बिगड़ नहीं रहा है।

जनता दिलफरेब नारों से मदहोश है और नशाखुरानी बेरोकटोक है।

आयकर में छूट देने का गाजर बजट से पहले फिर लटकाया गया है ताकि वेत और पेंशन न मिलने से नाराज सफेदकालर दो करोड़ पढ़ेलिखे लोग बाग बाग हो जाये कि जैसे आडवाणी को जुबान खोलते न खोलते संघ परिवार राष्ट्रपति पद की पेशकश करने लगा है,वैसे ही उन्हें भी घर में टैक्स में छूट की वजह से ज्यादा रकम वापस लाने की आजादी मिलने वाली है।भले ही बैंकों एटीेम की कतार में जान चली जाये।

जिन्हें टैक्स माफी देनी है ,उन्हें अरबों का फायदा हो ही चुका है।

जिन्हें साठ फीसद आयकर देना था,वे नोटबंदी से पहले  30 सितंबर तक कालाधन बताकर पैंतालीस फीसद टैक्स कुल देकर सफेद धन वाले हो गये।यानी पंद्रह प्रतिशत आयकर में छूट।सरचार्ज और पेनाल्टी माफ।

नोटबंदी के बाद बाकी लोगों को कालाधन के एवज में पैंतालीस फीसद से कम कुल टैक्स आयकर, सरचार्ज,पेनाल्टी मिलाकर पचास फीसद टैक्से देना है साठ फीसद सिर्फ आयकर के बदले दस फीसद टैक्स छूट के साथ।आम जनता भले ही सफेद धन के लिए साठ फीसद तक टैक्स भरती रहे,कालाधन के लिए आम माफी आम है।

नोटबंदी का यह खेल दरअसल कालाधन आम माफी योजना का सेल है,पचास फीसद तक छूट।

अब आप हिसाब जोड़ते रहें कि बजट में दस बीस पचास हजार तक की सीमा बढ़ने से आपको कितने करोड़ या अरब रुपयों का फायदा होना है,जो बड़े खिलाड़ियों को अब तक हो चुका है।

उनका लाखों करोड़ का कर्ज माफ।बैंकों को चूना।किसानों की थोक आत्मह्त्या।

उनका लाखों करोड़ का टैक्स हर साल माफ।टैक्स फारगन।बजट घाटे में।

उनको विदेशों में आपके इकलौते दो हजार के नोट के मुकाबले अरबों डालरषअरबों पौंड के निवेश की छूट बदले में देश में निवेश शून्य।

अनुदान सब्सिडी प्रावधान में कटौती और उनको हर सेक्टर में लाखों करोड़ की मुनाफावसूली का चाकचौबंद इंतजाम।

खुले बाजार की कैशलेस फेसलेस डिजिटलइकोनामी में आम लोगों के सफाया के बाद उनकी कंपनियों की मोनोपाली।

शेयर बाजार के उछलकूद में करोड़ों आम निवेशकों की जेबें खाली और सारी अरबों अरबों की मुनाफावसूली उन्हीं की।उन्ही की बारह मास दिवाली होली।

अब आप हिसाब जोड़ते रहे कि ऐसे सुनहले दिनों की सरकार के राजकाज में आयकर छूट से आप कितने करोड़,कितने अरब उनकरे एकराधिकार बाजार में खरीददारी के लिए बचा लेंगे।

कृपया इस खबर पर गौर करेंः

जीएसटी पर तलवार लटकती नजर आ रही है। तृणमूल कांग्रेस नोटबंदी का जबरदस्त विरोध कर रही है। आपको बता दें कि ये वही क्षेत्रीय पार्टी है जिसने सबसे पहले जीएसटी का समर्थन किया था। नोटबंदी से क्यों अटक सकता है जीएसटी इसके बारे में सीएनबीसी-आवाज़ ने बात की पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्रा से।


पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्रा का कहना है कि जीएसटी से 5 साल के लिए वित्तीय अस्थिरता की आशंका थी, फिर भी हमने जीएसटी का पूरा समर्थन किया। लेकिन अब नोटबंदी से दूसरा झटका लगा है, और इससे राज्य की आमदनी घट गई है। नोटबंदी राज्यों के लिए जीएसटी से भी बड़ा झटका है।


अमित मित्रा के मुताबिक राज्य जीएसटी के बाद नोटबंदी का दोहरा झटका नहीं सह पाएंगे। नोटबंदी से राज्यों की कर वसूली कम हो जाएगी। अमित मित्रा ने ये भी कहा कि जीएसटी में काउंसिल लगातार नए बदलाव कर रही है, ऐसे में अगली बैठक में जीएसटी पर चर्चा संभव है।


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#कैशलैसइंडियाडिजिटलइंडियामेंसाइबरसुरक्षा की गारंटी क्या देंगे नानबैंकिंग कंपनियों के सुपरमाडल? किसी भी वक्त बेदखल होने वाले तथ्यों और आंकडो़ं की आभासी जमीन अब हमारी जिंदगी और अर्थव्यवस्था है।बाकी मरघट है।मृत्यु महोत्सव है।नरमेध यज्ञ। संसदीय नौटंकी के अलावा नोटबंदी की आग से साबूत सही सलामत बचे राजनेताओं,पत्रकारों,बुद्धिजीवियों,नौकरीपेशा लोगों,डाक्टरों,वकीलों,पेशेवर प�

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#कैशलैसइंडियाडिजिटलइंडियामेंसाइबरसुरक्षा की गारंटी क्या देंगे नानबैंकिंग कंपनियों के सुपरमाडल?

किसी भी वक्त बेदखल होने वाले तथ्यों और आंकडो़ं की आभासी जमीन अब हमारी जिंदगी और अर्थव्यवस्था है।बाकी मरघट है।मृत्यु महोत्सव है।नरमेध यज्ञ।

संसदीय नौटंकी के अलावा नोटबंदी की आग से साबूत सही सलामत बचे राजनेताओं,पत्रकारों,बुद्धिजीवियों,नौकरीपेशा लोगों,डाक्टरों,वकीलों,पेशेवर पढ़े लिखे लोगों,शिक्षकों,प्रोफेसरों,रंगकर्मियों,फिल्म स्टारों, कलाकारों, अर्थशास्त्रियों, सिद्धांतकारों, स्वेदेशियों,तमाम वाद विवादियों,सामाजिक कार्यकर्ताओं और सत्तावर्ग से संतरी से सिपाहसालारों,देश विदेस में अरबों का कारोबार करने वालों,अरबों का मुनाफावसूली करने वालों और चुने हुए रंग बिरंगे जनप्रतिनिधियों को करोड़ों की तादाद में बिना मौत मरनेवालों की कितनी परवाह है और मृत्यु अंकगणित बीजगणित त्रिकोणमिति सांख्यिकी में वे कितने दक्ष और पारंगत हैं,यक्षप्रश्न अब एकमात्र यही है।

पलाश विश्वास


सबसे ताजा फतवा है कि राशन भी कैशलैस होगा और स्कूल भी कैशलैस होंगे।फतवे अब तरह तरह के चित्र विचित्र हैं।केसरिया भूगोल में भूंकप के झटके हैं फतवे ।मसलन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कैशलेस इकॉनमी के बनाने के सपने को बढ़ावा देते हुए हरियाणा की बीजेपी सरकार ने अपने ऑफिस स्टाफ के लिए नया आदेश जारी किया है। हरियाणा की खट्टर सरकार के आदेश के मुताबिक, कर्मचारियों को अगले सात दिनों में एक बार मोबाइल फोन से डिजिटल ट्रांजेक्शन करनी होगी और इसका सबूत भी सब्मिट करना होगा।फतवों की बाहर दखते रहिये।

दिहाड़ी कैशलैस हो जाने से देश के करोड़ों मेहनतकशों के घरों में चूल्हा सुलगना बंद है।न धुआं है और न आग है।जल रहा है दिलोदमिाग।जल रहा है इंसानियत का वजूद।जल रही है,जलकर खाक हो रही है कायनात।

महाभारत का अंतिम संस्कार पर्व चल रहा है।जलती हुई चिताओं से,बढ़ते हुए कब्रिस्तान से बेखबर हैं और खबरदार भी हैं तो मदहोश हैं देशभक्त राष्ट्रवादी पढ़े लिखे पाखंडियों की रंगबिरंगी उपभोक्ता फौजें।जिनके दम से यह कत्लेआम पिछले पच्चीस साल से जारी हैंं।जो नख से शिख तक अपने स्वजनों के खून से लबालब हैं।यही ताजा फैशन है।हर छिद्र से आवाजें आ रही हैं भोग के परमानंद की।नरमेध महोत्सव है।

बैंकों और एटीएम में लाशों की गिनती करने वाले गांव देहात जनपदों में लाशों के अंबार पर तनिक नजर डालें।अभी अम्मा के शोक में तमिलनाडु में सात सौ ज्यादा मौतों की खबर है तो समझ लीजिये कि नोटबंदी में कुल मरने वाले कितने होंगे।

संसदीय नौटंकी के अलावा नोटबंदी की आग से साबूत सही सलामत बचे राजनेताओं,पत्रकारों,बुद्धिजीवियों,नौकरीपेशा लोगों,डाक्टरों,वकीलों,पेशेवर पढ़े लिखे लोगों,शिक्षकों,प्रोफेसरों,रंगकर्मियों,फिल्म स्टारों, कलाकारों, अर्थशास्त्रियों, सिद्धांतकारों, स्वेदेशियों,तमाम वाद विवादियों,सामाजिक कार्यकर्ताओं और सत्तावर्ग से संतरी से सिपाहसालारों,देश विदेस में अरबों का कारोबार करने वालों,अरबों का मुनाफावसूली करने वालों और चुने हुए रंग बिरंगे जनप्रतिनिधियों को करोड़ों की तादाद में बिना मौत मरनेवालों की कितनी परवाह है और मृत्यु अंकगणित बीजगणित त्रिकोणमिति सांख्यिकी में वे कितने दक्ष और पारंगत हैं,यक्षप्रश्न अब एकमात्र यही है।

किसी भी वक्त बेदखल होने वाले तथ्यों और आंकडो़ं की आभासी जमीन अब हमारी जिंदगी और अर्थव्यवस्था है।

बाकी मरघट है।मृत्यु महोत्सव है।नरमेध यज्ञ।

याहू के एक बिलियन खाते हैक हो गये हैंं।

हैकिंग अब दाल भात की तरह प्रचलन में है।

मसलन अमेरिकी इंटेंलिजेंस अधिकारियों का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के कैंपेन के दौरान हुई हैकिंग में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन खुद शामिल थे। रिपोर्ट्स के मुताबिक पुतिन ने खुद निर्देश दिए थे कि हैकिंग को कैसे अंजाम देना है और इसे कैसे इस्तेमाल करना है।  

भारत में नागरिक सवा बिलियन से कुछ कम बेशी है।

समीकरण साधने वाले बतायें कि आधार नंबर एक बिलियन भी जारी हुए तो पेटीएम मार्फत हैक होने में कितना वक्त लगेगा।

जिस पेटीएम का सुपर माडल राष्ट्रीय नेतृत्व है।जिसे रोजाना सवा अरब लोगों के लेनदेन का ढाई प्रतिशत ठेका है और कुल रकम मुनाफावसूली की कितनी है,किस किसकी मुनाफावसूली है,उसका भी हिसाब जोड़कर बतायें।

इस पेटीएम पर गौरतलब है कि फ्राड का महाभियोग भी है।

जिसकी महिमा से बैंकिंग का काम तमाम।

अर्थव्यवस्था खत्म और उत्पादन प्रणाली भी खत्म।

पेटीएम नेट बैंकिंग करने से पहले गौर करें कि कमीशन देकर ,नकदी के बदले आप कितना बड़ा जोखिम किसके फायदे के लिए उठा रहे हैं।

आधार नंबर निराधार के आधार यह डिजिटल लेनदेन किसानों और कारोबारियों का कत्लेआम ही नहीं कर रहा है ,यह दिनदहाड़े आपकी जेबें काटने का चाकचौबंद इंतजाम है और यही हिंदुत्व का असल कारपोरेट मुनाफावसूली का एजंडा है।

#कैशलैसइंडिया के 130 करोड़ लोग सौ रुपए रोजाना खर्च करें तो वह रकम कितनी होगी?

#हरसौरुपयेपरपेटीएमकाकमीशनढाई रुपयेतो रोजाना इस लेनदेन बाबत पेटीएम को कितना मिलेगा?

#पेटीएमसेकिसकोकितना फायदा?

#नकदलेनदेन मे सौ का नोट 130 करोड़ बार चलन में होगा तो आपके जेब से कितना कमीशन जाएगा?

#कैशलैसइंडियाडिजिटलइंडियामेंसाइबर सुरक्षासुरक्षा की गारंटी क्या देंगे नानबैंकिंग कंपनियों के सुपरमाडल?

इंडियन एक्सप्रेस की ताजा खबर पर मुलाहिजा फरमायें

Yahoo confirms one billion accounts hacked: Here's what happened

Yahoo says over one billion accounts hacked in new data breach discovered from 2013. Here are all the details


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न संविधान है।न लोकतंत्र है।न कानून का राज है।न संसदीय प्रणाली है।न स्वतंत्रता है।न संप्रभुता है।न अवसर है।ऩ आजीविका है न रोजगार।न समता है न न्याय है।न सहिष्णुता है और न उदारता है।बहुप्रचारित विविधता और बहुलता भी सिरे से गायब हैं नरसंहार संस्कृति में।सिर्फ घृणा और हिंसा का राजकाज।

अब यह देश को माफिया गिरोह की तरह टुकड़ा टुकडा़ बांट करके तबाह करने की राजनीति है।यह देश मृत्यु उपत्यका ही नहीं गैस चैंबर है।दम तोड़ रहे हैं लोग।लाशों से घिरे हुए हैं लोग लेकिन इस तिलिस्म का अंध राष्ट्रवाद कुछ और है।

#कैशलैसइंडिया के 130 करोड़ लोग सौ रुपए रोजाना खर्च करें तो वह रकम कितनी होगी?

#हरसौरुपयेपरपेटीएमकाकमीशनढाईरुपये तो रोजाना इस लेनदेन बाबत पेटीएम को कितना मिलेगा?किसकिसको कितना मिलेगा?

#पेटीएमसेकिसकोकितना फायदा?

#नकदलेनदेन मे सौ का नोट 130 करोड़ बार चलन में होगा तो आपके जेब से कितना कमीशन जाएगा?

ताजा खबर यह है कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेप्सिको की चेयरमैन इंदिरा नूयी को अपनी स्ट्रेटेजिक एंड पॉलिसी फोरम में शामिल किया है। नूयी आर्थिक एजेंडे को लागू करने में सहयोग प्रदान करेंगी। फोरम का नेतृत्व निवेश कंपनी ब्लैकस्टोन के सीईओ स्टीफन स्वार्जमान कर रहे हैं और इसमें जेनरल इलेक्ट्रीक के पूर्व सीईओ जैक वेल्च, स्पेस एक्स और टेसला के सीईओ एलोन मुस्क, उबर के सीईओ कालानिक, चेज के जैमी डिमॉन और जेनरल मोटर्स के सीईओ मैरी बारा शामिल हैं।

भारत अमेरिकी रणनीतिक समीकरण के मुक्तबाजार में ग्लोबल हिंदुत्व की फिजां में मोदी ट्रंप युगलबंदी का रसायन कैसे बन रहा है,डिजिटल कैसलैस इंडिया के अंध राष्ट्रवादियों इसपर भी जरा नजर रखना राष्ट्रहित में।



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नोटबंदी: संदिग्ध फायदे, निश्चित नुकसान.आनंद तेलतुंबड़े बता रहे हैं कि किस तरह नोटबंदी के फैसले ने लोगों के लिए अभूतपूर्व परेशानियां खड़ी की हैं और यह भाजपा के लिए वाटरलू साबित होनेवाली है.

Next: भारतीय रिजर्व बैंक की हत्या और अर्थव्यवस्था के लिए मौत की घंटी लाटरी आयोग कर रहा है नीति निर्धारण और वित्तीय प्रबंधन नोटंबंदी में हस्तक्षेप करने से सुप्रीम कोर्ट का इंकार,संसद में कोई चर्चा नहीं जन प्रतिनिधि अब ब्रांड एंबेसैडर, माडल सुपरमाडल,सेल्स एजंट सुपर भारतीय रिजर्व बैंक नकदी का वायदा पूरा नहीं कर पा रहा है,इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक मर गया है या उसकी हत्या क
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नोटबंदी: संदिग्ध फायदे, निश्चित नुकसान




आनंद तेलतुंबड़े बता रहे हैं कि किस तरह नोटबंदी के फैसले ने लोगों के लिए अभूतपूर्व परेशानियां खड़ी की हैं और यह भाजपा के लिए वाटरलू साबित होनेवाली है. अनुवाद: रेयाज़ उल हक
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 500 और 1000 रुपए के करेंसी नोटों को बंद करने के फैसले से होने वाली तबाही और मौतों की खबरें पूरे देश भर से आ रही हैं. एक ऐसे देश में जहां कुल लेनदेन का 97 फीसदी नकदी के ज़रिए किया जाता है, कुल करेंसी में से 86.4 फीसदी मूल्य के नोटों को अचानक बंद करने से अफरा-तफरी पैदा होना लाजिमी था. अभी तक 70 मौतों की खबरें आ चुकी हैं. पूरी की पूरी असंगठित अर्थव्यवस्था ठप पड़ी हुई है, जो भारत की कुल कार्यशक्ति के 94 फीसदी और सकल घरेलू उत्पाद का 46 फीसदी का हिस्सेदार है. पहले से बदहाली झेल रही ग्रामीण जनता इस बात से डरी हुई है कि उसके बचाए हुए पैसे रद्दी कागज में तब्दील हो रहे हैं. उनमें से कइयों ने तो कभी बैंक का मुंह भी नहीं देखा है. बैंकों के बाहर अपनी खून-पसीने की कमाई को पकड़े हुए लोगों की लंबी कतारें पूरे देश भर में देखी जा सकती हैं. मध्य वर्ग और मोदी भक्तों की शुरुआती खुशी हकीकत की कठोर जमीन पर चकनाचूर हो गई. लेकिन अब तक की सबसे कठोर टिप्पणी मनमोहन सिंह की ओर से आई है, जिनके पास रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर, पूर्व वित्त मंत्री और दो बार पूर्व प्रधानमंत्री रहने के नाते मोदी के इस तुगलकी फरमान का जायजा लेने के लिहाज से एक ऐसी साख है जो और किसी के पास नहीं है. उन्होंने नोटबंदी के इस कदम को "भारी कुप्रबंधन"कहा और इसे "व्यवस्थित लूट और कानूनी डाके"का मामला बताते हुए राज्य सभा उन्होंने कहा कि यह देश के जीडीपी को दो फीसदी नीचे ले जाएगा. ऐसा कहने वाले वे अकेले नहीं हैं. अर्थशास्त्रियों, जानकारों और चिंतकों की एक बड़ी संख्या ने भारत की वृद्धि में गिरावट की आशंका जताई है. उनमें से कुछ ने 31 मार्च 2017 को खत्म हो रही छमाही के लिए इसमें 0.5 फीसदी गिरावट आने का अनुमान लगाया है. लेकिन आत्ममुग्ध मोदी पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ेगा, उल्टे वह उन सभी लोगों को राष्ट्र-विरोधी बता देंगे जो इस तबाही लाने वाले कदम पर सवाल उठा रहे हैं. यह सब देख कर सैमुअल जॉनसन की वह मशहूर बात याद आती है कि देशभक्ति लुच्चे-लफंगों की आखिरी पनाहगाह होती है.

इस अजीबोगरीब दुस्साहस के असली मकसद के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं है. यह उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और मणिपुर में आनेवाले चुनावों के लिए उनकी छवि को मजबूत करने के लिए चली गई एक तिकड़म थी. चुनाव के पहले किए गए सभी वादे अधूरे हैं, तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक समेत उनके सभी कदम बुरी तरह नाकाम रहे हैं, जनता खाली जुमलेबाजियों और बड़बोलेपन से ऊब गई है. ऐसे में अब कुछ नाटकीय हरकत जरूरी थी. विपक्षी दल चुनावों के दौरान जनता को मोदी के इस चुनावी वादे की याद जरूर दिलाते कि उन्होंने 100 दिनों के भीतर स्विस बैंकों में जमा सारा गैरकानूनी धन लाकर हरेक के खाते में 15 लाख रुपए डालने की बात की थी. यह कार्रवाई यकीनन इस दलील की हवा निकालने के लिए और यह दिखाने के लिए ही की गई कि सरकार अर्थव्यवस्था को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए साहसिक कदम उठाने की ठान चुकी है. अफसोस कि इसने पलट कर उन्हीं को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया. इसने लोगों के लिए जैसी अभूतपूर्व परेशानियां खड़ी की हैं, उससे यह बात पक्की है कि इससे भाजपा को आने वाले चुनावों में भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. भले ही वह विपक्षी दलों की जमा नकदी को रद्दी बना देने और इस तरह उन्हें कमजोर करने में कामयाब रही है.

जाली अर्थव्यवस्था

मोदी ने गैरकानूनी धन और भ्रष्टाचार पर चोट करने, नकली नोटों के नाकाम करने और आतंक पर नकेल कसने का दावा किया है. अब तक अनेक अर्थशास्त्रियों ने इन दावों की बेईमानी को बखूबी उजागर किया है. जैसा कि छापेमारी के आंकड़े दिखाते हैं, आय से अधिक संपत्तियों में नकदी का हिस्सा महज 5 फीसदी है. इनमें जेवर भी शामिल हैं जिनका हिसाब नकदी के रूप में लगाया जाता है. अगर नोटबंदी का कोई असर पड़ा भी तो इससे गैरकानूनी धन का बहुत छोटा सा हिस्से प्रभावित होगा. यह थोड़ी सी नकदी अमीरों के हाथ में होती है, जो इसका इस्तेमाल गैर कानूनी धन को पैदा करने और चलाने वाली विशालकाय मशीन के कल-पुर्जों में चिकनाई के रूप में करते हैं. गैरकानूनी धन असल से कम या ज्यादा बिलों वाली विदेशी गतिविधियों (बिजनेसमेन), किराए, निवेश और बॉन्ड आदि गतिविधियों (राजनेता, पुलिस, नौकरशाह) और आमदनी छुपाने के अनेक तरीकों (रियल एस्टेट कारोबारी, निजी अस्पताल, शिक्षा के सेठ) के जरिए बनाया जाता है. इस धन को कानूनी बनाने के अनेक उपाय हैं, जिनका इस्तेमाल करते हुए छुटभैयों (कागजों पर चलने वाली अनेक खैराती संस्थाएं यही काम करती हैं) से लेकर बड़ी मछलियां तक करों की छूट वाले देशों के जरिए भारत में सीधे विदेशी निवेश के रूप में वापस ले आती हैं. गैर कानूनी धन पैदा करने और चलाने के इन उपायों पर नोटबंदी का कोई असर नहीं पड़ेगा.

नोटबंदी से नकली नोटों की समस्या पर काबू पाया जा सकता है, अगर यह उतनी बड़ी समस्या हो. लेकिन कोलकाता स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई) की रिपोर्ट के मुताबिक जितनी करेंसी चलन में है, उसका महज 0.002 फीसदी मूल्य के नोट यानी 400 करोड़ रुपए ही नकली नोटों में हैं, जो इतने ज्यादा नहीं है कि उनसे अर्थव्यवस्था की सेहत पर कोई असर पड़े. आईएसआई रिपोर्ट में कभी भी नकली नोटों से निजात पाने के लिए नोटबंदी का सुझाव नहीं दिया. अगर सरकार को नकली नोटों की चिंता थी, तो नोटबंदी के बाद आने वाले नए नोटों में सुरक्षा के बेहतर उपाय होते. लेकिन ऐसा भी नहीं किया गया. रिजर्व बैंक ने खुद कबूल किया है कि 2000 के नए नोटों को बिना किसी अतिरिक्त सुरक्षा विशेषता के ही जारी किया जा रहा है. आतंकवादियों के पैसों की दलील पूरी तरह खोखली है. अगर आतंकवादियों के पास नकदी हासिल करने का कोई ज़रिया है, तो वे नए नोटों से निबटने के रास्ते भी उनके पास होंगे. इस तरह नोटबंदी के पीछे मोदी के आर्थिक दावे पूरी तरह धोखेबाजी हैं. इसके अलावा नए नोटों को छापने पर अंदाजन 15,000-18,000 करोड़ रुपए का खर्च अलग से हुआ और फिर हंगामे से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान भी हुआ और यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब हालात स्थिर नहीं होते.

'स्वच्छ भारत' 

शगूफे छोड़ते हुए मोदी ने नोटबंदी के फैसले को अपने स्वच्छ भारत अभियान से जोड़ दिया, जबकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि इस अभियान का भी कोई खास नतीजा नहीं निकल पाया है. अगर उन्होंने इस अभियान पर खर्च होने वाली कुल रकम का आधा भी भारत को रहने के लायक बनाने वाले दलितों को दे दिया होता तो बहुत कुछ हासिल किया जा सकता था. लेकिन जहां दलितों द्वारा मैला ढोने की प्रथा के खात्मे की मांग के लिए संघर्ष जारी है, मोदी अपने स्वच्छ भारत का ढोल पीट रहे हैं. वे भारत को भ्रष्टाचार और गंदे धन से मुक्त कराने का दावा करते हैं. उनके सत्ता में आने के लिए वोट मिलने की वजहों में से एक संप्रग दो सरकार के दौरान घोटालों की लहर भी थी, जिसका कारगर तरीके से इस्तेमाल करते हुए उन्होंने देश को पारदर्शी बनाने और 'बहुत कम सरकारी दखल के साथ अधिकतम प्रशासन'का वादा किया था. वे अपना आधा कार्यकाल बिता चुके हैं और उनके शासन में ऊंचे किस्म के भ्रष्टाचार की फसल भरपूर लहलहाती हुई दिख रही है. भ्रष्टाचार के मुहाने यानी राजनीतिक दल अभी भी अपारदर्शी हैं और सूचना का अधिकार के दायरे से बाहर हैं. 'पनामा लिस्ट'में दिए गए 648 गद्दारों के नाम अभी भी जारी नहीं किए गए हैं. उनकी सरकार ने बैंकों द्वारा दिए गए 1.14 लाख करोड़ रुपए के कॉरपोरेट कर्जों को नन परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) कह कर माफ कर दिया है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए 11 लाख करोड़ है, लेकिन कॉरपोरेट लुटेरों के खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं की जा रही है. कॉरपोरेट अरबपतियों का सीधा कर बकाया 5 लाख करोड़ से ऊपर चला गया है, लेकिन मोदी ने कभी भी इसके खिलाफ ज़ुबान तक नहीं खोली. पिछले दशक के दौरान उनको करों से छूट 40 लाख करोड़ से ऊपर चली गई, जिसकी सालाना दर मोदी के कार्यकाल के दौरान 6 लाख करोड़ को पार कर चुकी है, जो संप्रग सरकार के दौरान 5 लाख करोड़ थी. मोदी अपने आप में कॉरपोरेट भ्रष्टाचार के भारी समर्थक रहे हैं, जो गैरकानूनी धन का असली जन्मदाता है.

यहां तक कि यह भी संदेह किया जा रहा है कि नोटबंदी में भी भारी भ्रष्टाचार हुआ है. इस फैसले को लेकर जो नाटकीय गोपनीयता बरती गई, वह असल में लोगों को दिखाने के लिए थी. इस फैसले के बारे में भाजपा के अंदरूनी दायरे को पहले से ही पता था, जिसमें राजनेता, नौकरशाह और बिजनेसमेन शामिल हैं. इसको 30 सितंबर को खत्म होने वाली तिमाही के दौरान बैंकों में पैसे जमा करने में आने वाली उछाल में साफ-साफ देखा जा सकता है. खबरों के मुताबिक भाजपा की पश्चिम बंगाल ईकाई ने घोषणा से कुछ घंटों पहले अपने बैंक खाते में कुल 3 करोड़ रुपए जमा किए. एक भाजपा नेता ने नोटबंदी के काफी पहले ही 2000 रु. के नोटों की गड्डियों की तस्वीरें पोस्ट कर दी थी और एक डिजिटल पेमेंट कंपनी ने 8 नवंबर 2016 की रात 8 बजे होने वाली घोषणा की अगली सुबह एक अखबार में नोटबंदी की तारीफ करते हुए पूरे पन्ने का विज्ञापन प्रकाशिक कराया. असल में, नोटबंदी ने बंद किए गए नोटों को कमीशन पर बदलने का एक नया धंधा ही शुरू कर दिया है. इसलिए इसमें कोई हैरानी नहीं है कि ट्रांस्पेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा भारत की रैंकिंग में मोदी के राज में कोई बदलाव नहीं आया है जो 168 देशों में 76वें स्थान पर बना हुआ है.

आत्ममुग्ध बेवकूफी

सिर्फ एक पक्का आत्ममुग्ध ही ऐसी बेवकूफी कर सकता है. इससे भारत के संस्थागत चरित्र का भी पता लगता है, जो सत्ता के आगे झुकने को तैयार रहता है. मोदी को छोड़ दीजिए, यह वित मंत्रालय के दिग्गजों और खास कर आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल की हैसियत को भी उजागर करता है, जो न सिर्फ अपने पद की प्रतिष्ठा को बनाए रखने में नाकाम रहे हैं, बल्कि जिन्होंने यह बदनामी भी हासिल की है कि वे पेशेवर रूप से अक्षमता हैं. ऐसा मुमकिन नहीं होगा कि आरबीआई के मुद्रा विशेषज्ञ इस फैसले के दोषपूर्ण हिसाब-किताब को नहीं देख पाए होंगे, लेकिन जाहिर है कि वे साहेब की मर्जी के आगे झुक गए. नोटबंदी भ्रष्टाचार का इलाज नहीं है, लेकिन इतिहास में कई शासक इसे आजमा चुके हैं. हालांकि उन्होंने जनता के पैसे के साथ इसे कभी नहीं आजमाया. आखिरी बार मोरारजी देसाई ने 1978 में 1000 रुपए के नोट को बंद किया था, जो आम जनता के बीच आम तौर पर चलन में नहीं था. अपनी क्रयशक्ति में यह आज के 15,000 रुपयों के बराबर था. यह तब प्रचलित धन का महज 0.6 फीसदी था, जबकि आज की नोटबंदी ने कुल प्रचलित धन के 86.4 फीसदी को प्रभावित किया है.

अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मोदी हमेशा ही अपनी जन धन योजना की उपलब्धियों की शेखी बघारते रहे हैं, जो संप्रग सरकार की वित्तीय समावेश नीतियों का ही महज एक विस्तार है. उन्होंने सिर्फ गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स के लिए बैंकों को खाते खोलने पर मजबूर किया. जुलाई 2015 में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 33 फीसदी ग्राहकों ने बताया कि जन धन योजना का खाता उनका पहला खाता नहीं था और विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक 72 फीसदी खातों में एक भी पैसा नहीं था. विश्व बैंक-गैलप ग्लोबल फिनडेक्स सर्वे द्वारा किए गए एक और सर्वेक्षण में दिखाया गया कि कुल बैंक खातों का करीब 43 फीसदी निष्क्रिय खाते हैं. यहां तक कि रिजर्व बैंक भी कहता है कि सिर्फ 53 फीसदी भारतीयों के पास बैंक खाते हैं और उनका सचमुच उपयोग करने वालों की संख्या इससे भी कम है. ज्यादातर बैंक शाखाएं पहली और दूसरी श्रेणी के शहरों में स्थित हैं और व्यापक ग्रामीण इलाके में सेवाएं बहुत कम हैं. ऐसे हालात में सिर्फ एक आत्ममुग्ध इंसान ही होगा जो भारत में बिना नकदी वाली एक कैशलेस अर्थव्यवस्था के सपने पर फिदा होगा. यह सोचना भारी बेवकूफी होगी कि ऐसे फैसलों से भाजपा लोगों का प्यार पा सकेगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि दलितों और आदिवासियों जैसे निचले तबकों के लोगों को इससे सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है और वे भाजपा को इसके लिए कभी माफ नहीं करेंगे. भाजपा ने अपने हनुमानों (अपने दलित नेताओं) के जरिए यह बात फैलाने की कोशिश की है कि नोटबंदी का फैसला असल में बाबासाहेब आंबेडकर की सलाह के मुताबिक लिया गया था. यह एक सफेद झूठ है. लेकिन अगर आंबेडकर ने किसी संदर्भ में ऐसी बात कही भी थी, तो क्या इससे जनता की वास्तविक मुश्किलें खत्म हो सकती हैं या क्या इससे हकीकत बदल जाएगी? बल्कि बेहतर होता कि भाजपा ने आंबेडकर की इस अहम सलाह पर गौर किया होता कि राजनीति में अपने कद से बड़े बना दिए गए नेता लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा होते हैं.


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भारतीय रिजर्व बैंक की हत्या और अर्थव्यवस्था के लिए मौत की घंटी लाटरी आयोग कर रहा है नीति निर्धारण और वित्तीय प्रबंधन नोटंबंदी में हस्तक्षेप करने से सुप्रीम कोर्ट का इंकार,संसद में कोई चर्चा नहीं जन प्रतिनिधि अब ब्रांड एंबेसैडर, माडल सुपरमाडल,सेल्स एजंट सुपर भारतीय रिजर्व बैंक नकदी का वायदा पूरा नहीं कर पा रहा है,इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक मर गया है या उसकी हत्या क

Next: आम आदमी को राहत नहीं और सारा कालाधन राजीनित दलों के खाते में खपाने का इंतजाम दौलताबाद से दिल्ली है राजनीतिक दलों के लिए एक हजार और पांच सौ के नोट अब वैध है ,नोटबंदी सिर्फ आम जनता के खिलाफ।कालाधन के नाम पर आम लोगों के लिए मौत का परवाना यह आम जनता के साथ संसदीयविश्वास घात है।सबने अपना अपना हिस्सा समझ लिया और आम जनता को लाटरी खुलने का इंतजार करना है। पलाश विश्वास
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भारतीय जनता का कोई माई बाप नहीं

भारतीय रिजर्व बैंक की हत्या और  अर्थव्यवस्था के लिए मौत की घंटी

लाटरी आयोग कर रहा है नीति निर्धारण और वित्तीय प्रबंधन

नोटंबंदी में हस्तक्षेप करने से सुप्रीम कोर्ट का इंकार,संसद में कोई चर्चा नहीं

जन प्रतिनिधि अब ब्रांड एंबेसैडर, माडल सुपरमाडल,सेल्स एजंट सुपर

भारतीय रिजर्व बैंक नकदी का वायदा पूरा नहीं कर पा रहा है,इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक मर गया है या उसकी हत्या कर दी गयी है।

यह हत्या का मामला है या आत्महत्या का,इसका फैसला कभी हो नहीं सकता क्योंकि किसी ने एफआईआर दर्ज नहीं करायी है।

#डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।

पलाश विश्वास

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

भारतीय जनता का कोई माई बाप नहीं।

रिजर्व बैंक की हत्या और अर्थव्यवस्था के लिए मौत की घंटी।

लाटरी आयोग कर रहा है नीति निर्धारण और वित्तीय प्रबंधन।

नोटंबंदी में हस्तक्षेप करने से सुप्रीम कोर्ट का इंकार,संसद में कोई चर्चा नहीं।

जन प्रतिनिधि अब ब्रांड एंबेसैडर,माडल सुपरमाडल,सेल्स एजंट।

योजना आयोग नीति आयोग के बाद अब लाटरी आयोग है।

अब लाटरी आयोग वित्तीय प्रबंधन कर रहा है।

रिजर्व बैंक,सुप्रीम कोर्ट और संसद के ऊपर लाटरी आयोग।

बाकी लोग देखते रह जाये,जिसकी लाटरी लग गयी वह सीधे करोड़पति।

बुहजनों के पौ बारह कि अंबेडकर जयंती पर खुलेगी लाटरी। बाबासाहेब तो दियो नाही कुछ नकदी में,जिन्हें दियो वे सगरे अब बहुजनों में ना होय मलाईदार।

अब बाबाससाहेब के नाम नकद भुगतान तो होई जाये केसरियाकरण।

क्या पता कौन भागवान के नाम भगवान खोल दे लाटरी।

अच्छे दिनों का कुलो मतलब यही लाटरी है।

बूझो बुड़बक जनगण।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

अर्थव्यवस्था भी इब लाटरी है जिसके नाम खुली वह करोड़ पति कमसकम।

बाकीर खातिर खुदकशी थोक इंतजाम बा।

उ नकद नहीं,तो मौत नगद।चाहें तो खुदकशी से रोकै कौण।

अरबपति खरबपति की लाटरी तो हर मौसम खुली खुली है। और न जाने ससुर कौन कौन पति ठैरा कहां कहां।भसुरवा देवरवा गोतीनी देवरानी जिठानी बहूरानी कुनबा जोडे़ वक्त क्या लगे है।लाटरी खुलि जाई तो चकाचाक सैफई का जलवा घरु दुआर मेकिंगिंडिया।डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

मसला मुश्किल है कि वित्तीय प्रबंधन करने वाले लोग जिंदा है कि बैंकों और एटीेएम की कतार में शामिल देशद्रोहियों के साथ कहीं मर खप गये हैं,इसका अता पता नहीं है,बूझ सको तो बूझो जनगण बुड़बक।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

अम्मा जयललिता का शोक हम मना रहे हैं,किसी वित्तीय प्रबंधक के लिए  शोक मनाने जैसी बात हमने सुनी नहीं है।

हांलाकि इस देश की अर्थव्यवस्था के लिए राष्ट्रीय शोक का समय है यह।

पीएम की मंकी बात पेटीएमिंडियाकैशलैशडिजिटल इंडियआ।ओयहोय।होयहोय।

एफएमकी ट्यूनिंग फिर सुर ताल में नहीं है।

कहि रहे हैं एफएमवा कैशलैस कोई इकोनामी हो ही नहीं सकती।ओयहोय।होयहोय।

हम भी दरअसल वही कह और लिख रहे हैं।

मंकी बातों में 30 दिसंबर के बाद मुश्किल आसान तो अब पता चल रहा है कि सालभर में भी आम जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली है।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

कालाधन मिला नहीं है।ना मिलबै हैं।

बैंकों मे जमा नकदी निकालने से रोकने का अधिकार सरकार तो क्या रिजर्वबैंक को भी नहीं है।खातधारकों के खाते में नकद जमा किया है तो निकालने की आजादी होनी चाहिए।बैंक के पास नकदी नहीं है तो इसका मतलब बैंक दिवालिया है।

बेहिसाब या बिना हिसाब कालाधन समझ में अाता है,लेकिन नकदी के लेनदेन बंद करने की कवायद बाजार और अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है।

भारतीय रिजर्व बैंक नकदी का वायदा पूरा नहीं कर पा रहा है,इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक मर गया है या उसकी हत्या कर दी गयी है।

यह हत्या का मामला है या आत्महत्या का,इसका फैसला कभी हो नहीं सकता क्योंकि किसीने एफआईआर दर्ज नहीं करायी है।

समयांतर ने पिछले साल से सरकारी विज्ञापन लेना बंद कर दिया है।वैकल्पिक मीडिया के लिए यह कदम ऐतिहासिक है।किसी भी स्तर पर किसी पत्र पत्रिका का यह कदम उसके जीवित रहने के लिए भारी चुनौती है।साधनों के मुताबिक ज्वलंत मुद्दों को संबोधित करते हुए वर्षों से नियमित अंक निकालने के लिए हमारे पंकजदा का सार्वजिनक अभिनंदन होना चाहिए।

नोटबंदी के परिदृश्य में समयांतर का दिसंबर अंक आया है।जिसमें से बेहद महत्वपूर्ण संपादकीय का अंश हम इस रोजनामचे के साथ नत्थी कर रहे हैं।हाशिये की आवाज स्तंभ में नोटबंदी के संदिग्ध फायदों और निश्चित नुकसान का खुलासा किया है तो नोटबंदी पर गंभीर विश्लेषण की सामग्री भरपूर है।

यह अंक संग्रहनीय और पठनीय है।जो नोटबंदी गोरखधंधे को समझना चाहते हैं,उनके लिए समयांतर का ताजा अंक अनिवार्य है।बेहतर हो कि आप इसका ग्राहक खुद बनें और दूसरों से भी ग्राहक बनने को कहें।

आज निजी काम से दक्षिण कोलकाता गया था।जहां सुंदरवन इलाके के गरीब मेहनतकशों की आवाजाही होती है और सारी ट्रेनें मौसी लोकल होती हैं।यानी कोलकाता  महानगर और उपनगरों के संपन्न घरों में कामवाली महिलाओं से लदी फंदी होती हैं वहां की ट्रेनें।

इसके अलावा बंगाल के सबसे गरीब मुसलमानों और अनुसूचितों का जिला भी दक्षिण 24 परगना है,जहां कार्ड वगैरह,पीटीएम इत्यादि की कोई गुंजाइश ही नहीं है। बंगाल की खाड़ी और सुंदर वन के इस इलाके में संचार नेटवर्क की क्या कहें, द्वीपों को जोड़ने वाले पुलों और सड़कों की बेहद कमी है।स्कूलों,अस्पतालों,बुनियादी सेवाओं,बुनियादी जरुरतों,हवा राशन पानी तक की कमी है।

सांस सांस मुकम्मल महायुद्ध है।जमीन पर बाघ तो पानी में मगरमच्छ हैं।वहां सारी लेन देन नकदी में होती है और फिलहाल कोई लेनदेन वहां हो नहीं रही है।

जिंदगी 8 नवंबर की आधी रात के बाद जहां की तहां ठहरी हुई है।दीवाल से पीठ लगी है और रीढ़ गलकर पानी है।हिलने की ताकत बची नहीं है।आगे फिर मौत है।

बंगाल में रोजगार नहीं है तो ट्रेनें भर भर कर जो लोग देशभर में असंगठित क्षेत्रों में नौकरी करने निकले थे,वे तमाम लोग घर लौट चुके हैं और उनके घरों में राशन पानी के लिए कहीं कोई पेटीएम नहीं है।

अब हिंदुत्व के लिए बीजमंत्र नया ईजाद है।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

बुद्धमय बंगाल के बाद प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष स्वतंत्रतासंग्रामी बंगाल के अवसान के बाद लगातार केसरिया,तेजी से केसरिया केसरिया बंगाल में ऐसे अनेक जिले हैं।जहां बैमौत मौत ही जिंदगी का दूसरा नाम है,अब बेमौत मौत नोटबंदी है।

भारत बांग्लादेश सीमा से सटे हुए तमाम इलाकों में जायें तो पता ही नहीं चलेगा कि हम भारत में हैं।नदियों के टूटते कगार की तरह जिंदगी उन्हें रोज चबा रही है।हालात के जहरीले दांत उन्हें अपने शिकंजे में लिये हुए हैं।जिंदगी फिर मौत है।

जहां बैमौत मौत ही जिंदगी का दूसरा नाम है,अब बेमौत मौत नोटबंदी है।

मसलन भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी मुर्शिदाबाद के जिस जंगीपुर इलाके से संसदीय चुनाव जीतते रहे हैं,वहां मुख्य काम धंधा बीड़ी बांधना है।

बीड़ी के तमाम कारखाने नकदी के बिना बंद हैं।घर में राशन पानी भी नहीं है।

न नकदी है और न पेटीएम जिओ एटीएम डेबिट क्रेडिट कार्ड हैं।

सिर्फ वोट हैं,जिसके बूते स्वयं महामहिम हैं।

पद्मा नदी की तेज धार से बची हुई जिंदगी बीड़ी के धुएं में तब्दील है।

वह धुआं भी नहीं है और वे तमाम लोग राख में तब्दील हैं।

रोज उनके घर नदी के कटाव में खत्म होते जाते हैं।

खुले आसमान के नीचे वे लोग बाल बच्चों के साथ मरने को छोड़ दिये गये हैं।

नोटबंदी ने उन्हें बीच धार पद्मा में डूबने को छोड़ दिया है।

जिलों की क्या कहें,कोलकाता की आधी आबादी फुटपाथ पर जीती है तो मुंबई का यही हाल है।राजधानी में फुटपाथ थोड़े कम हैं,चमकीले भी हैं। लेकिन वहां झुग्गी झोपड़ियां कोलकाता और मुंबई से कम नहीं हैं।अब पेटीेएम से लावारिश जिंदगी  की कैसे गुजर बसर होती है और कैसे छप्परफाड़ सुनहले दिन उगते हैं,देखना बाकी है।

हालात लेकिन ये हैं कि मुसलमानबहुल मुर्शिदाबाद जिले के लगभग हर गांव से लोग महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब,गुजरात से लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक में भी मजूरी की तलाश में जाते हैं।उनकी जिंदगी में सबकुछ नकद लेनदेन से चलता है।

इसी तरह मालदह,बाकुंड़ा,पुरुलिया जैसे जिलों की कहानी है।

हम उन जिलों को गिनती में नहीं रख रहे हैं जहां लोग थोड़ा बहुत संपन्न है या कुछ लोग कमसकम कार्ड वगैरह से काम चला लेते हैं।

बिहार और ओड़ीशा के अलावा झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और यूपी में भी ऐसे अनेक जिले होंगे।हिमालय के दूरदराज के गांवों में, या पूर्वोत्तर भारत या जल जंगल द्वीप मरुस्थल थार में कैशलैस डिजिटल इंडिया का क्या जलवा है,हम इसका अंदाज नहीं लगा सकते।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

बहुत थका हुआ हूं।कल 17 नवंबर को कोलकाता के गणेशचंद्र एवेन्यू के सुवर्ण वणिक हाल में शाम चार बजे हमारे आदरणीय मित्र शमशुल इस्लाम कोलकाता में प्रगट होने वाले हैं तो कल का दिन उनके नाम रहेगा।

आज की सबसे बुरी खबर है कि नोटबंदी में कई दफा सरकार को फटकारने वाली सुप्रीम कोर्ट ने नोटबंदी मामले में हाथ खड़े कर दिये हैं।

नोटबंदी के मामले में भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है।

हांलांकि यह कोई खबर नही है कि संसद के इस सत्र में लगातार शोरशराबे के अलावा नोटबंदी पर कोई चर्चा नहीं हुई है।

क्योंकि हमारे नेता और जनप्रतिनिधि चाहे जो हों आम जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं।

वे तमाम लोग ब्रांड एंबेसैडर हैं।

वे तमाम रंगबिरंगे लोग माडल सुपरमाडल हैं।

वे तमाम लोग बाजार के दल्ला का काम छीनकर कंपनीराज के माफिया गिरोह में शामिल हैं और वसूली के लिए पहले से बंटवारे के तहत अपने अपने हिस्से की लड़ाई लड़ रहे हैं।

वे तमाम लोग करोड़पति हैं या अरबपति।खरबपति भी।

वे कभी किसी कतार में खड़े नहीं होते।

यह संसदीय लोकतंत्र करोड़पति अरबपति खरबपति तंत्र है।

करोड़पति अरबपति खरबपति तंत्र में आम जनता की कोई सुनवाई नहीं हो सकती।

सर्वोच्च न्यायालय के भी हाथ पांव बंधे हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर का दस्तखत हर नोट पर होता है और इसके बावजूद इस मुद्रासंकट के मध्य उनके लिए कुछ करने को नहीं है क्योंकि रिजर्व बैंक की हत्या कर दी गयी है और बैंक दिवालिये बना दिये गये हैं।

कोलकाता में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर को काला झंडा दिखाया गया तो दिनभर पूरे कोलकाता में उनके खिलाफ प्रदर्शन होता रहा।बंगाल की मुख्यमंत्री ने उन्हें जमकर करी खोटी सुनायी।

यह घटनाक्रम भारतीय अर्थव्यवस्था की मौत की घंटी है।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।


यह धुआं कहा से उठता है!

Author: पंकज बिष्ट Edition : December 2015

संपादकीय

सत्ताधारी वर्ग किस तरह से अपने और सामाजिक संकटों का सामना करता है, या कहना चाहिए बच निकलता है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण इधर दिल्ली में देखने को मिल रहा है। संकट है प्रदूषण का, जिससे इस महानगर का कोई भी हिस्सा चाहे, कालोनी कितनी भी पॉश हो या झुग्गी-झोपड़ी वाली , बचा नहीं है, हां उनके प्रभावित होने का स्वरूप और मात्रा भिन्न हो सकती है। जैसे कि दक्षिणी और ल्यूटन्स दिल्ली में संकट वायु प्रदूषण का है तो निम्रवर्गीय कालोनियों में यह वायु के अलावा सामान्य कूड़े और प्लास्टिक व अन्य किस्म के रासायनिक प्रदूषण का भी है। देखा जाए तो इससे सिर्फ दिल्ली ही नहीं कमोबेश देश का हर शहर और कस्बा प्रभावित हो चुका है। देश कुल मिला कर एक बड़े कूड़ा घर में बदलता जा रहा है। जलवायु पर पेरिस में 30 नवंबर से शुरू होनेवाले सम्मेलन से ठीक तीन दिन पहले भारत सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के प्रमुख 59 शहरों से प्रति दिन 50 हजार टन कूड़ा निकलता है। यह आंकड़ा भी पांच साल पुराना था। जाहिर है कि यह चिंता का विषय है। विशेषकर शासक वर्ग के लिए क्यों कि इससे सुविधा भोगी वर्ग भी – अपने एसीओं और एयर प्यूरिफायरों के बावजूद, जिनकी, खबर है कि बिक्री, तेजी से बढ़ रही है – बच पाने की स्थिति में नहीं रहा है।

देखने की बात यह है कि प्रदूषण चाहे भूमि की सतह का हो, भूमिगत हो या वायु का, इन सभी का संबंध कुल मिला कर उस नई जीवन शैली से है जो उपभोक्तावाद और अंधाधुंध बाजारवाद की देन है। यानी इसका संबंध वृहत्तर आर्थिक नीतियों से है और इसके लिए कुल मिला कर शासक वर्ग जिम्मेदार है। यह अचानक नहीं है कि प्रदूषण के असली कारणों पर कोई बात नहीं हो रही है। बल्कि कहना चाहिए मूल कारणों से ध्यान भटकाने की जो बातें हो रही हैं वे दिल्ली से लेकर पेरिस तक लगभग एक-सी हैं। पर हमारे देश के संदर्भ में दिल्ली महत्वपूर्ण है। इसे लेकर हम शासक वर्ग की प्रदूषण और जलवायु की चिंता के कारणों की वास्तविकता को समझ सकते हैं।

दिल्ली देश की राजधानी है,यहां केंद्रीय सरकार व उसके मुलाजिमों की फौज के अलावा कारपोरेट और औद्योगिक जगत के कर्णधारों की कतार रहती है, दिल्ली को लेकर चिंता का स्तर समझा जा सकता है। विशेष कर ऐसे में जब कहा जा रहा हो कि अपने प्रदूषण में दिल्ली ने बीजिंग को पीछे छोड़ दिया है। इधर पिछले कुछ सालों से प्रदूषण का हल्ला जाड़े आने से कुछ पहले से ही जोर मारने लगता है। इसकी शुरूआत होती है पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों द्वारा जलाई जानेवाली खरीफ की फसल की कटाई के बाद धान के बचे हुए पुवाल के खेतों में ही जलाए जाने से। इसके कई कारण हैं जैसे कि विशेषकर हरियाणा और पंजाब में तुलनात्मक रूप से बड़ी जोतों के कारण कृषि में पशुओं के इस्तेमाल का घटना, रसायनिक उर्वरकों और मशीनों का बढ़ता इस्तेमाल तथा परंपरागत फसलों की जगह ज्यादा लाभकारी फसलों का बोया जाना आदि। इस पुवाल उखाडऩा मंहगा सौदा होता है। वैसे भी किसान धान की फसल के बाद, तत्काल रबी की फसल की तैयारी कर रहा होता है, इसलिए जल्दी में होता है। ऐसे में उसके पास इस बला से निजात पाने का एक ही तरीका रह जाता है और वह होता है इसे जला देने का। दिल्ली के चारों ओर की हजारों एकड़ जमीन पर इन पुवालों के जलाए जाने से स्वाभाविक है कि धुंआ उठता है और उसका असर राजधानी पर पड़ता है। अखबार जितना भी हल्ला मचाएं यह प्रदूषण कुल मिला कर अपने आप में कोई बहुत बड़ी मात्रा में नहीं होता है, हां यह दिल्ली के प्रदूषण को, जिसकी मात्रा पहले ही खतरे की सीमा पर पहुंच चुकी है, में इजाफा जरूर कर देता है। असल में संकट इसलिए बढ़ता है कि मौसम के डंठे होते जाने के कारण, प्रदूषण तेजी से ऊपर नहीं उठ पाता है।

इस पृष्ठभूमि में सिर्फ किसानों को दोष देना कितना वाजिब है, समझा जा सकता है। इस पर भी केंद्र के दबाव में राज्यों ने पुलाव को जलाने के खिलाफ दंडात्मक कानून बना दिए हैं। पर यह भी सच है कि विगत वर्षों की तुलना में पुवाल का जलाया जाना लगातार कम हुआ है।

जहां तक दिल्ली का सवाल है यहां से ही नहीं बल्कि पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से, ऐसे सारे उद्योगों को, जिनसे प्रदूषण होता था या प्रदूषण होना माना जाता था, न्यायालय के आदेश पर लगभग एक दशक पहले ही बाहर किया जा चुका है। इसके बाद आता है वह प्रदूषण जो मानव जनित है। वह ज्यादातर मलमूत्र और ठोस कूड़े के रूप में है। चूंकि यह कचरा जैवकीय है इससे निपटना ज्यादा कठिन नहीं है, यद्यपि इसका भी संबंध विकास की उस शैली से है, जो लगातार केंद्रीय करण को बढ़ावा दे रही है।

तीसरी समस्या है खनिज ईंधन चालित वाहनों के प्रदूषण की। दिल्ली में पेट्रोल और डीजल से चलनेवाले वाहनों की संख्या एक करोड़ के आसपास पहुंचने वाली है। इनमें सबसे बड़ी संख्या निजी गाडिय़ों की है और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद, जिसके तहत सरकारी कर्मचारियों के वेतन में बड़ी वृद्धि होनेवाली है, वाहनों की संख्या में और बढ़ोतरी की पूरी संभावना है।

समस्या की असली जड़ यही है। तीन दशक पहले की प्रदूषण रहित दिल्ली अचानक दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर में तब्दील नहीं हुई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के प्रदूषण के पीछे सबसे बड़ा कारक यही गाडिय़ां हैं। यानी इन गाडिय़ों के चलने से पैदा होनेवाला धुंआ है। खनिज ईधन के धुंए में कई तरह के विषाक्त तत्व होते हैं विशेषकर सल्फर डाइआक्साइड और सस्पेंडेड पार्टिकल मैटर जो सिर्फ खांसी, आंखों में जलन और उबकाई आदि ही पैदा नहीं करते बल्कि सांस (रेस्पिरेटरी) और हृदय रोग (कार्डियोवास्कुलर) जैसी गंभीर बीमारियां पैदा करते हैं। इसलिए असली समस्या इन गाडिय़ों की संख्या को नियंत्रित करने की है। सवाल है क्या यह किया जा सकेगा?

पिछले तीन दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था में जो बढ़ोतरी दिखलाई देती है उसके पीछे मोटरगाड़ी उद्योग (ऑटो इंडस्ट्री) का बड़ा योगदान है। इस उद्योग ने किस तरह से भारतीय बाजार को पकड़ा यह अपने आप में एक कहानी है।

पर इससे पहले यह बात समझ में आनी चाहिए कि निजी वाहनों से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि देश में, विशेषकर बड़े नगरों में सक्षम सार्वजनिक यातायात व्यवस्था हो। पर हमारे यहां उल्टा हुआ है। अगर दिल्ली को ही लें तो यहां की परिवहन व्यवस्था को नियोजित तरीके से ध्वस्त किया गया। उदारीकरण के चलते ऑटो इंडस्ट्री से सब तरह की पाबंदियां हटा ली गईं और उसे अपना विस्तार करने की ही सुविधा नहीं दी गई बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर कई तरह की सब्सिडी दी गईं। इसका सबसे ताजा उदाहरण गुजरात का है, जिसने राज्य में नॉनो मोटर कारखाना लगाने के लिए 30 हजार करोड़ का लगभग व्याज रहित ऋण और प्रतीकात्मक कीमत पर हजारों एकड़ जमीन मुहैया करवाई है। सरकार की ओर से अपने कर्मचारियों को गाडिय़ां खरीदने के लिए आसान शर्तों पर ऋण दिये गए। सरकार ने बैंकों को गाडिय़ां खरीदने के लिए अधिक से अधिक और आसान किस्तों पर ऋण देने के लिए प्रेरित किया।

अगर इस बीच केंद्रीय सरकार ने रेल यातायात का न तो विस्तार किया और न ही उसकी सेवाओं को दुरस्त तो दूसरी ओर बड़ी राज्य सरकारों ने लगातार सार्वजनिक यातायात को घटाना शुरू किया। इसका परिणाम यह हुआ कि कि महानगरों के बाहर कस्बों के बीच भी सार्वजनिक बसों की जगह छोटी गाडिय़ां चलने लगीं। इसका सत्ताधारियों को दोहरा लाभ हुआ। एक तो वह सार्वजनिक यातायात उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी से निवृत्त हो गई और दूसरी ओर आईएमएफ तथा वल्र्ड बैंक के एजेंडे के तहत सरकारी नौकरों को कम करने के दबाव को भी पूरा करने का उसका उद्देश्य पूरा हो गया। इस तरह एक के बाद एक – स्वास्थ्य, शिक्षा और सार्वजनिक यातायात जैसी – सेवाओं को निजी हाथों में सौंप कर वह स्वयं फैलिसिटेटर में बदलती गई। उसका काम रह गया है कि वह देखे कि गाडिय़ों के लिए ईंधन मुहैया होता रहे। यह और बात है कि इसके लिए देश को अपनी दुर्लभ विदेशी मुद्रा का एक बड़ा हिस्सा देना पड़ता है। अनुमान है कि इस दौर में जब कि तेल के दाम अपने निम्रतम स्तर पर हैं हमें सन 2014-2015 के वित्त वर्ष में 6,87,369 करोड़ रुपये (112.748 बिलियन डालर) तेल के आयात पर देने पड़े। इस भारी भरकम खर्च को सार्वजनिक परिवहन के द्वारा आसानी से कम किया जा सकता है।

सच यह है कि जब तक दिल्ली या किसी भी अन्य महानगर में गाडिय़ों की संख्या को कम नहीं किया जाएगा तब तक प्रदूषण पर नियंत्रण असंभव है। अब सवाल है दिल्ली जैसे शहर में यह नियंत्रण कैसे हो? सरकार ने इसके लिए जो तरीके निकाले हैं वे सब असल में आटो इंडस्ट्री को लाभ पहुंचानेवाले हैं। असल में एक सीमा तक इसका कारण यह भी है कि सरकार अपने कथित 7 प्रतिशत विकास की दर को गिरते हुए नहीं देखना चाहती फिर चाहे इसके लिए देश की जनता को कितनी ही कीमत क्यों न चुकानी पड़े। इधर राष्ट्रीय हरित ट्राईब्यून ने फैसला दिया है कि दस वर्ष पुरानी गाडिय़ों को सड़कों पर चलने का अधिकार नहीं होगा। यह किया गया है प्रदूषण के नाम पर। सत्य यह है कि शहरों में गाडिय़ां इतनी नहीं चलतीं कि उन्हें दस वर्ष के बाद ही खत्म कर दिया जाए। चूंकि ये ज्यादातर दफ्तर से घर के बीच इस्तेमाल होती हैं इसलिए औसत 50 किमी प्रतिदिन से ज्यादा नहीं चलतीं। मोटा अंदाजा लगाया जाए तो ये गाडिय़ां साल में दस से पंद्रह हजार किमी से ज्यादा नहीं चलतीं। दूसरे शब्दों में ये गाडिय़ां बहुत हुआ तो दस वर्ष में सिर्फ एक से डेढ़ लाख किमी ही चल पाती हैं जबकि किसी भी आधुनिक कार की बनावट कम से कम दो लाख मील यानी 3,21,868 किलो मीटर चलने की है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस तरह से गाडिय़ों को दस साल में कंडम करने के कारण कितने संसाधनों बर्बाद किया जा रहा है।

दूसरे शब्दों में गाडिय़ों को दस साल बाद बाहर करने के बजाय सरकारों ने दूसरे तरीके अपनाने चाहिए थे। इस तरह का कोई निर्णय लेने से पहले इन सब बातों पर विचार करना एनजीटी की भी जिम्मेदारी थी। सवाल है अगर एनजीटी दिल्ली में वाहनों की संख्या को नियंत्रिक करने जैसा कड़ा आदेश नहीं दे सकती थी तो भी वह ज्यादा आसान रास्ता तो अपना ही सकती थी कि शहर में सम और विषम नंबरों की गाडिय़ां बारी-बारी से चलाने का आदेश देती। उसके इस आदेश का किस को फायदा हुआ है सिवा निर्माताओं के और पैसेवालों को। इससे असानी से प्रदूषण को आधा किया जा सकता था। पूरे साल नहीं तो भी यह नियम कम से कम अक्टूबर से फरवरी तक तो आसानी से लागू हो ही सकता था। सच यह है कि आज यह उद्योग इतना ताकतवर हो चुका है कि इसके खिलाफ कोई नहीं जा सकता। यह अचानक नहीं है कि सारा मीडिया इन सवालों को उठाने को तैयार नहीं है। वह जितने विज्ञापन देता है उनके चलते वह किसी भी अखबार या चैनल को असानी से अपने हितों के अनुकूल चलने के लिए मजबूर कर सकता है और कर रहा है।

अब सरकार जो शहर के किसी एक हिस्से में महीने में एक दिन गाडिय़ां न चलाने, विशेषकर किसी अवकाश के दिन, का नाटक कर रही है उसका क्या असर होनेवाला है? इससे होगा यह कि गाडिय़ां दूसरे रास्तों का इस्तेमाल करने लगेंगी। अगर वाकेई मंशा गंभीर है तो एक पूरे दिन, फिर चाहे वह अवकाश के दिन ही क्यों न हो, पूरे दिन शहर में निजी गाडिय़ों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। पर सरकार के लिए यह भी संभव नहीं है।

सच यह है कि दिल्ली की खरबों रूपये से बन रही मैट्रो ट्रेन दस साल में ही अपर्याप्त साबित होने लगी है।

देखना होगा कि सरकार का अगला कदम इस संकट से बचने का क्या होनेवाला है।

इस बीच मोटरगाडिय़ों के मांग में, गत वर्ष जो कमी आती नजर आ रही थी उसके बढऩे के समाचार आने लगे हैं।



आम आदमी को राहत नहीं और सारा कालाधन राजीनित दलों के खाते में खपाने का इंतजाम दौलताबाद से दिल्ली है राजनीतिक दलों के लिए एक हजार और पांच सौ के नोट अब वैध है ,नोटबंदी सिर्फ आम जनता के खिलाफ।कालाधन के नाम पर आम लोगों के लिए मौत का परवाना यह आम जनता के साथ संसदीयविश्वास घात है।सबने अपना अपना हिस्सा समझ लिया और आम जनता को लाटरी खुलने का इंतजार करना है। पलाश विश्वास

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आम आदमी को राहत नहीं और सारा कालाधन राजीनित दलों के खाते में खपाने का इंतजाम दौलताबाद से दिल्ली है
राजनीतिक दलों के लिए एक हजार और पांच सौ के नोट अब वैध है ,नोटबंदी सिर्फ आम जनता के खिलाफ।कालाधन के नाम पर आम लोगों के लिए मौत का परवाना
यह आम जनता के साथ संसदीय विश्वास घात है।सबने अपना अपना हिस्सा समझ लिया और आम जनता को लाटरी खुलने का इंतजार करना है।
पलाश विश्वास
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कालाधन निकालने की कवायद अब राजनीतिक दलों के लिए कालाधन अपने खाते में जमा कराने का मौका है।दस्तावेज देने नहीं होंगे,तो सौकड़ों लोगों के नाम बेनामी कालाधन सफेद कराने का चाकचौबंद इंतजाम हो गया है।

गौरतलब है कि आयकर कानून की धारा 13ए 1961 के अनुसार राजनीतिक दलों की उनकी आय को लेकर टैक्‍स से छूट है। किसानों के लिए पैन कार्ड अनिवार्य होने के सवाल पर अधिया ने कहा कि किसान को फॉर्म 60 के जरिए घोषणा करनी होगी कि उसकी कमाई ढाई लाख रुपये से कम है। यदि वह फॉर्म 60 फाइल करता है तो पैन कार्ड नहीं देना होगा। ऐसा नहीं करने पर पैन कार्ड देना होगा।

ताजा खबरों के मुताबिक दौलताबाद से दिल्ली वापसी का रास्ता तय गया है और लोगों को बिना किसी दस्तावेज के अपना कालाधन राजनीतिक दलों की फंडिंग में खपाने की आजादी मिल गयी है।
मजे की बात है कि 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों को बैंक में जमा कराने पर राजनीतिक दलों पर कोई टैक्‍स नहीं लगेगा। राजनीतिक पार्टियों को आयकर कानून से अलग रखा गया है। जबकि पहले एक हजार और पांच सौ के नोट प्रचलन से बाहर कर दिये गये हैं।
हम पहले ही कह रहे थे कि मुक्तबाजार को लोकतंत्र दरअसल करोड़पतिअरबपति खरबपति तंत्र है।संसद में नोटबंदी पर कोई बहस नहीं हुई।आरोप प्रत्यारोप ही हुए।आम जनता को न संसद और न सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत मिली।
आम आदमी को अपनी नकदी सफेद करने के लिए तमाम दस्तावेजी सबूत देने पड़े रहे हैं।रद्द नोट कहीं प्रचलन में नही है लेकिन वे राजनीतिक चंदे के लिए वैध है।
यह आम जनता के साथ संसदीय विश्वास घात है।सबने अपना अपना हिस्सा समझ लिया और आम जनता को लाटरी खुलने का इंतजार करना है।
कालाधन जो अभी निकला ही नहीं है ,वह राजनीतिक दलों के खाते में सफेद कर देने का इंतजाम है।जाहिर है कि कालाधन निकालने के लिए यह नोटबंदी नहीं है,जैसा हम बार बार लिक रहे हैं।डिजिटल इडिया कैशलैस इंडिया बनाने के लिए यह सर्वदलीय ससदीय कारपोरेट कवायद है जिसके तहत मुक्तबाजार में जीवन के हर क्षेत्र में कारपोरेट नस्ली एकाधिकार कायम हो जाये।
वित्त सचिव अशोक लवासा ने शुक्रवार (16 दिसंबर) को यह जानकारी दी। राजस्‍व सचिव हसमुख अधिया के अनुसार राजनीतिक दलों के बैंक खातों में जमा रकम पर टैक्‍स नहीं लगेगा। उन्‍होंने पत्रकारों से कहा, "यदि किसी राजनीतिक दल के खाते में पैसे हैं तो उन्‍हें छूट है। लेकिन यदि किसी निजी व्‍यक्ति के खाते में पैसा है तो फिर उस पर कार्रवाई होगी। यदि कोई निजी व्‍यक्ति अपने खाते में पैसा डालता है तो हमें जानकारी मिल जाएगी।"
डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।
बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।
बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।
भारतीय जनता का कोई माई बाप नहीं।


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आम आदमी को राहत नहीं और सारा कालाधन राजीनित दलों के खाते में खपाने का इंतजाम दौलताबाद से दिल्ली है
राजनीतिक दलों के लिए एक हजार और पांच सौ के नोट अब वैध है ,नोटबंदी सिर्फ आम जनता के खिलाफ।कालाधन के नाम पर आम लोगों के लिए मौत का परवाना
यह आम जनता के साथ संसदीय विश्वास घात है।सबने अपना अपना हिस्सा समझ लिया और आम जनता को लाटरी खुलने का इंतजार करना है।
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गौरतलब है कि आयकर कानून की धारा 13ए 1961 के अनुसार राजनीतिक दलों की उनकी आय को लेकर टैक्‍स से छूट है। किसानों के लिए पैन कार्ड अनिवार्य होने के सवाल पर अधिया ने कहा कि किसान को फॉर्म 60 के जरिए घोषणा करनी होगी कि उसकी कमाई ढाई लाख रुपये से कम है। यदि वह फॉर्म 60 फाइल करता है तो पैन कार्ड नहीं देना होगा। ऐसा नहीं करने पर पैन कार्ड देना होगा।

ताजा खबरों के मुताबिक दौलताबाद से दिल्ली वापसी का रास्ता तय गया है और लोगों को बिना किसी दस्तावेज के अपना कालाधन राजनीतिक दलों की फंडिंग में खपाने की आजादी मिल गयी है।
मजे की बात है कि 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों को बैंक में जमा कराने पर राजनीतिक दलों पर कोई टैक्‍स नहीं लगेगा। राजनीतिक पार्टियों को आयकर कानून से अलग रखा गया है। जबकि पहले एक हजार और पांच सौ के नोट प्रचलन से बाहर कर दिये गये हैं।
हम पहले ही कह रहे थे कि मुक्तबाजार को लोकतंत्र दरअसल करोड़पतिअरबपति खरबपति तंत्र है।संसद में नोटबंदी पर कोई बहस नहीं हुई।आरोप प्रत्यारोप ही हुए।आम जनता को न संसद और न सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत मिली।
आम आदमी को अपनी नकदी सफेद करने के लिए तमाम दस्तावेजी सबूत देने पड़े रहे हैं।रद्द नोट कहीं प्रचलन में नही है लेकिन वे राजनीतिक चंदे के लिए वैध है।
यह आम जनता के साथ संसदीय विश्वास घात है।सबने अपना अपना हिस्सा समझ लिया और आम जनता को लाटरी खुलने का इंतजार करना है।
कालाधन जो अभी निकला ही नहीं है ,वह राजनीतिक दलों के खाते में सफेद कर देने का इंतजाम है।जाहिर है कि कालाधन निकालने के लिए यह नोटबंदी नहीं है,जैसा हम बार बार लिक रहे हैं।डिजिटल इडिया कैशलैस इंडिया बनाने के लिए यह सर्वदलीय ससदीय कारपोरेट कवायद है जिसके तहत मुक्तबाजार में जीवन के हर क्षेत्र में कारपोरेट नस्ली एकाधिकार कायम हो जाये।
वित्त सचिव अशोक लवासा ने शुक्रवार (16 दिसंबर) को यह जानकारी दी। राजस्‍व सचिव हसमुख अधिया के अनुसार राजनीतिक दलों के बैंक खातों में जमा रकम पर टैक्‍स नहीं लगेगा। उन्‍होंने पत्रकारों से कहा, "यदि किसी राजनीतिक दल के खाते में पैसे हैं तो उन्‍हें छूट है। लेकिन यदि किसी निजी व्‍यक्ति के खाते में पैसा है तो फिर उस पर कार्रवाई होगी। यदि कोई निजी व्‍यक्ति अपने खाते में पैसा डालता है तो हमें जानकारी मिल जाएगी।"
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बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।
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कोलकाता के मुखातिब शमशुल इस्लाम जाति व्यवस्था खत्म तो हिंदुत्व का राष्ट्रवाद भी खत्म। हिंदू राष्ट्रवाद दरअसल बहुजनों के खिलाफ, मुसलमानों के नहीं संघ परिवार के निशाने पर इस्लाम नहीं, बौद्धधर्म है क्योंकि गौतम बुद्ध ने ब्राह्मणयुग का अवसान ही नहीं किया बल्कि भारत में पहली और आखिरी बार समता और न्याय पर आधारित जातिविहीन वर्गविहीन समाज की स्थापना की। पलाश विश्वास कोलकाता में कल श�

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कोलकाता के मुखातिब शमशुल इस्लाम

जाति व्यवस्था खत्म तो हिंदुत्व का राष्ट्रवाद भी खत्म।

हिंदू राष्ट्रवाद दरअसल बहुजनों के खिलाफ, मुसलमानों के नहीं

संघ परिवार के निशाने पर इस्लाम नहीं, बौद्धधर्म है क्योंकि गौतम बुद्ध ने ब्राह्मणयुग का अवसान ही नहीं किया बल्कि भारत में पहली और आखिरी बार समता और न्याय पर आधारित जातिविहीन वर्गविहीन समाज की स्थापना की।

पलाश विश्वास

कोलकाता में कल शाम तीन दशक बाद फिर शमशुल इस्लाम से मुलाकात हो गयी।मेरठ में हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार के बाद मेरठ नगरपालिका सफाई कर्मचारी यूनियन के पुराना शहर में दंगों में फूंक दिये गये निगार सिनेमा के सामने हुए विरोध प्रदर्शन में अपनी रंगकर्मी टीम के साथ हाजिर हुए थे शमशुल और आज भी हमारी जेहन में उनकी वह रंगकर्मी छवि बनी हुई थी।

एक अतिगंभीर विचारक,लेखक और शोधार्थी के बजाय वे हमारे लिए हमेशा रंगकर्मी ज्यादा रहे हैं।इन तीन दशकों में हमने उन्हें लगातार पढ़ा है।उन्होंने ही कोलकाता में आने की सूचना दी थी और हम उसी रंगकर्मी को देखने समझने मध्य कोलकाता के धर्मतल्ला के पास गणेशचंद्र एवेन्यू के सुवर्ण वनिक हाल पहुंचे थे।

भारत विभाजन मुसलमान नहीं चाहते थे,उनकी ताजा किताब पढ़ने के बाद मेरे लिए यह खास दिलचस्पी का मामला है कि वह तेजी से केसरिया हो रहे कोलकाता को कैसे संबोधित कर पाते हैं,जिसे संबोधित करने की हम रोजाना नाकाम कोशिशें करते रहते हैं।क्योंकि भारत विभाजन और स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बंगाल में मुसलमानों को खलनायक ही समझा जाता है।यहां तक कि बंगाल से संविधान सभा में चुने गये बाबा साहेब अंबेडकर के बारे में भी बंगाल की धारणा बहुत सही नहीं है।

यह बांग्ला लघु पत्रिका परिचय और समाज विज्ञान चेतना मंच का साझा आयोजन था।परिचय की तरफ से तीसरा वार्षिक संवाद।

पिछली दफा हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े जैसे विद्वान को वक्ता बतौर आमंत्रित किया गया था और उन्होने भारत में जाति व्यवस्था के अभिशाप पर अपना व्याख्यान दिया था।

इस बार संवाद का विषय था।हिंदुत्ववादियों का विश्वासघात और स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका।इससे पहले मध्य कोलकाता के भारत सभा हाल में रोहित वेमुला के साथियों ने जाति उन्मूलन सम्मेलन को संबोधित किया था।सुवर्ण वनिक हाल में भी अच्छी खासी संख्या में विश्वविद्यालयों के छात्र मौजूद थे।

आनंद तेलतुंबड़े लेखक जितने बढ़िया हैं,उस हिसाब से वक्ता उतने अच्छे नहीं हैं।उनका व्याख्यान अमूमन श्रोताओं के सर के ऊपर से गुजर जाता है।खासकर बहुजनों को उनकी बातें कतई समझ में नहीं आती और अक्सर वे आनंद को न पढ़ते हैं और न लिखते हैं।हमारी दिलचस्प इस बात में ज्यादा थी कि शमशुल जैसा लिखते हैं,वैसा बोल भी पाते हैं या नहीं।क्योंकि विषय ऐसा था,जिसपर संवाद की कोलकाता में कोई खास परंपरा नहीं है।संवाद है तो वह बहुत ही सीमित है।

आनंद भी अकादमिक पद्धति और विधि के मुताबिक बोलते और लिखते हैं और उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक है।शमशुल का अध्ययन और शोध अकादमिक है।विधि और पद्धति में वे भी बेजोड़ हैं।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हिंदुओं और मुसलमानों की साझेदारी को उन्होंने गजट और सैन्य खुफिया डायरियों के प्राइमरी स्रोतों के हवाले से ग्राफिकल ब्यौरे के साथ पेश किया।इससे पहले राष्ट्र और राष्ट्रवाद के सवाल पर चर्चा उन्होंने की।राष्ट्रवाद के इतिहास के बारे में चर्चा की।

उनका मूल वक्तव्य यह था कि भारतीय स्वतंत्रतता संग्राम को राष्ट्रवादी कहना गलत है क्योंकि भारत में कभी राष्ट्रकी अवधारणा नहीं रही है।

शमसुल के मुताबिक सामंती उत्पादन व्यवस्था के अंत के साथ पूंजीवादी उत्थान के साथ समाज का वर्गीकरण हो जाने के बाद वंचित सर्वहारा जनता के दमन उत्पीड़न के लिए सत्तावर्ग द्वारा प्रतिपादित यह राष्ट्रवाद है।

इसी के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन स्थापित होने के बाद लगातार हुए किसान आदिवासी विद्रोह के सिलसिले पर उन्होंने ब्यौरेवार तथ्य देते हुए साबित किया कि ये सारे विद्रोह आम जनता के शासकों के दमन उत्पीड़न के सात साथ सत्ता वर्ग के विभिन्न तबकों के रंगबिरंगे उत्पीड़न और दमने के प्रतिरोध बतौर थे।

रंगकर्मी होने की वजह से तथ्यों को पेश करने और संवाद का तानाबाना बनाने में उन्हे कोई ज्यादा दिक्कत नहीं हुई।इसी सिलसिले में भारत में हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक के जन्म और उत्थान और हिंदू राष्ट्र और इस्लामी राष्ट्र के द्वंद्व का इतिहास रखकर उन्होने साबित किया कि हिंदू राष्ट्र या इस्लामी राष्ट्र का आम जनता से कोई सरोकार नहीं है।

शमसुळ ने साफ साफ कहा कि भारत में हिंदुत्ववादी जो कर रहे हैं,वही बांग्लादेश और पाकिस्तान में इस्लामी राष्ट्र के झंडेवरदार कर रहे हैं।उन्होंने 1857 की क्रांति के सिलसिले में देश भर में हिंदू मुस्लिम साझा प्रतिरोध और जनविद्रहो के दस्तावेजी सबूत पेश किये और उनका विश्लेषण करते हुए सामाजिक और उत्पादन संबंधों का तानाबाना और उनके विकास के बारे में बताया।

बीच में एक अंतराल के बाद हिंदुत्ववादियों के विश्वासघात के तमाम सबूत उन्होंने रख दिये बंगाल के परिदृश्य में।विवेकानंद,रवींद्रनाथ,बंकिम से लेकर राजनारायण बसु और राजा राममोहन राय की भूमिका को पोस्टमार्टम किया और स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर और श्यामाप्रसाद की भूमिका संबंधी दस्तावेज भी पेश किये।

बंगाल में हम सारे लोग जानते हैं कि बंगाल की पहली अंतरिम सरकार कृषक प्रजा समाज पार्टी के नेता फजलुल हक की थी और चूंकि इस सरकार में उपप्रधानमंत्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे,इस सरकार को श्यामा हक मंत्रिमडल भी कहते हैं।

हमारी जानकारी के मुताबिक जमींदारों के प्रतिनिधि मुखर्जी ने ही प्रजा कृषक पार्टी के बूमि सुधार एजंडा को लोगू होने नहीं दिया।जिसके फलस्वरुप बंगाल में मुसलमान प्रजाजन जो हिंदू प्रजाजनों के सात मिलकार सदियों से शासकों के खिलाफ जनविद्रोह में बराबर के हिस्सेदार थे,वे अचानक मुस्लिम लीग के समर्थक हो गये।

शमसुल ने इसके विपरीत सावरकर का लिखा पेश करते हुए साबित किया कि फजलुल हक की सरकार मुस्लिम  लीग की सरकार थी जिसमें हिंदू महासभा अपने एडजंडे के मुताबिक शामिल थी जैसे हिंदू महासभा नार्थ ईस्ट फ्रंटियर में भी इसी योजना के तहत मुस्लिम लीग की सरकार में शामिल थी।

श्रोताओं की तरफ से इस सावरकर उद्धरण की सत्यता को चुनौती देने के बावजूद शमसुल यहा साबित करते रहे कि फजलुल दरअसल मुस्लिम लीग के ही प्रधानमंत्री थे और इसी सिलसिले में उन्होंने कहा कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से निबटने की जिम्मेदारी फजलुल ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी को दिया था,जिसके तहत मुखर्जी ने ब्रिटिश हुकूमत की मदद की थी।

इस संवाद का फोकस हिंदू राष्ट्रवाद रहा है।जिसमें शमसुल ने तमाम बुनियादी तथ्यों और स्रोतों के हवाले से साबित किया कि हिंदुत्व राष्ट्रवाद दरअसल मुसलमानों के विरोध में नहीं है जबकि उसका संगठन और आंदोलन मुसलमानों के खिलाफ घृणा अभियान है।

बाकायदा संघ परिवार के दस्तावेजों से लेकर मनुस्मृति तक का सिलसिलेवार हवाला देते हुए शमसुल ने कहा कि आजाद भारत में भारतीय संविधान के बदले संघ परिवार मनुस्मृति शासन लागू करना चाहता है और उसका हिंदुत्व एजंडा जाति व्यवस्था पर आधारित है।

जाति व्यवस्था खत्म तो हिंदुत्व का राष्ट्रवाद भी खत्म।

संघ परिवार के निशाने पर इस्लाम नहीं,बौद्धधर्म है क्योंकि गौतम बुद्ध ने ब्राह्मणयुग का अवसान ही नहीं किया बल्कि भारत में पहली और आखिरी बार समता और न्याय पर आधारित जातिविहीन वर्गविहीन समाज की स्थापना की।

संचालन कर रहे थे परिचय टीम के कनिष्क,जिन्होंने पूरे संवाद को सार संक्षेप में यथावत बांग्ला में पेश किया।बंगाल में इस तरह का प्रयोग नया है।

संवाद के दौरान शमसुल ने जनगीत भी गाये।



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करोड़ों लाशें ढोने के लिए कितना इंच का सीना और कितने मजबूत कंधे चाहिए?

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हम किस माफिया के शिकंजे में हैं?

पलाश विश्वास

अभी अभी जगदीश्वर चतुर्वेदी के ताजा स्टेटस से मालूम पड़ा कि प्रेमचंद का मकान ढह गया! यह है भारतीयों की लेखक के प्रति असभ्यता का नमूना!हमें इतिहास का बदला चाहिए हर कीमत पर और हम इस मकसद को हासिल करने के लिए पराम की सौगंध खाकर मुक्त बाजार के कारपोरेट हितों के लिए राम का नाम लेकर राम से विश्वासघात करने में तनिक हिचकिचा नहीं रहे हैं।तो प्रेमचंद हो या अनुपम मिस्र ये हमारे लिए किसी खेत की मूली नहीं है।मूली का हम क्या परवाह करे हमें तो न खेत की परवाह है और न खलिहान की।न प्रकृति की न मनुष्य की।

करोड़ों लाशें ढोने के लिए कितना इंच का सीना और कितने मजबूत कंधे चाहिए?वेनेजुएला में राष्ट्रपति ने नोट​बंदी का फैसला उस समय वापस ले लिया जब देश भर में इसके खिलाफ आवाज उठने लगी। नोटों की कमी के चलते सारे देश में तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आईं। भारी दवाब के कारण सरकार को यूटर्न लेना ही पड़ा।गनीमत समझिये कि भारत में अभी आम जनता का गुस्सा सार्वजिनक सुनामी नहीं है।नकदी संकट अगर साल भर जारी रहा तो कैशलैस डिजिटल अर्थव्यवस्था बन जाने से पहले कहां कहां कितने ज्वालामुखी फूट पड़ेंगे इतने बड़े देश में,तानाशाह हुकूमत को इसका कोई अंदाजा नहीं है।

बाकी जनता जिस रकम पर साठ फीसद तक आयकर दें,उसी रकम के कालाधन होने की हालत में पचास फीसद कुल कर जमा करके सफेद धन बनाया जा सकता है।तो राजनीतिक दल में बेनामी बेहिसाब अंतहीन कालाधन देस के विकास में भविष्य में हिस्सेदारी के हवाला मार्फत हजारों लाखों करोड़ रुपये जमा करने का खुल्ला खेल फर्रूखाबादी है और जनता को गुस्सा कतई नहीं आ रहा है।इसी बीच ताजा फतवा जारी हुआ है।नोटबंदी के बाद वित्त मंत्रालय ने बैंक खातों में पुराने नोट जमा करने की सीमा तय कर दी है. वित्त मंत्रालय के नए दिशा-निर्देश के मुताबिक, बैंक खाते में केवल एक ही बार 5000 रुपये से ज्यादा की रकम पुराने नोट में जमा करा सकेंगे। यह नया निर्देश इस साल 30 दिसबंर तक लागू रहेगा। बैंक खातों के जरिये कालेधन को सफेद करने के सिलसिले पर रोक लगाने के लिए सरकार ने यह नया फैसला लिया है। वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, 'बड़े नोट बैंक खातों में बार-बार नहीं जमा कराए जा सकते हैं। लोग अब 5,000 रुपये तक जमा करा सकते हैं जिस पर कोई प्रतिबंध नहीं है।'

वेनेजुएला में जो हुआ है,गनीमत है ,भारत में वेसा कुछ अभी हुआ नहीं है।मसलन वेनेजुएला में  नकदी के संकट के कारण हजारों दुकानें बंद हो गईं। लोग क्रेडिट कार्ड या बैंक ट्रांसफर के जरिये लेन-देन करने के लिए बाध्य हो गए। कई लोगों के साथ तो संकट इस कदर गंभीर हो गया कि उनके लिए खाने-पीने की चीजें खरीदना मुश्किल हो गया। इस फैसले के विरोधियों ने गुस्से में 100 बोलिवर के नोट तक जला दिए।

हमारा गुस्सा ठंडा है क्योंकि हम उस तरह काले नहीं हैं जैसे लातिन अमेरिका और अफ्रीका के लोग काले हैं।श्वेत वर्चस्व का मुकाबला करना वहां पीढ़ी दर पीढ़ी शहादतों का सिलसिला है।

हम तो अपना काला रंग गोरा बनाने की क्रीम से गोरा बना चुके हैं और नहीं भी बनाया होगा तो विशुध आयुर्वेदिक कोमल त्वचा बाजार में उपलब्ध है।

हम अछूत हुए तो क्या,बहुजन और आदिवासी हुए तो क्या ,हम सारे लोग हिंदू है और हिंदू राष्ट्र में गुलामी रघुकुल परंपरा का रामराज्य है।इसलिए सत्ता वर्ग को फिलहाल कोई खतरा नहीं है कि यहां लातिन अमेरिका,य़ूरोप या अप्रीका जैसा कोई जनविद्रोह कभी होगा।

हम अपनों का खून बहाना अपना परम कर्तव्य मानते हैं लेकिन खून बहने के डर से,चमड़ी में आने के डर से,हिंदुत्व की पहचान और हैसियत खोने के डर से गुलामी का न्रक जीने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी अभ्यस्त हैं।

वेनेजुएला सिर्फ तीन  लाशों का बोझ ढो नहीं सका,नोटबंदी रद्द।भारत के बाद वेनेजुएलामें भी नोटबंदी की गई। लेकिन वहां के लोग भारत के लोगों की तरह शांत स्वभाव के नहीं निकले जिसकी वजह से वहां हिंसा हो रही है। कुछ खबरों के मुताबिक, उस हिंसा में अबतक दर्जनों दुकानें लूटी जा चुकी हैं और तीन लोगों की जान भी जा चुकी है।

हमारे यहां नरसंहार भी हो जाये तो हमारी नींद में खलल नहीं पड़ती।अभी नोटबंदी की कतार में तो इतने बड़े देश में सिर्फ सौ सवा सौ लोग ही मारे गये हैं।हम तो दिलोजान से ख्वाहिशमंद है कि इस देश को सेना के हवाले कर दिया जाये।

गौरतलब है कि वेनेजुएला में तेल का कारोबार चौपट,नोट कौड़ियों के भाव और देश पर विदेशी माफिया का कब्जा।वेनेजुएलासरकार ने अपने नोटबंदी के फैसले को वापस ले लिया है। महज एक सप्ताह पहले, 11 दिसंबर की रात को वेनेजुएलामें वहां की सबसे बड़ी करेंसी 100 बोलिवर को प्रतिबंधित कर दिया था और इसके बदले 500, 2000 और 20,000 बोलिवर की नयी करेंसी जारी की गयी थी, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए वहां की सरकार द्वारा उठाया यह कदम पूरी तरह सफल नहीं हो सका।

वेनेजुएला में करेंसी के लिए देश में हाहाकार मच गया, हजारों दुकानें बंद हो गयीं, लोगों के पास खाने के भी पैसे नहीं रह गये, हालात बेकाबू हो गये और जगह- जगह लूटपाट की घटनाएं होने लगी। पुलिस से संघर्ष में तीन लोगों की मौत हो गयी।

अभी तक भारत में नोटबंदी के खिलाफ ऐसा कुछ हुआ नही है।जाहिर है कि सारे लोग तानाशाह के वफादार गुलाम हैं और शाही फरमान की हुक्मउदुली करने की रीढ़ किसी के पास कहीं नहीं है।छप्पन इंच सीना और सांढ़ जैसे कंधों की बहार है।

हम किस माफिया के शिकंजे में हैं?गौरतलब है कि वेनेजुएलासरकार ने यह कदम सीमापार कोलंबिया में माफिया द्वारा राष्ट्रीय करेंसी बोलिवर की होर्डिंग और देश में लगातार बढ़ती महंगाई को काबू करने के लिए उठाया था। यहां की करेंसी में गत कुछ सालों में गिरावट देखी गयी थी। 100 बोलिवर की कीमत अमेरिकी मुद्रा में महज 2 सेंट के बराबर रह गयी थी। महंगाई के मामले में वेनेजुएलासबसे आगे है। सरकार के मुताबिक नयी करेंसी से भरे 3 हवाई जहाज वेनेजुएलानहीं पहुंच सके जिससे देश में नोटबंदी की स्थिति बेकाबू हो गयी। निकोलस ने नोटबंदी विफल होने के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ होने का आरोप लगाया है।

वेनेजुएला में माफिया देश के बाहर है।कहां है ,वह भी मालूम है।कोलंबिया में माफिया का बेस है,जिसे अमेरिकी समर्थन है।

हमारे यहां माफिया देश के अंदर है और देश के बाहर के माफिया गिरोहों के साथ वे गोलबंद हैं।हमारे राजनीतिक दल माफिया हैं।उन माफिया गिरोहों के हम सारे लोग भाड़े के टट्टू हैं।लठैत और शूटर हैं।समर्थक हैं।सारे लोकतांत्रिक संस्थान और राजकाज की तमाम एजंसियां माफिया गिरोह में तब्दील हैं।राजनीतिक दल, मीडिया, राजनेता, बिल्डर, प्रोमोटर माफिया है और पूरा तंत्र सिंडिकेट है।जिसे फिर अमेरिका के साथ इजराइल का समर्थन है।माफिया हमारा लोकतंत्र है तो माफिया हमारा कारोबार और धर्म कर्म है।जल जंगल जमीन माफिया गिरोह के शिकंजे में है और हमारी जिंदगी और हमारी मौत भी उन्ही की मुट्ठी में कैद हैं।यह माफिया ग्लोबल है।

हम तो अमेरिका बना रहे हैं देश को या फिर हम इजराइल बना रहे हैं देश।सबका अपने अपने हिस्से का देश है।

कोई पाकिस्तान बना रहा है तो कोई बांग्लादेश बना रहा है।

देश के हर हिस्से में देश बन रहा है। इन दिनों और देश उपनिवेश बन रहा है।यहां सबकुछ विदेशी हाथों में है।

इंदिरा गांधी के बाद इस देश में जो भी कुछ हो रहा है,उसके पीछे पूंजी किसी की भी हो,कमसकम अमेरिकी या इजराइली हाथ नहीं है।क्योंकि सत्ता उन्हींकी है।

   इस दौरान हालांकि पाकिस्तान का हाथ बहुत लंबा हो गया है और नोटबंदी और नकदी संकट दोनों के पीछे पाकिस्तान का हाथ है और बाकी हाथों में तो हमारा अपना काला हाथ है।अब पाकिस्तान के खिलाफ युद्धोन्माद हमारी राजनीति है और वही हमारी अर्थव्यवस्था है।वही हमारा रामराज्य आंदोलन का हिंदुत्व पुनरूत्थान है,जिसमें साझेदार फिर अमेरिका और इजराइल है।यही ग्लोबल हिंदुत्व है।

सत्ता वर्ग का देश दिल्ली है और आम जनता का देश उनका अपना अपना गांव या जनपद है।दोनों देशों के बीच कोई दोस्ती है नहीं है।दिल्ली की हुकूमत है और हुकूमत गांव और जनपदों के हिस्से के देश को कुचल रही है।यह सैन्यन दमन देश का हमारी स्वतंत्रता और लोकतंत्र का संवैधानिक सलवा जुड़ुम है।बाकी किसी का कोई देश नहीं है।मौजूदा कृषि संकट और आर्थिक आपातकाल का पर्यावरण परिदृश्य यही है।

बहरहाल वेनेजुएला की राजधानी कराकस से खबर है कि  वेनेजुएलामें विरोध बढ़ने के साथ समस्या में घिरे राष्ट्रपति निकोलस मादुरो ने देश में बड़े नोटों को चलन से हटाने का फैसला दो जनवरी तक टाल दिया है।

मादुरो ने अपनी मंकी बातों में कल कहा कि 100 बोलिवर का नोट अस्थायी रूप से वैध मुद्रा बनी रहेगी लेकिन कोलंबिया तथा ब्राजील से लगी सीमा बंद रहेगी ताकि माफिया ने जो वेनेजुएलाकी मुद्रा अपने पास जमा कर रखी है, वे इससे प्रभावित हों। उन्होंने कहा कि यह देश को अस्थिर करने की साजिश है जिसे अमेरिका समर्थन दे रहा है। मादुरो ने सरकारी टेलीविजन पर कहा, "आप शांति के साथ 100 रुयये के नोट का उपयोग अपनी खरीद और अन्य गतिविधियों के लिये कर सकते हैं।

तनिक इस ब्योरे पर भारतीय नोटबंदी परिप्रेक्ष्य में गौर करेंःवेनेजुएलाके आम लोग खाने-पीने की चीजें और ईंधन खरीदने में असमर्थ हो गए। इस फैसले से देश में क्रिसमस की तैयारी में जुटे लोगों के हाथ से एक झटके में पुरानी करेंसी बेकार हो गई। वहीं वेनेजुएलामें आधी जनसंख्या बैंकिंग सेवाओं से बाहर है, लिहाजा कैशलेस ट्रांजैक्शन करने में सक्षम नहीं है। वेनेजुएलासरकार ने नोटबंदी का यह फैसला रविवार देर रात लिया और सोमवार सुबह से देश में 100 बोलिवर की इस करेंसी को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया था। नागरिकों को करेंसी बदलने के लिए महज 72 घंटे का समय दिया गया था, लेकिन नई करेंसी की सप्लाई सुस्त रहने के कारण समय बढ़ा दिया गया था।

नतीजतन राष्ट्रपति निकोलस मादुरो द्वारा देश की सबसे बड़ी करंसी को बंद किए जाने की घोषणा के बाद शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों और लूटपाट के मामलों में सुरक्षाबलों ने 300 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया है। इस बात की जानकारी खुद राष्ट्रपति मादुरो ने रविवार को दी। मादुरो ने अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा पर भी आरोप लगाया कि वह पदभार से रिटायर होने के पहले वेनेजुएलामें समाजवाद के तख्तापलट की साजिश कर रहे हैं। हालांकि अब उन्होंने नोटबंदी का अपना फैसला अस्थायी तौर पर वापस ले लिया है।

भारतीय मीडिया ताजा नोटबंदी की इस नाकामी की खबर को वेनेजुएला के तेल संकट से जोड़कर इसके मुकाबले भारत की अर्थव्यवस्था की मजबूती की सुनहली तस्वीरें पेश करते हुए छप्पन इंच सीने और सांढ़ जैसे मजबूत कंधे का गुणकीर्तन करते हुए अघा नहीं रहे हैं।

हमारे मीडिया वाले वेनेजुएला के तेल निर्भर अर्थव्यवस्था की दुर्गति का बखान करते हुए कृषि निर्भर भारतीय अर्थव्यवस्था या अर्थव्यवस्था में कृषि की प्रासंगिकता पर भूलकर भी चर्चा नहीं कर रहे हैं।

जब तक देश इराक या अफगानिस्तान न बने,जब तक वियतनाम की तरह कार्पेट बमबारी न हो,जबतक हिरोशिमा या नागासाकी जैसी तबाही का मंजर न हो, किसी गुजरात नरसंहार,किसी भोपाल त्रासदी ,सिखों के नरसंहार,सलवाजुड़ुम या देश व्यापी दंगों का जैसे हमारी सेहत पर कोई असर नहीं होता और सरहदों के युद्ध से हम जैसे बाग बाग हो जाते हैं,उसी तरह भारत के कृषि संकट,आर्थिक आपातकाल या पर्यावरण जलवायु संकट से हमारी सेहत पर कोई असर नहीं हो सकता।जब तक हम खुद मौत का समाना नहीं करते,कौन मरता है या जीता है,हमें कोई मतलब नहीं है।

अनाज उत्पादन फिलहाल पर्याप्त होने की वजह से क्रयशक्ति से लबालब शहरी पढ़ेलिखे लोगों को कृषि संकट और किसानों की आत्महत्या से कोई फर्क नहीं पड़ता।

अनाज उत्पादन मांग से कम हो,अनाज की किल्लत हो जाये और नकदी होने के बावजूद लोग दाने दाने को मोहताज हो जाये,तब कहीं ये पढ़े लिखे मलाईदार लोग भारतीय अर्थ व्यवस्था में कृषि का महत्व समझेंगे।

नोटबंदी ने ने जिस तरह किसानों को कंगाल बना दिया है और शून्य कृषि विकास दर की स्थिति में अनाज उत्पादन की नाकेबंदी कर दी है,खरीफ की फसल बिकी नहीं है और रबी की फसल बोयी नहीं गयी है,आशंका है कि बंगाल की भुखमरी की देशव्यापी संक्रमण की हालत में,इतिहास में वापसी के सफर में ही हमारे पढ़े लिखे लोग कृषि विज्ञान का तात्पर्य समझेंगे।

याद करें 2008 की मंदी के दौर को,जिसका असर भारतीय अर्थ व्यवस्था पर कुछ भी नहीं हुआ तो इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि तब भी भारतीय अर्थ व्यवस्था पूरी तरह ग्लोबल हुई नहीं थी और ग्लोबल इशारों का कोई असर इसीलिए नहीं हुआ क्योंकि शेयर बाजार के अलावा औद्योगिक ढांचा तब भी मजबूत था और उत्पादन प्रणाली भी काम कर रही थी।भारतीय आम जनता का शेयर बाजार से कुछ भी लेना देना नहीं था।

पिछले आठ सालों के दरम्यान आम जनता को भी व्यापक पैमाने पर शेयर बाजार से जोड़ दिया गया है।अब पेंशन,बीमा से लेकर सबकुछ शेयर बाजार से नत्थी हैं और शेयर बाजार में तब्दील है पूरी अर्थ व्यवस्था।हर क्षेत्र में विनिवेश हो जाने से और सरकारी क्षेत्र के निजीकरण से देश का बुनियादी ढांचा अब विदेशी पूंजी के हवाले हैं।

वेनेजुएला की अर्थ व्यवस्था पर काबिज माफिया हमारे यहां अर्थ व्यवस्था पर जहरीली नागकुंडली विदेशी पूंजी है,जिसकी नाभि नाल ग्लोबल इकोनामी से जुड़ी है और पत्तियों के खड़कने से ही जिसमें सुनामी आ जाती है।अब शेयर बाजार में मामूली उतार चढ़ाव से मामूली निवेशकों के लाखों करोड़ एक झटके में माफिया की मुनाफा वसूली है और यही डिजिटल कैशलैस इकोनामी है।दस दिगंत साइबर फ्राड का मुक्त बाजार है उपभोक्ता कार्निवाल।मनस्मृति शासन की बहाली है।बहुजनों का नस्ली नरसंहार है,जिसमें मारे जायेंगे अछूत भूगोल के स्वयंभू देव देवी अवतार और सवर्ण भी।गरीब अपढ़ अधपढ़ गवांर ब्राह्मण भी आखिरकार मारे जायेंगे इस बनियाराज में।

हमने भी देश के प्राकृतिक संसाधनों को विदेशी तत्वों के हवाले कर दिया है।

हमने भी तेल युद्ध से तबाह हो गये खाड़ी के देश,अरब वसंत से तबाह हुए पश्चिम एशिया और अरब के देश तो हमने वह युद्धस्थल दक्षिण एशिया में स्थानांतरित करके अमेरिकी युद्धक कारपोरेट डालर अर्थव्यवस्था से अपनी अर्थव्यवस्था नत्थी करके अगवाड़ा पिछवाड़ा सबकुछ मुक्त बाजार बनाते हुए आम जनता को कंगाल बना दिया है।

अब हमारी अर्थव्यवस्था की कोई उत्पादन प्रणाली नहीं है।

इस देश के वित्तीय प्रबंधन कारपोरेट माफिया गिरोह के शिकंजे में है।

डाल डाल पत्ती पत्ती कारपोरेट माफिया काबिज है।

हम भी तेजी से पाकिस्तान बांग्लादेश बनने के बाद यूनान, अर्जेंटीना, नाइजीरिया, वेनेजुएला ,कोलंबिया और मेक्सिको,पूर्व यूरोप और पश्चिम एशिया बनने लगे हैं।

छत्तीस साल की पेशेवर नौकरी के बाद अचानक बूढ़ा हो गया हूं।बूढ़ों और बच्चों से हमारी हमेशा खास दोस्ती रही है।लेकिन खुद के बूढ़ापे का बोझ ढोना मुश्किल हो रहा है।जाहिर है हम जैसे लोगों का सीना छप्पन इंच का नहीं होता और न कंधे सांढ़ की तरह मजबूत हैं।सदमों को झेलने की आदत अभी बनी नहीं है।सदमा तो हम रोज रोज झेल रहे हैं।सदमों और झटकों से आम जनता की तरह हम अबतक बेपरवाह ही रहे हैं।इसी वक्त बूढ़ापा आना था।

असहाय पहले से हो गया था।संवाद की गुंजाइश है ही नहीं और अघोषित आपाताकाल है।सामाजिक सक्रियता हमारी लेखन के दम पर है।अब वह लेखन जारी रखना भी बेमतलब लग रहा है।अखबारों में होते हुए हम हमेशा अखबारों से बाहर रहे हैं।लघु पत्रिकाओं से बाहर हुए भी पंद्रह सोलह साल हो गये।अब हस्तक्षेप के अलावा सोशल मीडिया से भी बाहर हूं।ब्लागिंग बेहद मुश्किल हो गयी है।पैसे के लिए कभी लिखा नहीं है और न आगे लिख सकता हूं।लेकिन जिनके लिए अब तक लिखता रहा हूं,उनतक पहुंचने के सारे रास्ते और दरवाजे एक एक करके बंद है।अघोषित सेंसरशिप है और सोशल मीडिया पर भी सेसंरशिप है।अभिव्यक्ति की नाकाबंदी है।

इन्हीं परिस्थितियों में हस्तक्षेप पर अरुण तिवारी और ललित सुरजन के आलेखों से अनुपम मिश्र के अवसान की खबर मिली तो स्तब्ध रह जाना पड़ा। सुबह से कई बार टीवी देख रहा था।लेकिन टीवी से यह खबर हमें नहीं मिली।मीडिया के लिए अनुपम मिश्र का निधन जाहिर है कि बड़ी खबर नहीं है और खबर है भी तो इसे वे दूसरी खबरों की तरह चौबीसों घंटा दोहराना नहीं चाहते।

बचपन से कविताएं लिखता रहा हूं।लेकिन कवि होने की महात्वाकंक्षा की हमने जिन लोगों को देखकर इतिश्री कर दी थी,उनमें से अनुपम मिश्र खास हैं।अनुपम मिश्र,सुंदरलाल बहुगुणा,अनिल अग्रवाल(वेदांत वाले नहीं) और भारत डोगरा के लेखन से परिचित होने के बाद सृजनधर्मी रचनाकर्म के बदले प्रकृति और मनुष्यता के बारे में लिखना हमारी प्राथमिकता रही है।यह हमारे लिए निजी अपूरणीय क्षति है।

नवउदारवाद की अवैध संतानों के हाथों में सत्ता की कमान है।राजनीति करोडपतियों,अरबपतियों और खरबपतियों की रियासत,जमींदारी या जागीर है। अर्थव्यवस्था सपेरों,मदारियों और बाजीगरों के हवाले हैं।

भारतीय अर्तव्यवस्था बुनियादी तौर पर कृषि अर्थव्यवस्था है,दस दिगंत अगवाड़ा पिछवाड़ा खुले मुक्त बाजार के नंगे कार्निवाल में कोई इसे मानेगा नहीं।

दो करोड़ के करीब वेतनभोगियों और पेंशन भोगियों की औकात सामने हैं,जो खुद को खुदा से कम नहीं समझते हैं।सारा तंत्र मंत्र यंत्र उनके भरोसे हैं।सत्ता एढ़ी चोटी का जोर लगाकर हर कीमत पर उन्हें खुश रखना चाहती है।राज्य सरकारों का सारा खजाना वेतन और भत्तों में खर्च हो जाता है।लेकिन नोटबंदी में वे वेतन और पेंशन बैक में जमा होने के बावजूद आम जनता के साथ कतार में खड़े हैं।

एटीएम और बैंकों से उनकी भी लाशें निकल रही हैं,जिन पर निजीकरण, उदारीकरण और विनिवेश का अब तक कोई असर नहीं हुआ।कितने लाख या कितने करोड़ लोग छंटनी के शिकार हुए पिछले पच्चीस साल पुराने मुक्तबाजार में उनकी कोई परवाह उन्हें नहीं है।उन्हें अपने बेरोजगार बच्चों तक की परवाह नहीं है,जो पढ़े लिखे,दक्ष,काबिल होने के बावजूद बेरोजगार हैं।

बाकी 128 करोड़ में जाति धर्म निर्विशेष तमाम लोग सत्ता वर्ग में शामिल राजनेताओं, जनप्रतिनिधियों, मीडियावालों, बुद्धिजीवियों,डाक्टरों,वकीलों,इंजीनियरों और तमाम संपन्न पेशेवर लोगों की बमुश्किल एक करोड़ लोगों को छोड़कर नोटबंदी की वजह से दाने दाने को मोहताज हो रहे हैं।

खरीफ की फसल बिकी नहीं है।रबी की बुवाई नकदी के बिना आधी अधूरी है।

इसके बावजूद कृषि विकास दर शून्य के नीचे हो जाने के बावजूद,लाखों किसानों की थोक आत्महत्या के बावजूद भारत में कृषि संकट को अर्थव्यवस्था का संकट कतई मानने को तैयार नहीं है क्योंकि वे अबाध पूंजी प्रवाह और बूंद बूंद विकास के पैरोकार हैं।

ऐसे में किसी अनुपम मिश्र का निधन राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप,खेल रियेलिटी शो और मनोरंजन सुनामी के मध्य अनिवार्य सूचना नहीं बन सकती।

पर्यावरण और जलवायु संकट पर ग्लोबल फैशन कीग्लोबल वार्मिंग की तर्ज पर चर्चा करना चलन में हैं इन दिनों।जैसे हम कृषि संकट को अर्थव्यवस्था का संकट मानने को तैयार नहीं है,वैसे ही कृषि संकट को पर्यावरण संकट मानने को बी कोई तैयार नहीं होगा ,जाहिर है।

मुक्त बाजार में तकनीक का वर्चस्व है।तकनीक अपनाने में अपढ़ और अधपढ़ को भी खास तकलीफ नहीं होती।सारी संचार क्रांति मोबाइल क्रांति मीडियाभ्रांति ऐप्पस दंगल इसी के दम पर है।जिसके लिए खास शिक्षा और दक्षता की जरुरत होती नहीं है।शोध या ज्ञान की तो कतई नहीं।इसलिए मुक्त बाजार में शोध,शिक्षा और ज्ञान हाशिये पर हैं।यह सभ्यता का संकट है क्योंकि अज्ञानता और वर्चस्व कायम हो गया है।इसीलिए शिक्षा और ज्ञान के केंद्रों,संस्थानों,विश्वविद्यालयों पर हमले हो रहे हैं।रोहित वेमुला से लेकर नजीब तक का कुल किस्सा यही है।

हम अपने ही सबसे काबिल बच्चों को राष्ट्रद्रोही बनाकर मुठभेड़ में मारने लगे हैं।कदम दर कदम महाभारत है।चप्पे चप्पे में चक्रव्यूह है।चीरहरण है।शंबूक वध है।सर्वव्यापी सर्वत्र नस्ली नरसंहार है।नोटबंदी कार्यक्रम इसी का सिलसिला है।

भारत ने जिस ब्राह्मण धर्म के हिंदुत्व को करीब ढाई हजार साल पहले खारिज कर दिया था तथागत गौतम बुद्ध के नेतृत्व में,उसका पुनरूत्थान हिंदुत्व के अवतार में जो हो गया है,उसकी सबसे बड़ी वजह यह अज्ञानता का अंधकार है।

मुक्त बाजार की चकाचौंध में हम मध्ययुगीन बर्बर असभ्यता के दस दिगंत अमावस्या को महसूस तक नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि तकनीकी क्रांति हर मुश्किल आसान है,हर हाथ में मोबाइल है,थ्रीजी पोर जी फाइव जी जिओ जिओ है और इसी की परिणति यह डिजिटल कैशलैस इंडिया है।

हमें अपने गांवों,जनपदों की कोई परवाह नहीं है।मेहनतकशों की बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं की परवाह नहीं है।शहरी झुग्गी झोपड़ियों के बंद चूल्हों की परवाह नहीं है।मारे जाते बहुजनों की परवाह नहीं है।खुदकशी चुन रहे किसानों की परवाह नहीं है और अब बेमौत मौत के कगार पर खुदरा बाजार के छोटे और मंझौले कारोबारियों की भी परवाह नहीं है।

जिस मनुस्मृति शासन के शिकंजे को अचारवीं उन्नीसवीेें सदी के सुधार आंदोलनों और उससे भी पहले भक्ति,संत सूफी बाउल फकीर आंदोलनों,किसान आदिवासी जनविद्रोहों के जरिये तोड़ दिया गया था,आज वही मनुस्मृति अनुशासन मुक्तबाजार का लोकतंत्र है और भारत राष्ट्र और भारत के संविधान की रोज रोज हत्या हो रही है राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर,विकास के नाम पर,कारोबार के नाम पर।

हिमालय भारत का प्राण है।

आरण्यक सभ्यता के उत्तराधिकारी मुक्तबाजार के उपभोक्ता नागरिकों को जल जंगल जमीन से कृषिजीवी मनुष्यों की अंतहीन बेदखली को लेकर कोई तकलीफ नहीं है।राष्ट्र के सैन्यीकरण और जल जंगल जमीन के हकहकूक का सैनिक दमन के अनंत सलवा जुड़ुम से भी उन्हें कोई तकलीफ नहीं है।खेत खलिहानों से लेकर पहाड़ों में बसे चाय बागानों में जारी मृत्यु जुलूसों की भी किसी को कोई परवाह नहीं है।

हिमालय क्षेत्र में और बाकी देश में जंगल की जो अवैध कटान पिछले दशकों की विकास यात्रा रही है,उसकी भी किसी को कोई खास परवाह नहीं थी।

खेती के साथ साथ हरियाली का संकट जो देश को उसके हिमालय के सात मरुस्थल बना रहा है,किसानों की थोक आत्महत्या के महोत्सव में हमें इसकी कोई खबर नहीं है।

देश का चप्पा चप्पा अब परमाणु भट्टी है और सारे के सारे समुद्रतट रेडियोएक्टिव है,हमें इसकी भी कोई  खास परवाह नहीं है।

रोजगार सृजन तो हो ही नहीं रहा है।

मुक्तबाजार का धीमा जहर आहिस्ते आहिस्ते रोजगार और आजीविका के साथ साथ नागरिकता और आजीविका को खत्म कर रहा है,इसका अहसास नहीं हो रहा है तो हम ऐसा कैसे मान सकते हैं कि अशिक्षित और अदक्ष लोगों को बिना किसी तकनीकी ज्ञान या सूचना के कृषि से रोजगार नैसर्गिक तरीके से मिल सकती है क्योंकि हमने न सिर्फ कषि और कृषि जीवी बहुजनों के कत्लेाम को विकास का पैमाना मान लिया है,बल्कि कृषि आदारित संस्कृति और उत्पादन प्रणाली,परिवार और समाज,जनपदों का सफाया भी कर दिया है।

हम न कृषि संकट पर कायदे से संवाद कर सके हैं और न पर्यावरण संकट पर और हम सबने मुक्तबाजार के आगे निःशस्त्र आत्मसमर्पण कर दिया है।

जाहिर है कि हम अनुपम मिश्र को मुक्त बाजार की आईकन स्टार संस्कृति में कोई अहमियत नहीं देते।हम शुरु से यह लिखते रहे हैं कि सामाजिक कार्यकर्ता को पर्यावरण कार्यकर्ता भी होना चाहिए।

पर्यावरण चेतना के बिना न धर्म कर्म संभव है और न कोई उत्पादन या सृजन संभव है।हम शुरु से यह कहते लिखते रहे हैं कि जाति व्यवस्था के मूल में रंगभेदी वर्चस्व है और सिर्फ मनुष्य ही अछूत नहीं होते,जनपद भी अछूत होते हैं।

हमारे नजरिये से मध्य भारत,दक्षिण भारत,पूर्वोत्तर भारत और हिमालयी क्षेत्र की आम जनता दिल्ली की तानाशाही और रंगभेदी नरसंहार के चांदमारी इलाके हैं और इन क्षेत्रों की आम जनता भौगोलिक अस्पृश्यता के शिकार हैं।हिमाचल या उत्तराखंड के लोग खुद को सवर्ण और देव देवी कहते अघाते नहीं हैं,लेकिन हकीकत की जमीन पर वे तमाम लोग अछूत ही हैं।

हम मुक्तबाजार का प्रतिरोध नहीं कर सके तो इसकी खास वजह है कि नस्ली रंगभेदी राजनीति से हमें इस प्रतिरोध के नेतृत्व की उम्मीद रही है और यह नस्ली रंगभेदी राजनीति दरअसल रियासतों,जमींदारियों का आम प्रजाजनों पर एकाधिकार वर्चस्व है और मुकम्माल मनुस्मृति अनुशालन भी यही है।

इन तमाम लोगों को प्रकृति और कृषि से जुड़े समुदायों से नस्ली शत्रुता है।ये तमाम लोग मनुष्यता,सभ्यता और प्रकृति से नस्ली शत्रुता है।

आज भी हम अर्थव्यवस्था के अभूतपूर्व संकट के दौरान राजनीतिक पहल की उम्मीद कर रहे हैं,जिनके लिए कालाधन माफ हैं और हम तमाम लोग कतार में मौत का इंतजार कर रहे हैं।

क्योंकि हम अर्थव्यवस्था की बुनियाद कृषि को मानने से जैसे इंकार कर रहे हैं,वैसे ही उत्पादक समुदायों और मेहनतकशों के हक हकूक और उनके जीवन आजीविका के बारे में हमारी कोई चिंता नहीं है।

प्रकृति और पर्यावरण की जड़ों से पूरी तरह अलगाव की निराधार जमीन पर खड़े हम लोग दरअसल अपने पुरखों की तुलना में कहीं ज्यादा अज्ञानी हैं और आधुनिकता की पागल दौड़ में हम लगातार ब्लैकहोल की गिरफ्त में कैद होते जा रहे हैं,दसदिगंत अमावस्या में बी हमें सुनहले दिनों की रोशनी नजर आती है।

अनुपम मिश्र नहीं रहे।

हम नहीं जानते हम उन्हें किस रुप में याद करेंगे।

भारत में पर्यावरण आंदोलन के भीष्म पितामह सुंदरलाल बहुगुणा अभी कंटकशय्या पर हैं और पूरा देश अभी महाभारत है।

उत्तर भारत के तीन छोटे से कस्बे अयोध्या,हस्तिनापुर और कुरुक्षेत्र का हजारों साल पुराना अतीत अब मुक्त बाजार में हमारा वर्तमान और भविष्य है।



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पीएफ सूद में कटौती,दस फीसद शेयर बाजार में

रेलवे में व्यापक छंटनी की तैयारी

पूंजीपतियों को खराब लोन के शिकंजे में फंसे बैंकों को पूंजी की जरुरत

नौकरीपेशा शुतुरमुर्ग रीढ़विहीन प्रजाति की बचत में दिनदहाड़े डकैती के सुनहले अच्छे दिन।

नोटबंद की तबाही का 42 वां दिन कतारों में देश,रोज बदल रहे नियम,रोज नय फरमान और नये ख्वाबों का ख्याली पुलाव! पकने लगा आयकर में छूटवाला गाजर का हलवा!

बचत पर डकैती,मरे हुए चार करोड़ शुतुरमुर्गों,मेहनतकशों पर कुठाराघात

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया। ओयहोय। होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण। बूझसको तो बूझ लो। भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है, अधिनायक नरसिस महानो ह।


पलाश विश्वास


पीएफ का सूद घटा दिया गया है।बधाई।

नौकरीपेशा शुतुरमुर्ग प्रजाति विलुप्तप्राय है।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको गैंडों की खाल मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको रेगिस्तान की तेज आंधी मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों आपको तेल युद्ध का अरब वसंत मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको अमेरिका इजराइल मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गो,आपको राममंदिर का रामराज्य मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों ,आपको नोटबंदी की कयामती फिजां मुबारक हो।

मेरे देश के महान डिजिटल कैशलैस शुतुरमुर्गों, आपको पिघलते ग्लेशियर,मरी नदियां,रेडियोएक्टिव समुंदर,परमाणु भट्टी मुबारक हो।

मेरे देश के महान डिजिटल कैशलैस शुतुरमुर्गों, आपको भारत पाक युद्ध,चीन के साथ छायायुद्ध,बांग्लादेश विजय मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको अपने प्यारे बच्चों के कटे हुए हाथ पांव,लहूलुहान दिलोदिमाग मुबारक हो।आम जनता का कत्लेआम मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों आपको अपनी महाकालनिद्रा मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपकी नींद में करीब ढाई दशकों से खलल डालने का अपराधी हूं।फिर फिर यह अपराध कर रहा हूं।मेरे खिलाफ गुस्सा भी मुबारक हो।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया। ओयहोय। होयहोय।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया। ओयहोय। होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण। बूझसको तो बूझ लो। भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है, अधिनायक नरसिस महानो ह।

शुतुरमुर्गों,मुबारक हो कि रेलवे कर्मचारियों की संख्या 19 लाख से घटकर 13 लाख तक पहुंच गयी है।अब  वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देश का पहला मिलाजुला आम व रेल बजट पेश करने से कुछ सप्ताह पूर्व रेलवे के गैर प्रमुख कामकाज मसलन आतिथ्य सेवाओं की आउटसोर्सिंग पर जोर दिया है।रेलवे की ज्यादातर सेवाओं का पहले ही निजीकरण हो चुका है और अब व्यापक छंटनी की तैयारी है।

झोला छाप अर्थशास्त्रियों का करिश्मा नोटबंदी है,फ्रंटलाइन की नोटबंद कुंजी पर हस्तक्षेप पर विस्तार से पढ़ लें।

अभी आरएसी के टिकट पर कंफर्म सीट न देने का फतवा है और आगे बगुला भगत अर्थशास्त्रियों के सुझाव मुताबिक रेलवे में सिर्फ चार लाख कर्मचारी होंगे।

रेलवे रिफॉर्म पर दिल्ली में हुए सेमिनार के दौरान वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि आने वाले दिनों में रेलवे को हाइवे और एयरलाइन सेक्टर से कड़ी चुनौती मिलने वाली है। उन्होंने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि नोटबंदी के बावजूद एयर ट्रैफिक में खासी बढ़ोतरी दिख रही है। रेलवे रिफॉर्म पर बात करते हुए वित्त मंत्री ने कहा कि रेलवे को ट्रैक पर लाने की तैयारी की जा रही है।

यह ट्रैक आउटसोर्सिंग और व्यापक छंटनी का ट्रैक है।

पहली दफा जब शेयर बाजार में पीएफ फंड से पांच फीसद बाजार में डालने का फैसला हुआ,तब हम इंडियन एक्सप्रेस समूह के जनसत्ता के संपादकीय में नौकरी में थे।हमने जो लिखा सो लिखा,सभाओं,सम्मेलनों और दफ्तरों में जा जाकर कर्मचारियों को समझाने की कोशिशें की कि नीतिगत निर्णय के लिए संसदीय हरी झंडी के लिए सिर्फ पांच फीसद बाजार में जा रहा है फिलहाल।बैंक, बीमा समेत सरकारी उपक्रमों के निजीकरण की शुरुआत हमेशा पांच फीसद विनिवेश से होता है,जिसे आहिस्ते आहिस्ते 49 फीसद तक बढ़ा दिया जाता है।ऐसा हर सेक्टर में हुआ है।

इसी बीच उद्योग मंडलों और निर्यातक संगठनों के प्रतिनिधियों ने शनिवार को वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ बजट पूर्व चर्चा कर ली है।

इस बैठक में  सरकार को सरकारी कंपनियों (पीएसयू) में विनिवेश तेज करने, कॉरपोरेट टैक्स को घटाकर 18 प्रतिशत करने और मैट में कमी का सुझाव भी दिया गया है।आम जनता का चाहे जो हो,उद्योग जगत की ये सुझाव मान लिये जाने के आसार बहुत ज्यादा है।

इसका सीधा मतलब यह हुआ कि विनिवेश के रास्ते निजीकरण और तेज होगा और उसी हिसाब से तेज होगी छंटनी और रोजगार सृजन के बजाय बेरोजगारी बढ़ेगी।

पीएफ का सूद घटा दिया गया है।बधाई।

नौकरीपेशा शुतुरमुर्ग प्रजाति विलुप्तप्राय है।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको गैंडों की खाल मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको रेगिस्तान की तेज आंधी मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों आपको तेल युद्ध का अरब वसंत मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको अमेरिका इजराइल मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गो,आपको राममंदिर का रामराज्य मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों ,आपको नोटबंदी की कयामती फिजां मुबारक हो।

मेरे देश के महान डिजिटल कैशलैस शुतुरमुर्गों, आपको पिघलते ग्लेशियर,मरी नदियां,रेडियोएक्टिव समुंदर,परमाणु भट्टी मुबारक हो।

मेरे देश के महान डिजिटल कैशलैस शुतुरमुर्गों, आपको भारत पाक युद्ध,चीन के साथ छायायुद्ध,बांग्लादेश विजय मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको अपने प्यारे बच्चों के कटे हुए हाथ पांव,लहूलुहान दिलोदिमाग मुबारक हो।आम जनता का कत्लेआम मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों आपको अपनी महाकालनिद्रा मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपकी नींद में करीब ढाई दशकों से खलल डालने का अपराधी हूं।फिर फिर यह अपराध कर रहा हूं।मेरे खिलाफ गुस्सा भी मुबारक हो।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया। ओयहोय। होयहोय।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया। ओयहोय। होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण। बूझसको तो बूझ लो। भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है, अधिनायक नरसिस महानो ह।

जिस शेयर बाजार को अर्थव्यवस्था की सेहत माना जाता है उत्पादन के दहशतगर्द आंकड़ों के विपरीत,नोटबंदी के आलम में उसका हाल बवाल है।बैंकिंग, मेटल, फार्मा, ऑटो और ऑयल एंड गैस शेयरों में बिकवाली बढ़ने से बाजार पर दबाव बना है।कारोबार और उद्योग जगत में खलबली मची हुई है।

अब भी सबसे निश्चिंत नौकरीपेशा लोग हैं।नोटबंदी के बचाव में नया शगूफा यह है कि लगभग 200 सालों तक गुलाम बनाकर रखने वाले ब्रिटेन को भारत की अर्थव्यवस्थाने पीछे छोड़ दिया है। करीब सौ सालों में पहली बार ऐसा मौका आया है जब ब्रिटेन के गुलाम रहे किसी देश ने ऐसी उपलब्धि हासिल की हो। दरअसल आजादी के पहले तक भारत के उद्योग-धंधे तबाह कर यहां के कच्चे माल के दम पर पूरी दुनिया में व्यापार करने वाले ब्रिटेन की अर्थव्यवस्थाकी हालत खराब हो चुकी है। यूरोपीय संघ से हटने के बाद से उसकी मुद्रा पाउंड की कीमत पिछले 12 महीनों में काफी गिर गई है। अभी तक माना जा रहा था कि भारत 2020 तक ब्रिटेन की अर्थव्यवस्थाको पीछे छोड़ देगा।

इसके विपरीत हकीकत यह है कि नोटबंदी का सबसे बुरा असर असंगठित क्षेत्र पर ही पड़ा है। सभी छोटे और मझोले उद्योग और कारोबार कैश की किल्लत से जूझ रहे हैं। व्यापार सिकुड़ता जा रहा है और अब इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय माना जा रहा है।

इसी सिलसिले में एसोचैम के सेक्रेटरी जनरल डीएस रावत कहते हैं कि इसका सीधा असर जीडीपी विकास दर पर पड़ेगा. रावत ने एनडीटीवी से कहा, 'नोटबंदी का निश्चित तौर पर असर जीडीपी ग्रोथ रेट पर पड़ेगा. मेरा अनुमान है कि असर 1.5% तक होगा. सबसे ज़्यादा असर रोज़गार पर पड़ रहा है विशेषकर छेटो-छोटे कारखानों में. और एक्सपोर्ट सेक्टर पर...'

एसोचैम का आकलन है कि नोटबंदी का सबसे बुरा असर सूक्ष्म, छोटे और मध्यम उद्योगों पर पड़ा है। नोटबंदी की वजह से असंगठित क्षेत्र में रोज़गार के अवसर तेज़ी से घट रहे हैं। ये आकलन एसोचैम से जुड़े उद्योगों की राय के आधार पर तैयार किया गया है।

शुतुरमुर्गों, नकदी संकट जस का तस है,जिसके सालभर में सुलझने के आसार नहीं है।अब मीडिया के मुताबिक भारत में वृहद स्तर पर बैंकों के पास पूंजी की कमी की समस्या अभी बनी रहेगी और इससे जूझती रहेगी।

शुतुरमुर्गों,एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के बैंकिंग सिस्‍टम को अगले तीन साल में 1.2 लाख करोड़ रुपए या 18 अरब डॉलर की अतिरिक्त पूंजी की जरूरत होगी।

प्रबंधन सलाहकार कंपनी ओलिवर वेमैन की रिपोर्ट में कहा गया है,

संसाधन की कमी से जूझ रही दुनिया में बैंकों को अपनी पूंजी तथा जोखिम रिटर्न प्रोफाइल के प्रबंधन के लिए मजबूती से प्रयास करना होगा।

  • रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले तीन साल में बैंकिंग प्रणाली को 1.2 लाख करोड़ रुपए अतिरिक्त पूंजी की जरूरत होगी।

  • संपत्ति गुणवत्ता की मान्यता, ऋण की मांग और नए नियमन (आईएफआरएस 9 तथा बासेल) के प्रभाव की वजह से अतिरिक्त पूंजी की जरूरत होगी।

  • रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि बैंक सफलतापूर्वक मौजूदा दबाव को झेल जाते हैं तथा अपने कारोबारी मॉडल को नए सिरे से तय करते हैं, तो उनके लिए भारी अवसर होंगे।

  • आमदनी में कमी तथा पूंजी की अड़चन की वजह से बैंक नई प्रौद्योगिकियों में निवेश नहीं कर पा रहे हैं।

  • सबसे ज्यादा अवसर लघु एवं मझोले उपक्रमों के साथ हैं जो अनुमानत: 140 अरब डॉलर के हैं।

  • ऊंची लागत की वजह से अभी इस क्षेत्र का पूरा दोहन नहीं हो पा रहा है।


हमने विनिवेश आयोग की सिफारिशों और विनिवेश परिषद की कार्ययोजना के तमाम दस्तावेज अटल जमाने से लगातार  शेयर किये हैं।

हमारे ब्लागों में वे दस्तावेज चाहे तो अबभी आप देख सकते है।

हमने लगातार कहा है कि देश के संसाधन विदेशी पूंजी के हवाले करने का यह कार्यक्रम है।विनिवश का मतलब बिक्री है या शटर डाउन है।इसका सीधा मतलब छंटनी है।शुतुरमुर्गों को भरोसा रहा है कि पीएफ से छेड़छाड़ नहीं होगी।

शुतुरमुर्ग मानते ही नहीं थे कि उनके साथ कुछ बुरा हो सकता है।

मसलन एअर इंडिया या इंडियन एअर लाइंस के सबसे सुखी,सबसे संपन्न शुतुरमुर्ग तो किसी भी तरह के संकट से सीधे इंकार कर रहे थेे।

इसी तरह रेलवे और बैंकिंग के महान शुतुरमुर्गों और शुतुरमुर्गों के फेशेवर नेताओं और य़ूनियनों को घमंड है कि उनका सरकार कभी बुरा कर ही नहीं सकती।वे जब चाहे तब हड़ताल कर सकते हैं.सेवा ठप करके मांगे मनवा सकते हैं।वेतन भत्ते अवकाश में इजाफा कर सकते हैं।करते भी रहे हैं।लेकिन ये शुतुरमुर्ग भी अपनी नौकरी बचा बी लें तो साथियों की नौकरी बचा नहीं सकते या बचाना ही नहीं चाहते।

खास तौर पर केंद्र सरकार के कर्मचारी अपने को खुदा से कम नहीं समझते।इन सुर्काव के परों वाले शुतुरमुर्गों का खुदा ही अब उनका मालिक है।

सबसे चित्र विचित्र गरीब राज्य सरकारों के मातहत काम कर रहे पार्टीबद्ध शुतुरमुर्गों का है।वेतनमान लागू हो जाता है,जो कभी पूरा नहीं मिलता है।वेतन मिलता है तो भत्ता नहीं मिलता।कमाने खाने की छूट वफादारी पर निर्भर है।कमाते भी हैं।खाते भी हैं।खिलाते भी हैं।इन शुतुरमुर्गों को अपना बेशकीमती सर छुपाने के लिए रेत भी नसीब नहीं है।चोट कहीं भी हो,इन शुतुरमुर्गों को चूं तक की इजाजत नहीं है।

अब ईपीएफ फंड से दस फीसद शेयर बाजार में डालने का फैसला संसद सत्र के अवसान के बाद हुआ है।इसके लिए संसद की मंजूरी जरुरी नहीं है।इसतरह 49 फीसद तक पीएफ शेयर बाजार में आहिस्ते आहिस्ते चले जाना है।शेयर बाजार से नत्थी होने के बाद बीमा का प्रीमियम तक अब करोड़ों लोगों को वापस नहीं हो रहा है।शेयर बाजार में उतार चढ़ावे के बाद जो लाखों करोड़ का नुकसान छोटे निवेशकों को होते हैं,वे सरकारी निवेश हैं।यानी हमारी जमा पूंजी का सरकारी बंटाधार।

शुतुरमुर्गों, हमारे बचत और बीमा के खातों से हमारी जानकारी और इजाजत के बिना सरकारी निवेश है।पीएफ और बीमा इसके दायरे में है।

शुतुरमुर्गों,पीएफ का सूद पहले कभी करीब 14 फीसद रहा है जो अब घटते घटते 8.65 प्रतिशत तक हो गया है।कम से कम पांच फीसद का नुकसान अबतक हो गया है।फिर भी शुतुरमुर्गों का सर रेत के ढेर में गढ़ा है,मरुस्थल हो,न हो। गैंडों की खाल सही सलामत है और किसी सूरत में किसी की चीख पुकार से कालनिद्रा में खलल नहीं पड़ी है।कुंभकर्ण की निद्रा भी इन शुतुरमुर्गों की नींद के आगे तुच्छ है।

पीएफ का सूद घटा दिया गया है।बधाई।

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मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको रेगिस्तान की तेज आंधी मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों आपको तेल युद्ध का अरब वसंत मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको अमेरिका इजराइल मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गो,आपको राममंदिर का रामराज्य मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों ,आपको नोटबंदी की कयामती फिजां मुबारक हो।

मेरे देश के महान डिजिटल कैशलैस शुतुरमुर्गों, आपको पिघलते ग्लेशियर,मरी नदियां,रेडियोएक्टिव समुंदर,परमाणु भट्टी मुबारक हो।

मेरे देश के महान डिजिटल कैशलैस शुतुरमुर्गों, आपको भारत पाक युद्ध,चीन के साथ छायायुद्ध,बांग्लादेश विजय मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको अपने प्यारे बच्चों के कटे हुए हाथ पांव,लहूलुहान दिलोदिमाग मुबारक हो।आम जनता का कत्लेआम मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों आपको अपनी महाकालनिद्रा मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपकी नींद में करीब ढाई दशकों से खलल डालने का अपराधी हूं।फिर फिर यह अपराध कर रहा हूं।मेरे खिलाफ गुस्सा भी मुबारक हो।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया। ओयहोय। होयहोय।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया। ओयहोय। होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण। बूझसको तो बूझ लो। भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है, अधिनायक नरसिस महानो ह।


गौरतलब है कि जबकि दो करोड़ कर्मचारियों और पेंशनभोगियो को वेतन और पेंशन की बैंकों में जमा रकम कतार में रोजाना घंटों खड़ा होने के बावजूद अब नोटबंदी के इतना अरसा गुजर जाने के बावजूद नहीं मिला है और अनेक लोगं ने कतार में खड़े खड़े दम तोड़ दिया है,ऐसे में  कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) ने 2016-17 के लिए भविष्य निधि जमा पर 8.65 प्रतिशत ब्याज दर तय की है।

मरे हुए चार करोड़ शुतुरमुर्गों पर कुठाराघात कर दिया है मुक्तबाजारी नस्ली तानाशाही ने।मरो हुओं में चूंकि किसी हरकत की कोई उम्मीद होती नहीं है,खासतौर पर जब पगार सरकारी हो और ऊपरी आय मोटी हो,भत्ते रंगबिरंगी हो,तो पीएफ की क्यों परवाह करें शुतुरमुर्ग।

गनीमत है शुतुरमुर्गों,कयामत सिर्फ फिलहाल उनके लिए है, जिनकी पगार छोटी है,जिनके भत्ते नहीं हैं,पेंशन भी नहीं है और एकमात्र बचत पीएफ है,उनके लिए यह जोर का झटका धीरे से है।

इस नीम करेला के बाद गाजर का हलवा भी है नौकरी पेशा शुतुरमुर्ग समुदाय के लिए,ताकि जोर का झटझटका धीरे से लगे।सरकार नोटबंदी के बाद आम आदमी को बड़ी राहत देने की तैयारी कर रही है। इस बार इनकम टैक्स स्लैब में बड़े बदलाव होंगे। सीएनबीसी-आवाज़ की एक्सक्लूसिव खबर के मुताबिक 4 लाख रुपये तक की आमदनी पर टैक्स छूट का एलान संभव है। सरकार की ओर से बजट में इसका एलान हो सकता है।


मनी कंट्रोल के मुताबिक 4 लाख रुपये तक की आमदनी पर कोई टैक्स नहीं लगेगा, तो 4 लाख रुपये से ज्यादा और 10 लाख रुपये तक की आमदनी पर 10 फीसदी टैक्स लगाया जाएगा। 10 लाख रुपये से ज्यादा और 15 लाख रुपये तक की आमदनी पर 15 फीसदी टैक्स संभव है। 15 लाख रुपये से ज्यादा और 20 लाख रुपये तक की आमदनी पर 20 फीसदी टैक्स लगाया जा सकता है। 20 लाख रुपये से ऊपर की आमदनी पर 30 फीसदी टैक्स लगेगा।


गौरतलब है कि अभी 2.5 लाख रुपये तक की आमदनी पर कोई टैक्स नहीं देना पड़ता है, जबकि 2.5 लाख रुपये से ज्यादा और 5 लाख रुपये तक की आमदनी पर 10 फीसदी का टैक्स लागू है। वहीं 5 लाख रुपये से ज्यादा और 10 लाख रुपये तक की आमदनी पर 20 फीसदी का टैक्स लागू है। 10 लाख रुपये से ज्यादा की आमदनी पर 30 फीसदी की दर से टैक्स देना होता है।

शुतुरमुर्गों के लिए यह बेशकीमती सौगात है।

शुतुरमुर्ग खुश रहें ,तो आम जनता तो घर की मुर्गी है,जब चाहे,जैसे चाहे,हलाल कर दो।


गौरतलब है कि  बेंगलुरु में सीबीटी की बैठक में इस बाबत फैसला लिया गया। कर्मचारियों के लिए यह निश्चित तौर पर बुरी खबर है क्योंकि पीएफ पर यह ब्याज दर पिछले साल के मुकाबले कम है। पिछले साल यह 8.8 फीसदी थी। ईपीएफओ के अंशधारकों की संख्या चार करोड़ से अधिक है और इस फैसले से ये सभी लोग प्रभावित होंगे।

नौकरीपेशा शुतुरमुर्ग रीढ़विहीन प्रजाति की बचत में दिनदहाड़े डकैती के सुनहले दिन। नौकरीपेशा लोगों के लिए ईपीएफ बचत का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण जरिया है। हर महीने उसकी सैलरी का 12 फीसदी हिस्सा इस अकाउंट में चला जाता है। कर्मी के कंट्रीब्यूशन का एक हिस्सा एंप्लॉयी पेंशन स्कीम (ईपीएस) में भी जाता है।

पीएफ में 24 फीसद तक कर्मचारी अपने हिस्सा में बचत की रकम बढ़ाने के लिए जमा कराते हैं,जहां दिनदहाड़े डाका डाला है अच्छे दिनों के बाजीगर ने।

गौरतलब है कि ईपीएफओ के 31, मार्च 2016 के आकंड़ों के मुताबिक 3,76,22,440 सदस्य, ईपीएफमें अपना योगदान कर रहे हैं। राज्य के हिसाब से देखें तो दिल्ली में 24,92,295- आंध्र प्रदेश (तेलांगना सहित) में 32,92,532- कर्नाटक में 45,61,743- महाराष्ट्र में 74,99,727 – केरल में 10 लाख से ज्यादा तिमल नाडु में 45,27,43- मध्य प्रदेश में 9 लाख से ज्यादा सदस्य, उत्तर प्रदेश में 16 लाख से ज्यादा ईपीएफमें अपना योगदान कर रहे हैं। वहीं जिन राज्य में सबसे कम सदस्य योगदान कर रहे हैं वह इस प्रकार हैं। बिहार- 2 लाख से ज्यादा, छत्तीसगढ़- 3 लाख से ज्यादा, गोवा- 1 लाख से ज्यादा, उत्तराखंड- 4 लाख से ज्यादा, झारखंड- 4 लाख से ज्यादा ...

इस पर तुर्रा यह कि केंद्रीय श्रम व रोजगार राज्यमंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने संवाददाताओं से कहा, हमने 2016-17 के लिए ईपीएफअंशधारकों को 8.65 प्रतिशत ब्याज देने का फैसला किया है। सभी भागीदारों के साथ व्यापक चर्चा के बाद यह फैसला किया गया है। हमने यह फैसला बहुत सोच विचार कर किया है।

इस पर भी तुर्रा अरुण जेटली ने कहा कि आरबीआई के पास पर्याप्त कैश मौजूद है जिसकी सप्लाई में 30 दिसंबर के बाद भी कमी नहीं आएगी। सरकार ने डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने के लिए छोटे कारोबारियों को टैक्स में छूट देने का एलान किया है। जेटली ने मंगलवार को कहा कि छोटे कारोबारियों के लिए 2 करोड़ के टर्नओवर पर प्रॉफिट 8% यानी 16 लाख रुपए माना जाता है। अगर कोई कारोबारी डिजिटल ट्रांजैक्शन में बिजनेस करेगा तो उसके लिए यह लिमिट घटाकर 6% यानी 12 लाख रुपए मानी जाएगी। इस तरह डिजिटल ट्रांजैक्शन करने पर उसे कम टैक्स देना पड़ेगा।

शुतुरमुर्गों,इसके अलावा ताजा फरमान यह है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने साफ किया है कि 30 दिसंबर तक कोई व्यक्ति यदि एक बार में कितने भी पुराने नोट जमा करता है, तो उससे कोई पूछताछ नहीं की जाएगी, लेकिन यदि कोई बार-बार ऐसे नोट जमा करने बैंक में जाता है तो उसे पूछताछ का सामना करना पड़ेगा। वित्त मंत्री ने कहा कि पुराने नोट लेने के लिए कुछ क्षेत्रों में मिलने वाली छूट पिछले हफ्ते खत्म हो चुकी है, इसलिए अब लोगों के पास ऐसे नोट सिर्फ बैंक में ही जमा करने का विकल्प है। गौरतलब है कि रिजर्व बैंक ने पुराने नोट जमा करने के लिए सख्त नियमों की घोषणा की थी।

बहरहाल देहात के लोग मरे या जिये,इससे शहरी शुतुरमुर्गों को कोई फर्क पड़ता नहीं है।ये कत्लेआम और भुखमरी पर जश्न मनाते हैं।

शुतुरमुर्गों,उपभोक्ता बाजार का जलवा यह है कि नोटबंदी की घोषणा के बाद चंडीगढ़ में हुए निगम चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए अच्छी खबर लेकर आए हैं। पार्टी को यहां बंपर जीत हासिल हुई है। अभी तक की मतगणना में 26 सीटों में से 20 पर बीजेपी-अकाली गठबंधन ने जीत दर्ज की है। इनमें से 19 सीटें बीजेपी ने जबकि 1 सीट अकाली ने जीती है। उधर कांग्रेस के हिस्से सिर्फ 4 सीटें आई हैं। बीजेपी ने जीत का जश्न मनाना भी शुरू कर दिया है। जाहिर है कि बीजेपी इन नतीजों को इस बात से ही जोड़ेगी कि तमाम तकलीफों को झेलने के बाद भी लोग मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले के साथ खड़े हैं।

शुतुरमुर्गों,बाकी दश के चुनाव नतीजे भी फासिज्म के राजकाज के हक में हो तो ताज्जुब कभी मत मानिये।आपकी बड़ी मेहरबानी है आम जनता पर।

फिरभी गौरतलब है कि  जमा करने के कड़े नियम, ईपीएफदर में कटौती को दोहरा सर्जिकल स्ट्राइक करार देते हुए कांग्रेस ने मांग की कि मोदी सरकार बैन किए गए नोटों में 5 हजार रूपये से अधिक की नकदी जमा पर कड़ी पाबंदी को वापस ले। साथ ही कांग्रेस ने 2016-17 के लिए ईपीएफओ ब्याज दरों को कम करने को लेकर भी सरकार पर निशाना साधा। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने संवाददाताओं को बताया, '' मोदी सरकार ने आम आदमी को दोहरा सर्जिकल हमला किया है।

पीएफ का सूद घटा दिया गया है।बधाई।

नौकरीपेशा शुतुरमुर्ग प्रजाति विलुप्तप्राय है।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको गैंडों की खाल मुबारक हो।

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मेरे देश के महान डिजिटल कैशलैस शुतुरमुर्गों, आपको भारत पाक युद्ध,चीन के साथ छायायुद्ध,बांग्लादेश विजय मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपको अपने प्यारे बच्चों के कटे हुए हाथ पांव,लहूलुहान दिलोदिमाग मुबारक हो।आम जनता का कत्लेआम मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों आपको अपनी महाकालनिद्रा मुबारक हो।

मेरे देश के महान शुतुरमुर्गों,आपकी नींद में करीब ढाई दशकों से खलल डालने का अपराधी हूं।फिर फिर यह अपराध कर रहा हूं।मेरे खिलाफ गुस्सा भी मुबारक हो।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया। ओयहोय। होयहोय।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया। ओयहोय। होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण। बूझसको तो बूझ लो। भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है, अधिनायक नरसिस महानो ह।

हमने निजीकरण,उदारीकरण और ग्लोबीकरण के मुक्तबाजार में आम जनता और खासकर जाति व्यवस्था के तहत और भौगोलिक नस्ली अस्पृश्यता के तहत नरसंहारी अश्वमेध अभियान के शिकार निनानब्वे फीसद जनता को चौबीसों घंटे जानकारी देने के सिवाय कुछ भी नहीं किया है पिछले 25 सालों के दौरान।

हम देश भर में हर सेक्टर के कर्मचारियों को विनिवेश का फंडा समझाने की कोशिशें लगातार जारी रखी है।नतीजा इसीलिए हमारे लिए तबाही का सबब है।

शुतुरमुर्गों,नवउदारवाद की दस्तक शुरु होने से पहले हमने अमेरिका से सावधान पहले खाड़ी युद्ध के दौरान लिखना शुरु करके देश को साम्राज्यवादियों का उपनिवेश बनाकर रंगभेदी मनुस्मृति शासन लागू करने के खिलाफ लगातार चेतावनी दी है।

हमारे लोग सावधान नहीं हुए।हम कारपोरेट मीडिया और संपन्न मौकापरस्त मेधा के सत्तावर्ग की काली सूची में आ गये।

शुतुरमुर्गों,लगातार बड़े अखबारों के संपादकीय में रहकर 36 सालों से दैनिक संस्करणों के संपादन प्रकाशन में लगे रहने के बावजूद मुझे दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर कर दिया गया है।जिसका मुझे अफसोस नहीं है।

हमने लगभग पूरे देश की यात्राएं इस दौरान कर ली और लगभग हर सूबे में सभाओं और सम्मेलनों में सत्ता वर्ग के नरसंहार कार्यक्रम के बारे में चेतावनी दी है।

अभिव्यक्ति के हम माध्यम से हम और हमारे तमाम साथी लगातार मुक्तबाजार के विध्वंस के बारे में चेताते रहे हैं।

आम लोग अर्थशास्त्र नहीं समझते लेकिन पढ़े लिखे लोग अर्थशास्त्र और विज्ञान,राजनीति और गणित जरुर जानते होंगे,ऐसी हमारी उम्मीद थी।वे कितना समझते हैं,कितना नहीं समझते हम नहीं जानते ,लेकिन पानी सर के ऊपर हो जाने के बावजूद वे कमसकम खुद को बचाने के लिए कोई हरकत नहीं कर रहे हैं।

बहरहाल मीडिया के मुताबिक  भारतीय उद्योग जगत ने शनिवार को कहा कि नोटबंदी का देश की अर्थव्यवस्था पर अल्पकालिक असर होगा, इसलिए सरकार को उत्पादकता और खपत बढ़ाने के लिए कदम उठाने चाहिए। उद्योग जगत ने आगामी बजट में कंपनी टैक्स को कम करने पर भी जोर दिया है।

उद्योग मंडलों और निर्यातक संगठनों के प्रतिनिधियों ने शनिवार को वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ बजट पूर्व चर्चा में यह बात कही। उल्लेखनीय है कि सरकार ने 500 और 1000 रुपये के नोटों को 8 नवंबर को चलन से हटा दिया।इसके साथ ही सरकार को सरकारी कंपनियों (पीएसयू) में विनिवेश तेज करने, कॉरपोरेट टैक्स को घटाकर 18 प्रतिशत करने और मैट में कमी का सुझाव भी दिया गया है।

उद्योगपति राजन मित्तल ने बैठक के बाद कहा, 'बैठक में नोटबंदी पर भी चर्चा हुई. हम चाहते हैं कि इस कारण आम लोगों को हो रही दिक्कतें दूर हो और मुझे पूरा भरोसा है कि सरकार इस पर काम कर रही है।'

फियो के अध्यक्ष एससी रल्हन ने निर्यात बढ़ाने के लिए निर्यात विकास कोष बनाने की वकालत की। वहीं फिक्की के अध्यक्ष हर्षवर्धन नेवतिया ने भी कहा कि नोटबंदी का अर्थव्यवस्था पर अल्पकालिक असर होगा।

भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने कहा कि दीर्घकालिक लिहाज से नोटबंदी सही और स्वागत योग्य कदम है, लेकिन उद्योग जगत में यह व्यापक रूप से महसूस किया जा रहा है कि त्वरित रूप से जो गिरावट दिखाई दे रही है, हमें उसकी भरपाई करने की जरूरत है।

उद्योग मंडल एसोचैम ने कहा कि नोटबंदी के कदम के बाद सरकार को कराधान क्षेत्र में सुधारों को मजबूती से आगे बढ़ाना चाहिए और निवेश चक्र में सुधार के लिए कदम उठाए जाने चाहिए।

एसोचैम ने कहा है, 'नोटबंदी से आर्थिक गतिविधियों में पैदा गतिरोध के बावजूद चालू वित्त वर्ष की आर्थिक वृद्धि पिछले दो साल के मुकाबले थोड़ी ही कम रहेगी, इसके बावजूद भारत कई प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले बेहतर स्थिति में होगा।'

देश में अमन चैन है।

सारे शुतुरमुर्ग चुप हैं।

बाबासाहेब ने इन्ही शुतुरमुर्गों के बारे में कहा था  कि पढ़े लिखे लोगों ने उन्हें धोखा दिया है।



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कायदा कानून, लोकतंत्र, संविधान,संसद की कोई परवाह नहीं है फासिज्म के राजकाज को,इसीलिए मन मर्जी माफिक जब तब फतवे और फरमान!

पलाश विश्वास


आयकर विभाग ने साढ़े तीन लाख करोड़ के कालाधन निकलने का ब्यौरा पेश कर दिया है।अब कालाधन कहां है,यह फिजुल सवाल सवाल कृपया न करें।बल्कि अपने अपने खातों में लाखों करोड़ों का कैश जमा होने का इंतजार करें।आगे छप्पर फाड़ सुनहले दिन हैं।

गौरतलब है कि सबसे ज्यादा कालाधन बंगाल में ममता दीदी के राजकाज में बताया जा रहा है।

बंगाल में किसी राजनेता के यहां छापा नहीं पड़ा है।बहरहाल मध्यप्रदेश में किसी वासवानी पर छापा पड़ा है।गुजरात में चायवाले अरबपति के यहां या छापे पड़े हैं।कितने और कौन चायवाले गुजरात में अबहुं अरबपति खरबपति हैं,उ सब आगे छापा पड़ने पर जगजाहिर हुआ करै हैं।बंगाल के राजनेताओं क पहले की तरह सीबीआई का नोटिस ही मिला है।

छापा तमिलनाडु के मुख्यसचिव के यहां जरुर पड़ा है।

गौरतलब है कि नोटबंदी के बाद कालेधन के खिलाफ चलाए गये देशव्यापी अभियान में आयकर विभाग ने अबतक 3,185 करोड़ रुपये से अधिक की अघोषित आय का पता लगाया है जबकि सिर्फ  86 करोड़ रुपये के नये नोट जब्त किए गये। आधिकारिक सूत्रों के अनुसार नोटबंदी के बाद से आयकर अधिकारियों ने देशभर में जांच, सर्वे और पूछताछ की 677 कार्रवाइयां की। इस दौरान टैक्स चोरी और हवाला से जुड़े लेनदेन के लिए विभिन्न इकाइयों को 3,100 से अधिक नोटिस जारी किए गए।

कालाधन जरुर पकड़ा जायेगा या फिर सारा कालाधन सफेद धन बन जायेगा और हिंदू राष्ट्र भारतवर्ष मुकम्मल रामराज्य बन जायेगा।सतजुग वापस हो रहा है।

हम तेजी से अमेरिका बनते हुए उससे भी तेजी से इजराइल बनने लगे हैं।

इसलिए रिजर्व बैंक के नियम बदलने के लिए रोज रोज फतवा और फरमान जारी करने से पहले हमने इसकी खबर नही ली कि अमेरिकी फेडरल बैंक के कामकाज में अमेरिकी सरकार के राजकाज का कितना दखल और किस हद तक का दखल होता है।कुल कितनी बार फेडरल बैंक के नियम अमेरिकी सरकार ने बदले हैं।

हम विद्वतजनों में शामिल नहीं हैं,कोई महामहिम विद्वत जन हमारी इस शंका का समाधान करें तो आभारी रहेंगे।

अमेरिका या इजाराइल न सही,दुनिया के किसी और बड़ी आत्मनरिभर देश की अर्थव्यवस्था में नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक के पचास बार नियम बदलने की कोई नजीर दिखायें तो नोटबंदी के बारे में हमारी गलतफहमी दूर हो।

मसलन नोटबंदी के बाद लगातार बदले जा रहे नियमों के बीच एक बार फिर आरबीआई ने नया नोटिफिकेशन जारी किया है। आरबीआई ने सफाई दी है कि 5000 रुपये से ज्यादा के नोट जमा कराते वक्त लोगों से अब बैंक अधिकारी कोई सवाल जवाब नहीं करेंगे। केवाईसी खातों पर एकमुश्त जमा वाला नियम लागू नहीं होगा।

दरअसल, आरबीआई ने 19 दिसंबर को एक आदेश जारी किया कि 30 दिसंबर तक 5000 रुपये से ज्यादा रकम जमा कराने पर आपको बैंक को बताना होगा कि यह रकम कहां से आई? आपने अब तक इसे जमा क्यों नहीं करवाया? इस फैसले के खिलाफ देशभर में गुस्सा देखा गया।

भक्तजन चाहें तो गिनीज बुक आफ रिकार्ड में यह कारनामा दर्ज करवाने की पहल करें,तो बेहतर।

उत्तराखंड से खबर आयी है कि आधार नहीं तो राशन नहीं।

नया फतवा है कि वेतन भुगतान भी कैशलैस अनिवार्य है।विधेयक तैयार है।

कारोबारी और उद्योगपति अब चाहें तो अपने छोटे कर्मचारियों को भी ऑनलाइन या चेक से सैलरी दे सकते हैं। केंद्र सरकार ने इसके लिए अध्यादेश के जरिए पेमेंट और वेजेज एक्ट, 1936 में सुधार का रास्ता साफ कर दिया है। फिलहाल 18000 तक तनख्वाह वाले कर्मचारियों को कैश में पेमेंट देने का प्रावधान है। अभी अगर किसी को अकाउंट में पेमेंट देनी हो तो कर्माचारी से लिखित अनुमति लेनी पड़ती है। सुधार के बाद राज्य ये तय कर पाएंगे कि किन उद्योगों या कारोबार में कैशलेस लागू किया जाए।राज्य को दी गई शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, केरल और हरियाणा में कैशलेस पेमेंट के प्रावधान पहले से मौजूद हैं।

शगूफों की पूलझड़ी अनारो अनार है।

अच्छे सुनहले दिनों का फीलगुड महामारी है।

राजनेताओं और राजनीतिक दलों के कालाधन को सफेद करने के करिश्मे के बाद अब शगूफा है कि सियासी पार्टियों की ब्लैकमनी की हेराफेरी पर चुनाव आयोग शिकंजा कसने वाला है। नोटंबदी के बाद चुनाव आयोग करीब 200 दलों की मान्यता खत्म कर सकता है। ये वो दल हैं जो सिर्फ कागजों पर हैं। इन दलों ने साल 2005 से कोई चुनाव नहीं लड़ा है। चुनाव आयोग को अंदेशा है कि ये दल सिर्फ काले धन को सफेद करने का खेल करती हैं।

भरोसा करने की वजह भी है क्योंकि आयकर विभाग ने तमिलनाडु के मुख्य सचिव राम मोहन राव के घर और दफ्तर में छापा मारा है। जो जानकारी मिल रही है उसके मुताबिक ईडी भी पूरे मामले की जांच करेगी और कभी भी राम मोहन राव से पूछताछ हो सकती है। पीएमएलए के तहत मामला दर्ज भी कर लिया गया है।सूत्रों के मुताबिक इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने ये छापा शेखर रेड्डी से मिली जानकारी के बाद मारा है। शेखर रेड्डी राव का करीबी माना जाता है। आईटी विभाग ने कुछ दिन पहले शेखर रेड्डी के यहां छापा मारकर 130 करोड़ रुपये की अघोषित संपत्ति जब्त की थी। जिसमें 34 करोड़ रुपये के नए नोट भी थे। इसके अलावा 127 किलो सोना भी बरामद किया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी बुनियादी सेवा में आधार को अभीतक अनिवार्य नहीं माना।नोटबंदी के आलम में रोजाना हर बैंक में न जाने कितनी बार सुप्रीम कोर्ट की अवमानना हुई है कि नोट बदल में आधार दस्तावेज का ही इस्तेमाल हुआ है।

विद्वतजनों में अब रंग बिरंगे बगुला भगत अग्रिम पंक्ति में क्या,तानाशाह के दीवाने खास के न जाने कितने चित्र विचित्र रत्न हैं।वे तमाम झोला छाप लोग लखटकिया सूट के नौलखा हार हैं।संसद नहीं,निर्वाचित जनप्रतिनिधि नहीं,विशेषज्ञ नहीं,अर्थशास्त्री नहीं,लोकतांत्रिक स्वयत्त संस्थाओं के प्रतिनिधि नहीं,सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र के प्रतिनिधि नहीं,यहां तक कि राजघराना स्वयंसेवक परिवार के दिग्गज भी नहीं,कारपोरेट निजी क्षेत्र के ऐरा गैरा नत्थू खैरा,सर से पांव तक केसरिया रंगा सियारवृंद देश के बीते हुए अतीत को वर्तमान तो बना ही चुके हैं,अब घनघोर अमावस्या की काली रात हमारा भविष्य है।कटकटेला अंधियारा गगन घटी घहरानी,अब सभी जिंदा हों या मुर्दा,याद कर लो अपनी अपनी नानी,कयामत भारी है सयानी कि बेड़ा गर्क हुआ है।

सेल्युकस,अति विचित्र यह भारतवर्ष है।

बाबाओं,बाबियों का यह देश है मृत्यु उपत्यका,सेल्युकस।

राजनीति,राजकाज,राजनय करोड़पति,अरबपति,खरबपति घरानों और कुनबों की जागीर है सेल्युकस।

अगवाड़ा पिछवाड़ा खोलकर खुलेआम देश बेचने वाले लोग मसीहा है,सेल्युकस।

न शर्म है,न हया है,न गैरत है ,न जमीर है,सिर्फ कमीशनखोरी है,सेल्युकस।

राजनीतिक चंदा अब इकलौता सफेद धन है और जनता की सारी जमा पूंजी कालाधन है ,सेल्युकस।

सपेरों,मदारियों और बाजीगरों के हवाले अर्थव्यवस्था है,सेल्युकस।

सब कुछ ससुरो बेच दियो है,बाकी अमेरिका इजराइल हवाले हैं,बचा अंध राष्ट्रवाद का दंगा फसाद,जनता का कत्लेआम,मिथ्याधर्म कर्म का पाखंड और मुक्त बाजार है,सेल्युकस।

शिक्षा चिकित्सा शोध ज्ञन विज्ञान अनुसंधान सब हराय गयो,बाकी बचा पेटीएमपीएमएफएममंकीबातेंजिओजिओ है सेल्युकस।

यह अंधेर नगरी चौपट राजा है,भागो रे भागो सेल्युकस,जानबचा लाखों पावैं।

नोटबंदी के कैसलैस डिजिटल इंडिया में खेत खलिहान कल कारखाने हाट बाजार मरघट हैं और दिशा दिशा में मृत्युजुलूस का जलवा है।

हाट बाजार चौपट हैं।दुकानें खुली खुली बंद हैं।शापिंग माल की बहार है।ईटेलिंग है।खुदरा बाजार से बेदखल हैं।बाजार में फिर लौटने की गुंजाइश भी नहीं है।अब बनिया पार्टी की सरकार छोटे मंझौले बनियों का ढांढस बंधा रही है,जिंदा रहोगे,मरोगे नहीं कि डिजिटल हो जाओ,पेटीएम करो कि छिःचालीस फीसद टैक्स माफ है।

कारोबार छिन लियो है।छीना है बाजार।गाहक भी छीन लियो है।नकदी छीन लियो।पाई पाईको सफेद साबित करने में कतार में खड़े हैं।मक्खियां भी शर्मिंदा हैं।मच्छर भी पास नहीं भटक रहे हैं।छापे दनादन पड़ रहे हैं।चंदा, वसूली भर भरकर बाजार में टिकना मुश्किल है।

खुद शहंशाह के खास मुलुक से वहां के कपड़ा कारोबार के बारे में खबर है कि नोटबंदी के चलते अहमदाबाद में गारमेंट कारोबार की हालत खस्ता है। सबसे बुरा असर प्रवासी कारीगरों पर पड़ा है। बड़ी संख्या में कारीगर अपने गांव अने जपद और राज्य में वापस लौट चुके हैं। हालात में जल्दी सुधार नहीं दिखा तो बाकी लोग भी वापस पलायन पर मजबूर हो जाएंगे।पूरे गुजरात में कारोबार का हाल लालटेन है।वायव्रेंट गुजरात का अंधियारा इतना घना है,तो बाकी देश के गरीब पिछड़े राज्यों और जनपदों में क्या कहर नोटबंदी ने बरपा है,समझ सकें तो समझ लीजिये।

मीडिया की खबरों के मुताबिक अहमदाबाद में 5000 छोटे बड़े कारखाने हैं जहां लोकल से लेकर कई बड़े ब्रांड्स के कपडे बनते हैं। यहां कपडे की कटिंग और सिलाई से लेकर प्रोडक्ट फिनिशिंग तक लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। नोटबंदी के बाद से होलसेलर्स के ऑर्डर लगातार घट रहे हैं। कारोबार आधा हो गया है। बेरोजगारी में प्रवासी कारीगर गांव वापस लौट रहे हैं। जो बचे हैं उन्हें वक्त पर पूरी तनख्वाह नहीं मिलती।

गुजरात में गारमेंट उद्योग से जुड़े करीब 3 लाख लोग है जिसमे से 1.5 लाख कारीगर गुजरात बाहर के राज्यों से आते है। इन में से एक लाख जितने कारीगर अब तक रोजगार की कमी के चलते अपने गाव वापस लौट चुके है। अब जो बचे है उनको इस बात की चिंता है की 8-10 दिन में हालत नहीं सुधरे तो उन्हें भी अपने गाव वापस लौटना पड़ेगा।

फिर जमा पूंजी गुड़ गोबर कर दियो और बनिया पार्टी बनियों को गधा समझ लियो हो गधों को सावन की हरियाली दिखा रहे हैं रेगिस्तान की रेतीली आंधी में।

पाकिस्तान को जीतने का ख्वाब दिखा कर चूना लगा दियो रे।

रामजी की सौगंध खाकर लूट लियो रे।

राममंदिर न बना डिजिटल बना दियो रे।

रथयात्रा में बनियों की शवयात्रा निकार दियो रे।

हिंदू राष्ट्र कहि कहि के अंबानी अडानी टाटा बिड़ला राष्ट्र बना दियो रे।

महतारी को याद न करे कोय,जोरु का ख्याल भी ना होय,छुट्टा सांढ़ ने नानी याद करा दियो रे।

गनीमत है सेल्युकस कि गधों के सींग नहीं होते।

कमसकम भैंस भी होते तो कुछ करके दिखाते,सेल्युकस।

ससुर कुतवा भी अगर रहे होते तो काटते न काटते भौंकते जरुर,सेल्युकस।

सब गोमाता की संतानें हैं।

गायपट्टी के भगवे पहरुये हैं।

तानाशाह माय बाप हैं।

मारे चाहे जिंदा रक्खे।

मर्जी उनकी।

अब जिनगी पेटीएम सहारे है।कारोबार पेटीएमओ है।धंधा पेटीएमपीएम ह।

तेल कुंओं की आग में झुलसाकर शिक कबाब बना दियो है,व्यापार कारोबार का सत्यानाश कर दिया है और अब छिःचालीस फीसद की टैक्स माफी का सब्जबाग दिखाकर चंडीगढ़ की तरह नरसंहार अभियान में देश के तमाम बनियों का कैश लूटकर इलेक्शनवा जीतने का वाह क्या जुगाड़ दिलफरेब है,सेल्युकस।

तनिक मीडिया की ओर से पेश इन तथ्यों पर गौर करेंः

डिजिटल इंडिया सरकार का संकल्प है और नोटबंदी के बाद ज्यादा से ज्यादा लोगों को डिजिटल पेमेंट या बिना कैश के पेमेंट करने को कहा जा रहा है। इसके लिए सरकार ने तरह तरह की रियायतों का एलान भी किया है। लेकिन अब तक ये इंसेंटिव सरकारी संस्थाओं तक सीमित रहे हैं और बहुत ही छोटी मात्रा में डिस्काउंट देते हैं। सच तो ये है कि आज भी आम कंज्यूमर के लिए डिजिटल पेमेंट का खर्च कैश से ज्यादा है।  कार्ड स्वाइप करने तरह-तरह के चार्ज है। ऑनलाइन शॉपिंग, मूवी टिकट खरीदारी, एयरलाइन टिकट हर चीज पर एक्स्ट्रा चार्ज है। कुछ रियायतें 30 दिसंबर तक दी गयी है। लेकिन उसके बाद क्या। क्या बैंक, कार्ड कंपनियां, मोबाइल वॉलेट, दुकानदार, ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स पर चार्ज लगाने की कोई लिमिट लगेगी। फिलहाल इन पर कोई निगरानी नही है। और अब तक डिजिटल पेमेंट सिर्फ एक तबके के लिए विकल्प रहा है। लेकिन अगर भारत को लेस कैश सोसायटी बनाना है तो इन चार्जस को घटाना होगा।


नोटबंदी के बाद कैशलेस पेमेंट पर पेट्रोल-डीजल के लिए 0.75 फीसदी की छूट दी गई है। मंथली सीजन टिकट के लिए 0.5 फीसदी, रेलवे कैटरिंग 5 फीसदी छूट दी है। इतना ही नहीं रेलवे टिकट के लिए डिजिटल पेमेंट पर इंश्योरेंस की सुविधा दी गई है। जिसके तहत ऑनलाइन रेल टिकट पर 10 लाख का इंश्योरेंस मुहैया कराया जाएंगा। वहीं वित्त मंत्री ने हाल ही में घोषणा कि थी कि रेलवे की बाकी सुविधाओं की कार्ड पेमेंट पर छूट दी जाएगी। रेलवे की बाकी सुविधाओं पर 5 फीसदी की छूट की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी।


वहीं ऑनलाइन पेमेंट पर जनरल इंश्योरेंस में 10 फीसदी की छूट देने की जानकारी देते हुए वित्त मंत्री ने कहा था कि ऑनलाइन पेमेंट पर लाइफ इंश्योरेंस में 8 फीसदी छूट दी जाएगी। केंद्र सरकार और पीएसयू से लेन-देन पर चार्ज नहीं लिया जाएगा और डिजिटल पेमेंट रेंटल को बैंक सुनिश्चित करेंगे। पीओएस, कार्ड का रेंटल 100 से अधिक नहीं होगा।


टोल प्लाजा पास के लिए ई-पेमेंट पर 10 फीसदी छूट दी जाएगी। हालांकि इन छूट की तारीख को अलग-अलग विभाग तय करेंगे। वित्त मंत्री के अनुसार आगे चलकर पॉलिटिकल फंडिंग भी ऑनलाइन हो सकती है। पैसे जमा करने से काला धन सफेद नहीं हो जाता बल्कि जमा पैसा काला धन है या नहीं,जांच से पता चलेगा।


गुलाम गिरि मुबारक! ब्राह्मण भले विरोध,प्रतिरोध करें,शूद्रों,अछूतों और आदिवासियों को हर हाल में चाहिए मनुस्मृति शासन! फासिज्म के राजकाज के पक्ष में खड़े होकर अपनी खाल मलाईदार करने के अलावा अब अंबेडकर मिशन का कोई दूसरा मतलब नहीं रह गया है। पलाश विश्वास

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गुलाम गिरि मुबारक!

ब्राह्मण भले विरोध,प्रतिरोध करें,शूद्रों,अछूतों और आदिवासियों को हर हाल में चाहिए मनुस्मृति शासन!

फासिज्म के राजकाज के पक्ष में खड़े होकर अपनी खाल मलाईदार करने के अलावा अब अंबेडकर मिशन का कोई दूसरा मतलब नहीं रह गया है।

पलाश विश्वास

कहना ही होगा,संघ परिवार के फासिज्म के राजकाज के खिलाफ पढ़े लिखे ब्राह्मण जितने मुखर हैं,उसके मुकाबले तमाम शूद्र,आदिवासी,आरक्षित पढ़े लिखे पिछडे़,दलित,आदिवासी और पढ़ी लिखी काबिल स्त्रियां मौन,मूक वधिर हैं।

ब्राह्मणों को गरियाने में समाज के प्रतिप्रतिबद्धता जगजाहिर करने वाले ज्यादातर लोग ब्राह्मण धर्म के हिंदुत्व पुनरूत्थान के साथ हैं और नरसंहारी अश्वमेध अभियान के तमाम सिपाहसालार,सूबेदार,मंसबदार,जिलेदार,तहसीलदार और पैदल सेनाएं भी उन्हीं बहुजनों शूद्रों अछूतों आदिवासियों की हैं।

बजरंगी भी वे ही हैं और दुर्गावाहिनी में भी वे ही हैं।

सलवा जुड़ुम के सिपाही,सिरपाहसालार भी वे ही हैं।

यह ब्राह्मणविरोधी अखंड पाखंड,पढ़े लिखों मलाईदारों का अंतहीन विश्वासघात ही ब्राहमणधर्म का पुनरूत्थान का रहस्य है।अपने लोगों का साथ कभी नहीं देंगे तो बामहणों को गरियाकर अपने लोगों को खुश कर देंगे।मौका मिलते ही गला रेंत देंगे।बहुजनों का आत्समर्पण है।यही दरअसल  बहुजनों की गुलामी का सबसे बड़ा आधार है और इसमें किसी ईश्वर या किसी ब्राह्मण का कोई हाथ नहीं है।

सोशल मीडिया पर अब लाखों बहुजन हैं।

करोडो़ं फालोअर जिनके हैं।

कई तो बाकायदा कारपोरेट सुपरस्टार हैं।

कई दिग्गज संघी सिपाहसालार हैं।

सैकडो़ं रंगे सियार कारपोरेट भी हैं।

बहुजन विमर्श कहां है गाली गलौज के अलावा ,बतायें।

हमें वोट नहीं चाहिए।हमें हैसियत भी कभी नहीं चाहिये थी।

बुरा मानो या भला,अब सर से ऊपर पानी है।सच का सामना अनिवार्य है।

अब कहना ही होगा,बहुजनों की गद्दारी से ही यह हिंदुत्व  का नरसंहारी साम्राज्य बहुजनों का नस्ली कत्लेआम कर रहा है निरंकुश।लेकिन पढ़ा लिखा न बोल रहा है और न कहीं लिख रहा है।सिर्फ अपनी अपनी खाल बचाने में लगे हैं बहुजन पढ़े लिखे।

नागरिक और मानवाधिकारों के बारे में बहुजन खामोश हैं।

रोजगार और आजीविका के बारे में बहुजन चुपचाप हैं।

निजीकरण,उदारीकरण,ग्लोबीकरण,मेहनतकशों के कत्लेआम,किसानों की थोक आत्महत्या,खेती के बाद कामधंधों,व्यापार से आम जनता और बहुजनों की बेदखली,

विनिवेश,छंटनी,तालाबंदी,विदेशी पूंजी,मुक्तबाजार,बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अखंड कारपोरेट राज से  बहुजनों के पेट में दर्द नहीं होता और ब्राह्मण धर्म के सारे कर्मकांड,सारे महोत्सव,सारे अवातार,भूत प्रेत,सारे कसाईबाड़ा उन्ही  के हैं और सूअरबाड़ा में सत्ता के साझेदार सबसे मजबूत वे ही हैं।

जलजंगलजमीन की लड़ाई में बहुजन कहीं नहीं हैं।

आदिवासी भूगोल में सिर्फ संघी हैं,बहुजन कहीं नहीं हैं।

पिछडो़ं और दलितों के बीच अलग महाभारत है।

पिछड़ों का मूसलपर्व अलग है तो दलितों में अनंत मारामारी है।

सलवा जुड़ुम के सैन्यतंत्र के खिलाफ बहुजन मूक वधिर हैं।

नोटबंदी के बारे में बहुजन बुद्धिजीवी फासिज्म के राजकाज के पक्ष में हैं और हर मुद्दे पर डाइवर्ट कर रहे हैं,नोटबंदी के खिलाफ मोर्चे में बहुजन कहीं नहीं हैं।

फासिज्म के राजकाज के पक्ष में खड़े होकर अपनी खाल मलाईदार करने के अलावा अब अंबेडकर मिशन का कोई दूसरा मतलब नहीं रह गया है।

बहुजनों के तमाम राम बलराम कृष्ण कन्हैया पूरा का पूरा यदुवंश अब केसरिया कारपोरेट साम्राज्यवाद के हनुमान और वानरसनाएं हैं।सीता मइया,लक्ष्मी,दुर्गा काली कामाख्या विंध्यवासिनी.चंडी के सारे अवतार और उनके सारे भैरव भी उन्हीं के साथ हैं।राधा भी उन्हीं की हैं।मठों,मंदिरों और धर्मस्थलों के कर्मकांडी ब्राह्मणों के मुकाबले राम से बजरंगी बने बहुजन ब्राह्मणधर्म के सबसे बड़े समर्थक हो गये हैं।जिहादी हो गये हैं कारपोरेट हिंदुत्व के नरसंहारी कार्यक्रम के सारे दलित पिछड़े बहुजन,यही सच है।

ब्राह्मण भले विरोध,प्रतिरोध करें,शूद्रों,अछूतों और आदिवासियों को हर हाल में चाहिए मनुस्मृति शासन!


हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,राजघराना भौते नाराज भयो!

राजघराना मतबल राजकाज का सिरमौर अपना देशभक्त आरएसएस!

बलि,आरएसएस बगुलाभगतों के कारपोरेट लाटरी आयोग से सख्त खफा है!

बलि,अश्वमेधी घोड़ों की जुबान फिसलने लगी है कि देश का बंटाधार करने लगे बगुला भगतों के कारपोरेट गिरोह!


बलि,आरएसएस बगुलाभगतों के कारपोरेट लाटरी आयोग से सख्त खफा है!

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,संघ परिवार के स्वदेशी जागरण मंच की नींद खुल गयी बताते हैं और बगुला भगतों के कब्जे में नीति आयोग की जनविरोधी भूमिका के खिलाफ 10 जनवर को मंच एक सम्मेलन का आयोजन भी करने जा रहा है।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,कल्कि महाराज के राजकाज से जनविद्रोह की भनक शायद नागपुर के पवित्रतम धर्मस्थल को लग गयी है और जैसे कि हम लगातार हिंदुत्व के एजंडे को कारपोरेट नस्ली नरसंहार बता लिख रहे हैं,आम जनता में भी यह धारणा प्रबल हो जाने से ब्राह्मणधर्म के मठों और महंतो में खलबली मच गयी है।

नोटबंदी से आम जनता जो भयानक नर्क रोजमर्रे की जिंदगी,बुनियादी सेवाओं और बुनियादी जरुरतों के लिए जीने को मजबूर है,जो सुरसामुखी बेरोजगारी और भुखमरी के हालात बनने लगे हैं,उस नर्क की आग में संघ परिवार को भी अपना मृत्यु संगीत सुनायी देने लगा है।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,संघी सत्ता वर्चस्व और मनुस्मृति राजकाज के लिए दस दिगंत संकट गगन घटा घहरानी है।उनकी जान मगर बहुजन बजरंगी सयानी है।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,बगुला भगतों ने संघ साम्राज्य की नींव में बारुदी सुरंगे बिछा दी हैं और स्वयंसेवकों को धमाके रोकने के लिए लगा दिया गया है।आगे पीछे बहुजन सिपाहसालारों की अगुवाई में पैदल केसरिया फौजों की किलेबंदी है।

बहुजन नेतृत्व चौसठ आसनों में पारंगत हैं।किस आसन से कौन सी कवायद,प्राणायम कि कपालभाति भांति भांति लिट्टी चोखा,नीतीश लालू, नायडु, मुलायम,अखिलेश-उत्तर से दक्खिन इनकी, सभी की जुबान कैसे कैसे फिसलती जब तब है।कौन किस छिद्र से नाद ब्रह्म सिरजें,हमउ न जाने हैं।

वाह,उनकी दिलफरेब नादानी है।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,यूपी,उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनावों से अब जाहिर है कि संघ परिवार को बहुत डर लगने लगा है।बहुजन बिखरे एक दूसरे से खूब लड़ रहे हैं,तो क्या हुआ।फिजां कयामत है। नोटबंदी की कयामत भारी है कि ज्वालामुखी सुलग रहे  हैं न जाने कहां कहां।पैंट गीली है तो निक्कर भी गीली है।

हिंदुत्व के कारपोरेट एजंडे के लिए आगे शनि दशा बहुत भारी  है और वास्तुशास्त्र,यज्ञ होम,गृहशांति,ग्रहशांति का कोई कर्मकांड इसका खंडन नही कर सकता।संघ परिवार और उनके कारपोरेट हिंदुत्व एजंडा के तरणहार समझ लीजिये कि इस महादेश का कोई ब्राह्मण करने की हालत में नहीं हैं।यह पुण्यकर्म ओबीसी,दलित और आदिवासी होनहार वीरवान अबेडकरी योद्धा सकल सहर्ष करेंगे।करते रहे हैं।

हड़ि!हुड़ हुड़!संसद में सत्ता के खिलाफ आस्था मत विभाजन का इतिहास देख लीजिये कि केंद्र की डगमगाती सत्ता को हर बार कैसे बहुजन क्षत्रपों ने किस खूबी से किस लिए बनाये रखकर बहुजनों का बंटाधार करते रहे हैं।सत्ता में जो भागेदारी है।करोड़पति,अरबपति,खरबपति गोलबंदी में बहुजन सिपाहसालार काबिल कारिंदे हैं।

मूक वधिर बहुजनों को संघ परिवार के लिए उस मृत्युसंगीत का शोर सुनायी नहीं पड़ रहा है तो समझ लीजिये कि अब भी वे गुलामगिरि की हैसियतें खोने के लिए कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं है।उन सबको गुलाम गरि मुबारक।आपको भी।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,अब फासिज्म के राजकाज से पल्ला झाड़ने की तैयारी स्वदेशी जागरण मंच के हवाले है।कहा जा रहा है कि संघ परिवार की लाड़ली ,दुलारी ग्लोबल हिंदुत्व की हुकूमत कतई नहीं,नहीं नहीं,बल्कि  नीति आयोग के कारपोरेट बगुला भगतों के असर में राजकाज चल रहा है।

हड़ि!हुड़ हुड़!मजे की बात यह है हम भी यही कहत लिखत रहे हैं और अब गुड़ गोबर हुआ तो काफी हद तक मान लिया जा रहा है कि इस फासिज्म के राजकाज से हिंदुत्व के महान पवित्र एजंडा या संघ परिवार का कोई लेना देना नहीं है।

नोटबंदी से हालात सुधरने का इंतजार संघ परिरवार अब जाहिर है, करने वाला नहीं है।अपना नस्ली सत्तावर्चस्व और मनुस्मृति शासन बहाल रखने के लिए अपनी ही सरकार के राजकाज के खिलाफ शेषनाग के अलग अलग फन अलग अलग भाषा में बोलने लगे हैं।झोला छाप बगुला भगतों पर अपनी सरकार के सारे पापों का बोझ लादकर संघ परिवार हिंदुत्व के कारपोरेट एजंडे को पाक साफ साबित करने में लगा है।

ताज्जुब की बात यह है कि इस कारपोरेट एजंडे के मनुस्मृति शासन से बहुजनों को कोई खास तकलीफ होती नहीं दिखायी दे रही है।

अंबेडकर मिशन इस मामले में खामोश है और बहुजन अपनी गुलामगिरि की जड़ें आत्ममुग्ध नरसिस महान की वंदना में मजबूत करने में जी तोड़ जोर लगा रहे हैं।

हर कोई राम बनकर हनुमान बनने की फिराक में हैं।

बजरंगी तो कोई भी बन जावे हैं।

पहले से राम से हनुमान बजरंगी वानर बनी बिरादरी की फजीहत उन्हें नजर नहीं आ रही है।

देशभर में कायस्थ,भूमिहार,त्यागी,पहाड़ की तमाम पिछड़ी जातियां जो नेपाल में मधेशी हैं,बंगाल के तमाम ओबीसी वगैरह वगैरह खुद को बाम्हण से कम नहीं समझते।आधी आबादी की जन्मजात गुलाम,दासी,शूद्र स्त्रियां पिता और पति की पहचान से अपनी अस्मिता जोड़कर अपने को दूसरी स्त्रियों से ऊंची जातियां साबित करते रहने में जिंदगी भर नर्क जीती हैं।रोजरोज मरती हैं।जीती हैं।भ्रूण हत्या से बच गयी तो आनर कीलिंग या दहेज हत्या,बलात्कार सुनामी में बच भी गयी तो घरेलू हिंसा,रोज रोज उत्पीड़न के मारे आत्महत्या,पग पग पर अग्निपरीक्षा,फिर भी सती सावित्री सीमता मइया हैं।पढ़ी लिखी काबिल हुई तो भी नर्क से निजात हरगिज नहीं।फिरभी दुर्गावाहिनी उनकी अंतिम शरणस्थली है।नियति फिर वही सतीदाह है।

मनुस्मृति विधान के मुताबिक ये तमाम जातियां और तमाम स्त्रियां,शूद्र ढोल गवांर और पशु ताड़न के अधिकारी शूद्र हैं।

आदिवासी और दलित भी ज्यादा हिंदू,ज्यादा ब्राह्मण हो गये हैं ब्राह्मणों के मुकाबले।कुछ तो जनेऊ भी धारण करते हैं।साधु संत साध्वी बाबा बाबी बनकर ऋषि विश्वमित्र की तर्ज पर ब्राह्मणत्व हासिल करने का योगाभ्यास करते करते विशुध पतंजलि हैं।अभिज्ञान शाकुंतलम् का किस्सा है।महाभारत तो होइबे करै।

विडंबना है कि तथागत गौतम बुद्ध,बाबासाहेब और महात्मा ज्योतिबा फूले,हरिचांद ठाकूर, पेरियार और नारायण स्वामी के ब्रांड से,फिर अब वाम पक्ष के विद्वान भी अपनी अपनी दुकान चलाने वाले तमाम दुकानदार सिर्फ ब्राह्मणों के गरियाकर ही देश में क्रांति कर देना चाहते हैं।

सामाजिक न्याय और समता के आधार पर समाज बनाने के लिए ब्राह्मण धर्म के मुताबिक मनुस्मृति शासन की पैदल सेना और सिपाहसालार बने तमाम लोगों की पूंजी फिर वही जातिव्यवस्था है।पूंजी ब्राह्मणों के खिलाफ गाली है।

ब्राह्मण इस देश में सिर्फ तीन फीसद हैं।

देश में ब्राह्मणों के वोट सिर्फ यूपी में निर्णायक हैं।

बाकी देश में ब्राह्मण अति अल्पसंख्यक हैं।

बाकी राज्यों में और देश भर में राजकाज बहुजनों के वोट से चलता है और उसमें आधी आबादी जाति धर्म नस्ल निर्विशेष शूद्र स्त्रियों की है तो लिंग निर्विशेष आधी से ज्यादा आाबादी शूद्रों की हैं,जिन्हें हम ओबीसी कहते हैं।

आरक्षण और ओबीसी के बाहर भी शूद्र हैं,जैसे स्त्रियां जाति या धर्म या नस्ल के मुताबिक जो भी हों ,मनुस्मृति विधान के मुताबिक शूद्र हैं।

भूमिहार और त्यागी भले खुद को बाम्हण मानते हों,कायस्थ भले ही उनके समकक्ष हों और वे ओबीसी में नहीं आते हों,मनुस्मृति के मुताबिक वे वर्ण में नहीं आते।

वर्ण के बिना कोई सवर्ण नहीं होता।

ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य के अलावा किसी जाति का कोई सवर्ण हो ही नहीं सकता।

फिरभी बहुत सी शूद्र जातियां खुद को सवर्ण मानती हैं और जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता के वे सबसे बड़े समर्थक हैं।

ये तमाम लोग मनुस्मृति बहाल रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

यही फासिज्म के राजकाज का सबसे बड़ा आधार है।

बाबासाहेब डा.भीम राव अंबेडकर के शूद्रों की उत्पत्ति के बारे शोध की रोशनी में शूद्रों की सत्ता में साझेदारी की पहेली काफी हद तक समझ में आती है।लेकिन दलितों और आदिवासियों की भूमिका समझ से परे हैं।

गौरतलब है कि 'शूद्रों की खोज' डॉ अम्बेडकर द्वारा लिखी पुस्तक 'Who Were Shudras?' का हिंदी संस्करण है। 240 पृष्ठ की इस किताब में डॉ अम्बेडकर ने इतिहास के पन्नों से दो सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की है, 1. शूद्र कौन थे? और 2. वे भारतीय आर्य समुदाय का चौथा वर्ण कैसे बने? संक्षेप में पूरी किताब और बाबा साहेब के शोध का निष्कर्ष इस प्रकार है-

1. शूद्र सूर्यवंशी आर्य समुदायों में से थे।

2. एक समय था जब आर्य समुदाय केवल तीन वर्णों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को मान्यता देता था।

3. शूद्र अलग वर्ण के सदस्य नहीं थे। भारतीय आर्य समुदाय में वे क्षत्रिय वर्ण के अंग थे।

4. शूद्र राजाओं और ब्राह्मणों में निरंतर झगड़ा रहता था जिसमें ब्राह्मणों को अनेक अत्याचार और अपमान झेलने पड़ते थे।

5. शूद्रों के अत्याचारों और दमन के कारण उनके प्रति उपजी घृणा के फलस्वरूप ब्राह्मणों नें शूद्रों का उपनयन करने से मना कर दिया।

6. जब ब्राह्मणों नें शूद्रों का उपनयन करने से मना कर दिया तो शूद्र, जो क्षत्रिय थे, सामाजिक स्तर पर अवनत हो गए, वैश्यों से नीचे की श्रेणी में आ गए और इस प्रकार चौथा वर्ण बन गया।


सत्ता और कमसकम सत्ता में साझेदारी के लिए शूद्रों की उत्कट आकांक्षा के बारे में बाबासाहेब के शोध की रोशनी में शूद्र क्षत्रपों की सौदेबाजी, मौकापरस्ती और दगाबाजी की परंपरा साफ उजागर होती है।

इसके विपरीत आदिवासी हड़प्पा मोहंजोदोड़ो समय से वर्चस्ववाद के खिलाफ लगातार जल जंगल जमीन की लड़ाई सामंती तत्वों और साम्राज्यवादी औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ लड़ते रहे हैं।द्रविड़ों और अनार्यों के आत्मसमर्पण के बावजूद,शूद्र शासकों और प्रजाजनों के सत्ता वर्ग के साथ हाथ मिलाते रहने के बावजूद उनका प्रतिरोध,हक हकूक की उनकी लड़ाई में कोई अंतराल नहीं है।

आदिवासियों के इस मिजाज और तेवर के मद्देनजर भारत में कदम रखते ही ईसाई मिशनरियों ने विदेशी शासकों के हितों के लिए उनका धर्मांतरण की मुहिम चेड़ दी।जिससे आदिवासियों में शिक्षा का प्रसार हुआ और काफी हद तक उनकी आदिम जीवनशैली का कायाकल्प भी हुआ।लेकिन ईसाई मिसनरियों को आदिवासियों के धर्मांतरण के बावजूद आदिवासियों को सत्ता वर्ग के साथ नत्थी करने में कोई कामयाबी नहीं मिली।

आजादी के बाद संघियों ने आदिवासी इलाकों का हिंदुत्वकरण अभियान छेडा़ और आदिवासियों के सलवाजुड़ुम कार्यकर्म के तहत एक दूसरे के खिलाफ लामबंद कर दिया।आदिवासियों का जो तबका जल जगंल जमीन के हक हकूक के लिए लगातार प्रतिरोध कर रहे हैं,उनका सैन्य दमन हो रहा है।लेकिन आदिवासियों के शिक्षित तबके को बाहुबली क्षत्रिय जातियों और पढ़े लिखे दलितों की तरह बजरंगी बनाने की मुहिम में स्वयंसेवकों ने ईसाई मिशनरियों को मात दे दी है।

दलितों,पिछड़ों की गुलामगिरि को समझने के लिए महात्मा ज्योतिबा फूले की किताब गुलामगिरि अनिवार्य पाठ है।

महात्मा फूले के बारे में आदरणीय शेष नारायण जी का यह मंतव्य बहुजनों के मौजूदा संकट को समझने में मददगार हो सकता हैः

1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।


महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।


महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्घांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।


महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।


गुलामगिरिःप्रस्तावना

सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज, जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं। ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं। इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए। ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं, यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं। यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है। यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा। वे लोग परदेश से यहाँ आए। उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया। उन्होंने इनके साथ बड़ी अमावनीयता का रवैया अपनाया था। सैकड़ों साल बीत जाने के बाद भी इन लोगों में बीती घटनाओं की विस्मृतियाँ ताजी होती देख कर कि ब्राह्मणों ने यहाँ के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया। दफना कर नष्ट कर दिया।

उन ब्राह्मणों ने अपना प्रभाव, अपना वर्चस्व इन लोगों के दिलो-दिमाग पर कायम रखने के लिए, ताकि उनकी स्वार्थपूर्ति होती रहे, कई तरह के हथकंडे अपनाए और वे भी इसमें कामयाब भी होते रहे। चूँकि उस समय ये लोग सत्ता की दृष्टि से पहले ही पराधीन हुए थे और बाद में ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने उन्हें ज्ञानहीन-बुद्धिहीन बना दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के दाँव-पेंच, उनकी जालसाजी इनमें से किसी के भी ध्यान में नहीं आ सकी। ब्राह्मण-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए, इन्हें हमेशा-हमेशा लिए अपना गुलाम बना कर रखने के लिए, केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रख कर, एक से अधिक बनावटी ग्रंथो की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रंथो में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि, उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं। इस तरह का झूठा प्रचार उस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय के शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए। उन ग्रंथो में यह भी लिखा गया कि शूद्रों को (ब्रह्म द्वारा) पैदा करने का उद्देश्य बस इतना ही था कि शूद्रों को हमेशा-हमेशा के लिए ब्राह्मण-पुरोहितों की सेवा करने में ही लगे रहना चाहिए और ब्राह्मण-पुरोहितों की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब, तभी इन्हें ईश्वर प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा।

लेकिन अब इन ग्रंथो के बारे में कोई मामूली ढंग से भी सोचे कि, यह बात कहाँ तक सही है, क्या वे सचमुच ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं, तो उन्हें इसकी सच्चाई तुरंत समझ में आ जाएगी। लेकिन इस प्रकार के ग्रंथो से सर्वशक्तिमान, सृष्टि का निर्माता जो परमेश्वर है, उसकी समानत्ववादी दृष्टि को बड़ा गौणत्व प्राप्त हो गया है। इस तरह के हमारे जो ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित वर्ग के भाई हैं, जिन्हें भाई कहने में भी शर्म आती है, क्योंकि उन्होंने किसी समय शूद्रादि-अतिशूद्रों को पूरी तरह से तबाह कर दिया था और वे ही लोग अब भी धर्म के नाम पर, धर्म की मदद से इनको चूस रहे हैं। एक भाई द्वारा दूसरे भाई पर जुल्म करना, यह भाई का धर्म नहीं है। फिर भी हमें, हम सभी को उत्पन्नकर्ता के रिश्ते से, उन्हें भाई कहना पड़ रहा है। वे भी खुले रूप से यह कहना छोड़ेंगे नहीं, फिर भी उन्हें केवल अपने स्वार्थ का ही ध्यान न रखते हुए न्यायबुद्धि से भी सोचना चाहिए। यदि ऐसा नहीं करेंगे। तो उन ग्रंथो को देख कर-पढ़ कर बुद्धिमान अंग्रेज, फ्रेंच, जर्मन, अमेरिकी और अन्य बुद्धिमान लोग अपना यह मत दिए बिना नहीं रहेंगे कि उन ग्रंथो को (ब्राह्मणों ने) केवल अपने मतलब के लिए लिख रखा है। उन ग्रंथो को में हर तरह से ब्राह्मण-पुरोहितों का महत्व बताया गया है। ब्राह्मण-पुरोहितों का शूद्रादि-अतिशूद्रों के दिलो-दिमाग पर हमेशा-हमेशा के लिए वर्चस्व बना रहे इसलिए उन्हें ईश्वर से भी श्रेष्ठ समझा गया है। ऊपर जिनका नाम निर्देश किया गया है, उनमें से कई अंग्रेज लोगों ने इतिहासादि ग्रंथो में कई जगह यह लिख रखा है कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए अन्य लोगों को यानी शूद्रादि-अतिशूद्रों को अपना गुलाम बना लिया है। उन ग्रंथो द्वारा ब्राह्मण-पुरोहितों ने ईश्वर के वैभव को कितनी निम्न स्थिति में ला रखा है, यह सही में बड़ा शोचनीय है। जिस ईश्वर ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को और अन्य लोगों को अपने द्वारा निर्मित इस सृष्टि की सभी वस्तुओं को समान रूप से उपभोग करने की पूरी आजादी दी है, उस ईश्वर के नाम पर ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों एकदम झूठ-मूठ ग्रंथो की रचना करके, उन ग्रंथो में सभी के (मानवी) हक को नकारते हुए स्वयं मालिक हो गए।

इस बात पर हमारे कुछ ब्राह्मण भाई इस तरह प्रश्न उठा सकते हैं कि यदि ये तमाम ग्रंथ झूठ-मूठ के हैं, तो उन ग्रंथों पर शूद्रादि-अतिशूद्रों के पूर्वजों ने क्यों आस्था रखी थी? और आज इनमें से बहुत सारे लोग क्यों आस्था रखे हुए हैं? इसका जवाब यह है कि आज के इस प्रगति काल में कोई किसी पर जुल्म नहीं कर सकता। मतलब, अपनी बात को लाद नहीं सकता। आज सभी को अपने मन की बात, अपने अनुभव की बात स्पष्ट रूप से लिखने या बोलने की छूट है।

कोई धूर्त आदमी किसी बड़े व्यक्ति के नाम से झूठा पत्र लिख कर लाए तो कुछ समय के लिए उस पर भरोसा करना ही पड़ता है। बाद में समय के अनुसार वह झूठ उजागर हो ही जाता है। इसी तरह, शूद्रादि-अतिशूद्रों का, किसी समय ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के जुल्म और ज्यादतियों के शिकार होने की वजह से, अनपढ़ गँवार बना कर रखने की वजह से, पतन हुआ है। ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए समर्थ (रामदास)[2]के नाम पर झूठे-पांखडी ग्रंथों की रचना करके शूद्रादि-अतिशूद्रों को गुमराह किया और आज भी इनमें से कई लोगों को ब्राह्मण-पुरोहित लोग गुमराह कर रहे हैं, यह स्पष्ट रूप से उक्त कथन की पुष्टि करता है।

ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित लोग अपना पेट पालने के लिए, अपने पाखंडी ग्रंथो द्वारा, जगह-जगह बार-बार अज्ञानी शूद्रों को उपदेश देते रहे, जिसकी वजह से उनके दिलों-दिमाग में ब्राह्मणों के प्रति पूज्यबुद्धि उत्पन्न होती रही। इन लोगों को उन्होंने (ब्राह्मणों ने) इनके मन में ईश्वर के प्रति जो भावना है, वही भावना अपने को (ब्राह्मणों को) समर्पित करने के लिए मजबूर किया। यह कोई साधारण या मामूली अन्याय नहीं है। इसके लिए उन्हें ईश्वर के जवाब देना होगा। ब्राह्मणों के उपदेशों का प्रभाव अधिकांश अज्ञानी शूद्र लोगों के दिलो-दिमाग पर इस तरह से जड़ जमाए हुए है कि अमेरिका के (काले) गुलामों की तरह जिन दुष्ट लोगों ने हमें गुलाम बना कर रखा है, उनसे लड़ कर मुक्त (आजाद) होने की बजाए जो हमें आजादी दे रहे हैं, उन लोगों के विरुद्ध फिजूल कमर कस कर लड़ने के लिए तैयार हुए हैं। यह भी एक बड़े आश्चर्य की बात है कि हम लोगों पर जो कोई उपकार कर रहे हैं, उनसे कहना कि हम पर उपकार मत करो, फिलहाल हम जिस स्थिति में हैं वही स्थिति ठीक है, यही कह कर हम शांत नहीं होते बल्कि उनसे झगड़ने के लिए भी तैयार रहते हैं, यह गलत है। वास्तव में हमको गुलामी से मुक्त करनेवाले जो लोग हैं, उनको हमें आजाद कराने से कुछ हित होता है, ऐसा भी नहीं है, बल्कि उन्हें अपने ही लोगों में से सैकड़ों लोगों की बलि चढ़ानी पड़ती है। उन्हें बड़ी-बड़ी जोखिमें उठा कर अपनी जान पर भी खतरा झेलना पड़ता है।

अब उनका इस तरह से दूसरों के हितों का रक्षण करने के लिए अगुवाई करने का उद्देश्य क्या होना चाहिए, यदि इस संबंध में हमने गहराई से सोचा तो हमारी समझ में आएगा कि हर[i]

मनुष्य को आजाद होना चाहिए, यही उसकी बुनियादी जरूरत है। जब व्यक्ति आजाद होता है तब उसे अपने मन के भावों और विचारों को स्पष्ट रूप से दूसरों के सामने प्रकट करने का मौका मिलता है। लेकिन जब से आजादी नहीं होती तब वह वही महत्वपूर्ण विचार, जनहित में होने के बावजूद दूसरों के सामने प्रकट नहीं कर पाता और समय गुजर जाने के बाद वे सभी लुप्त हो जाते हैं। आजाद होने से मनुष्य अपने सभी मानवी अधिकार प्राप्त कर लेता है और असीम आनंद का अनुभव करता है। सभी मनुष्यों को मनुष्य होने के जो सामान्य अधिकार, इस सृष्टि के नियंत्रक और सर्वसाक्षी परमेश्वर द्वारा दिए गए हैं, उन तमाम मानवी अधिकारों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित वर्ग ने दबोच कर रखा है। अब ऐसे लोगों से अपने मानवी अधिकार छीन कर लेने में कोई कसर बाकी नहीं रखनी चाहिए। उनके हक उन्हें मिल जाने से उन अंग्रेजों को खुशी होती है। सभी को आजादी दे कर, उन्हें जुल्मी लोगों के जुल्म से मुक्त करके सुखी बनाना, यही उनका इस तरह से खतरा मोल लेने का उद्देश्य है। वाह! वाह! यह कितना बड़ा जनहित का कार्य है!

उनका इतना अच्छा उद्देश्य होने की वजह से ही ईश्वर उन्हें, वे जहाँ गए, वहाँ ज्यादा से ज्यादा कामयाबी देता रहा है। और अब आगे भी उन्हें इस तरह के अच्छे कामों में उनके प्रयास सफल होते रहे, उन्हें कामयाबी मिलती रहे, यही हम भगवान से प्रार्थना करते हैं।

दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका जैसे पृथ्वी के इन दो बड़े हिस्सो में सैकड़ो साल से अन्य देशों से लोगों को पकड़-पकड़ कर यहाँ उन्हें गुलाम बनाया जाता था। यह दासों को खरीदने-बेचने की प्रथा यूरोप और तमाम प्रगतिशील कहलाने वाले राष्ट्रों के लिए बड़ी लज्जा की बात थी। उस कलंक को दूर करने के लिए अंग्रेज, अमेरिकी आदि उदार लोगों ने बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ कर अपने नुकसान की बात तो दरकिनार, उन्होंने अपनी जान की परवाह नहीं की और गुलामों की मुक्ति के लिए लड़ते रहे। यह गुलामी प्रथा कई सालों से चली आ रही थी। इस अमानवीय गुलामी प्रथा को समूल नष्ट कर देने के लिए असंख्य गुलामों को उनके परमप्रिय माता-पिता से, भाई-बहनों से, बीवी-बच्चों से, दोस्त-मित्रों से जुदा कर देने की वजह से जो यातनाएँ सहनी पड़ीं, उससे उन्हें मुक्त करने के लिए उन्होंने संघर्ष किया। उन्होंने जो गुलाम एक दूसरे से जुदा कर दिए गए थे, उन्हें एक-दूसरे के साथ मिला दिया। वाह! अमेरिका आदि सदाचारी लोगों ने कितना अच्छा काम किया है! यदि आज उन्हें इन गरीब अनाथ गुलामों की बदतर स्थिति देख कर दया न आई होती तो ये गरीब बेचारे अपने प्रियजनों से मिलने की इच्छा मन-ही-मन में रख कर मर गए होते।

दूसरी बात, उन गुलामों को पकड़ कर लानेवाले दुष्ट लोग उन्हें क्या अच्छी तरह रखते भी या नहीं? नहीं, नहीं! उन गुलामों पर वे लोग जिस प्रकार से जुल्म ढाते थे, उन जुल्मों, की कहानी सुनते ही पत्थरदिल आदमी की आँखे भी रोने लगेंगी। वे लोग उन गुलामों को जानवर समझ कर उनसे हमेशा लात-जूतों से काम लेते थे। वे लोग उन्हें कभी-कभी लहलहाती धूप में हल जुतवा कर उनसे अपनी जमीन जोत-बो लेते थे और इस काम में यदि उन्होंने थोड़ी सी भी आनाकानी की तो उनके बदन पर बैलों की तरह छाँटे से घाव उतार देते थे। इतना होने पर भी क्या वे उनके खान-पान की अच्छी व्यवस्था करते होंगे? इस बारे में तो कहना ही क्या! उन्हें केवल एक समय का खाना मिलता था। दूसरे समय कुछ भी नहीं। उन्हें जो भी खाना मिलता था, वह भी बहुत ही थोड़ा-सा। इसकी वजह से उन्हें हमेशा आधे भूखे पेट ही रहना पड़ता था। लेकिन उनसे छाती चूर-चूर होने तक, मुँह से खून फेंकने तक दिन भर काम करवाया जाता था और रात को उन्हें जानवरों के कोठे में या इस तरह की गंदी जगहों में सोने के लिए छोड़ दिया जाता था, जहाँ थक कर आने के बाद वे गरीब बेचारे उस पथरीली जमीन पर मुर्दों की तरह सो जाते थे। लेकिन आँखों में पर्याप्त नींद कहाँ से होगी? बेचारों को आखिर नींद आएगी भी कहाँ से? इसमें पहली बात तो यह थी के पता नहीं मालिक को किस समय उनकी गरज पड़ जाए और उसका बुलावा आ जाए, इस बात का उनको जबरदस्त डर लगा रहता था। दूसरी बात तो यह थी कि पेट में पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं होने की वजह से जी घबराता था और टाँग लड़खड़ा‌ने लगती थी। तीसरी बात यह थी कइ दिन-भर-बदन पर छाँटे के वार बरसते रहने से सारा बदन लहूलुहान हो जाता और उसकी यातनाएँ इतनी जबर्दस्त होती थीं कि पानी में मछली की तरह रात-भर तड़फड़ाते हुए इस करवट पर होना पड़ता था। चौथी बात यह थी कि अपने लोग पास न होने की वजह से उस बात का दर्द तो और भी भयंकर था। इस तरह बातें मन में आने से यातनाओं के ढेर खड़े हो जाते थे और आँखे रोने लगती थीं। वे बेचारे भगवान से दुआ माँगते थे कि 'हे भगवान! अब भी तुझको हम पर दया नहीं आती! तू अब हम पर रहम कर। अब हम इन यातनाओं को बर्दाश्त करने के भी काबिल नहीं रहे हैं। अब हमारी जान भी निकल जाए तो अच्छा ही होगा।' इस तरह की यातनाएँ सहते-सहते, इस तरह से सोचते-सोचते ही सारी रात गुजर जाती थी। उन लोगों को जिस-जिस प्रकार की पीड़ाओं को, यातनाओं को सहना पड़ा, उनको यदि एक-एक करके कहा जाए तो भाषा और साहित्य के शोक-रस के शब्द भी फीके पड़ जाएँगे, इसमें कोई संदेह नहीं। तात्पर्य, अमेरिकी लोगों ने आज सैकड़ों साल से चली आ रही इस गुलामी की अमानवीय परंपरा को समाप्त करके गरीब लोगों को उन चंड लोगों के जुल्म से मुक्त करके उन्हें पूरी तरह से सुख की जिंदगी बख्शी है। इन बातों को जान कर शूद्रादि- अतिशूद्रों को अन्य लोगों की तुलना में बहुत ही ज्यादा खुशी होगी, क्योंकि गुलामी की अवस्था में गुलाम लोगों को, गुलाम जातियों को कितनी यातनाएँ बर्दाश्त करनी पड़ती हैं, इसे स्वयं अनुभव किए बिना अंदाज करना नामुमकिन है। जो सहता है, वही जानता है

अब उन गुलामों में और इन गुलामों में फर्क इतना ही होगा कि पहले प्रकार के गुलामों को ब्राह्मण-पुरोहितों ने अपने बर्बर हमलों से पराजित करके गुलाम बनाया था और दूसरे प्रकार के गुलामों को दुष्ट लोगों ने एकाएक जुल्म करके गुलाम बनाया था। शेष बातों में उनकी स्थिति समान है। इनकी स्थिति और गुलामों की स्थिति में बहुत फर्क नहीं है। उन्होंने जिस-जिस प्रकार की मुसीबतों को बर्दाश्त किया है; वे सभी मुसीबतें ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों द्वारा ढाए जुल्मों से कम हैं। यदि यह कहा जाए कि उन लोगों से भी ज्यादा ज्यादतियाँ इन शूद्रादि-अतिशूद्रों को बर्दाश्त करनी पड़ी हैं, तो इसमें किसी तरह का संदेह नहीं होना चाहिए। इन लोगों को जो जुल्म सहना पड़ा, उसकी एक-एक दास्तान सुनते ही किसी भी पत्थरदिल आदमी को ही नहीं बल्कि साक्षात पत्थर भी पिघल कर उसमें से पीड़ाओं के आँसुओं की बाढ़ निकल पड़ेगी और उस बाढ़ से धरती पर इतना बहाव होगा कि जिन पूर्वजों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को गुलाम बनाया, उनके आज के वंशज जो ब्राह्मण, पुरोहित भाई हैं उनमें से जो अपने पूर्वजों की तरह पत्थरदिल नहीं, बल्कि जो अपने अंदर के मनुष्यत्व को जाग्रत रख कर सोचते हैं, उन लोगों को यह जरूर महसूस होगा कि यह एक जलप्रलय ही है। हमारी दयालु अंग्रेज सरकार को, शूद्रादि-अतिशूद्रों ने ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों से किस-किस प्रकार का जुल्म सहा है और आज भी सह रहे हैं, इसके बारे में कुछ भी मालूमात नहीं है। वे लोग यदि इस संबंध में पूछ्ताछ करके कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश करेंगे तो उन्हें यह समझ में आ जाएगा कि उन्होंने हिंदुस्थान का जो भी इतिहास लिखा है उसमें एक बहुत बड़े, बहुत भंयकर और बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्से को नजरअंदाज किया है। उन लोगों को एक बार भी शूद्राद्रि-अतिशूद्रों के दुख-दर्दों की जानकारी मिल जाए तो सच्चाई समझ में आ जाएगी और उन्हें बड़ी पीड़ा होगी। उन्हें अपने (धर्म) ग्रंथों में, भयंकर बुरी अवस्था में पहुचाए गए और चंड लोगों द्वारा सताए हुए, जिनकी पीड़ाओं की कोई सीमा ही नहीं है, ऐसे लोगों की दुरावस्था को उपमा देना हो तो शूद्रादि-अतिशूद्रों की स्थिति की ही उपमा उचित होगी, ऐसा मुझे लगता है। इससे कवि को बहुत विषाद होगा। कुछ को अच्छा भी लगेगा कि आज तक कविताओं में शोक रस की पूरी तसवीर श्रोताओं के मन में स्थापित करने के लिए कल्पना की ऊँची उड़ाने भरनी पड़ती थीं, लेकिन अब उन्हें इस तरह की काल्पनिक दिमागी कसरत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि अब उन्हें यह स्वयंभोगियों का जिंदा इतिहास मिल गया है। यदि यही है तो आज के शूद्रादि-अतिशूद्रों के दिल और दिमाग अपने पूर्वज की दास्तानें सुन कर पीड़ित होते होंगे, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम जिनके वंश में पैदा हुए हैं, जिनसे हमारा खून का रिश्ता है, उनकी पीड़ा से पीड़ित होना स्वाभाविक है। किसी समय ब्राह्मणों की राजसत्ता में हमारे पूर्वजों पर जो भी कुछ ज्यादतियाँ हुईं, उनकी याद आते ही हमारा मन घबरा कर थरथराने लगता है। मन में इस तरह के विचार आने शुरू हो जाते हैं कि जिन घटनाओं की याद भी इतनी पीड़ादायी है, तो जिन्होंने उन अत्याचारों को सहा है, उनके मन कि स्थिति किस प्रकार की रही होगी, यह तो वे ही जान सकते हैं। इसकी अच्छी मिसाल हमारे ब्राह्मण भाइयों के (‌धर्म) शास्त्रों में ही मिलती है। वह यह कि इस देश के मूल निवासी क्षत्रिय लोगों के साथ ब्राह्मण-पुरोहित वर्ग के मुखिया परशुराम जैसे व्यक्ति ने कितनी क्रूरता बरती, यही इस ग्रंथ में बताने का प्रयास किया गया है। फिर भी उसकी क्रूरता के बारे में इतना समझ में आया है कि उस परशुराम ने कई क्षत्रियों को मौत के घाट उतार दिया था। और उस (ब्राह्मण) परशुराम ने क्षत्रियों की अनाथ हुई नारियों से, उनके छोटे-छोटे चार-चार पाँच-पाँच माह के निर्दोष मासूम बच्चों को जबरदस्ती छीन कर अपने मन में किसी प्रकार की हिचकिचाहट न रखते हुए बड़ी क्रूरता से उनको मौत के हवाले कर दिया था। यह उस ब्राह्मण परशुराम का कितना जघन्य अपराध था। वह चंड इतना ही करके चुप नहीं रहा, अपने पति के मौत से व्यथित कई नारियों को, जो अपने पेट के गर्भ की रक्षा करने के लिए बड़े दुखित मन से जंगलों-पहाड़ों में भागे जा रही थीं, वह उनका कातिल शिकारी की तरह पीछा करके, उन्हें पकड़ कर लाया और प्रसूति के पश्चात जब उसे यह पता चलता कि पुत्र की प्राप्ति हुई है, तो वह चंड हो कर आता और प्रसूतिशुदा नारियों का कत्ल कर देता था। इस तरह की कथा ब्राह्मण ग्रंथों में मिलती है। और जो ब्राह्मण लोग उनके विरोधी दल के थे, उनसे उस समय की सही स्थिति समझ में आएगी, यह तो हमें सपने में भी नहीं सोचना चाहिए। हमें लगता है कि ब्राह्मणों ने उस घटना का बहुत बड़ा हिस्सा चुराया होगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने मुँह से अपनी गलतियों को कहने की हिम्मत नहीं करता। उन्होंने उस घटना को अपने ग्रंथ में लिख रखा है, यही बहुत बड़े आश्चर्य की बात है। हमारे सामने यह सवाल आता है कि परशुराम ने इक्कीस बार क्षत्रियों को पराजित करके उनका सर्वनाश क्यों किया और उनकी अभागी नारियों के अबोध, मासूम बच्चों का भी कत्ल क्यों किया? शायद इसमें उसे बड़ा पुरुषार्थ दिखता हो और उसकी यह बहादुरी बाद में आनेवाली पीढ़ियों को भी मालूम हो, इसलिए ब्राह्मण ग्रंथकारों ने इस घटना को अपने शास्त्रों में लिख रखा है। लोगों में एक कहावत प्रचलित है कि हथेली से सूरज को नहीं ढका जा सकता। उसी प्रकार यह हकीकत, जबकि उनको शर्मिंदा करनेवाली थी, फिर भी उनकी इतनी प्रसिद्धि हुई कि उनसे कि ब्राह्मणों ने उस घटना पर, जितना परदा डालना संभव हुआ, उतनी कोशिश उन्होंने की, और जब कोई इलाज ही नहीं बचा तब उन्होंने उस घटना को लिख कर रख दिया। हाँ, ब्राह्मणों ने इस घटना की जितनी हकीकत लिख कर रख दी, उसी के बारे में यदि कुछ सोच-विचार किया जाए तो मन को बड़ी पीड़ा होती है क्योंकि परशुराम ने जब उन क्षत्रिय गर्भधारिनी नारियों का पीछा किया तब उन गर्भिनियों को कितनी यातनाएँ सहनी पड़ी होंगी! पहली बात तो यह कि नारियों को भाग-दौड़ करने की आदत बहुत कम होती है। उसमें भी कई नारियाँ मोटी और कुलीन होने की वजह से, जिनको अपने घर की दहलीज पर चढ़ना भी मालूम नहीं था, घर के अंदर उन्हें जो कुछ जरूरत होती, वह सब नौकर लोग ला कर देते थे। मतलब जिन्होंने बड़ी सहजता से अपने जीवन का पालन-पोषण किया था, उन पर जब अपने पेट के गर्भ के बोझ को ले कर सूरज की लहलहाती धूप में टेढ़े-मेढ़े रास्तों से भागने की मुसीबत आई, इसका मतलब है कि वे भयंकर आपत्ति के शिकार थीं। उनको दौड़-भाग करने की आदत बिलकुल ही नहीं होने की वजह से पाँव से पाँव टकराते थे और कभी धड़ल्ले से चट्टान पर तो कभी पहाड़ की खाइयों में गिरती होंगी। उससे कुछ नारियों के माथे पर, कुछ नारियों की कुहनी को, कुछ नारियों के घुटनों को और कुछ नारियों के पाँव को ठेस-खरोंच लग कर खून की धाराएँ बहती होंगी। और परशुराम पीछे-पीछे दौड़ कर आ रहा है, यह सुन कर और भी तेजी से भागने-दौड़ने लगती होंगी। रास्ते में भागते-दौड़ते समय उनके नाजुक पाँवों में काँटे, कंकड़ चुभते होंगे। कंटीले पेड़-पौधों से उनके बदन से कपड़े भी फट गए होंगे और उन्हें काँटे भी चुभे होंगे। उसकी वजह से उनके नाजुक बदन से लहू भी बहता होगा। लहलहाती धूप में भागते-भागते उनके पाँव में छाले भी पड़ गए होंगे। और कमल के डंठल के समान नाजुक नीलवर्ण कांति मुरझा गई होगी। उनके मुँह से फेन बहता होगा। उनकी आँखों में आँसू भर आए होंगे। उनके मुँह को एक एक-दिन, दो-दो दिन पानी भी नहीं छुआ होगा। इसलिए बेहद थकान से पेट का गर्भ पेट में ही शोर मचाता होगा। उनको ऐसा लगता होगा कि यदि अब धरती फट जाए तो कितना अच्छा होता। मतलब उसमें वे अपने-आपको झोंक देती और इस चंड से मुक्त हो जाती। ऐसी स्थिति में उन्होंने आँखें फाड़-फाड़ कर भगवान की प्रार्थना निश्चित रूप से की होगी कि 'हे भगवान! तूने हम पर यह क्या जुल्म ढाएँ हैं? हम स्वयं बलहीन हैं, इसलिए हमको अबला कहा जाता हैं। हमें हमारे पतियों का जो कुछ बल प्राप्त था, वह भी इस चंड ने छीन लिया है। यह सब मालूम होने पर भी तू बुजदिल हो कर कायर की तरह हमारी कितनी इम्तिहान ले रहा है! जिसने हमारे शौहर को मार डाला और हम अबलाओं पर हथियार उठाए हुए है और इसी में जो अपना पुरूषार्थ समझता है, ऐसे चंड के अपराधों को देख कर तू समर्थ होने पर भी मुँह में उँगली दबाए पत्थर जैसा बहरा अंधा क्यों बन बैठा हैं?' इस तरह वे नारियाँ बेसहारा हो कर किसी के सहारे की तलाश में मुँह उठाए ईश्वर की याचना कर रही थीं। उसी समय चंड परशुराम ने वहाँ पहुँच कर उन अबलाओं को नहीं भगाया होगा? फिर तो उनकी यातनाओं की कोई सीमा ही नहीं रही होगी। उनमें से कुछ नारियों ने बेहिसाब चिल्ला-चिल्ला कर, चीख चीख कर अपनी जान गँवाई होगी? और शेष नारियों ने बड़ी विनम्रता से उस चंड परशुराम से दया की भीख नहीं माँगी होगी कि 'हे परशुराम, हम आपसे इतनी ही दया की भीख माँगना चाहते हैं कि हमारे गर्भ से पैदा होनेवाले अनाथ बच्चों की जान बख्शो! हम सभी आपके सामने इसी के लिए अपना आँचल पसार रहें हैं। आप हम पर इतनी ही दया करो। अगर आप चाहते हो तो हमारी जान भी ले सकते हो, लेकिन हमारे इन मासूम बच्चों की जान न लो! आपने हमारे शौहर को बड़ी बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया है, इसलिए हमें बेसमय वैधव्य प्राप्त हुआ है। और अब हम सभी प्रकार के सुखों से कोसों दूर चले गए हैं। अब हमें आगे बाल-बच्चों होने की भी कोई उम्मीद नहीं रही। अब हमारा सारा ध्यान इन बच्चों की ओर लगा हुआ है। अब हमें इतना ही सुख चाहिए। हमारे सुख की आशा स्वरूप हमारे ये जो मासूम बच्चे हैं, उनको भी जान से मार कर हमें आप क्यों तड़फड़ाते देखना चाहते हो? हम आपसे इतनी ही भीख माँगते हैं। वैसे तो हम आपके धर्म की ही संतान हैं। किसी भी तरह से क्यों न हो, आप हम पर रहम कीजिए। इतने करूणापूर्ण, भावपूर्ण शब्दों से उस चंड परशुराम का दिल कुछ न कुछ तो पिघल जाना चाहिए था, लेकिन आखिर पत्थर-पत्थर ही साबित हुआ। वह उन्हें प्रसूत हुए देख कर उनसे उनके नवजात शिशु छीनने लगा। तब ये उन नवजात शिशुओं की रक्षा के लिए उन पर औंधी गिर पड़ी होंगी और गर्दन उठा कर कह रही होंगी के 'हे परशुराम, आपको यदि इन नवजात शिशुओं की ही जान लेनी है तो सबसे पहले यही बेहतर होगा कि हमारे सिर काट लो, फिर हमारे पश्चात आप जो करना चाहें सो कर लो, किंतु हमारी आँखों के सामने हमारे उन नन्हें-मुन्हें बच्चों की जान न लो! 'लेकिन कहते हैं न, कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है। उसने उनकी एक भी न सुनी। यह कितनी नीचता! उन नारियों को गोद में खेल रहे उन नवजात शिशुओं को जबर्दस्ती छीन लिया गया होगा, तब उन्हें जो यातनाएँ हुई होंगी, जो मानसिक पीड़ाएँ हुई होंगी, उस स्थिति को शब्दों में व्यक्त करने के लिए हमारे हाथ की कलम थरथराने लगती है। खैर, उस जल्लाद ने उन नवजात शिशुओं की जान उनकी माताओं की आँखों के सामने ली होगी। उस समय कुछ माताओं ने अपनी छाती को पीटना, बालों को नोंचना और जमीन को कूदेरना शुरू कर दिया होगा। उन्होंने अपने ही हाथ से अपने मुँह में मिट्टी के ढले ठूँस-ठूँस कर अपनी जान भी गँवा दी होगी। कुछ माताएँ पुत्र शोक में बेहोश हो कर गिर पड़ी होंगी। उनके होश-हवास भूल गए होंगे। कुछ माताएँ पुत्र शोक के मारे पागल-सी हो गई होंगी।'हाय मेरा बच्चा, हाय मेरा बच्चा!' करते-करते दर-दर, गाँव-गाँव, जंगल-जंगल भटकती होंगी। लेकिन इस तरह सारी हकीकत हमें ब्राह्मण-पुरोहितों से मिल सकेगी, यह उम्मीद लगाए रहना फिजूल की बातें हैं।

इस तरह ब्राह्मण-पुरोहितों के पूर्वज, अधिकारी परशुराम ने सैकड़ों क्षत्रियों को जान से मार कर उनके बीवी-बच्चों के भयंकर बुरे हाल किए और उसी को आज के ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों का सर्वशक्तिमान परमेश्वर, सारी सृष्टि का निर्माता कहने के लिए कहा है, यह कितने बड़े आश्चर्य की बात हैं! परशुराम के पश्चात ब्राह्मणों ने इन्हें कम परेशान नहीं किया होगा। उन्होंने अपनी ओर से जितना सताया जा सकता है, उतना सताने में कोई कसर बाकी छोड़ी नहीं होगी। उन्होंने घृणा से इन लोगों में से अधिकांश लोगों के भयंकर बुरे हाल किए। उन्होंने इनमें से कुछ लोगों को इमारतों-भवनों की नींव में जिंदा गाड़ देने में भी कोई आनाकानी नहीं की, इस बारे में इस ग्रंथ में लिखा गया है।

उन्होंने इन लोगों को इतना नीच समझा था कि किसी समय कोई शूद्र नदी के किनारे अपने कपड़े धो रहा हो और इत्तिफाक से वहाँ यदि कोई ब्राह्मण आ जाए, तो उस शूद्र को अपने सभी कपड़े समेट करके बहुत दूर, जहाँ से ब्राह्मण के तन पर पानी का एक मामूली कतरा भी पड़ने की कोई संभावना न हो, ऐसे पानी के बहाव के नीचे की जगह पर जा कर अपने कपड़े धोना पड़ता था। यदि वहाँ से ब्राह्मण के तन पर पानी की बूँद का एक कतरा भी छू गया, या उसको इस तरह का संदेह भी हुआ, तो ब्राह्मण-पंडा आग के शोले की तरह लाल हो जाता था और उस समय उसके हाथ में जो भी मिल जाए या अपने ही पास के बर्तन को उठा कर, न आव देखा न ताव, उस शूद्र के माथे को निशाना बना कर बड़े जोर से फेंक कर मारता था उससे उस शूद्र का माथा खून से भर जाता था। बेहोशी में जमीन पर गिर पड़ता था। फिर कुछ देर बाद होश आता था तब अपने खून से भीगे हुए कपड़ों को हाथ में ले कर बिना किसी शिकायत के, मुँह लटकाए अपने घर चला जाता था। यदि सरकार में शिकायत करो तो, चारों तरफ ब्राह्मणशाही का जाल फैला हुआ था; बल्कि शिकायत करने का खतरा यह रहता था कि खुद को ही सजा भोगने का मौका न आ जाए। अफसोस! अफसोस!! हे भगवान, यह कितना बड़ा अन्याय है!

खैर, यह एक दर्दभरी कहानी है, इसलिए कहना पड़ रहा है। किंतु इस तरह की और इससे भी भयंकर घटनाएँ घटती थीं, जिसका दर्द शूद्रादि-अतिशूद्रों को बिना शिकायत के सहना पड़ता था। ब्राह्मणवादी राज्यों में शूद्रादि-अतिशूद्रों को व्यापार-वाणिज्य के लिए या अन्य किसी काम के लिए घूमना हो तो बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, बड़ी कठिनाइयाँ बर्दाश्त करनी पड़ती थीं। इनके सामने मुसीबतों का ताँता लग जाता था। उसमें भी एकदम सुबह के समय तो बहुत भारी दिक्कतें खड़ी हो जाती थीं, क्योंकि उस समय सभी चीजों की छाया काफी लंबी होती है। यदि ऐसे समय शायद कोई शूद्र रास्ते में जा रहा हो और सामने से किसी ब्राह्मण की सवारी आ रही है, यह देख कर उस ब्राह्मण पर अपनी छाया न पड़े, इस डर से कंपित हो कर उसको पल-दो-पल अपना समय फिजूल बरबाद करके रास्ते से एक ओर हो कर वहीं बैठ जाना पड़ता था। फिर उस ब्राह्मण के चले जाने के बाद उसको अपने काम के लिए निकलना पड़ता था। मान लीजिए, कभी-कभार बगैर खयाल के उसकी छाया उस ब्राह्मण पर पड़ी तो ब्राह्मण तुरंत क्रोधित हो कर चंड बन जाता था और उस शूद्र को मरते दम तक मारता-पीटता और उसी वक्त नदी पर जा कर स्नान कर लेता था।

शूद्रों से कई लोगों को (जातियों को) रास्ते पर थूकने की भी मनाही थी। इसलिए उन शूद्रों को ब्राह्मणों की बस्तियों से गुजरना पड़ा तो अपने साथ थूकने के लिए मिट्टी के किसी एक बरतन को रखना पड़ता था। समझ लो, उसकी थूक जमीन पर पड़ गई और उसको ब्राह्मण-पंडों ने देख लिया तो उस शूद्र के दिन भर गए। अब उसकी खैर नहीं। इस तरह ये लोग (शूद्रादि-अतिशूद्र जातियाँ) अनगिनत मुसीबतों को सहते-सहते मटियामेट हो गए। लेकिन अब हमें वे लोग इस नरक से भी बदतर जीवन से कब मुक्ति देते हैं, इसी का इंतजार है। जैसे किसी व्यक्ति ने बहुत दिनों तक जेल के अंदर जिंदगी गुजार दी हो, वह कैदी अपने साथी मित्रों से बीवी-बच्चों से भाई-बहन से मिलने के लिए या स्वतंत्र रूप से आजाद पंछी की तरह घूमने के लिए बड़ी उत्सुकता से जेल से मुक्त होने के दिन का इंतजार करता है, उसी तरह का इंतजार, बेसब्री इन लोगों को भी होना स्वाभाविक ही है। ऐसे समय बड़ी खुशकिस्मत कहिए कि ईश्वर को उन पर दया आई, इस देश में अंग्रेजों की सत्ता कायम हुई और उनके द्वारा ये लोग ब्राह्मणशाही की शारीरिक गुलामी के मुक्त हुए। इसीलिए के लोग अंग्रेजी राजसत्ता का शुक्रिया अदा करते हैं। ये लोग अंग्रेजों के इन उपकारों को कभी भूलेंगे नहीं। उन्होंने इन्हें आज सैकड़ों काल से चली आ रही ब्राह्मणशाही की गुलामी की फौलादी जंजीरों को तोड़ करके मुक्ति की राह दिखाई है। उन्होंने इनके बीवी-बच्चों को सुख के दिन दिखाए हैं। यदि वे यहाँ न आते तो ब्राह्मणों ने, ब्राह्मणशाही ने इन्हें कभी सम्मान और स्वतंत्रता की जिंदगी न गुजारने दी होती। इस बात पर कोई शायद इस तरह का संदेह उठा सकता है कि आज ब्राह्मणों की तुलना में शूद्रादि-अतिशूद्रों की संख्या करीबन दस गुना ज्यादा है। फिर भी ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को कैसे मटियामेट कर दिया? कैसे गुलाम बना लिया? इसका जवाब यह है कि एक बुद्धिमान, चतुर आदमी इस अज्ञानी लोगों के दिलो-दिमाग को अपने पास गिरवी रखा सकता है। उन पर अपना स्वामित्व लाद सकता है। और दूसरी बात यह है कि दस अनपढ़ लोग यदि एक ही मत के होते तो वे उस बुद्धिमान, चतुर आदमी की दाल ना गलने देते, एक न चलने देते; किंतु वे दस लोग दस अलग-अलग मतों के होने की वजह से ब्राह्मणों-पुरोहितों जैसे धूर्त, पाखंडी लोगों को उन दस भिन्न-भिन्न मतवादी लोगों को अपने जाल में फँसाने में कुछ भी कठिनाई नहीं होती। शूद्रादि-अतिशूद्रों की विचार प्रणाली, मत मान्यताएँ एक दूसरे से मेल-मिलाप न करे, इसके लिए प्राचीन काल में ब्राह्मण-पुरोहितों ने एक बहुत बड़ी धूर्ततापूर्ण और बदमाशीभरी विचारधारा खोज निकाली। उन शूद्रादि-अतिशूद्रों के समाज की संख्या जैसे-जैसे बढ़ने लगी, वैसे-वैसे ब्राह्मणों में डर की भावना उत्पन्न होने लगी। इसीलिए उन्होंने शूद्रादि-अतिशूद्रों के आपस में घृणा और नफरत बढ़ती रहे, इसकी योजना तैयार की। उन्होंने समाज में प्रेम के बजाय जहर के बीज बोए। इसमें उनकी चाल यह थी के यदि शूद्रादि-आतिशूद्र (समाज) आपस में लड़ते-झगड़ते रहेंगे तब कहीं यहाँ अपने टिके रहने की बुनियाद मजबूत रहेगी और हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें अपना गुलाम बना कर बगैर मेहनत के उनके पसीने से प्राप्त कमाई पर बिना किसी रोक-टोक के गुलछर्रे उड़ाने का मौका मिलेगा। अपनी इस चाल, विचारधारा को कामयाबी देने के लिए जातिभेद की फौलादी जहरीली दीवारें खड़ी करके, उन्होंने इसके समर्थन में अपने जाति-स्वार्थसिद्धि के कई ग्रंथ लिख डाले। उन्होंने उन ग्रंथों के माध्यम से अपनी बातों को अज्ञानी लोगों के दिलों-दिमाग पर पत्थर की लकीर तरह लिख दिया। उनमें से कुछ लोग जो ब्राह्मणों के साथ बड़ी कड़ाई और दृढ़ता से लड़े, उनका उन्होंने एक वर्ग ही अलग कर दिया। उनसे पूरी तरह बदला चुकाने के लिए उनकी जो बाद की संतान हुई, उसको उन्हें छूना नहीं चाहिए, इस तरह की जहरीली बातें ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने उन्हीं लोगों के दिलो-दिमाग में भर दी फिलहाल जिन्हें माली, कुनबी (कुर्मी आदि) कहा जाता है। जब यह हुआ तब इसका परिणाम यह हुआ कि उनका आपसी मेल-मिलाप बंद हो गया और वे लोग अनाज के एक-एक दाने के लिए मोहताज हो गए। इसीलिए इन लोगों को जीने के लिए मरे हुए जानवरों का मांस मजबूर हो कर खाना पड़ा। उनके इस आचार-व्यवहार को देख कर आज के शूद्र जो बहुत ही अहंकार से माली, कुनबी, सुनार, दरजी, लुहार बढ़ई (तेली, कुर्मी) आदि बड़ी-बड़ी संज्ञाएँ अपने नाम के साथ लगाते हैं, वे लोग केवल इस प्रकार का व्यवसाय करते हैं। कहने का मतलब यही है कि वे लोग एक ही घराने के होते हुए भी आपस में लड़ते-झगड़ते हैं और एक दूसरे को नीच समझते हैं। इन सब लोगों के पूर्वज स्वदेश के लिए ब्राह्मणों से बड़ी निर्भयता से लड़ते रहे, इसका परिणाम यह हुआ के ब्राह्मणों ने इन सबको समाज के निचले स्तर पर ला कर रख दिया और दर-दर के भिखारी बना दिया। लेकिन अफसोस यह है कि इसका रहस्य किसी के ध्यान में नहीं आ रहा है। इसलिए ये लोग ब्राह्मण-पंडा-परोहितों के बहकावे में आ कर आपस में नफरत करना सीख गए। अफसोस! अफसोस!! ये लोग भगवान की निगाह में कितने बड़े अपराधी है! इन सबका आपस में इतना बड़ा नजदीकी संबंध होने पर भी किसी त्योहार पर ये उनके दरवाजे पर पका-पकाया भोजन माँगने के लिए आते हैं तो वे लोग इनको नफरत की निगाह से ही नहीं देखते हैं, कभी-कभी तो डंडा ले कर इन्हें मारने के लिए भी दौड़ते हैं। खैर, इस तरह जिन-जिन लोगों ने ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों से जिस-जिस तरह से संघर्ष किया, उन्होंने उसके अनुसार जातियों में बाँट कर एक तरह से सजा सुना दी या जातियों का दिखावटी आधार दे कर सभी को पूरी तरह से गुलाम बना लिया। ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों सब में सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिकार संपन्न हो गए, है न मजे की बात! तब से उन सभी के दिलो दिमाग आपस में उलझ गए और नफरत से अलग-अलग हो गए। ब्राह्मण-पुरोहितों अपने षड्यंत्र में कामयाब हुए। उनको अपना मनचाहा व्यवहार करने की पूरी स्वंतत्रता मिल गई। इस बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है कि 'दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ' मतलब यह है कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों के आपस में नफरत के बीज जहर की तरह बो दिए और खुद उन सभी की मेहनत पर ऐशोआराम कर रहे हैं।

संक्षेप में, ऊपर कहा ही गया है कि इस देश में अंग्रेज सरकार आने भी वजह से शूद्रादि-अतिशूद्रों की जिंदगी में एक नई रोशनी आई। ये लोग ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त हुए, यह कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है। फिर भी हमको यह कहने में बड़ा दर्द होता है कि अभी भी हमारी दयालु सरकार के, शूद्रादि-अतिशूद्रों को शिक्षित बनाने की दिशा में, गैर-जिम्मेदारीपूर्ण रवैया अख्तियार करने की वजह से ये लोग अनपढ़ ही रहे। कुछ लोग शिक्षित, पढ़े लिखे बन जाने पर भी ब्राह्मणों के नकली पाखंडी (धर्म) ग्रंथों के शास्त्रपुराणों के अंध भक्त बन कर मन से, दिलो-दिमाग से गुलाम ही रहे।

इसलिए उन्हें सरकार के पास जा कर कुछ फरियाद करने, न्याय माँगने का कुछ आधार ही नहीं रहा है। ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों लोग अंग्रेज सरकार और अन्य सभी जाति के लोगों के पारिवारिक और सरकारी कामों में कितनी लूट-खसोट करते हैं, गुलछर्रे उड़ाते है, इस बात की ओर हमारी अंग्रेज सरकार का अभी तक कोई ध्यान नहीं गया है। इसलिए हम चाहते है कि अंग्रेज सरकार को सभी जनों के प्रति समानता का भाव रखना चाहिए और उन तमाम बातों की ओर ध्यान देना चाहिए जिससे शूद्रादि-अतिशूद्र समाज के लोग ब्राह्मणों की मानसिक गुलामी से मुक्त हो सकें। अपनी इस सरकार से हमारे यही प्रार्थना है।


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पीएम के खिलाफ छापा कौन मारेगा?

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पीएम के खिलाफ छापा कौन मारेगा?

सारे आयकर सीबीआई छापे पीएमओ दफ्तर से

अब किसी दिन पता चलेगा कि सुप्रीम कोर्ट और तमाम अदालतों के फैसले भी पीएमओ से हो रहे हैं।

कानून और व्यवस्था पूरीतरह कारपोरेट मजहबी सियासत के शिकंजे में

पलाश विश्वास

घोटाले के राजकाज राजकरण में खुद पीएम के खिलाफ घोटाले का आरोप है।सारे छापे पीएमओ से मारे जा रहे हैं।पीएम के खिलाफ छापा कौन मारेगा?

छापे मारने वाले खूब चाहें तो ममता के नवान्न में छापे मारकर कालाधन निकाल लें या मायावती की मूर्ति फोड़कर कालाधन निकाल लें।अफसरान तो बलि के बकरे हमेशा हर कहीं मौजूद हैं।

मंत्री संत्री सांसद विधायक किसी के यहां छापे मार लें।जैसे अदानी, अंबानी,टाटा, बिड़ला,जिंदल मित्तल,भारती के यहां छापे नहीं पड़ सकते भले सहारा श्री जेल में सड़ते रहें,इस देश में पीएम के यहां छापे पड़ने की कोई गुंजाइश नहीं है।

पीएम बनते ही वे गंगाजल हो गये।

अब गंगाजल पर तलवार का वार करोगे?

फिर इन पीएम के खिलाफ?इन पीएम के खिलाफ छापा कौन मारेगा?कहां कहां छापे मारेगा?उनका न घर है न घर बार परिवार।उनका एक ही परिवार है,संघ परिवार। इस हिंदू राष्ट्र में संघ परिवार के मुख्यालय पर कौन छापा मारेगा?

फिर वे सिर्फ पीएम नहीं हैं, एनआईआर पीएम है।हर देश की हुकूमत का सर्वेसर्वा उनके खास दोस्त हैं।चाहे तो वे अपना धन देश विदेश में कहीं भी छुपा सकते हैं।स्विस बैंक क्या जरुरी है? मारीशस दुबई हांगकांग में माथा फोड़ना है उन्हें?

चाहे तो वाशिंगटन में या फिर तेल अबीब में जमा पूंजी बचत रक्खे।

कोई आम जनता है भारत की कि बैंक में नकदी डाल दी तो मिलबे ही ना करै?खाड़ी देशों में भी उनके दोस्त कम नहीं हैं।

राहुल गांधी बड़ा नादान हैं।आरोप तो लगा दियो भाई बड़जोर,छापे कौन मारेगा,कहां मारेगा,सोचा है?बोलना सीख लो भइया।

इस देश की सियासत में भूकंप नहीं आता।आता तो सारा तंत्र मंत्र यंत्र बदल जाता।कोई बदलाव का ख्वाब नहीं देखता। ख्वाबों पर चाकचौबंद पहरा है।

क्योंकि हमारा भूगोल कयामत प्रूफ है।कयामत में भी हमारी खाल इतनी मोटी है कि कयामत ससुरी शर्मिंदा हो जाये।

राजनेताओं का कौन क्या बिगाड़ सकै हैं?वोट भले कम हो जाये लेकिन इतना कमा लियो भइये कि लगातार हारते भी रहें नोट कम नहीं पड़ने वाले।

क्या कोई उखाड़ लेगा?अदालत में सात खून माफ है।कत्लेआम सरेआम रफा दफा है।बावली जनता की याददाश्त भी पतली है।

घूमा फिराकर हंसते गददियाते गुदगुदाते नागनाथ के बदले सांपनाथ और सांप नाथ के बदले नागनाथ को सत्ता सौंप देती है।फिर महतारी बाप को कोसती है कि किस लिए इस देश में क्यों जनम दिया है।

रोने धोने सर पीटने के अलावा इस देश की जनता करेगी क्या?

गुजरात नरसंहार मामले में उनके खिलाफ संगीन आरोप थे।साबित हुआ कुछ भी?जिस अमेरिका ने पाबंदी लगा दी थी,उसी अमेरिका ने झख मारकर  उनके लिए व्हाइट हाउस के पलक पांवड़े बिछा दिये।जिन मुसलमानों के कत्लेआम का आरोप उनके खिलाफ था,उन्हीं मुसलमानों के तमाम नुमाइंदे उनके आगे पीछे चक्कर लगावै हैं।रोहित वेमुला की हत्या के बाद क्या किसी बहुजन ने उनके केसरिया राजकाज के खिलाफ इस्तीफा दिया है?

यही जनादेश का करिश्मा है।अब भुगतते रहिये।

यूपी पंजाब उत्तराखंड में भी वोट उन्हीं को देना है।यही हिंदुत्व है।

हिंदू बहुमत में हैं।हिंदू राष्ट्र है।हिंदू हैं तो हिंदुत्व के लिए मारे जाने पर इतना रोना गाना किसलिए?यह राष्ट्रद्रोह है।हिंदू हितों के साथ विश्वासघात है।

इस वक्त कारपोरेट मीडिया में लगातार ब्रेकिंग न्यूज यह है कि पीएमओ दफ्तर से मिल रही खुफिया सूचनाओं के आधार पर देशभर में आयकर छापे पड़े रहे हैं।

जाहिर है कि सीबीआई भी पीएमओ दफ्तर के रिमोट कंट्रोल से देशभर में पीएम की पसंदगी नापसंदगी के मुताबिक छापेमारी कर रही है।

रिजर्व बैंक का कामकाज भी पीएमओ के मार्फत चल रहा है।

संसदीय कमिटी को रिजर्व बैंक ने अभीतक इसका कोई जबाव दिया नहीं है कि नोटबंदी की तैयारी उसने किस हद तक और कितनी की है।

यह सारी कवायद रिजर्व बैंक को अंधेरे में रखकर झोलाछाप बगुला भगतों के साथ मिलकर पीओमओ दप्तर ने पूरी की है।यहां तक कि संघ परिवार को भी बगुला भगतों का यह महंगा करतब नागवर लगने लगा है।पर चूहा निगलना ही पड़ा है। लौहमानव खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोंचकर किनारे बैठ गयो कि तिरंगे में लिपटकर मरना चाहे तो आप किस खेत की मूली हैं?

गुस्से में प्रेसर बढ़ गया तो देख लो भइये कि कार्ड वार्ड आधार डिजिटल कैशलैस वगरैह है कि नाही।जिंदा रहने खातिर पेटीएम जानते हो कि नाही?भौते जरुररी बा।

भौते जरुररी बा कि मोबाइल में नेट है कि नाही?जिओ है?हर फ्रेंड जरुरी बा।

सही बटन चांपने का शउर भी है कि नाही?सिरफ लाइक से काम नहीं चलने वाला।बेमौत मारे जाओगे।कौन मुआवजा भरेगा?

बच्चों के रोजगार का जुगाड़ है कि नाही?

घर में राशन पानी वगैरह हैं कि नाही?

खेत खलिहान सही सलामत हैं?

खुद पालतू कारपोरेट मीडिया ने बार बार ढोल नगाड़े पीट पीटकर दावे के साथ साबित करने की कोशिश की है कि कैसे पीएम ने अपने चुनिंदा वफादार साथियों के साथ मिलकर नोटबंदी को अंजाम दिया है।इस परिदृश्य में एफएम तक गायब रहे।रिजर्व बैंक के गवर्नर के का बिसात बा?

अर्थव्यवस्था शेयर बाजार है।

असहिष्णुता विरोधी आंदोलन के तुरंत बाद रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद तमाम घटनाओं पर सिलसिलेवार तनिक गौर कीजिये।

रोहित वेमुला की हत्या का मामला रफा दफा करने के लिए अंध राष्ट्रवाद की सुनामी के तहत सर्जिकल स्ट्राइक का शगूफा और वह शगूफा बेपर्दा हो गया तो फिर कालाधन निकालने के बहाने दूसरा सर्जिकल स्ट्राइक भारतीय जनता के खिलाफ यह नोटबंदी है।सरहद के भीतर अपनी ही जनता के खिलाफ हुकूमत का यह युद्ध है।

सरहद पार के दुश्मन नहीं,हुकूमत के निशाने पर आम जनता है।मकसद नस्ली सफाया,जो हिंदत्व का कारपोरेट एजंडा है।हिंदू इसे समझेंगे नहीं,सर धुनेंगे।धुन रहे हैं। मुसलमान,आदिवासी और बहुजन भी कहां समझ रहे हैं?,सर धुनेंगे।धुन रहे हैं।

नोटबंदी हो गयी तो न नया नोट आम जनता को मिल रहा है और न काला धन कहीं मिला है।फिर ध्यान भटकाने के लिए डिजिटल कैशलैस मुहिम चला है कि असल मकसद पेटीएम अर्थव्यवस्था है,जनता इसका फैसला करें,यह मोहलत देने के बदले दनादन देश भर में पीएमओ दफ्तर से केंद्रीय एजंसियों के जरिये यह छापेमारी है।

बड़ी मछलियां कहीं फंस ही नहीं रही हैं।

बड़ी मछलियों के लिए खुल्ला समुंदर है।

बड़ी मछलियों के लिए समुंदर की गहराई है,जहां न कांटे कोई डाल सके हैं और न जाल।लाखों करोड़ का घोटाला हो गया और आम जनता को कदम कदम पर पाई पाई का हिसाब दाखिल करना पड़ रहा है।

सियासती घोटालों का रफा दफा होना रघुकुल रीति है।रक्षा सौदों पर दशकों से खूब हो हल्ला होता रहा है।सबसे ज्यादा घोटाले रक्षा सुरक्षा,प्रतिरक्षा और आंतरिक सुरक्षा के नाम पर हुए।विदेशी बैंकों में जमा कालाधन सारा का सारा इन्हीं सौदों का कमीशन है।जो राजनीतिक दलों को कारपोरेट चंदे की तरह देशभक्तों की सरकार ने अब जायज बना दिया है नया कानून बनाकर।उस कालेधन का एक पाई कभी नहीं लौटा है।हेलीकाप्टर घोटाले पर हल्ला अब हो रहा है।यह तो घोटालों का शोरबा है।

घोटालो पर हल्ला सबसे बड़ी सियासत है संसद में और संसद के बाहर।सरकारें भी बदलती रही हैं।कभी कुछ भी साबित नहीं होता।आज तक सजा किसी को नहीं हुई है।कोई दूध का धुला होकर सियासत में जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद फटेहाल से करोड़पति,अरबपति,खरबपति यूं ही नहीं हो जाता।चुनावों में नोट हवा में यूं ही नहीं उड़ाये जाते।सारा खेल खुला खुला है।

पीएमओ दफ्तर की छापेमारी से भी यह खेल बदलने वाला नहीं है।

खिलाडियों का पाला बदलने का यह खेल हैं।जबर्दस्त खेल है।

आम लोगों को कतारबद्ध होकर पुराने नोट जमा करने के बाद थोक भाव से आयकर दफ्तर के नोटिस जारी हो रहे हैं।जबकि छापेमारी में अब नये नोट ही भारी मात्रा में बरामद हो रहे हैं।

नये नोटों में कालाधन सारा है तो पुराने नोट रद्द करके आम जनता के कत्लेआम का यह इंतजाम क्यों?

छापे पहले क्यों नहीं पड़े जो अब पड़ रहे हैं?

तो सवाल यह उठता है कि कालाधन का तंत्र मंत्र यंत्र सही सलामत रखकर आम जनता को, ईमानदार करदाताओं को, किसानों, मेहनतकशों, व्यवसायियों और भारतीय अर्थव्यवस्था के सत्यानाश की असल वजह कहीं मजहबी सियासत का कारपोरेट एकाधिकार का एजंडा तो नहीं है,जिसके तहत सियासत की सुविधा के मुताबिक केंद्र सरकार अपनी तमाम एजंसियों का मनचाहा इस्तेमाल कर रही है।

ये छापे तो नोटबंदी के बिना भी हो सकते थे और बहुत पहले हो सकते थे।अभी क्यों ये सियासती छापे पड़ रहे हैं?

अब नोटबंदी के सिरे से फेल हो जाने का ठीकरा रिजर्व बैंक और बैंकिंग प्रणाली पर फोड़ा जा रहा है।वैसे ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक मुश्किल हालत में हैं।

सियासी समीकरण,फैसलों और हस्तक्षेप से इन बैंकों से पूंजीपतियों और कारपोरेट कंपनियों को सबसे ज्यादा चूना लगा है।

नोटबंदी उनके कफन पर आखिरी कीलें हैं।

यह काम भी पीएमओ की दखलंदाजी से हो रहा है।

अब किसी दिन पता चलेगा कि सुप्रीम कोर्ट और तमाम अदालतों के फैसले भी पीएमओ से हो रहे हैं।शायद इसकी नौबत बहुत जल्द आने वाली है।बल्कि कहा जाये कि इसकी शुरुआत भी हो चुकी है।

कम से कम न्यायपालिका में न्यायाधीशों की राजनीतिक नियुक्तियों को रोक पाना सुप्रीम कोर्ट के बस में नहीं है।

अभी नोटबंदी के बाद कैशलैस डिजिटल इडिया का आधार पहचान के जरिये तेजी से लागू करने की मुहिम हर स्तर पर चल रही है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने आधार को किसी भी बुनियादी सेवा और जरुरत के लिए अनिवार्य नहीं माना है।लेन देन भी बुनियादी जरुरत और सेवा दोनों है।

सीधे पीएमओ से सुप्रीम कोर्ट की देशव्यापी अवमानना हो रही है।

आयकर विभाग के अफसर और कर्मचारी इतने दिनों से मक्खियां मार रहे थे कि उन्हें पीएमओ दफ्तर से मिल रही सूचनाओं का इंतजार था?

केंद्रीय एजंसियों और स्वायत्त संस्थाओं का पीएमओ के रिमोट कंट्रोल से चलना जम्हूरियत के लिए कयामत है क्योंकि कानून और व्यवस्था पूरीतरह कारपोरेट मजहबी सियासत के शिकंजे में है,जिससे नागरिक और मानवाधिकारों के लिए यह बेहद मुश्किल समय है।

तमिलनाडु के मुख्य सचिव के यहां आयकर छापे के लिए क्या नोटबंदी जरुरी थी?

बंगाल में चिटफंड के सारे सबूत सीबीआई और तमाम केंद्रीय एजंसियों के हाथों में थे।लोकसभा चुनाव में चिटफंड मुद्दा बंगाल में सबसे बड़ा मुद्दा था।मंत्री और सांसद तक गिरफ्तार हो रहे थे।इसके बावजूद यह मामला रफा दफा हो गया और विधानसभा चुनावों में चिटपंड का कोई मुद्दा ही नहीं था।

क्योंकि तब दीदी मोदी युगलबंदी का संगीत घनघोर था।

अब नोटबंदी के आलम में जब ममता बनर्जी इसकी कड़ी आलोचना कर रही हैं,उनके सांसदों को सीबीआई का नोटिस थमाया जा रहा है।

सीबीआई क्या इसी राजनीतिक मौके का इंतजार कर रही थी?

अभी चिटपंड कंपनी रोजवैली की करीब दो हजार करोड़ की संपत्ति देशभर में जब्त की गयी।जबकि इसके मालिक गौतम कुंडु लंबे समय से जेल में हैं।उनके सियासती ताल्लुकात जगजाहिर हैं।उनकी संपत्ति की जब्ती का मौका लेकिन केंद्रीय एजंसियों को अब मिला है।

शारदा समेत दूसरी चिटपंड कंपनियों के भी सियासती ताल्लुकात छिपे नहीं हैं।पता नही उनपर कब कार्रवाई होंगी।



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