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महत्वपूर्ण खबरें और आलेख माओवाद की जड़ है धूर्त ब्राह्मण, उद्दंड क्षत्रिय और व्यापार बुद्धि वाला वैश्य - ई.एन.राममोहन, पूर्व महानिदेशक बीएसएफ

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महत्वपूर्ण खबरें और आलेख माओवाद की जड़ है धूर्त ब्राह्मण, उद्दंड क्षत्रिय और व्यापार बुद्धि वाला वैश्य - ई.एन.राममोहन, पूर्व महानिदेशक बीएसएफ

#भारतसरकार ने बताया था इसे आदिवासियों की जमीन हड़पने की कोलंबस के बाद की सबसे बड़ी कार्रवाई

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/sukma-biggest-action-after-columbus-to-grab-tribals-land-13969

डा. अम्बेडकर का #संघीकरण!

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/rss-dr-ambedkar-13985

ये कैसा #योगीराजरमेश लोधी की पुलिस हिरासत में मौत के सदमे से उनके चाचा की भी मौतयोगी से लगा चुके थे गुहार

http://www.hastakshep.com/news-in-hindi/police-custody-death-police-custody-ramesh-lodhi-yogi-adityanath-13983

#माओवाद की जड़ है धूर्त ब्राह्मणउद्दंड क्षत्रिय और व्यापार बुद्धि वाला वैश्य - ई.एन.राममोहनपूर्व महानिदेशक बीएसएफ

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/en-rammohan-former-director-general-of-the-bsf-fighting-naxals-13986

#माओवाद-अगर सरकार के पास थोड़ी भी बुद्धि होगी तो वह इसे ठीक करेगी। वरना उसे विध्वंस का सामना करना पड़ेगा।

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/en-rammohan-former-director-general-of-the-bsf-fighting-naxals-13986

सिर्फ #भाजपा विरोध से तो न होगी विपक्षी एकताजनता का कार्यक्रम कहां है

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/bjp-opposition-opposition-unity-public-program-bjp-13979

6 दिसंबर 1992 : #बाबरी_मस्जिद के साथ उस दिन अनेक संवैधानिक संस्थाएं भी धराशायी हो गईं थीं

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/december-6-1992-babri-masjid-constitutional-institutions-judiciary--13974

आधार आधारित केंद्रीकृत ऑनलाइन डेटाबेस : #कांग्रेस- #भाजपा के बीच गठबंधन से देश के संघीय ढांचे को खतरा

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/aadhar-based-centralized-online-database-coalition-of-congress-bjp-13973

#भगत_सिंह और सावरकर एक साथ : #फासीवादी गन्दी चाल!

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/bhagat-singh-and-savarkar-together-fascist-messy-move-13971

#शिवपाल के नाम से अखिलेश को इतना गुस्सा क्यों आता है ?

http://www.hastakshep.com/news-in-hindi/states-why-does-akhilesh-get-so-angry-with-shivpal-13976

#अखिलेश को चाहिए भगवान श्रीकृष्‍ण का ई मेल एड्रेस पूछेंगे #सुदामा को डिजिटल पेमेंट किया था क्‍या?

http://www.hastakshep.com/news-in-hindi/states-akhilesh-wants-lord-krishnas-e-mail-to-ask-for-a-digital-payment-to-sudama-13975

#Sukma_Killings : Until you address agrarian crisis, the mourning continues!

http://www.hastakshep.com/englishopinion/columnsinenglish-sukma-killings-until-you-address-agrarian-crisis-the-mourning-continues-13978 #SukmaAttack

"मंदबुद्धि लोगों का देश", नागरिकों को निराधार करती बायोमेट्रिक #यूआईडी/आधार अनूठा पहचान परियोजना का सच और बारह अंकों का रहस्य...

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/aadhar-based-centralized-online-database-coalition-of-congress-bjp-13973 #congress #bjp

#शारदा-नारदा से बचाव का रास्ता भी विपक्षी एकता !!!

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/bjp-opposition-opposition-unity-public-program-bjp-13979

#लोकतंत्र में विरोधी दल को अगर आधारहीन कर दिया जाता है तो इसका दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता है,

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/aadhar-based-centralized-online-database-coalition-of-congress-bjp-13973

#भगत_सिंह एक विचारक थेजिनका आधार #मार्क्सवाद था. लेनिन की क्रांति को सही मानते थे,

http://www.hastakshep.com/opinion-debate-hindi/bhagat-singh-and-savarkar-together-fascist-messy-move-13971  #Bhagat_Singh

#पत्रकार के सवाल पर भड़के #अखिलेशकहा तुम भगवा रंग के कपड़े पहनकर आए हो

http://www.hastakshep.com/news-in-hindi/states-why-does-akhilesh-get-so-angry-with-shivpal-13976#Yadavakhilesh

#Militarization of state might not solve the agrarian crisis

http://www.hastakshep.com/englishopinion/columnsinenglish-sukma-killings-until-you-address-agrarian-crisis-the-mourning-continues-13978


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दस दिगंत भूस्खलन जारी पलाश विश्वास

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दस दिगंत भूस्खलन जारी

पलाश विश्वास

कामयाबी इंसान को सिरे से बदल देता है।इसलिए मैं हमेशा कामयाबी से डरता रहा हूं कि मैं सिरे से बदल न जाऊं। मुझ पर मेरे पिता का जरुरत से ज्यादा असर रहा है,जिन्हें बटोरने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही है। वे अपना काम करते करते मर गये,जोड़ा कुछ भी नहीं है।

मुझे इसलिए अपनी नाकामयाबियों पर कोई अफसोस नहीं है।

तकलीफों से जन्मजात वास्ता रहा है।इसलिए उससे भी ज्यादा परेशानी नहीं है।

अब भी डर वही है कि सिरे स न बदल जाऊं।क्योंकि जमाने में लोगों के सिरे से बदल जाने का दस्तूर है जो कामयाबी की और शायद अमन चैन की सबसे बड़ी शर्त है।

जिंदगी बड़ी होनी चाहिए।लंबी चौड़ी नहीं।हम नहीं जानते कितनी लंबी दौड़ अभी बाकी है।इस दौड़ में कहां कहां पांव फिसलने के खतरे हैं।

जिंदगी जी लेने के बाद नई जिंदगी की शुरुआत मौत के बाद होती है और मौत के बाद कितनी लंबी जिंदगी किसी को मिलती है,मेरे ख्याल से कामयाबी की असल कसौटी यही है।हमारे लिए इस कसौटी की भी कोई गुंजाइश नहीं है।

बहरहाल,1979 में पहली बार जब मैंने पहाड़ छोड़कर मैदानों के लिए नैनीताल से कूच किया था,उसदिन मूसलाधार बारिश हो रही थी। मुझे बरेली से सहारनपुर पैसेंजर पकड़कर इलाहाबाद जाना था।मेरा इरादा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डा. मानस मुकुल दास के गाइडडेंस में अंग्रेजी साहित्य में शोध करना था।

चील चक्कर पीछे छोड़ वाल्दिया खान से नीचे उतरते ही सड़क के दोनों तरफ भारी भूस्खलन होने की वजह से घंटों मूसलाधार बारिश में फंसा रहा था।

उस वक्त नैनीताल से मैं अपनी किताबें और होल्डआल में बिस्तर और झोले में पहनने के कपड़े लेकर निकला था।घर में खबर भी नहीं की थी कि मैं नैनीताल छोड़कर इलाहाबाद निकल रहा हूं।

तब मालूम न था कि नैनीताल की झील से और हिमालय की वादियों से हमेशा के लिए नाता तोड़कर निकलना हुआ है और हिमालय की गोद से नकली नदियों की तरह उल्टे पांव लौटना फिर कभी संभव नहीं होगा।यह भी सोचा नहीं था कि अपना गांव हमेशा के लिए पीछे छूट गया है और हमेशा के लिए अपने खेत खलिहान से बेदखली का विकल्प मैंने चुना है।

विश्वविद्यालय परिसर में बने रहने का ख्वाब धनबाद के कोयलांचल में ही जलकर राख हो गये।भूमिगत आग की तरह कुछ करने का जुनून जो मुझे इन चार दशकों तक देश भर में दौड़ाता रहा है,वह भी अब शायद मर गया है।

सर पर छत न होने का जो अंजाम होता है,उसमें सबसे खतरनाक बात यह है कि हम अब अपनी प्यारी किताबें सहेजकर रख नहीं सकते।

जिन किताबों को लेकर नैनीताल से चला था,वे भी मेरे साथ दौड़ती रहीं है।अब उनकी भी दौड़ खत्म है।अपने लिखे से मोहभंग दो दशक पहले ही हो गया था।उनसे काफी हद तक पीछा छुड़ा लिया है।अब बाकी बची हुई किताबों की बारी है।

डीएसबी की उन किताबों का साथ भी छूट रहा है।

किताबों से बिछुड़ना प्रिय मित्रों साथियों की मौत से भी भयानक सदमा होता है।

दरअसल नैनीताल छोड़ते वक्त मेरे दस दिगंत में जो भूस्खलन हो रहे थे,उसका सिलसिला कभी खत्म हुआ ही नहीं है।


जब मजदूर आंदोलन हैं ही नहीं,जब मेहनतकशों के हकहकूक भी खत्म है तो मई दिवस की रस्म अदायगी का क्या मतलब? हरियाणा में अब मजदूर दिवस विश्वकर्मा दिवस पर मनाया जाएगा! पलाश विश्वास

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जब मजदूर आंदोलन हैं ही नहीं,जब मेहनतकशों के हकहकूक भी खत्म है तो मई दिवस की रस्म अदायगी का क्या मतलब?

हरियाणा में अब मजदूर दिवस विश्वकर्मा दिवस पर मनाया जाएगा!

पलाश विश्वास

पहली मई को शिकागो में मजदूरों ने अपनी शहादत देकर काम के आठ घंटे का हक हासिल किया था।उन्हीं के लहू के रंग से रंगा है मजदूरों का लाल झंडा।आज जब हम भारत और बाकी दुनिया में पहली मई मानने की रस्म अदायगी कर रहे हैं, तो संगठित और असंगठित मजूरों की दुनिया में मेहनतकशों के सारे हक हकूक सिरे से लापता है। मुक्तबाजार की कारपोरेट दुनिया डिजिटल हो गयी है। कल कारखानों और उत्पादन इकाइयों में आटोमेशन हो गया है।उत्पादन में मशीनों के बाद कंप्यूटर और कंप्यूटर के बाद रोबोट का इ्स्तेमाल होने लगा है।

कारपोरेट दुनिया में सारे कामगार,सारे कर्मचारी और सारे अफसरान भी अब ठेके पर हैं।जिनके काम के घंटे तय नहीं है।कहने को भारत में 16154 कामगार संगठन हैं, जिनके करीब 92 लाख सदस्य हैं। भारत में कुल 50 करोड़ कर्मचारी व मजदूर हैं जिनमें करीब 94 फीसदी असंगठित क्षेत्र के कामगार हैं।

भारत में मेहनतकशों के तमाम कानूनी हक हकूक सिरे से खत्म हो गये हैं।श्रम कानून सारे सारे खत्म हैं। वैसे भी मुक्तबाजार की अर्थव्यवस्था में उत्पादन प्रणाली तहस नहस है और सारा जोर सर्विस और मार्केंटिंग पर है,जहां उत्पादन होता नहीं है। जहां श्रम का कोई मूल्य नहीं है और न उसकी कोई भूमिका है।

संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में नौकरी अब ठेके पर होते हैं और ठेके में काम के घंटे तय नहीं होते।

डिजिटल कैसलैस इंडिया का मतलब भी जमीनी स्तर तक आटोमेशन है। आटोमेशन माने व्यापक पैमाने पर छंटनी। क्योंकि सरकार अब मैनेजर की भूमिका में है और मेहनतकशों,कामगारों और कर्मचारियों के हकहकूक की कोई जिम्मेदारी उसकी नहीं है।उसे देशी विदेशी पूंजी के हित में सारी चीजें मैनेज करना होता है।

ऐसे हालात में क्या मई दिवस और क्या मेहनतकशों के हकहकूक?

बहरहाल,पहली मई को दुनिया के कई देशों में श्रमिक दिवस मनाया जाता है और इस दिन देश की लगभग सभी सरकारी गैरसरकारी उत्पादन इकाइयों और कंपनियों में छुट्टी रहती है। भारत ही नहीं, दुनिया के करीब 80 देशों में इस दिन राष्‍ट्रीय छुट्टी होती है।  हालांकि इस साल हरियाणा सरकार ने लेबर डे नहीं मनाने का फैसला किया है।जहां उसी विचारधारा की सरकरा है,जिसकी सत्ता केंद्र में है।जैसे श्रमिक कानून खत्म करने की शुरआत राजस्थान से हुई,वैसे ही क्श्रमिक दिवस कत्म करने की शुरुआत हरियाणा से हो गयी है।

हरियाणा सरकार ने इस साल मजदूर दिवस नहीं मनाने का फैसला किया है। प्रदेश के श्रम राज्य मंत्री नायब सिंह सैनी ने कहा कि हमने फैसला लिया है कि 1 मई को मजदूर दिवस नहीं मनाएंगे। मजदूर दिवस विश्वकर्मा दिवस पर मनाया जाएगा, जो दीपावली के अगले दिन होता है। हालांकि मजदूर संगठनों ने इसका विरोध किया और उनका कहना है कि सरकार की मंशा ठीक नहीं है।

बहुत जल्द मई दिवस मनाने की रस्म अदायगी भी खत्म होने जे रही है।1991 से उदारीकरण,निजीकरण ,ग्लोबीकरण के तहत हमने जिस डिजिटल अर्थव्यवस्था को अपनाया है, उसमें तेजी से मेहनतकशों का दमन और सफाया का अभियान बिना रोक टोक चल रहा है और मेहनतकशों के वोटों से चुनी हुई सरकार और आम जनता के चुने हुए नुमाइंदों की संसदीय सहमति से आर्थिक सुधार के नाम मेहनतकशों के हक हकूक खत्म करने के लिए तमाम कानून खत्म कर दिये गये हैं या बदल दिये गये हैं।इसके साथ ही ट्रेड यूनियन आंदोलन खत्म हो गया है।

नए श्रम कानून में प्रस्तावित बदलाव के तहत अब कर्मचारियों को नौकरी से निकालना आसान होगा वहीं कर्मचारियों के लिए यूनियन बनाना ज्यादा मुश्किल हो जाएगा ट्रेड यूनियन बनाने के लिए न्यूनतम 10 फीसदी या 100 कर्मचारियों की जरूरत होगी। फिलहाल 7 कर्मचारी मिलकर ट्रेड यूनियन बना सकते हैं। नए कानून में तीन पुराने कानूनों को मिलाया जाएगा। नौकरी से निकाले जाने पर ज्यादा मुआवजे पर विचार किया जा रहा है। इसके साथ ही 1 साल से पुराने कर्मचारी को छंटनी के पहले 3 महीने का नोटिस देना जरूरी होगा। नया श्रम कानून इंडस्ट्रियल डिस्प्युट्स एक्ट 1947, ट्रेड यूनियंस एक्ट 1926 और इंडस्ट्रियल एंप्लॉयमेंट (स्टैंडिंग ऑर्डर्स) एक्ट 1946 की जगह लेगा।

ट्रेड यूनियनें अब मैनेजमेंट का हिस्सा है,जिनका इस्तेमाल मजदूर आंदोलन को सिरे से खत्म करना है।

जब मजदूर आंदोलन हैं ही नहीं,जब मेहनतकशों के हकहकूक भी खत्म है तो मई दिवस की रस्म अदायगी का क्या मतलब?

1800 के दौर में (19वीं शताब्दी में) यूरोप, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में मजदूरों से 14 घंटे तक काम कराया जाता था। न कोई मेडिकल लिव होती थी और न ही किसी त्योहार पर छुट्टी होती थी।इन सभी यातनाओं के खिलाफ 1 मई 1984 में अमेरिका में करीब तीन लाख मजदूर सड़कों पर उतर पड़े। इन मजदूरों की मांग थी कि अधिकतम 8 घंटे काम कराया जाए और सोने के लिए भी आठ घंटे दिए जाएं।

इसी दौरान यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी कई मजदूर आंदोलन हुए जिसके परिणाम स्वरूप काम के घंटे 8 तय किए।

गौरतलब है कि अंतराष्‍ट्रीय तौर पर मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत 1 मई 1886 को हुई थी। अमेरिका के मजदूर संघों ने मिलकर निश्‍चय किया कि वे 8 घंटे से ज्‍यादा काम नहीं करेंगे। जिसके लिए संगठनों ने हड़ताल किया। इस हड़ताल के दौरान शिकागो की हेमार्केट में बम ब्लास्ट हुआ। जिससे निपटने के लिए पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी, जिसमें कई मजदूरों की मौत हो गई और 100 से ज्‍यादा लोग घायल हो गए। इसके बाद 1889 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में ऐलान किया गया कि हेमार्केट नरसंहार में मारे गये निर्दोष लोगों की याद में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाएगा और इस दिन सभी कामगारों और श्रमिकों का अवकाश रहेगा।

तब से मजदूर आंदोलनकी निरंतरता और मजदूरों के हकहकूक की लड़ाई के बतौर मजदूर दिवास मनाया जाता रहा है।अब मजदूर जिवस तो हम मना रहे हैं लेकिन मेहनतकशों की लड़ाई सिरे से खत्म है और मजदूरों के सारे हकहकूक खत्म हैं और अब उनके रोजगार या नौकरी की भी कोई गारंटी नहीं है।जो अभी काम पर हैं,उनके काम के घंटे भी तय नहीं हैं।

मई दिवस पर अपने फेसबुक वाल पर मशहूर गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के इस मंतव्य में अंधाधुंध सहरीकरण और उपभोक्ता संस्कृति के मुक्तबाजार में उत्पादन प्रणाली से बाहर इस कारपोरेट दुनिया में सर्वव्यापी असंगठित क्षेत्र में मेहनतकशों के मौजूदा हालात बयां हैः


कभी सड़क पर कपड़े की पोटली में बच्चा लटकाए सड़क बनाते मजदूर पति पत्नी से पूछियेगा कि वो पहले क्या करते थे ?

इनमें से बहुत सारे मजदूर पहले किसान थे जिन्हें हम शहरियों के विकास के लिए बाँध बनाने, हाई वे बनाने , हवाई अड्डा बनाने या अमीरों के कारखाने बनाने के लिए उजाड दिया गया .

हमने किसान को पहले मजदूर बना दिया

फिर जब ये मजदूर पूरी मजदूरी मांगता है तो हमारी ही पुलिस इन मजदूरों पर लाठी चलाती है इन्हें गोली से उड़ा देती है

आज तक कभी पुलिस को किसी अमीर को पीटते हुए देखा है कि तुम अपने मजदूरों को कानून के मुताबिक मजदूरी क्यों नहीं देते ?

आज तक श्रम विभाग के किसी अधिकारी को इस बात पर सज़ा नहीं हुई कि तुमने एक भी फैक्ट्री में मजदूरों को पूरी मजदूरी दिलाने के लिए कार्यवाही क्यों नहीं करी ?

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश है कि अगर कोई भी मजदूर कम मजदूरी पर काम करता है उसे बंधुआ मजदूर माना जायेगा ၊

अब ज़रा राष्ट्र की राजधानी में ही सीक्योर्टी गार्ड की नौकरी करने वाले से पूछियेगा कि उसकी ड्यूटी आठ घंटे की है या बारह घंटे की ?

आठ घंटे के काम के लिए मजदूरों नें लंबा संघर्ष किया था ၊

दिल्ली की हर फैक्ट्री में मजदूरों से बारह बारह घंटे काम करवाया जा रहा है , खुद जाकर देख लीजिए ၊

लेकिन यह सब देखना सरकार की प्राथमिकता ही नहीं है ၊

सभी पार्टियां इस मामले में एक जैसी साबित हुई हैं ၊

आप मानते हैं कि देश में सब ठीक ठाक चल रहा है ၊

हमें इसी बात की चिंता है कि इतना अन्याय होते हुए भी सब कुछ ठीक ठाक क्यों चल रहा है ?

हमारी चिंता अशांती नहीं है ၊

हमारी चिंता शांती है ၊

अन्याय के रहते शांती बेमानी और नाकाबिले बर्दाश्त है ၊


संतोष खरे ने समयांतर में प्रस्तावित श्रम कानून सुधारों के बारे में जो लिखा है,गौरतलब हैः

केंद्र सरकार ने कुछ श्रम कानूनों में संशोधन के प्रस्ताव को वेबसाइट पर डालकर उसके संबंध में 30 दिनों के अंदर लोगों की राय आमंत्रित की है। सरकार ने यह संशोधन 'श्रम सुधार'के नाम से करने का दावा किया है, पर इसके अवलोकन से कोई भी सामान्य बुद्धि-विवेक वाला व्यक्ति समझ सकता है कि सरकार 'श्रम सुधार'के नाम पर वास्तव में कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाना चाहती है।

सरकार ने जिन श्रम कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव किया है वे ऐसे कानून हैं जिनके अंर्तगत् श्रमिक पिछले 6 दशकों से भी अधिक समय से अपने नियोजन से संबंधित सुविधाएं और लाभ प्राप्त करते चले आ रहे हैं। पर वर्तमान भाजपा सरकार (सॉरी- नरेंद्र मोदी सरकार) की केंद्र में सत्ता स्थापित होते ही उनका श्रम मंत्रालय श्रमिक विरोधी कानून लागू करने के लिए प्रयासरत है। कारखाना अधिनियम, 1948 के प्रस्तावित संशोधनों को देखें तो वर्तमान कानून के अनुसार सामान्यतया किसी भी व्यस्क श्रमिक से एक दिन में 9 घंटों से अधिक अवधि तक काम नहीं कराया जा सकता तथा इस अवधि में भी 5 घंटों के बाद आधे घंटे का विश्राम दिया जाना आवश्यक है। यदि वह 9 घंटों से अधिक की अवधि तक कार्य करता है तो वह ऐसी बढ़ी हुई अवधि हेतु सामान्य वेतन की दर का दोगुना वेतन पाने का अधिकारी होगा। किंतु उसके कार्य की अवधि जिसमें ओवर टाइम भी सम्मलित है एक सप्ताह में 60 घंटों से अधिक नहीं होगी तथापि आवश्यक कारणों से यह अवधि मुख्य कारखाना निरीक्षक की अनुमति से ओवर टाइम की अवधि एक तिमाही में 75 घंटों तक बढ़ाई जा सकेगी। पर सरकार इस अधिनियम की धारा 64 में संशोधन कर इस अवधि को बढ़ाना चाहती है। तर्क किया जा सकता है कि ओवर टाइम की अवधि बढ़ने से श्रमिकों को अधिक आर्थिक लाभ होगा और संभव है तब श्रमिक आर्थिक लाभ के लिए अधिक समय तक ओवर टाइम करना चाहे पर क्या इस तरह अधिक ओवर टाइम करने से उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा? 1948 के कानून में कानून निर्माताओं ने इन्हीं तथ्यों पर विचार कर सीमित ओवर टाइम के प्रावधान किए थे, पर अब 2014 में मजदूरों के स्वास्थ्य की कीमत पर इस तरह के कथित श्रम सुधार करना कतई उचित नहीं कहा जा सकता। सोचने की बात है कि कहां वर्तमान में एक तिमाही में ओवर टाइम की अधिकतम अवधि 50 घंटे है जिसे सरकार 100 घंटे करना चाहती है। इसका एक परिणाम यह भी होगा कि कम से कम श्रमिकों से अधिक से अधिक कार्य कराया जा सके।

एक और संशोधन यह प्रस्तावित है कि सरकार एक दिन में कार्य के घंटों की अवधि राजपत्र में अधिसूचना जारी कर 12 घंटों तक बढ़ा सकती है। बड़े उद्योग घरानों के लिए यह कठिन नहीं होगा कि वे सरकार से दुरभि संधि कर ऐसी अधिसूचना जारी न करवा लेंगे।

अभी तक कारखानों में महिला श्रमिकों एवं किशोर को जोखिम भरे काम पर नहीं लगाया जा सकता पर अब संशोधन के द्वारा यह प्रावधान करने का प्रस्ताव किया गया है कि केवल किसी गर्भवती महिला अथवा विकलांग व्यक्ति को जोखिम भरे काम पर नहीं लगाया जाए। इसका सीधा अर्थ यह है कि सरकार का इरादा महिलाओं एवं किशोर श्रमिकों को भी जोखिम भरे कार्यों में लगाने का है। इसी तरह का प्रस्ताव ट्रांसमिशन मशीनरी या मुख्य मूवर को साफ करने, तेल डालने या उसे एडजस्ट करने जैसे कार्यों के लिए भी है।

केंद्र सरकार के द्वारा न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 के प्रावधानों में भी संशोधन किए जाने का प्रस्ताव किया गया है। अभी तक इस अधिनियम के अनुसार सरकार अनुसूचित उद्योगों में शासकीय राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशित कर श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण करती है और आवश्यकतानुसार समय-समय पर जो सामान्यतया प्रत्येक पांच वर्ष के अंदर का समय होता है उसका पुनरीक्षण किया जाता है। इसके अलावा प्राइस इंडेक्स में होने वाली वृद्धि के अनुसार भी हर छमाही पर महंगाई भत्ते की दरों का पुनरीक्षण किया जाता है। किंतु बड़े औद्योगिक घराने सरकार के द्वारा निर्धारित की जाने वाली न्यूनतम वेतन की दरों से संभवत: कठिनाई का अनुभव करते हैं और वे इस कानून में ऐसा संशोधन चाहते हैं जिसमें न्यूनतम वेतन दिए जाने की मजबूरी न हो बल्कि वे स्वयं यह निर्णय करें कि उनके संस्थान में वेतन की दरे क्या होगी? यदि इस तरह का कोई संशोधन किया जाता है तो अनुसूचित उद्योगों के बड़ी संख्या के श्रमिकों के वेतन की दरों में कमी हो जाएगी। इस प्रकार यह संशोधन श्रमिकों का सीधा शोषण होगा।

इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि वर्ष 2004 में गुजरात में औद्योगिक विवाद अधिनियम के प्रावधानों में लचीलापन किया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि वहां के नियोजकों को यह छूट प्राप्त हो गई कि वे सरकार से बिना अनुमति लिए किसी भी श्रमिक को एक माह का नोटिस देकर काम से निकाल सकते हैं। अभी हाल में राजस्थान मंत्रिमंडल ने भी औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, कारखाना अधिनियम, 1948 तथा संविदा श्रमिक (विनियमन एवं उन्मूलन)  अधिनियम, 1970 में ऐसे संशोधन किए हैं जो श्रमिकों के हितो के विपरीत हैं। इस राज्य सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम के अध्याय-5 में संशोधन किया है। अभी तक यह व्यवस्था थी कि जिन संस्थानों में 100 या 100 से अधिक श्रमिक कार्यरत हैं ऐसे संस्थान को बंद करने के लिए सरकार से अनुमति लेना आवश्यक होता था। अब राजस्थान सरकार ने श्रमिकों की संख्या सौ से बढ़ाकर तीन सौ कर दी है और इस प्रकार बड़ी संख्या के संस्थान जहां तीन सौ से कम कर्मचारी काम करते हैं वहां उन्हें काम से हटाना आसान हो गया है। इसके साथ ऐसे संस्थानों के नियोजकों को छंटनी, ले-ऑफ तथा क्लोजर घोषित करने में भी आसानी हो जाएगी क्योंकि अब उन्हें सरकार से पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी। इसके अलावा राजस्थान सरकार ने औद्योगिक विवाद उठाने के लिए तीन वर्ष की अवधि की समय सीमा निश्चित कर दी है। केंद्र सरकार ने वर्ष 2010 में ऐसे औद्योगिक विवादों के लिए जो शासन के द्वारा संदर्भित न किए गए हों 3 वर्ष की अवधि निर्धारित की थी जबकि अभी तक ऐसी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं थी। राजस्थान सरकार ने ट्रेड यूनियन एक्ट के अंर्तगत प्रतिनिधि यूनियन के रजिस्ट्रेशन के लिए श्रमिकों के प्रतिशत को 15 से बढ़ाकर 35 कर दिया है। इसी प्रकार ठेका श्रमिकों का अधिनियम जो ऐसे संस्थानों पर लागू होता था जहां कम से कम 20 मजदूर कार्य करते हैं जिसे राजस्थान सरकार ने उनकी संख्या बढ़ाकर 50 कर दी है। इसी तरह इस सरकार ने कारखाना अधिनियम में इसे लागू होने की श्रमिकों की संख्या की सीमा को बढ़ा दिया है जिसका परिणाम यह होगा कि बड़ी संख्या में श्रमिक इस अधिनियम के अंर्तगत प्राप्त होने वाली सुरक्षा की सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे। यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि राजस्थान सरकार ने उपरोक्त संशोधन केंद्र सरकार के इशारे पर ही किया होगा।

केंद्र सरकार का इरादा वेबसाइट पर डाले गए प्रस्तावित संशोधनों में साफ झलकता है कि वह इन संशोधनों के माध्यम से पूंजीपति वर्ग को लाभ देना चाहती है ताकि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने संस्थान स्थापित कर मनमाने ढ़ंग से चला सकें और इस देश के अब तक के श्रमिक कानूनों में जो सुविधाएं और लाभ श्रमिकों को प्राप्त होते थे उन्हें वंचित किया जा सके। संभवत: इसीलिए संस्थानों के नियमित कार्यों को ठेका श्रमिकों से कराने, ट्रेड यूनियनों को कमजोर करने, श्रमिकों को सेवा से पृथक करने और छंटनी, ले-ऑफ, क्लोजर जैसी प्रक्रियाओं को आसान बनाने जैसे संशोधन करने का प्रयास किया जा रहा है। बिडंबना यह है कि इन श्रमिक विरोधी संशोधनों को श्रम सुधारों के नाम पर किया जा रहा है। विभिन्न श्रम संगठनों और मीडिया में प्रस्तावित सुधारों का जमकर विरोध और आपत्तियां की गई हैं।(साभार समयांतर)


#চুয়াড় বিদ্রোহ@Chuar Rebellion: Midnapur Bankura legacy of freedom and Resistance! Palash Biswas

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#চুয়াড় বিদ্রোহ@Chuar Rebellion: Midnapur Bankura legacy of freedom and Resistance! 

Palash Biswas

Video:https://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/1702587569769645/?l=8439862445005580068
Millions of farmers in Latin America, Africa and south Asia are, at present, direct victims of the wondrous regime set up by the WTO and world order sustained by governments worldwide led by ruling hegemony of ruling dynasties in desguise of democracy and their agencies all on name of growth,development and humanitarian cause and projected mass movement .


 With the gradual dismantling of quantitative restrictions and tariff barriers, the peasantry in the poorer countries is facing rack and ruin.


 A whole range of farm commodities can be offered for trading by the technologically advanced Western countries at prices that would not cover farmers' costs in the poor continents. One reason is the neo-colonial edict: some are more equal than others; subsidies are out for farmers in India, Pakistan or Bangladesh, but not for those in the US, or in France.


But agrarian Midnapur and Jangal Mahal in Bengal have a different legacy of resistance to reject the Global Order,indiscriminate industrializaion,urbanisation and infrastructure.


I am just drawing your attention to this humanscape of continuous resistance inherent.


Midnapur is quite different from rest of Bengal,rest of India.So the tribal India,which it makes with Jharkhand,dandakarnya,Orrissa,MP,Maharashtra and Andhra are quite different in culture,psyche,linguistics and history.


We have brute apathy against them!We may include tribal Gujarat and rajasthan along with UP and Bihar in this list.Then entire North East.


For Example as Warren Hastings failed to quell the Chuar uprisings. The district administrator to Bankura wrote in his diary in 1787 that the Chuar revolt was so widespread and fierce that temporarily, the Company's rule had vanished from the district of Bankura.


 Finally in 1799 the Governor General, Wellesley crushed these uprisings by a pincer attack. An area near Salboni in Midnapore district, in whose mango grove many rebels were hung from trees by the British, is still known by local villagers as "the heath of the hanging upland", Phansi Dangar Math.

 

Some years later under the leadership of Jagabandhu the paymaster or Bakshi (of the infantry of the Puri Raja), there was the well-known widespread Paik or retainer uprising in Orissa. In 1793 the Governor General Cornwallis initiated in the entire Presidency of Bengal a new form of Permanent Settlement of revenue to loyal landlords. 

This led to misfortunes for the toiling peasantry: in time they would protest against this as well.
First Chuar Rebellion (1767.)


But the world owes much to rebels who would dare to argue in the face of the pontiff and insist that he is not infallible.


-Babasaheb Ambedkar


In the fight for Swaraj you fight with the whole nation on your side...[but to annihilate the caste], you have to fight against the whole nation—and that too, your own. But it is more important than Swaraj. There is no use having Swaraj, if you cannot defend it. More important than the question of defending Swaraj is the question of defending the Hindus under the Swaraj. In my opinion, it is only when Hindu Society becomes a casteless society that it can hope to have strength enough to defend itself. Without such internal strength, Swaraj for Hindus may turn out to be only a step towards slavery. Good-bye, and good wishes for your success.
-B.R. Ambedkar

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख बाबरी मस्जिद केस : मुसलमानों की खामोशी क्या कहती है? कटघरे में आडवाणी ही नहीं न्यायपालिका भी है

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हस्तक्षेप > आपकी नज़र


आदिवासियों की चिंता क्यों है तुम्हें
आदिवासियों की चिंता क्यों है तुम्हें?

मिटटी में मिलाना चाहते हो तुम आदिवासियत को उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर बलात्कार करना चाहते हो तुम आदिवासी महिलाओं का ...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-02 18:54:52
निजी स्कूल की लूट पर रवीश कुमार को मोदी का खुला पत्र
निजी स्कूल की लूट पर रवीश कुमार को मोदी का खुला पत्र

निज़ी स्कूल लूट करते हैं; क्योंकि: हमने यह ग्रहित धर लिया है कि सरकारी स्कूल – जहाँ कभी देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से लेकर बड़े-बड़े वैज्ञानि...

अतिथि लेखक
2017-05-02 18:41:20
ईवीएम पर अविश्वास दोराहे पर लोकतंत्र
ईवीएम पर अविश्वास, दोराहे पर लोकतंत्र

अब राष्ट्रीय स्तर पर कोई चुनावी दल पनप नहीं सकता। देशद्रोह, गौहत्या, आतंकवाद, ईशनिन्दा, भ्रष्टाचार, आदि किसी भी बहाने से बदनाम कर मारा जा सकता है...

वीरेन्द्र जैन
2017-05-02 13:54:39
जब मेहनतकशों के हकहकूक भी खत्म हैं तो मई दिवस की रस्म अदायगी का क्या मतलब
जब मेहनतकशों के हकहकूक भी खत्म हैं तो मई दिवस की रस्म अदायगी का क्या मतलब?

जब मजदूर आंदोलन हैं ही नहीं, जब मेहनतकशों के हकहकूक भी खत्म हैं तो मई दिवस की रस्म अदायगी का क्या मतलब? सरकार अब मैनेजर की भूमिका में है हरियाण...

पलाश विश्वास
2017-05-01 18:55:09
मानवता को खतरा मशीनों से नहीं पूंजीवाद से है  फासीवाद का बढ़ता कदम और क्रन्तिकारियों की रणनीति
लग पाएगी रियल एस्टेट में धोखाधड़ी पर लगाम
लग पाएगी रियल एस्टेट में धोखाधड़ी पर लगाम!

अपना एक घर हो, हर किसी का सपना होता है। देश में रियल एस्टेट का कारोबार जिस तेजी से बढ़ा है उसी तेजी से ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी भी बढ़ी है। बिल्ड...

अतिथि लेखक
2017-05-01 10:21:34
न्यायपालिका का भी कुछ कम 'योगदान'नहीं अयोध्या मामला उलझाये रखने में
न्यायपालिका का भी कुछ कम 'योगदान'नहीं अयोध्या मामला उलझाये रखने में

मानना पड़ेगा कि बार-बार रुलाने वाली देश की थकाऊ, उबाऊ और अभिजात व अमीरपरस्त न्यायप्रणाली के प्रति देशवासियों में अभी भी गजब का विश्वास है।...

कृष्ण प्रताप सिंह
2017-05-01 10:11:09
संसदीय वामपंथ कम्‍युनिज्‍़म नहीं बल्कि सामाजिक जनवाद है। फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का मुख्‍य मोर्चा समाज में और सड़कों पर होगा
संसदीय वामपंथ कम्‍युनिज्‍़म नहीं, बल्कि सामाजिक जनवाद है। फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का मुख्‍य मोर्चा समाज में और सड़कों पर होगा

प्रगतिशील उदार लोग शिकायत करते हैं कि वे ''क्रांति'' (या एक अधिक जुझारू मुक्तिकामी राजनीतिक आंदोलन) में शामिल होना पसंद करते, लेकिन चा‍हे जितनी ब...

अतिथि लेखक
2017-05-01 08:57:11
अभियोजन चाहे तो इस मुकदमे को पांच सौ साल तक खींच सकता है
अभियोजन चाहे तो इस मुकदमे को पांच सौ साल तक खींच सकता है

जानते हैं आतंकवाद के मामलों में अक्सर सुनवाई किस तरह होती है? तो सुनिएǃ

मसीहुद्दीन संजरी
2017-04-29 22:53:23
दस दिगंत भूस्खलन जारी ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी चौड़ी नहीं
दस दिगंत भूस्खलन जारी... ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी चौड़ी नहीं

ज़िंदगी जी लेने के बाद नई जिंदगी की शुरुआत मौत के बाद होती है और मौत के बाद कितनी लंबी जिंदगी किसी को मिलती है, मेरे ख्याल से कामयाबी की असल कसौट...

पलाश विश्वास
2017-04-29 18:55:37
मोदी राज से योगी राज की ओरमीडिया हिन्दुत्व लहर की पूर्ण चपेट में
मोदी राज से योगी राज की ओर.....मीडिया हिन्दुत्व लहर की पूर्ण चपेट में

मीडिया हिन्दुत्व लहर की पूर्ण चपेट में है। भाजपा-आरएसएस-मीडिया में अंतर करना कठिन सा हो गया है। स्कूल-यूनिवर्सिटी निजी पूंजी को बेचे जा सकते हैं,...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-04-29 11:20:46
भाजपा गोलाबारूद और सेना की मदद से कश्मीर को सुलगा रही
भाजपा, गोलाबारूद और सेना की मदद से कश्मीर को सुलगा रही

हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या कोई भी युवा, किसी के भड़काने पर या धन के लिए अपनी जान दांव पर लगा देगा। क्या वह अपनी आंखें खो देने या गंभीर रू...

राम पुनियानी
2017-04-28 15:50:15
गाय माता वालों सांड को आवारा होने से कौन बचाये  खेती आज खतरे में हैं
गाय माता वालों, सांड को आवारा होने से कौन बचाये ? खेती आज खतरे में हैं...

सरकार को चाहिए कि बीफ निर्यात पर एक श्वेत पत्र जारी करे और जो इस निर्यात के अगुआ हैं उनके नाम जारी करे। हम जानना चाहते हैं कि तीस हज़ार करोड़ रुपय...

Vidya Bhushan Rawat
2017-04-28 11:13:54
धूल फांक रही हैं मंडल आयोग की 40 में से 38 सिफारिशें
धूल फांक रही हैं मंडल आयोग की 40 में से 38 सिफारिशें

आरएसएस के विचारकों की ओर से रह रहकर आरक्षण की समीक्षा की बात होती है। जिन लोगों का जातीय आधार पर सदियों से शोषण किया गया उनके लिए थोड़ा सा स्पेस द...

अतिथि लेखक
2017-04-27 22:56:32
माओवाद की जड़ है धूर्त ब्राह्मण उद्दंड क्षत्रिय और व्यापार बुद्धि वाला वैश्य - ईएनराममोहन पूर्व महानिदेशक बीएसएफ
माओवाद की जड़ है धूर्त ब्राह्मण, उद्दंड क्षत्रिय और व्यापार बुद्धि वाला वैश्य - ई.एन.राममोहन, पूर्व महानिदेशक बीएसएफ

आप खुद जाइए और देखिए कि तेंदू पत्ता के व्यापार में क्या हो रहा है। मुझे बताया गया कि इस व्यापार से जो पैसा मिलता है वह दिल्ली में राजनीतिज्ञों क...

अतिथि लेखक
2017-05-01 23:09:28
डा अम्बेडकर का संघीकरण
डा. अम्बेडकर का संघीकरण!

समझ गए! जब संघाचारियों के अनुसार अम्बेडकर देशद्रोही व हिन्दूवादी हो सकते हैं, तो गोडसे देशभक्त भी तो हो सकते हैं? आप भी बाबा साहब की पूजा अराधना ...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-04-26 22:30:46
सिर्फ भाजपा विरोध से तो न होगी विपक्षी एकता जनता का कार्यक्रम कहां है
सिर्फ भाजपा विरोध से तो न होगी विपक्षी एकता, जनता का कार्यक्रम कहां है

स सक्रियता की ताजातरीन कड़ी में सुश्री बनर्जी ने, बीजू जनता दल के प्रमुख नवीन पटनायक से सुप्रचारित मुलाकात की है, जबकि लगभग उसी समय दिल्ली में नी...

राजेंद्र शर्मा
2017-04-26 16:26:05
6 दिसंबर 1992  बाबरी मस्जिद के साथ उस दिन अनेक संवैधानिक संस्थाएं भी धराशायी हो गईं थीं
6 दिसंबर 1992 : बाबरी मस्जिद के साथ उस दिन अनेक संवैधानिक संस्थाएं भी धराशायी हो गईं थीं

ध्वंस के पहले आडवाणी की रथयात्रा हुई थी। रथयात्रा के दो प्रमुख नारे थे- 'मंदिर वहीं बनेगा' और 'रामद्रोही, देशद्रोही'।

एल.एस. हरदेनिया
2017-04-25 22:17:28



समाचार > देश
बीजेपी और आरएसएस के एजेंडे पर काम कर रहे हैं कुमार विश्वास
बीजेपी और आरएसएस के एजेंडे पर काम कर रहे हैं कुमार विश्वास  !

सवाल है कि क्या आम आदमी पार्टी टूट के कगार पर है ? ये सवाल पैदा हुआ है आप में आधी रात के ड्रामे के बाद। दरअसल एमसीडी चुनाव में मिली करारी हार के...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-02 17:51:04
आजम खान ने दी यूनिवर्सिटी को डायनामाइट से उड़ाने की धमकी
आजम खान ने दी यूनिवर्सिटी को डायनामाइट से उड़ाने की धमकी

आजम ने सरकार को धमकी देते हुए कहा कि अगर किसी ने यूनिवर्सिटी पर कब्जा जमाने की कोशिश की तो, यूनिवर्सिटी को डायनामाइट से उड़ा दिया जाएगा।

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-02 15:43:20
अब स्मार्टफोन भी बेचेंगे सचिन तेंदुलकर
अब स्मार्टफोन भी बेचेंगे सचिन तेंदुलकर

क्रिकेट के भगवान भारत रत्न सचिन तेंदुलकर के प्रशंसकों के लिए एक खुशखबरी है। सचिन के नाम के बैट और बॉल खरीदने वाले लोगों को अब स्मार्टफोन की दुनिय...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-02 12:17:18
नवादा को भागलपुर-गुजरात बनाने की धमकी देते हुए मुस्लिम मोहल्लों पर टूट पड़ी नीतीश की पुलिस - रिहाई मंच
नवादा को भागलपुर-गुजरात बनाने की धमकी देते हुए मुस्लिम मोहल्लों पर टूट पड़ी नीतीश की पुलिस - रिहाई मंच

भागलपुर को गुजरात बनाने की धमकी देते हुए मुस्लिम मोहल्लों पर टूट पड़ी नीतीश की पुलिस - रिहाई मंचनीतिश-लालू मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने की धमकी द...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-02 09:00:15
दुनिया भर में स्कूल नहीं जाने वाले बच्चे 124 मिलियन जिनमें से 177 मिलियन भारतीय
दुनिया भर में स्कूल नहीं जाने वाले बच्चे 124 मिलियन, जिनमें से 17.7 मिलियन भारतीय

अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर किए गए प्रयासों के बावजूद भी जिस तरह के आंकड़े यूनेस्को E-ATLAS ने स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों पर जारी किए हैं...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-01 21:54:38
दिल्ली  चिल्ड्रन होम में लड़कियों के साथ अमानवीय व्यवहार उपमुख्यमंत्री के आदेश भी बेअसर
दिल्ली : चिल्ड्रन होम में लड़कियों के साथ अमानवीय व्यवहार, उपमुख्यमंत्री के आदेश भी बेअसर

लड़कियों ने शिकायत की कि उनके पीरियड का पता लगाने के लिए उनके कपड़े उतरवाये जाते हैं। उसके बाद ही उन्हें सेनेटरी पैड दिए जाते हैं।

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-01 21:34:07
अच्छे दिन  भाजपा नेता ने हड़पी दलित की माईन्स अदालत ने दिए जाँच के आदेश
अच्छे दिन : भाजपा नेता ने हड़पी दलित की माईन्स, अदालत ने दिए जाँच के आदेश

भीलवाड़ा जिले के शिवपुर गांव के निवासी एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति कन्हैया लाल बलाई ने भाजपा नेता गोपाल खंडेलवाल पर अपनी खान ( माईन्स ) हड़प जाने क...

अतिथि लेखक
2017-05-01 19:10:41
असम पहुंचा गौआतंकियों का आतंक दो की हत्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही सरकार की आलोचना
असम पहुंचा गौआतंकियों का आतंक, दो की हत्या, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही सरकार की आलोचना

गौआतंकियों द्वारा गौरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों व दलितों पर जानलेवा हमलों की गूँज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठने लगी है तो गोरक्षा के नाम पर हत्या ...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-01 16:14:53
1 मई  आज ही हुई थी हिटलर की मौत और समाजवादी राष्ट्र घोषित हुआ था क्यूबा
1 मई : आज ही हुई थी हिटलर की मौत और समाजवादी राष्ट्र घोषित हुआ था क्यूबा

1 मई, यूँ तो अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवसकेरूप में जाना जाताहै, लेकिन 1मई से इतिहास की बहुत सीमहत्वपूर्ण चीजें जुड़ी हुई हैं। मसलन आज ही तानाशाह हि...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-01 11:51:58
फेफड़े में पानी का जमाव  कारण पहचान और निदान
फेफड़े में पानी का जमाव : कारण, पहचान और निदान

अक्सर आपने रिश्तेदारों, मित्रों व पड़ोसियों से अनौपचारिक बातचीत के दौरान यह सुना होगा कि उनके या उनके किसी जान पहचान वाले के फेफड़े में या छाती के ...

अतिथि लेखक
2017-05-01 09:38:19
निष्पक्षता की आवाज है पत्रकारिता  आमिर हक
निष्पक्षता की आवाज है पत्रकारिता : आमिर हक

शिया पीजी कालेज के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग द्वारा आज पत्रकारिता के क्षेत्र में अहम मुकाम हासिल करने वाले छात्रों को खतीबे अकबर मौलाना मिर्जा...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-04-29 22:09:38
योगी सरकार द्वारा दलित युवाओं की काउंसलिंग केवल नाटक- दारापुरी
योगी सरकार द्वारा दलित युवाओं की काउंसलिंग केवल नाटक- दारापुरी

योगी सरकार दलितों को उच्च शिक्षा से हटा कर उन्हें छोटे-मोटे कारीगर बना कर निम्न स्तर के मजदूर बनाना चाहती है

हस्तक्षेप डेस्क
2017-04-29 21:48:59
जस्टिस काटजू की
जस्टिस काटजू की "आप"को नेक सलाह, भाजपा में विलय कर लो

काटजू ने "आप"की राजनीति पर बहुत करारा व्यंग्य किया है और इशारों-इशारों में कहा है कि जो काम "आप"छिपकर कर रही है, उसे खुलकर करे, आखिर "आप"की मं...

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महत्वपूर्ण खबरें और आलेख जनविद्रोह के कगार पर कश्मीर : दो सांप्रदायिकताएं मिलकर तो दुहरी सांप्रदायिकता ही बना सकती हैं, धर्मनिरपेक्षता नहीं

Next: आधार से नागरिकों की जान माल को बारी खतरा।तेरह करोड़ नागरिकों की जानकारी लीक। सबकुछ राष्ट्र के नियंत्रण में होने के बजाय सबकुछ राष्ट्र के नियंत्रण से बाहर निजी, कारपोरेट पूंजी, प्रोमोटरों ,बिल्डरों, माफिया और आपराधिक तत्वों के नियंत्रण में होता जा रहा है ,जिससे नागरिक और राष्ट्र दोनों संकट में हैं,हालांकि निरंकुश सत्ता और सत्ता वर्ग को कोई खतरा नहीं है,कोई चुनौती भी नहीं है। पलाश
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हस्तक्षेप > आपकी नज़र
जनविद्रोह के कगार पर कश्मीर  दो सांप्रदायिकताएं मिलकर तो दुहरी सांप्रदायिकता ही बना सकती हैं धर्मनिरपेक्षता नहीं
जनविद्रोह के कगार पर कश्मीर : दो सांप्रदायिकताएं मिलकर तो दुहरी सांप्रदायिकता ही बना सकती हैं, धर्मनिरपेक्षता नहीं

महबूबा मुफ्ती की स्थिति अगर एक साथ त्रासद और हास्यास्पद हो गयी है, तो इसके लिए शायद वह खुद ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं।

राजेंद्र शर्मा
2017-05-03 22:39:43
और नदियों की तरह नर्मदा भी आईसीयू में
और नदियों की तरह नर्मदा भी आईसीयू में

राज्य सरकार ने नर्मदा बचाओ अभियान में खुद को गंभीर दिखाने को नर्मदा को मानव जाति में शामिल कर लिया है ताकि उसे ICU में भर्ती कर करोड़ों अरबों का व...

राजीव मित्तल
2017-05-03 15:45:18
आदिवासियों की चिंता क्यों है तुम्हें
आदिवासियों की चिंता क्यों है तुम्हें?

मिटटी में मिलाना चाहते हो तुम आदिवासियत को उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर बलात्कार करना चाहते हो तुम आदिवासी महिलाओं का ...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-02 18:54:52
निजी स्कूल की लूट पर रवीश कुमार को मोदी का खुला पत्र
निजी स्कूल की लूट पर रवीश कुमार को मोदी का खुला पत्र

निज़ी स्कूल लूट करते हैं; क्योंकि: हमने यह ग्रहित धर लिया है कि सरकारी स्कूल – जहाँ कभी देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से लेकर बड़े-बड़े वैज्ञानि...

अतिथि लेखक
2017-05-02 18:41:20
ईवीएम पर अविश्वास दोराहे पर लोकतंत्र
ईवीएम पर अविश्वास, दोराहे पर लोकतंत्र

अब राष्ट्रीय स्तर पर कोई चुनावी दल पनप नहीं सकता। देशद्रोह, गौहत्या, आतंकवाद, ईशनिन्दा, भ्रष्टाचार, आदि किसी भी बहाने से बदनाम कर मारा जा सकता है...

वीरेन्द्र जैन
2017-05-02 13:54:39
बाबरी मस्जिद केस  मुसलमानों की खामोशी क्या कहती है कटघरे में आडवाणी ही नहीं न्यायपालिका भी है
बाबरी मस्जिद केस : मुसलमानों की खामोशी क्या कहती है? कटघरे में आडवाणी ही नहीं न्यायपालिका भी है

सुप्रीम कोर्ट बाबरी मस्जिद ध्वंस के अपराधियों को सजा देने में सचमुच गम्भीर है तब भी मुसलमान यकीन नहीं कर पाएगा। उसके लिए अब सिर्फ आडवाणी ही कटघरे



समाचार > देश
शिवपाल ने अखिलेश को दिए तीन महीने रामगोपाल को दी नसीहत गीता पढ़ो शकुनि
शिवपाल ने अखिलेश को दिए तीन महीने, रामगोपाल को दी नसीहत, गीता पढ़ो शकुनि

शिवपाल सिंह यादव ने इशारों-इशारों में ऐलान कर दिया कि अगर अखिलेश नहीं माने तो समाजवादी पार्टी में दो फाड़ हो जाएंगे।

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-03 22:19:40
पाकिस्तानी कैदियों के मामले की सुनवाई 21 जुलाई तक स्थगित सरकार को स्टेट्स रिपोर्ट दाखिल करने का दिया सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश
पाकिस्तानी कैदियों के मामले की सुनवाई 21 जुलाई तक स्थगित, सरकार को स्टेट्स रिपोर्ट दाखिल करने का दिया सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश

याचिका सं. 310/2005 में सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया गया है कि इन कैदियों की रिहाई के लिए हस्तक्षेप करे, जिन्होंने अपनी सजाएं पूरी ली हैं या काफी...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-03 22:06:26
विश्वास के साथ केजरीवाल सिसोदिया भी आरएसएस से मिले हुए हैं - माकन
विश्वास के साथ केजरीवाल, सिसोदिया भी आरएसएस से मिले हुए हैं - माकन

माकन ने कहा कि न सिर्फ कुमार विश्वास बल्कि अरविन्द केजरीवाल तथा मनीष सिसोदिया की भाजपा से भी सांठगांठ है। उन्होंने कहा कि आप कांग्रेस के वोट काटक...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-03 21:54:50
रार थमी लेकिन दोफाड़ हुई आम आदमी पार्टी
रार थमी लेकिन दोफाड़ हुई आम आदमी पार्टी...

आम आदमी पार्टी ने अमानतउल्लाह की प्राथमिक सदस्यता भी रद्द कर दी है और उनके कुमार विश्वास के खिलाफ दिए गए बयान की जांच के लिए एक तीन सदस्यीय कमेटी...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-03 21:40:32
एकमात्र तैरती झील लोकटक
एकमात्र तैरती झील लोकटक

नमी, जलजीव, वनस्पति और पारस्थितिकी की दृष्टि से लोकटक काफी धनी झील मानी गई है। जहां तैरती हुई फूमदी पर जहां कई तरह की घास, नरकुल तथा अन्य पौधे मौ...

अरुण तिवारी
2017-05-03 13:12:33
काबुल में आत्मघाती विस्फोट कई हताहत
काबुल में आत्मघाती विस्फोट, कई हताहत

अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में बुधवार को आत्मघाती विस्फोट हुआ। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, गठबंधन बलों के सुरक्षाकर्मियों को निशाना बनाकर हमल...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-03 10:05:26
कश्मीर  पुलिस चौकी पर हमला आतंकवादियों ने पुलिसकर्मियों से छीनीं पाँच राइफल
कश्मीर : पुलिस चौकी पर हमला, आतंकवादियों ने पुलिसकर्मियों से छीनीं पाँच राइफल

दक्षिण कश्मीर के शोपियां जिले में आतंकवादियोंने एक पुलिस चौकी पर हमला कर दिया। आतंकवादी वहां तैनात सुरक्षाकर्मियों से पांच सर्विस राइफल लेकर फरार...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-03 09:20:30
भीमसिंह की प्रधानमंत्री से जम्मू-कश्मीर में उगलते लावा को बुझाने के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलाने की अपील
भीमसिंह की प्रधानमंत्री से जम्मू-कश्मीर में उगलते लावा को बुझाने के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलाने की अपील

प्रो. भीमसिंह ने प्रमं नरेन्द्र मोदी से अनुरोध किया है कि वे जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व के हालात को शांत रखने के लिए तमाम राजनीतिक दलों के प्रति...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-02 22:12:32
सिब्बल ने पूछा क्या स्मृति ईरानी अब मोदी को भेजेंगी चूड़ियां
सिब्बल ने पूछा, क्या स्मृति ईरानी अब मोदी को भेजेंगी चूड़ियां?

कपिल सिब्बल ने पूछा है कि क्या स्मृति ईरानी अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चूड़ियां भेजेंगी, क्योंकि साल 2013 में इसी तरह की घटना के बाद वह तत्क...



Opinion > Debate
how to achieve low agriculture npas  lessons from gujarat
How to Achieve Low Agriculture NPAs : Lessons from Gujarat

Who gains, who loses? Where does the money come from, where does it go? Trickle down? Gush up? Do the math.  

अतिथि लेखक
2017-05-03 13:28:30
rising right wing and left ideology
Rising Right Wing and Left Ideology

"Grab 'em by the pussy": how Trump talked about women in private is horrifying." Now he is American President!

Gp Capt KK Singh
2017-05-03 12:50:04
why and how
Why and How "Secularism" in Our Constitution

Any discussion on secularism would need first to focus on two basic aspects: Firstly, the word 'secularism' has no substitute in any of our langu...

अतिथि लेखक
2017-05-02 11:18:03
sonia is therefore a foreigner while the mughals were indians
Sonia is therefore a foreigner, while the Mughals were Indians

The Mughals, though initially foreigners, later became Indianized, India prospered under Mughal rule, and the Mughals never took away wealth from...

Justice Markandey Katju
2017-04-29 19:21:53
sweeping of country by hindutva – what to be done
Sweeping of Country by Hindutva – What to be done?

Hindutva is sweeping the country. It also shows that secularism has not taken roots in our country. The Hindutva elements are gradually sweeping ...


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आधार से नागरिकों की जान माल को बारी खतरा।तेरह करोड़ नागरिकों की जानकारी लीक। सबकुछ राष्ट्र के नियंत्रण में होने के बजाय सबकुछ राष्ट्र के नियंत्रण से बाहर निजी, कारपोरेट पूंजी, प्रोमोटरों ,बिल्डरों, माफिया और आपराधिक तत्वों के नियंत्रण में होता जा रहा है ,जिससे नागरिक और राष्ट्र दोनों संकट में हैं,हालांकि निरंकुश सत्ता और सत्ता वर्ग को कोई खतरा नहीं है,कोई चुनौती भी नहीं है। पलाश

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आधार से नागरिकों की जान माल को बारी खतरा।तेरह करोड़ नागरिकों की जानकारी लीक।

सबकुछ राष्ट्र के नियंत्रण में होने के बजाय सबकुछ राष्ट्र के नियंत्रण से बाहर निजी, कारपोरेट पूंजी, प्रोमोटरों ,बिल्डरों, माफिया और आपराधिक तत्वों के नियंत्रण में होता जा रहा है ,जिससे नागरिक और राष्ट्र दोनों संकट में हैं,हालांकि निरंकुश सत्ता और सत्ता वर्ग को कोई खतरा नहीं है,कोई चुनौती भी नहीं है।

पलाश विश्वास

वीडियोःhttps://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/1704342366260832/?l=921188677485420886

तेरह लाख आधार कार्ड की जानकारी लीक हो गयी है और सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार ने यह मान लिया है।भारत सरकार के मुताबिक आदार प्राधिकरण के पोर्टल से यह लीक नहीं हुई है।गौरतलब है कि भारत में आधार परियोजना बिना संसदीय अनुमति के मनमोहनसिंह के प्रधानमंत्रित्वकाल में शुरु हुआ जिसके लिए कोई कानून भी तब बनाया नहीं गया जो संघी कार्यकाल में बना लिया गया है।

तबसे लेकर आधार कार्ड बनाने का काम निजी  और कारपोरेट कंपनियों ने किया है।अनिवार्य सेवाओं से सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना करके आधार नंबर लागू कर दिये जाने से राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों ने भी अफरातफरी में व्यापक पैमाने पर जो आधार कार्ड बनवाये, वे भी सरकारी एजंसियों के बजाये ठेके की एजंसियों से बनवाये गये हैं,जिसमें सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं हुआ है।

सरकार जब तेरह करोड़लीक होने की बात सुप्रीम कोर्ट में मान रही है तो निजी कंपनियों और एजंसियों की तरफसे बनायेआधार कार्ट और निजी कंपनियों की ओर से तैयार किये गये स्मार्ट आधार कार्ड से किस हद तक लीक हो गयी है,आदार के जरिये डिजिटल लेनदेन चालू हो जाने पर भुक्तभोगी ही इस महसूस कर सकेंगे और फिलहाल राजनीतिक दलों,राजनेताओं,मीडिया,बुद्धिजीनवियों और भारत की धर्मोन्मादी बहुसंख्य आम जनता को नागरिकों की जान माल को इस अभूतपूर्व खतरे से कोई फर्क नहीं पड़ा है क्योंकि उपभोक्ता बाजार और उपभोक्ता संस्कृति के अभूतपूर्व विकास के दौर में स्वतंत्रता और संप्रभुता कोई मुद्दा बन नहीं सकता।

अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक कोई भी व्यक्ति नागरिकता से वंचित नहीं किया जा सकता है और न नागरिक मानवाधिकार से। आधार नंबर अनिवार्य बना दिये जाने पर नागरिकता,नागरिक और मानवाधिकार से भी आधार नंबर न होने की स्थिति में मनुष्य वंचित है।यानि नागरिक सिर्फ आधार नंबर है।

आधार नंबर न हुआ किसी नागरिक का कोई वजूद ही नहीं है। उसके कोई नागरिक, संवैधानिक, मौलिक या मानवाधिकार नहीं हैं। वह किसी बुनियादी सुविधाओं का हकदार नहीं है और न उसे रोटी रोजी का कोई हक है।

फिर यह नंबर हुआ तो नागरिकों की कोई गोपनीयता नहीं है। संप्रभुता नहीं है।स्वतंत्रता नहीं है।उसकी तमाम गतिविधियों की पल पल निगरानी है।

भारत में अब नागरिकों के सपनों,आकांक्षाओं,विचारों,मतामत,विवेक और जीवन यापन सबकुछ नियंत्रित है।यह नियंत्रण राष्ट्र का जितना है,उससे कही ज्यादा आपराधिक तत्वों और निजी कारपोरेट देशी विदेशी कंपनियों का है जबकि आदार योजना का असल मकसद राष्ट्र और जनता के संसाधनों की खुली लूट है,जल जंगल जमीन,आजीविका और रोजगार से अनंत बेदखली है।

इसके विपरीत भारत सरकार का मानना है कि नागरिकों की निजी बायोमेट्रिक तथ्यों पर उनका कोई अधिकार नहीं है और न ही उनका अपने शरीर,अपनी निजता और गोपनीयता का कोई अधिकार है।विभिन्न कानूनों का हवाला देते हुए भारत सरकार नें सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी है।

इस बयान के बाद बी भारत की संसदीय राजनीति में कोई हलचल प्रतिक्रिया नहीं है तो समझ लीजिये कि राजनीति किस तरह आम जनता के खिलाफ है।घौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में आधारका बचाव करते हुए भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने मंगलवार को कहा कि किसी भी व्यक्ति का अपने शरीर पर मुकम्मल अधिकार नहीं है।

इसके संदर्भ में गौरतलब है कि बेंगलुरू के सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसायटी ने 13.5 करोड़ आधार कार्ड का डाटा लीक होने की आशंका जाहिर की है।

इसका उल्लेख करते हुए संघ सरकार के घटक  शिवसेना के मुखपत्र  सामना में लिखा गया है कि यदि संस्था का दावा सच है तो यह एक गंभीर मामला है। 'मजे की बात है विपक्षा के खेमे में सिरे से सन्नाटा है।

सामना के संपादकीय में आगे लिखा है, 'आजकल सरकारी अनुदान, बैंक खाता, डाक व्यवहार के साथ ही अन्य कई जगहों पर आधार कार्ड के लीक होने का मतलब महत्वपूर्ण गोपनीय जानकारी लीक होना है। ऐसा होता रहा तो इसकी सुरक्षा के दावे पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा।'

आधार की सुरक्षा पर बात करते हुए इसमें आगे लिखा है, 'सच तो यह है कि जिस सरकारी वेबसाइट से यह डेटा लीक हुआ है, उन विभागों को केंद्र सरकार ने सूचना दी थी। तीन विभागों ने अपनी गलतियां दूर तो कीं लेकिन जानकारियां लीक होने का खतरा बना हुआ है। इसका खामियाजा लाखों लोगों को उठाना पड़ रहा है। इसका विचार कौन करेगा?'

इस सिलसिले में गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में यह स्वीकार किया कि आधारकार्ड धारकों का डाटा लीक हुआ है। हालांकि सरकार ने कहा कि यह लीक भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूएडीएआई) की ओर से नहीं हुआ है। साथ ही सरकार ने कहा कि जो लोग जानबूझकर आधारनहीं बनवा रहे हैं वे वास्तव में एक तरह से अपराध कर रहे हैं। केंद्र सरकार की ओर से पैरवी कर रहे वकील ने न्यायमूर्ति एके सिकरी की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष कहा कि कुछ सरकारी विभागों से आधारकार्ड धारकों का डाटा लीक हुआ है। ऐसा संभवत: पारदर्शिता बनाने के क्रम में हुआ होगा।

गौरतलब है कि सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि ऐसी न्यूज आई है कि आधारका डेटा लीक हुआ है? इस पर केंद्र की ओर से बताया गया कि डेटा यूआईडीएआई से लीक नहीं हुआ है। दूसरे सरकारी डिपार्टमेंट सेआधारकार्ड का डेटा लीक हुआ होगा। सुप्रीम कोर्ट में केंद्र ने दलील दी कि आधारका डेटा पूरी तरह से सेफ है। इसे आईटी एक्ट के तहत क्रिटिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर की श्रेणी में रखा गया है। याचिकाकर्ता ने कहा कि आधारके लिए बनाया गया मेन एक्ट कहता है कि आधारस्वैच्छिक है, लेकिन वहीं सरकार इसे अनिवार्य कर रही है।

रिपोर्ट के अनुसार पहले जहां से आधारकार्ड का डेटा लीक हुआ, उसमें दो डेटा बेस रूरल डिवेलपमेंट मिनिस्ट्री से जुड़े हैं। इनमें नैशनल सोशल असिस्टेंट प्रोग्राम का डैशबोर्ड और नैशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी ऐक्ट का पोर्टल शामिल है। दो डेटा बेस आंध्र प्रदेश से जुड़े हैं। इनमें एक स्टेट का नरेगा पोर्टल और चंद्राना बीमा नामक सरकारी स्कीम का डैशबोर्ड है। इन पर लाखों लोगों की आधारडीटेल दी गई है, जिसे कोई भी देख सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि चार पोर्टल्स से लीक हुए आधारनंबर 13 से 13.5 करोड़ के बीच हो सकते हैं। इसमें अकाउंट नंबर्स 10 करोड़ के आसपास हो सकते हैं।

सीएनबीसी-आवाज़खुलासा कर दिया है कि   कैसे केंद्र से जुड़े संस्थान आधार पर अपराध किए जा रहे हैं। दरअसल केंद्रीय विद्यालयों और कुछ शिक्षण संस्थानों ने बच्चों के आधार नंबर सार्वजनिक कर दिए हैं। सरकारी स्कूल कर रहे बच्चों की निजता से खिलवाड़ किया जा रहा है। कई केन्द्रीय विद्यालयों की साइट पर बच्चों के आधार नंबर देखे जा सकते हैं। कई और संस्थानों ने भी बच्चों के आधार नंबर सार्वजनिक कर दिए हैं। बच्चों की जन्मतिथि, फोन नंबर और बाकी जानकारियां भी ऑनलाइन देखी जा सकती हैं। महज एक गूगल सर्च से ये सारी जानकारी हासिल की जा सकती है। बता दें कि आधार एक्ट में जानकारी पब्लिक करना गैरकानूनी है।

इसी सिलसिले में अंग्रेजी मीडिया फर्स्ट पोस्ट की इस खबर पर तनिक गौर करेंछ

Aadhaar debate: Govt putting billions at risk by claiming they don't have 'absolute right' over their bodies

Attorney General of India Mukul Rohatgi informed the Supreme Court on Wednesday that Indian citizens cannot claim an "absolute right" over their biometric data and refuse to apply for Aadhaar cards. To support this contention, Rohatgi referred to various laws, such as breathalyser tests, finger printing during property registration, medical termination of pregnancy, and also laws that prohibit the commission of suicide as pointing to the fact that there exists no absolute right over one's body under the Constitution.

This comes at a time while the apex court is hearing arguments challenging the validity of Section 139AA of the Income Tax Act, 1961, that makes it mandatory to link Permanent Account Number (PAN) with Aadhaar. In an earlier hearing on the validity of the UID programme in 2015, the attorney general had informed the court that the question of privacy being a fundamental right under the Constitution needs to be revised, as there seemed to be conflicting judgments on this issue.

यह सरासर नागरिक ,मानवाधिकारों के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय कानून का भी खुल्ला उल्लंघन है। इस पर तुर्रा यह कि नागरिकों से उनकी आजादी छीनने के इस कारपोरेट उपक्रम क खिलाफ सारे के सारे संसदीय राजनीतिक दल और राजनेता खामोश हैं।


नतीजतन करीब तेरह करोड़ नागरिकों क आधार और बैंक खातों के तथ्य लीक हुए हैं और क्रेडिट डिबिट एटीएम कार्ड की तरह आधार कार्ड भी डुप्लिकेट बन रहे हैं, उसकी व्यापक पैमाने पर क्लोनिंग हो रही है।अर्थात राष्ट्र के निरंकुश नियंत्रण के बजाय वित्तीय गतिविधियों पर आपराधित तत्वों का नियंत्रण हो गया है।

आधार प्रादिकरण से विभिन्न कारपोरेट कंपनियों के नागरिकों के निजी तथ्यों के लेनदेन के समझौते भी हुए हैं।अभी आपको मेल या फोन पर विभिन्न कंपनियों की ओर से उनकी सेवाएं खरीदने के लिए जो संदेश मिलते हैं,उसके लिए उन्हें सारी जानकारी आपके आधार नंबर से मिलती है।

धड़ल्ले से ऐसा संदेश भेजने वालों को न सिर्फ आपकी क्रय क्षमता बल्कि आपके बैंक खातों के बारे में भी जानकारी रहती है और आपको बड़े लोन और दूसरी वित्तीय सुविधाओं का प्रस्ताव भी उसी आधार पर मिलता है।

इससे उपभोक्ता बाजार और ई बिजनेस,डिजिटल लेनदेन बहुत तेजी से बड़ा है लेकिन इन पर न भारत सरकार और न रिजर्व बैंक का कोई नियंत्रण है जो आगे चलकर भारी आर्तिक अराजकता पैदा कर सकती है और इसमें समूची बैंकिंग प्रमाली ही ध्वस्त हो सकती है।

आपराधिक तत्वों के हाथों में निजी कंपनियों की ओर से बनाये गये और ठेके पर गैरसरकारी एजंसियों से बनाये गये आधार कार्ड के जरिये व्यापक पैमाने पर नागरिकों के गोपनीय  तथ्य आ गये हैं।यह कानून और व्यवस्था के लिए बी बड़ी चुनौती है।

सबसे खतरनाक बात यह है कि आधार नंबर मोबाइल नंबर के लिए मोबाइल कनेक्शन की दुकानों के हवाले बी करना अनिवार्य हो गया है।हर जरुरी सेवाओं के निजीकरण कारपोरेटीकरण की स्थिति में आधार नंबर के जरिये नागरिकों की सारी जरुरी जनाकारियां अजनबी और आपरराधिक तत्वों के हवाले हो रही है जो किसी भी तौर पर राष्ट्र या सरकार का प्रतिनिधित्व नहीं करते।

जब बैंकों के एटीएम डेबिट क्रेडिट कार्ड धड़ल्ले से पिन लीक हो जाने से रद्द किये जा रहे थे,तब भी कोलकाता और मुंबई में बड़े बैंक अधिकारियों और आम बैंक कर्मचारियों से हामारी इस बारे में बात होती रही है।

उन सभी का कहना है कि चेकबुक से लेकर कार्ड और खातों को लेकर बैंकों का सुरक्षा इंतजाम बहुत पुख्ता है।

तब हमने पैनकार्ड और बैंक खातों से आधार नंबर जोड़ने का हवाला देकर पूछा था कि आधार नंबर से तो सारी जानकारियां लीक हो रही हैं और आधार लिंक के जरिये तथ्यों चुराये जाने पर बैंक खातों,कार्डों की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित कर सकता है।

उनके पास इसका कोई जबाव नहीं था।

गौरतलब है कि पिन चुराये जाने के मामले में जांच का नतीजा अभी तक नहीं आया है और इसी बीच आधार के जरिये नये सिरे से बैंको के खातों की जानकारियां लीक हो जाने की खबर आ गयी है।

Divan said that there are already over 1,69,000 duplicate Aadhaars in the country.

Aadhaar data of 130 millions, bank account details leaked from govt websites: Report

Indian Express reports.

India Today reports:

Just how leaky is the Aadhaar data? A lot, says a study published by Centre for Internet and Society, a Bengaluru-based organisation (CIS). In a study published on May 1, two researchers from CIS found that data of over 130 million Aadhaar card holders has been leaked from just four government websites. As scary as this is, there is more to it. Not only the Aadhaar numbers, names and other personal details of millions of people have been leaked but also their bank account numbers.

The CIS report noted that the leak is from four portals that deal with National Social Assistance Programme, National Rural Employment Guarantee Scheme, Chandranna Bima Scheme and Daily Online Payment Reports of NREGA.

सबसे खतरनाक बात यह है कि अब भारत सरकार डिजिटल लेन देन आधार नंबर के जरिये चालू करने जा रही है।बार बार आधार नंबर से लेनदेन की स्थिति में अब तक हुए फर्जीवाड़े के मद्देनजर नागरिकों की जान माल को भारी खतरे का अंदेशा है।

गौरतलब है कि साइबार क्राइम या फर्जीवाड़े से बैंको के खातों से चुराये जाने वाले रकम के लिए बैंक कोई मुआवजा नहीं दे रहा है।

प्लेटिनम कार्ट पर अधिकतम डेढ़ लाख रुपये के मुआवजे का प्रावधान है।जबकि आर्थिक लेन देन बैंकिंग के दायरे से बाहर चली जा रहीं है।

जब आधार योजना की पहले पहले चर्चा चली थी, नागरिकता संशोधन कानून के तुरंत बाद और श्रम कानून कर सुधार कानूनों के आर्थिक सुधार लागू होने से पहले, तभी से हम इस बारे में लगातार लिखते बोलते रहे हैं।

डिजिटल इंडिया में उदारीकरण, निजीकरण और ग्लोबीकरण के तहत आटोमेशन के लिए आधार योजना सबसे कारगर हथियार है।

कारपोरेट दुनिया में नागरिकों के कोई अधिकार नहीं होते।

कारपोरेट दुनिया में मानवाधिकार भी नहीं होते।

मुक्तबाजार में विकास और वृद्धि दोनों का मतलब उपभोक्ता बाजार का विस्तार है।विकास और वृद्धि दोनों सत्ता के जाति वर्ग वर्चस्व के एकाधिकार को बहाल करने का इंतजाम है।

अंध राष्ट्रवाद की अस्मिता राजनीति में खंडित भारतीयता और देशभक्ति के भक्तों के लिए नागरिकों की स्वतंत्रता ,संप्रभुता,निजता औ र गोपनीयता को कोई मतलब नहीं है।वे लोग हर क्षेत्र में राष्ट्र का नियंत्रण के पक्ष में हैं।

वंचित उत्पीड़ित जनसमुदायों अल्पसंख्यकों,आदिवासियों,दलितों,पिछड़ों और स्त्रियों के प्रति जाहिर सी बात है कि इन भक्तों की किसी किस्म की सहानुभूति नहीं है।वे राष्ट्र और सत्ता में कोई फर्क भी नहीं समझते और सत्ता को ही राष्ट्र मानकर चलते हुए निरंकुश सत्ता के साथ निरंकुश सैन्य राष्ट्र के पक्ष में धर्मोन्मादी बहुसंख्यक सुनामी है जिसका फिलहाल कोई राजनैतिक या वैचारिक विकल्प नहीं दीख रही है।

दिक्कत यह है कि सबकुछ राष्ट्र के नियंत्रण में होने के बजाय सबकुछ राष्ट्र के नियंत्रण से बाहर निजी,कारपोरेट पूंजी,प्रोमोटरों ,बिल्डरों,माफिया और आपराधिक तत्वों के नियंत्रण में होता जा रहा है ,जिससे नागरिक और राष्ट्र दोनों संकट में हैं,हालांकि निरंकुश सत्ता और सत्ता वर्ग को कोई खतरा नहीं है,कोई चुनौती भी नहीं है।

हमारे मित्र मशहूर पत्रकार उर्मिलेश ने लिखा हैः

'आधार' निराधार नहीं है। इसके पीछे राज्य के लगातार निरंकुश होते जाने और नागरिकों के बुनियादी अधिकारों(यहां तक कि आपका अपने शरीर पर भी अधिकार नहीं है: भारत के अटार्नी जनरल के मुताबिक) के छिनते जाने की पूरी दास्तान है। पर जनता इसके विरोध में सड़कों पर नहीं उतर रही है क्योंकि 'आधार' के नाम पर राज्य कथित सुविधाओं का झुनझुना जो बजा रहा है! क्या राज्य की तरफ से कोई भी उच्चाधिकारी बता सकता है कि 'आधार' से कौन-कौन सी नयी सुविधाएं नागरिक को मिली, जो इसके न रहने पर नहीं मिल सकती थीं? 'आधार' संवैधानिक लोकतंत्र में निरंकुशता की अवैध संतान है, जिसका प्रसव यूपीए काल में हुआ और अब उसे शैतान बनाने का काम एनडीए सरकार कर रही है!



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डिजिटल हिंदूराष्ट्र में किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? पलाश विश्वास

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डिजिटल हिंदूराष्ट्र में किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?

पलाश विश्वास

डिजिटल हिंदूराष्ट्र में किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? हरित क्रांति के बाद से लगातार गहराते कृषि संकट को सुलझाने के लिए क्या हिंदुत्व के एजंडे में कोई परिकल्पना है?इस सवाल का जबाव सत्ता वरग के किसी भी व्यक्ति से मिलना मुश्किल है क्योंकि ग्रामीण भारत और कृषि दोनों किसी भी तरह के विमर्श से बहार है।

सुनहले दिनों के ख्वाबों में हकीकत की जमीन पर नरेंद्र मोदी सरकार के पहले दो साल में कृषि वृद्धि दर का औसत 1.6 प्रतिशत रहा है। लगातार दो साल 2014 और 2015 में सूखा पड़ा, ऐसा करीब 100 साल से ज्यादा वक्त बाद हुआ है। सूखे का असर 10 से ज्यादा राज्योंं में रहा है, जिसकी वजह से पानी का संकट हुआ।

मुक्त बाजार की बहार में किसानों के मरने जीने से किसी को फर्क नहीं पड़ता और भोपाल गैस त्रासदी की निरंतरता जारी है। कीटनाशक दवाइयों बनाने के गैस भंडार से गैस लीक हो जाने से राजधानी दिल्ली में करीब ढाई सौ बच्चे बीमार हो गये हैं तो बाकी देश को यह बात अभीतक समझ में नहीं आ रहा है कि पूरा देश किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए मुकम्मल गैस भंडार में  तब्दील है।लेकिन जिस जहरीली गैस से कृषि संकट का निदान हरित क्रांति में सोचा गया है,वह भोपाल के बाद नई दिल्ली को भी संक्रमित कर रहा है तो यह समझना जरुरी है कि देहात का संकट नगरों और महानगरों को भी संक्रमित कर रहा है।

डिजिटल इंडिया में किसानों की आत्महत्या रुकने के बजाय बढ़ गयी है।ताजा आंकड़े इशारा करते हैं कि आत्महत्या करने वाले कुल किसानों में से 70 प्रतिशत से अधिक संख्या उन गरीब किसानों की है, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है।देस के वित्तीय प्रबंधकों के लिए बाजार का विस्तार सर्वोच्च प्राथमिकता पर है और राजकाज भी मुनाफे की अर्थव्वस्था से संचालित है।विकास का मतलब है समृद्ध और सत्ता के सवर्ण वर्ग का विकास और वृद्धि का मतलब भी समृद्ध और सत्ता के सवर्ण वर्ग की वृद्धि है। इस विकास और वृद्धि का बंद बूंद रिसाव से ही बहुसंख्य आम जनता की जिंदगी और उनका वजूद निर्भर है और तमाम आर्थिक सुधारों की दिशा भी वहीं है।

खेती और किसानों की समस्या सुलझाये बिना अंधाधुंध शहरीकरण और उपभोक्ता बाजार के विकास और वृद्धि की अर्थव्यवस्था में बहुसंख्य आबादी के लिए,किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए और देश की बुनियादी उत्पादन प्रमाली और नैसर्गिक स्थानीय रोजगार के लिए नीति निर्धारकों और चुने हुए जन प्रतिनिधियों के दिलो दिमाग में कोई जगह नहीं है।जाहिर है कि केंद्र सरकार के क्राइम रिकार्ड ब्यूरो(एनसीआरबी) की एक्सीडेंटल डेथ एंड सुइसाइड शीर्षक रपट के  आंकड़ों के मुताबिक भारत के हिंदू राष्ट्र डिजिटल इंडिया बन जाने के बाद 2014-15 के दौरान दो साल में देश के बारह हजार किसानों और खेतिहर मजदूरों ने समरसता के मनुस्मृति राजकाज के बावजूद आत्महत्या कर ली है।

गौरतलब है कि ये आंकड़े नोटबंदी से पहले के हैं।नोटबंदी से कृषि संकट गहरा जाने से और पैदावर में असर के नतीजे आने अभी बाकी हैं।बहरहाल यह मानने की वजह अभी कोई नहीं है कि नोटबंदी से किसानों की हालत में कोई सुधार हुआ है।डिजिटल इंडिया में गुजर बसर करने के लिए जाहिर है कि इस वर्ग के पास क्रयशक्ति नहीं है और समाजिक योजनाओं और सरकारी खर्च के बावजूद उन्हें कोई राहत नहीं है।जनसंख्या के हिसाब से इनमें कमसेकम नब्वे फीसद लोग हिंदू है और हिंदुत्व के एजंडे में ऐसे सर्वहारा तबके के अछूत पिछड़े आदिवासी हिंदुओं के लिए मनुस्मृति विधान के तहत कोई जगह नहीं है।गौरतलब है कि एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक करीब 39 प्रतिशत किसानों ने दीवालिया होने, कर्ज के बोझ तले दबे होने या कृषि संबंधी मसलों की वजह से मौत को गले लगाया है, 20 प्रतिशत कृषि श्रमिकों की आत्महत्या की भी यही वजह रही है। किसानों की आत्महत्या में छोटे व सीमांत किसानों की आत्महत्या का प्रतिशत करीब 73 रहा है। इस श्रेणी में वे किसान आते हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर (एक हेक्टेयर 10,000 वर्गमीटर के बराबर होता है) से कम जमीन है। 2014 में भी करीब 73 प्रतिशत छोटे व सीमांत किसानों ने आत्महत्या की थी।

डिजिटल कैशलैस इंडिया में आटोमेशन के आधार अंधियारे में बेरोजगारी जिस घने कुहासे की तरह देश का प्रयावरण बनता जा रहा है और देश विदेश में नौकरियों से जिस पैमाने पर छंटनी हो रही है और उस तुलना में रोजगार सृजन की कोई परिकल्पना नहीं है,तो किसानों और खेतिहर मजदूरों की दुनिया में पढ़े लिखे लोगों के लिए रोजगार का अभूतपूर्व संकटभी गहरा रहा है,जिसके दबाव में कृषि आजीविका से जुड़े समुदायों, समाज और परिवारों के लिए आजीविका और रोजगार के सारे विकल्प खत्म हो जाने से खेतों पर दबाव और उसीतरह बढ़ेगा जैसा हमने अस्सी के दशक में पंजाब जैसे समृद्ध राज्य में देखा है जिससे निपटने की कोई तैयारी दीख नहीं रही है।

बहरहाल इस रपट में पश्चिम बंगाल समेत सात राज्यों में एक भी किसान आत्महत्या का मामला दर्ज दिखाया नहीं गया है।गौरतलब है कि राज्यों ने अपने पुलिस रिकार्ड के आधार पर एनसीआरबी को तथ्य दिये हैं।

इसका सीधा मतलब यह हुआ कि जिन राज्यों में किसानों की आत्महत्या का मामला दर्ज ही नहीं हुआ हैं,उनके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।

बंगाल के किसान संगठन यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं है कि बंगाल में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की है और 2014 -15 में बंगाल में भी किसानों की आत्महत्या सुर्खियां बनती रही है। वे वारदातें जाहिर है कि पुलिस रिकार्ड में न होने के कारण इस रपट में भी नहीं है।

इसी तरह उत्तर प्रदेश योजना आयोग के सदस्य सुधीर पंवार ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'किसानों की आत्महत्या के ये आंकड़े हकीकत बयान नहीं करते, क्योंकि बड़े पैमाने में आत्महत्याओं को दर्ज ही नहीं किया जाता है। इसकी कोई सटीक वजह नहीं है। हां, इससे साफ साफ पता चलता है कि गांवों में आर्थिक तनाव पिछले कुछ साल के दौरान बढ़ा है, जिसकी प्रमुख वजह लगातार दो साल पड़ा सूखा और कृषि उत्पादों का उचित मूल्य न मिलना है।'

गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल, मिजोरम, नागालैंड और गोवा उन राज्यों में शामिल हैं जहां किसान आत्महत्या का एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया।

अभी हालत यह है कि हर रोज देश में औसतन 35 किसान खुदकशी करते हैं।इस मामले में भगवा राज्य महाराष्ट्र सबसे आगे है।जहां किसान सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं।2015 में महाराष्ट्र में 3.30 किसानों ने आत्महत्या की है।

खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या के मामले में भी महाराष्ट्र सबसे आगे है,जहां 1261 लोगों ने आत्महत्या की।इसके बाद तेलंगाना में 1,358 और कर्नाटक में 1,197 किसानों ने खुदकुशी की।

छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी 854 किसानों ने जिंदगी के बदले मौत को चुना। मध्यप्रदेश और आंध्र प्रदेश से भी कई किसानों ने आत्महत्या का रास्ता चुना।

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद से लगातार वायदा किया है कि किसानों की आमदनी दो गुणी हो जायेगी।इसके अलावा विभिन्न सरकारी एजंसियों में कृषि विकास दर में उछाला का दावा किया जाता रहा है।

खास बात यह कि इस अवधि में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं 5,650 से बढ़कर 8.007 हो गयी यानी किसानों की आत्महत्या दर में 42 प्रतिशत वृद्धि हो गयी है। इसके मुकाबले इसी अवधि में खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की घटनाएं 6,710 से घटकर 4,595 हो गयी है।फिर भी इस रपट के मुताबिक खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की घटनाओं में भी 31 प्रतिशत वृद्धि हुई है।

खेती के लिए कर्ज लेकर चुका न पाने की वजह से सबसे ज्यादा आत्महत्याएं हुई हैं। 38.7 प्रतिशत किसानों ने कर्ज के बोझ के चलते आत्महत्या कर ली है।19.5 प्रतिशत किसानों ने दूसरी वजहों से खुदकशी की है।

किसानों की आत्महत्या का विश्लेषण करते हुए एनसीआरबी रपट में आत्महत्या के कारणों का ब्यौरा दिया गया है। रिपोर्ट में किसानों की आत्महत्या के लिए बैंकों और माइक्रो फाइनेंस को जिम्मेदार माना गया हैं।

देशभर में 3000 से अधिक किसानों, लगभग 80 फीसदी ने कर्ज की वजह से आत्महत्या की। यह आंकड़ा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अब तक यही माना जाता था कि किसान महाजनों से लिए कर्ज और उनके उत्पीड़न के चलते आत्महत्या करता है। कृषि संबंधित मामले जैसे फसलों की उपज में कमी भी आत्महत्या के लिए जिम्मेदार कारक के रूप में सामने आया है।

रपट के अनुसार खेती करने वाले मजदूरों में आत्महत्या के लिए बीमारी और पारिवारिक समस्या भी प्रमुख कारण के रूप में सामने आये हैं।

एनसीआरबी ने कहा, 'पिछले 2-3 साल में असमान व अपर्याप्त मॉनसूनी बारिश की वजह से कृषि क्षेत्र में लगे लोगोंं की समस्याएं बढ़ी हैं। किसानों के  इस तरह के अप्रत्याशित कदम उठाने के पीछे यह एक बड़ी वजह है।' इस सूची के राज्योंं में एक बार फिर महाराष्ट्र पहले स्थान पर रहा है, जहां 2015 में कृषि क्षेत्र में लगे लोगों ने सबसे ज्यादा 4,291 आत्महत्याएं की हैं। इसके बाद कर्नाटक (1,559), तेलंगाना (1,400), मध्य प्रदेश (1,290), छत्तीसगढ़ (954) और आंध्र प्रदेश (916) का स्थान है।




France defeated racist fascism and it is French Revolution yet again! You may not kill Humanity and Humanity always strikes back! No absolute power is enough to kill civilization as the forces of nature rise from the ashes like sphinx!You may not kill History nor you dare to kill ideology either.What if Macronand Macron is known as liberal?Then French revolution had never been a communist revolution. Palash Biswas

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France defeated racist fascism and it is French Revolution yet again!

You may not kill Humanity and Humanity always strikes back! No absolute power is enough to kill civilization as the forces of nature rise from the ashes like sphinx!You may not kill History nor you dare to kill ideology either.What if  Macronand Macron is known as liberal?Then French revolution had never been a communist revolution.

Palash Biswas

Video:https://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/1709624565732612/?l=3195495970788101093


Barrck Obama supported Emmanuel Macronand Macron wins presidency, vows to 'fight the divisions' that undermine the country. Rival Marine Le Pen was the candidate of US President Donald Trump and Unipolar imperialism failed to insert its nominee as French President and it might prove quite a turnaround.We might rememeber Narsimha Rao regime way back in 1991 while IMF and World Bank working for United Sates of America inserted and incarnated the god of liberalism to open the floodgates of Free market with an agenda of Economic Ethnic Cleansing in India which continues unabated.


Independent centrist Emmanuel Macron, 39, who was unknown three years ago ago, has become France's youngest-ever president after an estimated 65% to 35% victory in the second round run-off against Front National's right-wing leader Marine Le Pen.As Guadrdian says,The resounding win has been hailed by his supporters as holding back a tide of populism after the Brexit vote and Donald Trump's victory in the US election.


However,Despite her loss, Le Pen's score marked a historical high point for the French right. In a defiant concession speech, Le Pen said she was leader of "the biggest opposition force" in France and vowed to radically overhaul her party.The fight continues!


You may not kill Humanity and Humanity always strikes back! No absolute power is enough to kill civilization as the forces of nature rise from the ashes like sphinx!You may not kill History nor you dare to kill ideology either.What if  Macronand Macron is known as liberal?Then French revolution had never been a communist revolution.We have to keep in mind the importance of French Revolution which killed feudal set up of absolute power forever.It changed the power structure as well as production systeme and the revolution was led bu French peasantry.he French Revolution (French: Révolution française [ʁevɔlysjɔ̃ fʁɑ̃sɛːz]) was a period of far-reaching social and political upheaval in France that lasted from 1789 until 1799, and was partially carried forward by Napoleon during the later expansion of the French Empire. The Revolution overthrew the monarchy, established a republic, experienced violent periods of political turmoil, and finally culminated in a dictatorship under Napoleon that rapidly brought many of its principles to Western Europe and beyond. Inspired by liberal and radical ideas, the Revolution profoundly altered the course of modern history, triggering the global decline of absolute monarchies while replacing them with republics and liberal democracies!


Mind you the term liberal democrat!Macronand Macron defeated Donald Trump and the zionist world order defeating rightist racist incarnation of Trump ideology of ethnic cleansing just because Macron is a liberal democrat and coincidentally the character of French revolution led by French proletariat and peasantry had been liberal democrat.


I must say the communists and liberal left should not be ashamed to praise the French Resistance against Racist Fascism.


Had  Trump ideology of ethnic cleansing incarnated and personified with Pen victory had its way as US opted for,Europe and the rest of the world had to be inflicted with Rascist fasicsm with its deadly rightist blind nationalism which is trending in India since 2014 and we never know the way out.


Rigid ideology might not be enough to defeat blind racist nationalism and liberal democrat leadership might create a space most needed to unite the deprived ninety nine percent humanity worldwide,Hence,Congratulations France that it did not opt to go backward into the dark age on US High Way of racist apartheid.The first year of the Revolution saw members of the Third Estate taking control, the assault on the Bastille in July, the passage of the Declaration of the Rights of Man and of the Citizen in August, and a women's march on Versailles that forced the royal court back to Paris in October. A central event of the first stage, in August 1789, was the abolition of feudalism and the old rules and privileges left over from the Ancien Régime. The next few years featured political struggles between various liberal assemblies and right-wing supporters of the monarchy intent on thwarting major reforms. The Republic was proclaimed in September 1792 after the French victory at Valmy. In a momentous event that led to international condemnation, Louis XVI was executed in January 1793.


Outgoing president Francois Hollande, who brought Macron into politics, said the result "confirms that a very large majority of our fellow citizens wanted to unite around the values of the Republic and show their attachment to the European Union".


Centrist Emmanuel Macron has vowed to "fight the divisions" in the country after recording a resounding victory over far-right rival Marine Le Pen in the French presidential runoff election. "I have heard the anger, anxiety and doubts that a large number of you expressed," a solemn Macron said in a speech at his campaign headquarters in Paris. "I will fight with all my strength against the divisions that are undermining us," he added.


We should welcome that The 39-year-old former investment banker, who became the country's youngest-ever president, also promised to "rebuild the link between Europe and its citizens." Soon after early projections poured in, Macron said, "A new page in our long history has turned tonight" and added that he wants the result to be that of rediscovery of hope and trust.


Further addressing a victory rally, Macron stressed on the importance of building up a parliamentary majority in order to carry out much-needed changes for France. "I will do all I can during the next five years so that no-one ever has a reason again to vote for extremes," said Macron, referring to those who had voted for far-right Front National candidate Marine Le Pen. The president-elect now needs to focus on getting a majority in the lower house of parliament at elections in June.


The values and institutions of the Revolution dominate French politics to this day. The Revolution resulted in the suppression of the feudal system, the emancipation of the individual, the greater division of landed property, the abolition of the privileges of noble birth and the establishment of equality. The French Revolution differed from other revolutions in being not merely national, for it aimed at benefiting all humanity.[10]


Globally, the Revolution accelerated the rise of republics and democracies. It became the focal point for the development of all modern political ideologies, leading to the spread of liberalism, radicalism, nationalism, socialism, feminism, and secularism, among many others. The Revolution also witnessed the birth of total war by organising the resources of France and the lives of its citizens towards the objective of military conquest.[11] Some of its central documents, like the Declaration of the Rights of Man, expanded the arena of human rights to include women and slaves, leading to movements for abolitionism and universal suffrage in the next century.


Determined to eradicate the menace of terrorism, the president-elect said, "France will be at the forefront of the fight against terrorism."


France has been reeling under terror attacks over last two years, which killed over 230 people. Determined to eradicate the menace of terrorism, the president-elect said, "France will be at the forefront of the fight against terrorism."


With the vast bulk of votes counted, Macron has secured between 65 per cent and 66.1 per cent of the vote compared to between 33.9 per cent and 35 per cent for Le Pen. The result also followed a last-minute hacking attack on Macron, in which hundreds of thousands of emails and documents stolen from his campaign were dumped online on Friday.


Buoyed over the outcome, the euro surged to its highest level since November. The election result was also a referendum on the fate of the European Union. The high-octane divisive election campaign saw both candidates spar over the country's role in the EU. While Le Pen advocated anti-EU and anti-globalisation programme, Macron put forward a pro-EU stance.


Despite conceding defeat, Le Pen claimed a "historic, massive result" for the far right in the presidential run-off. She said her National Front party needed to be overhauled in order to create a "new political force."


She also called the president-elect and wished him success. "I called Mr Macron to congratulate him on his election, and because I have the country's higher interest at heart I wished him success faced with the huge challenges France is facing," she told supporters at a post-election FN gathering in Vincennes near Paris.

Macron, however, will face a mounting challenge to implement his programme while trying to unite a fractured and demoralised country. He is aiming to enact his domestic agenda of cutting state spending, easing labour laws, boosting education in deprived areas and extending new protections to the self-employed.


With many analysts being sceptical about Macron's ability to win a majority with En Marche candidates alone, he might have to form a coalition of lawmakers committed to his agenda. In addition, his economic agenda, particularly plans to weaken labour regulations to fight stubbornly high unemployment, are likely to face fierce resistance from trade unions and his leftist opponents.


With inputs from AFP, Reuters and wikipedia



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Service based Indian free market economy explodes to kill the next generations! After Wipro, Cognizant and Infosys, Tech Mahindra plans to lay off 1500 employees Palash Biswas

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Service based Indian free market economy explodes to kill the next generations!
After Wipro, Cognizant and Infosys, Tech Mahindra plans to lay off 1500 employees
Palash Biswas

Carnage in Indian IT: Wipro, Infosys, Tech Mahindra, Cognizant slash jobs!


India's IT companies employ close to 40 lakh people directly. They are one of the main reasons why Indian economy is relatively doing well. That story seems to be changing as of last week.Further, Indian IT firms are witnessing their slowest growth in a decade, while global firms are shifting their budgets from traditional IT services to newer areas such as digital and cloud!

Alarming it might be to know that if two decades ago it was US engineers whining about getting `Bangalored'-losing jobs to lowerpaid employees here -now it's techies in India distressing about losing jobs to American engineers because of the new US administration's protectionist policies.
President Donal Trump ,the blue eyed love of Ruling hegemony of Aparthied, discrination and injustice in India,is eating outsourcing which has Killed jobs in America as well as Rural India and majority people in India deeply assocaited with nature as well as Agriculture.

Tech Mahindra is planning to lay off an estimated 1,500 employees across all levels.Once India's global claim to fame, the country's information technology (IT) sector is seeing a spate of layoffs by IT majors like Tech Mahindra, Wipro, and  

Be aware my friends opting for technology,this year, the appraisal cycles came in the backdrop of a recent report by advisory firm McKinsey & Company, which said that almost half of India's 3,700,000-strong IT services workforce will be "irrelevant" over the next three-four years. In fact, industry body Nasscom has also said that both freshers and existing employees should look at self-learning to stay relevant at a time when digitisation is causing disruption in the industry. 

The churn in the IT sector — which is moving towards increasing automation, use of artificial intelligence and is beset by tightening visa regulations — is likely to affect mid-level employees with 10-15 years of experience the most, as many are averse to learning new skills, industry experts have said.

Service sector oriented economy replacing agrarian based production based economy heralds calamities infinite and digital India apped automation creates unemployment darkness for generation next. Apped forces of religious blind nationalism seem to be quite unaware of the calamities ahead under Saffron Tsunami environment which has inflicted majority heart and mind,I am afraid.

Sincewe opted free Market economy killing agriculture,nature and the humanity associated with Nature,Environment and agriculture,since Agrarian growth rate zooms around infinite zero,since Indian peasantry has only survival kit which seems to be mass suicide,the services sector is not only the dominant sector in India's GDP, but has also attracted significant foreign investment flows, contributed significantly to exports as well as provided large-scale employment. 

India's services sector covers a wide variety of activities such as trade, hotel and restaurants, transport, storage and communication, financing, insurance, real estate, business services, community, social and personal services, and services associated with construction.

UID centred digital India dividing Indian people vertically with technical mobile apps beside purchasing capacity and income opportunity monopoly,this economic turnaround has inflicted workers,peasantry,business and the generation next as well.
I have been warning againt this time and again.Outsourcing tagged India as US colony and the ruling hegemony handed over sovereignty and freedom of the nation to US Imperialism.

Lay off is trending as trade unions have become the part and parcel of management. Ideologies hijacked by class and caste interest,workers have been betrayed all around.
It is the beginning only,I am afraid.In fact.Growth in India's dominant serviceindustry came close to stalling in April as new orders slowed to a trickle, forcing companies to spend more on aggressive advertising campaigns as they fought for business, a private survey showed on Thursday.

The latest,Indian service sector activity showed weakest increase in output in last three month, according to IHS Markit report released today. The headline seasonally adjusted Nikkei Services PMI Business Activity Index was down to 50.2 in April from 51.5 in March.It would have adverse impact on job market which is all about services owned by private sector and hiring have to be converted in firing which is happening rather very fast.

However,the services sector is the key driver of India's economic growth. The sector contributed around 66.1 per cent of its Gross Value Added growth in 2015-16, thereby becoming an important net foreign exchange earner and the most attractive sector for FDI (Foreign Direct Investment) inflows.! As per the first advance estimates of the Central Statistics Office (CSO), the services sector is expected to grow at 8.8 per cent in 2016-17.

In comparison,Agrarian Growth rate is 1.6 percent only during the last two years of the Manusmriti regime which intend to kill universities and higher education and at the same time information explosion has developed into atomic radiation as for generations for last three decades quest for knowledge ended and technology is the only survival kit which is being snatched like job,livelihood,jal,jangal jameen,citizenship and freedom.

Media reports:Tech Mahindra on Wednesday joined its bigger rivals Wipro, Cognizant and Infosys in laying off employees. The company is planning to lay off an estimated 1,500 employees across all levels.

With the appraisal season under way for IT firms and reports emanating of such planned layoffs, which the companies call a routine process for letting underperformers go, employees have started seeking government intervention to save their jobs.

On Tuesday, the Forum for IT Employees (FITE) filed a petition with the labour commissioner in Chennai and Hyderabad. It will also be approaching the labour departments of Karnataka and Coimbatore over such terminations shortly.

"We demand the state and central government intervention to stop the illegal termination of Cognizant employee's with immediate effect, reinstate all the affected employees, restore the normalcy in work environment affected by illegal terminations," FITE said.

In fact, fearing more such layoffs, FITE also plans to submit a petition to Prime Minister Narendra Modi, chief ministers of all states and the labour department of all states seeking intervention in this matter without any further delay.

In response to a query on layoffs, Tech Mahindra said, "We have a process of weeding out bottom performers every year and this year is no different."

As reported earlier, Infosys, is also in the process of letting off around 1,000 employees, largely in the category of project managers and senior architects. Cognizant is also resizing its employee headcount by around 6,000 while it has also reduced the variable component in salaries.

Similarly, Wipro is estimated to have let go of 350-400 employees, which the company attributed to a rigorous performance appraisal process to align its workforce with business objectives and which has resulted in the separation of some employees.

The slowdown in hiring in the industry has been happening for quite some time now with Nasscom stating that total employment for the sector grew by 5 per cent in FY17 as against 6 per cent in FY16. "Gentle deceleration continues as industry focuses on productivity and automation," it had said.
Unlike the layoffs in the past where largely the lesser experienced professionals were impacted, this time there is downsizing across all levels. Cognizant recently announced a voluntary separation package for its employees.

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রবীন্দ্রনাথ ও বাংলাভাষী মুসলমান সমাজ এবনে গোলাম সামাদ A different write up on the origin of Hindu nationalism in India written by a prominent Bangladeshi writer based on Rabindra and Bankim works

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A different write up on the origin of Hindu nationalism in India written by a prominent Bangladeshi writer based on Rabindra and Bankim works.With differences apart,some facts should be kept in mind which are not known to democrat and secular intelligentsia and I am forwarding this to be impartial as well as for a better understanding of Hindu nationalism rooted in Bengal.No doubt Tagore was behind the glorification of Bankim and Rabindranath and played key role to make Vande Matram Hindutva Anthem of Hindu Nation!Thus,it is though written with Bangladeshi Islamist Nationalist vision,we have to read it to know all about Muslim Nationalism of Mujibur and Hindu as well as Muslim nationalist phenomenon in context of truth in history.
Palash Biswas

রবীন্দ্রনাথ ও বাংলাভাষী মুসলমান সমাজ
এবনে গোলাম সামাদ
১২ মে ২০১৭,শুক্রবার, ২০:৩৯

এবার খুব ঘটা করে নওগাঁর পতিসরে রবীন্দ্রনাথের জন্মজয়ন্তী পালিত হলো। ইতঃপূর্বে দেশের প্রেসিডেন্টের উপস্থিতিতে কোথাও কোনো কবি অথবা লেখকের জন্মজয়ন্তী পালিত হয়নি। রবীন্দ্রনাথ বাঙালি জাতীয়তাবাদী ছিলেন না। শেখ মুজিবুর রহমান কাজী নজরুল ইসলামকে করে গিয়েছেন বাংলাদেশের জাতীয় কবি। কিন্তু এখন মনে হচ্ছে চেষ্টা চলেছে যেন, রবীন্দ্রনাথকে জাতীয় কবি করার। শেখ মুজিবুর রহমান তার অসমাপ্ত আত্মজীবনীর এক জায়গায় বলেছেন, আমাদের বাঙালির মধ্যে দু'টি দিক আছে, একটি হলো আমরা মুসলমান আর একটি হলো, আমরা বাঙালি। তিনি তার এই উক্তির মাধ্যমে ঠিক কী বোঝাতে চেয়েছেন তা নিয়ে হতে পারে বিতর্ক। কিন্তু আমার মনে হয়, শেখ মুজিবুর রহমান অনুভব করেছিলেন বাংলাভাষী মুসলমানের মধ্যে একটা ইসলামের স্বাতন্ত্র্যবোধ কাজ করছে। আর এই স্বাতন্ত্র্যবোধ হলো বাংলাদেশের মানুষের স্বতন্ত্র জাতীয় চেতনার আবেগগত ভিত্তি, যা হলো বাংলাদেশের স্বাধীনতা ও সার্বভৌমত্বেরও অন্তিম ভিত্তি। কিন্তু মনে হচ্ছে, বর্তমান আওয়ামী লীগ শেখ মুজিবুর রহমানের এই দৃষ্টিকোণ থেকে সরে আসারই পক্ষে।
পতিসরে বলা হলো, রবীন্দ্রনাথ ছিলেন অসাম্প্রদায়িক। তিনি ছিলেন মানুষের ধর্মে বিশ্বাসী। কিন্তু আমরা রবীন্দ্রনাথ সম্পর্কে যা জানি, তার সঙ্গে এই উক্তির খাপ খাওয়ানো যাচ্ছে না। রবীন্দ্রনাথ এ দেশে প্রবর্তন করেন শিবাজি-উৎসব। তিনি শিবাজি-উৎসব উপলক্ষে লিখেন বিখ্যাত শিবাজি-উৎসব কবিতা, যাতে তিনি আক্ষেপ করে বলেন- শিবাজি চেয়েছিলেন সারা ভারতকে একটি হিন্দুরাজ্যে পরিণত করতে। কিন্তু বাঙালিরা (অর্থাৎ বাংলাভাষী হিন্দুরা) সেটা বুঝতে পারেনি। এখন সময় এসেছে সেটাকে উপলব্ধি করার। রবীন্দ্রনাথ কবিতাটি লিখেছিলেন ১৩১১ বঙ্গাব্দে। অর্থাৎ আজ থেকে প্রায় ১১৩ বছর আগে। রবীন্দ্রনাথ তার এই কবিতাটিকে তার সঞ্চিতা নামক কাব্য সঙ্কলনে স্থান দিয়েছেন। অর্থাৎ তিনি মনে করেছেন, কবিতাটি তার স্মরণীয় কবিতাদের মধ্যে একটি।
রবীন্দ্রনাথ তার আত্মপরিচয় নামক গ্রন্থে পরিচয় নামক প্রবন্ধে লিখেছেন 'মুসলমান একটি বিশেষ ধর্ম কিন্তু হিন্দু কোনো বিশেষ ধর্ম নহে। হিন্দু ভারতবর্ষের ইতিহাসের একটি জাতিগত পরিণাম।'অর্থাৎ রবীন্দ্রনাথ ভারতীয় জাতীয়তাবাদে বিশ্বাস করতেন। আর এই জাতীয়তাবাদের ভিত্তি হলো হিন্দুত্ব। রবীন্দ্র-চিন্তার সাথে বর্তমান ভারতের ক্ষমতাসীন দল বিজিপির চিন্তা এ ক্ষেত্রে হলো অভিন্ন। আমরা অনেকেই জানি না, ভারতের জাতীয়সঙ্গীত একটি নয়, দু'টি। একটি হলো বঙ্কিমচন্দ্রের লেখা 'বন্দেমাতরম'আর একটি হলো রবীন্দ্রনাথের লেখা 'ভারতবিধাতা'। বঙ্কিমচন্দ্রের বন্দেমাতরম গানটি আছে তার 'আনন্দমঠ'নামক উপন্যাসে, যা মুসলিম বিদ্বেষে পরিপূর্ণ। বন্দেমাতরম গানটি হলো ছাব্বিশ লাইনের। এর মধ্যে প্রথম কুড়ি লাইন হলো সংস্কৃত ভাষায় লিখিত। এই কুড়ি লাইনের মধ্যে প্রথম আট লাইন গৃহীত হয়েছে ভারতের জাতীয়সঙ্গীত রূপে। রবীন্দ্রনাথ এই আট লাইনের সুর প্রদান করেছেন। তিনি প্রথম এই আট লাইন জোড়াসাঁকোর ঠাকুরবাড়িতে গীত হওয়ার ব্যবস্থা করেন। রবীন্দ্রনাথ ছিলেন বঙ্কিমচন্দ্রের আনন্দমঠের ভাবধারার অনুরক্ত। তাই যারা বলতে চাচ্ছেন রবীন্দ্রনাথ ছিলেন অসাম্প্রদায়িক, তাদের বক্তব্য বস্তুনিষ্ঠ হচ্ছে বলে মনে হয় না। রবীন্দ্রনাথকে নির্ভর করেই বন্দেমাতরম গানটি কংগ্রেস-এ অনুপ্রবিষ্ট হয়। আর যেহেতু এর ভাষা সংস্কৃত আর হিন্দুরা ভাবেন সংস্কৃত হলো দেবভাষা, তাই গানটি হতে পারে অনেক সহজে আদ্রিত। নিতে পারে সর্বভারতীয় রূপ। অন্য দিকে ভারতবিধাতা গানটি রবীন্দ্রনাথ লিখেছিলেন সম্রাট পঞ্চম জর্জকে প্রশংসা করে। কেননা পঞ্চম জর্জ দিল্লিতে এসে লর্ড কার্জনের বঙ্গভঙ্গকে রদ করেছিলেন। রবীন্দ্রনাথ এতে হতে পেরেছিলেন খুবই আনন্দ বিহ্বল। কিন্তু বাংলার মুসলমান লর্ড কার্জনের বঙ্গবিভাগকে সমর্থন করেছিলেন। কেননা এর ফলে যে নতুন প্রদেশ, পূর্ববঙ্গ, আসাম প্রদেশ গঠিত হয়, তাতে মুসলমানরা হন সংখ্যাগরিষ্ঠ আর ঢাকা হয় এই প্রদেশের রাজধানী। ভারতে বন্দেমাতরম ও ভারতবিধাতা গান দু'টিকে জাতীয়সঙ্গীত হিসেবে গ্রহণ করা হয় ১৯৪৯ সালের ২ নভেম্বর কনস্টিট্যুয়েন্ট অ্যাসেম্বলিতে, যার সভাপতি ছিলেন বাবু রাজেন্দ্র প্রসাদ। কিন্তু এখন প্রশ্ন উঠেছে, ভারতবিধাতা গানটিকে ভারতের জাতীয়সঙ্গীত করার যুক্তিযুক্ততা নিয়ে। কেননা, রবীন্দ্রনাথ গানটি লিখেছিলেন সম্রাট পঞ্চম জর্জের প্রশস্তি করে। প্রসঙ্গত বলা যায়, লর্ড কার্জন আসলে ঠিক বঙ্গভঙ্গ করেছিলেন না, তিনি ভাগ করেছিলেন বেঙ্গল প্রেসিডেন্সি, যার মধ্যে পড়ত বর্তমান বাংলাদেশ, বর্তমান পশ্চিমবঙ্গ, ঝাড়খণ্ড, বিহার এবং উড়িষ্যা। বঙ্গভঙ্গ রদ করে যে নতুন বাংলা প্রদেশ গঠিত হয়, তাতে সব বাংলাভাষাভাষী অঞ্চল বাংলা প্রদেশে এসেছিল না। অনেক বাংলাভাষাভাষী অঞ্চল যুক্ত হয় বিহার এবং নতুন গঠিত সে সময়ের আসাম প্রদেশের সঙ্গে। রবীন্দ্রনাথ এতে মোটেও মনক্ষুণ্ন হননি। কেননা, একমাত্র উড়িষ্যায় ঠাকুর পরিবারের কিছু জমিদারি ছিল, যা পড়েছিল বিহার প্রদেশে। কারণ, উড়িষ্যা ও বিহার হয়েছিল একটি প্রদেশ। কিন্তু জোড়াসাঁকোর ঠাকুর পরিবারের আর সব জামিদারি পড়েছিল বাংলা প্রদেশে। ভারেতের কমিউনিস্ট পার্টির বিখ্যাত নেতা মুজাফফর আহমদ তার বিখ্যাত 'আমার জীবন ও ভারতের কংগ্রেস পার্টি'বইতে বলেছেন, বঙ্গভঙ্গ রদের আন্দোলন খুব জোরাল হয়েছিল, এর একটি কারণ হলো, হিন্দু জমিদাররা এই আন্দোলনে প্রভূত অর্থ ব্যয় করেছিলেন। কেননা, তারা ভেবেছিলেন, মুসলিম অধ্যুষিত আসাম ও পূর্ববঙ্গ প্রদেশে মুসলমান প্রজারা জমিদারি প্রথা বিলোপ করার জন্য আন্দোলন করতে পারে। ফলে হতে পারে জমিদারি প্রথার অবসান। মুজাফফর আহমদের বক্তব্য থেকে মনে হয়, রবীন্দ্রনাথ বঙ্গভঙ্গ আন্দোলনে শরিক হয়েছিলেন, কেননা তার মনেও ছিল অনুরূপ ভয়।
বর্তমান বাংলাদেশের জাতীয়সঙ্গীত করা হয়েছে 'আমার সোনার বাংলা'গানটিকে। ১৯০৫ সালে রবীন্দ্রনাথ এটি রচনা করেছিলেন বঙ্গভঙ্গ রদের আন্দোলনকে অনুপ্রাণিত করার লক্ষ্যে। এটাকে প্রবাসী বাংলাদেশ সরকার জাতীয়সঙ্গীত হিসেবে গ্রহণ করতে বাধ্য হয় শ্রীমতি ইন্দিরা গান্ধীর চাপে। না হলে প্রস্তাব উঠেছিল দ্বিজেন্দ্রলাল রায়ের 'ধন ধান্যে পুষ্পে ভরা'গানটিকে বাংলাদেশের জাতীয় সঙ্গীত করার। কিন্তু সেটা হতে পারেনি প্রধানত ইন্দিরা গান্ধীর কারণে। ইন্দিরা গান্ধী ১৯৩৪ সালে এক বছর শান্তি নিকেতনে পড়েছিলেন। তিনি ছিলেন রবীন্দ্রনাথের ভক্ত। এ ছাড়া তিনি মনে করেছিলেন, ভারতের জাতীয়সঙ্গীত আর বাংলাদেশের জাতীয় সঙ্গীত রবীন্দ্রনাথের লেখা হলে বাংলাদেশের জাতীয়তাবাদে রবীন্দ্র-প্রভাব অনেক সহজে পড়তে পারবে। আর এর ফলে ভারত যথেষ্ট সহজে পারবে বাংলাদেশকে তার নিয়ন্ত্রণে রাখতে। এ ছিল একটা সুদূরপ্রসারী পরিকল্পনা।
এবার পতিসরে রবীন্দ্রনাথের জন্মজয়ন্তী খুব ঘটা করে পালন করা হলো। আলোচনা করা হলো রবীন্দ্রনাথের মানুষের ধর্ম নামক বইটির বিষয়বস্তু নিয়ে। বলা হলো, মানুষের ধর্ম বইটির বিষয়বস্তু হওয়া উচিত আমাদের জাতীয় আদর্শ। রবীন্দ্রনাথের মানুষের ধর্ম বইটির ইতিহাস আমাদের অনেকেরই জানা নেই। এটা লিখিত হয় রবীন্দ্রনাথ অক্সফোর্ড বিশ্ববিদ্যালয়ে ১৯৩০ সালে যে 'হিবার্ট লেকচার'দেন, তার ভিত্তিতে। বইটি ১৯৩১ সালে প্রকাশিত হয় ইংরেজি ভাষায় The Religion of Man নামে লন্ডন থেকে। রবীন্দ্রনাথ এতে বলেন, বাংলার বাউলদের ধর্ম হলো মানবধর্ম। কেননা তারা কোনো প্রথাগত ধর্মে বিশ্বাস করে না। সবাই বাউল হতে পারে। বাউল হতে কারো বাধা নেই। কিন্তু রবীন্দ্রনাথের এই কথা যথেষ্ট বস্তুনিষ্ঠ নয়। কেননা, বাউলরা হলেন খুবই গুরুবাদী। তারা মনে করেন, কেবল গুরুর কাছ থেকেই শেখা সম্ভব প্রকৃত আরাধনা পদ্ধতি। যার মাধ্যমে আসতে পারে মানবাত্মার মুক্তি। বাউলদের মধ্যে আছে বিভিন্ন গুরুর শিষ্য। আছে চিন্তার ভেদ। তাই তাদের বলা চলে না, অসাম্প্রদায়িক। বাউলরা খুবই গঞ্জিকা সেবী। এরা যাপন করেন শিথিল যৌন-জীবন। পালন করতে চান না, গারস্থ্য-ধর্ম। চান না সন্তান-সন্ততির দায়িত্ব নিতে। রবীন্দ্রনাথ এর আগে অনেক লেখায় বৈরাগ্যের বিরোধিতা করেছেন। কিন্তু মানুষের ধর্ম বইতে প্রশংসা করেছেন বাউলদের; যারা হলেন বৈরাগ্যবাদী। তিনি মানুষের ধর্মে এটা কেন করেছেন, সেটার ব্যাখ্যা করা কঠিন। তবে ক্ষিতিমোহন সেন দাবি করেছেন, মানুষের ধর্ম বইতে বাউল সম্পর্কে রবীন্দ্রনাথ যা বলেছেন, সেই অংশটি লিখেছিলেন তিনি, রবীন্দ্রনাথ নন। ক্ষিতিমোহন সেন ছিলেন বিশ্বভারতীর একজন খ্যাতিমান অধ্যাপক। তার খ্যাতির একটি কারণ হলো, ভারতীয় মরমিবাদী চিন্তার ওপর গবেষণা। অর্থাৎ যাকে এখন রবীন্দ্র-চিন্তা বলে প্রচার করা হচ্ছে, তা আসলে হলো ক্ষিতিমোহন সেনের চিন্তা। রবীন্দ্র-চিন্তার ফসল তা নয়। অবশ্য এক দিক থেকে রবীন্দ্রনাথের সঙ্গে বাউলদের মিল খুঁজে পাওয়া যায়, বাউলরা খুবই গুরুবাদী। আর রবীন্দ্রনাথও চেয়েছেন কবিগুরু হতে। বিশ্বে আর কোনো কবি সম্ভবত এ রকম কবিগুরু হতে চাননি। তারা কেবলই চেয়েছেন কবি হতে। শেক্সপিয়রকে কেউ কবিগুরু শেক্সপিয়র বলেন না।
রবীন্দ্রনাথকে আমরা বলি বিশ্বকবি। এর একটি কারণ, রবীন্দ্রনাথকে ১৯১৩ সালে দেয়া হয়েছিল সুইডিস অ্যাকাডেমির পক্ষ থেকে নোবেল পুরস্কার। রবীন্দ্রনাথ এটা পেতে পেরেছিলেন তার কবিতার ইংরেজি অনুবাদ হওয়ার কারণে। যে অনুবাদের পরিমার্জনা করেছিলেন কবি ইয়েট্স। যিনি ছিলেন একজন খুবই বড় মাপের কবি। তার পরিমার্জনার কারণে রবীন্দ্রনাথের Song Offerings বই হতে পেরেছিল নোবেল প্রাইজ পাওয়ার যোগ্যতা। রবীন্দ্রনাথের কবিতার এই ইংরেজি অনুবাদ থেকে অঁদ্রেজিদ করেন ফরাসি অনুবাদ L`Offrande Lyrique নামে। ইয়েট্স ও অঁদ্রেজিদ উভয়েই ছিলেন বড় মাপের সাহিত্যিক। এরা প্রত্যেকেই পেয়েছেন সাহিত্যে নোবেল প্রাইজ। রবীন্দ্রনাথকে খ্যাতিমান করার পেছনে আছে দু'জন খ্যাতিমান সাহিত্যিকের অবদান। কিন্তু আমরা যেন তা স্বীকার করতে চাই না। আমরা বলতে চাচ্ছি রবীন্দ্রনাথের মতো কবি সাহিত্যিক বিশ্বে আর নেই, যা আমাদের তরুণ মনে সৃষ্টি করছে এক অন্ধ রবীন্দ্র-ভক্তি। সীমিত করছে আমাদের সাহিত্য-চেতনাকে। কিন্তু আমাদের প্রতিবেশী পশ্চিমবঙ্গে এভাবে রবীন্দ্র-বন্দনা হচ্ছে না। হচ্ছে রবীন্দ্রসাহিত্যের বাস্তবধর্মী বিশ্লেষণ। তাদের বিশ্লেষণে ধরা পড়ছে রবীন্দ্রসাহিত্যের একটা বিরাট অংশ হলো বিশ্বসাহিত্য থেকে ভাবানুবাদ। রবীন্দ্রনাথকে যতটা মৌলিক ভাবা হয়, সেটা যথার্থ নয়। শ্রী প্রতাপ নারায়ণ বিশ্বাসের মতে, রবীন্দ্রনাথের 'যোগাযোগ'উপন্যাসের মধ্যে আছে গল্স ওয়ার্দির 'ফোরসাইট সাগা'নামক উপন্যাসের বিশেষ প্রভাব। রবীন্দ্রনাথের 'গোরা'উপন্যাসের কাহিনী নাকি হলো জর্জ এলিয়ট-এর 'ফেলিক্স হল্ট দি ল্যাডিক্যাল'নামক উপন্যাস থেকে কার্যত তুলে নেয়া। এই সমালোচক আরো বলেছেন যে, রবীন্দ্রনাথের বিখ্যাত ছোটগল্প 'ক্ষুধিত পাষাণ'হলো বিখ্যাত ফরাসি সাহিত্যিক ও কবি তেওফিল গতিয়ে-এর লেখা 'ল্য পিয়ে দ্য লা মমি'থেকে অনুপ্রাণিত।
আমি সাহিত্যের লোক নই। তাই এ বিষয়ে কোনো মন্তব্য করতে চাই না। কিন্তু আমাদের প্রতিবেশী দেশে রবীন্দ্রনাথের মৌলিকত্ব নিয়ে উঠেছে অনেক প্রশ্ন। অর্থাৎ আমরা তাকে যত বড় ভাবি, তিনি হয়তো তা নন। বিশ্বসাহিত্য সম্পর্কে আমাদের জ্ঞান খুবই সীমিত। ফরাসি দেশের তুলনামূলক সাহিত্যের আলোচনা হলো যথেষ্ট উন্নতমানের। সেখানকার এক বিশ্ববিদ্যালয়ের অধ্যাপক আমাকে বলেছিলেন, তিনি রবীন্দ্রনাথের কবিতার ফরাসি অনুবাদ পড়েছেন। এসব অনুবাদ পড়ে তার মনে হয়েছে, রবীন্দ্রনাথ কোনো কবিপদবাচ্য হওয়ারই যোগ্য নন। হতে পারে তার মন্তব্য গ্রহণযোগ্য নয়। তবে এটা ছিল একজন অধ্যাপকের মন্তব্য। তবে তিনি সাহিত্যের অধ্যাপক ছিলেন না। ছিলেন মনোবিজ্ঞানের।
আমরা বলছি রবীন্দ্রনাথ নাকি সর্বকালের শ্রেষ্ঠ কবি। কিন্তু সর্বকালের কথা কে বলতে পারে। কারণ আমরা কেউই হতে পারি না সর্বকালের সাহিত্যের বিচারক। বাংলা একাডেমিতে একজন বক্তাকে একবার বলতে শোনা গিয়েছিল রবীন্দ্রনাথের উপন্যাসের বাংলা নাকি হওয়া উচিত আমাদের আদর্শ। এ রকম বাংলা নাকি তার সময়ে আর কেউ লিখতে পারেনি। অথচ রবীন্দ্রনাথের জীবতকালেই শরৎচন্দ্র উপন্যাস লিখে পেয়ে ছিলেন প্রভূত খ্যাতি। অনেকের মতে উপন্যাসের ক্ষেত্রে শরৎচন্দ্রকেই দেয়া উচিত অধিক মর্যাদা। ঢাকা বিশ্ববিদ্যালয় শরৎচন্দ্রকে দিয়েছিল সম্মানসূচক ডি লিট ডিগ্রি। কিন্তু এখন রবীন্দ্র-বন্দনা বাংলাদেশে ঢেকে দিচ্ছে বাংলা সাহিত্যের আর সব প্রতিভাকে।
এবার খুব ঘটা করে পতিসরে রবীন্দ্রজয়ন্তী পালিত হলো। ১৮৩০ সালে পতিসরের জমিদারি ক্রয় করেছিলেন রবীন্দ্রনাথের দাদু দারকানাথ ঠাকুর। জোড়াসাঁকোর ঠাকুর পরিবারের জমিদারির মধ্যে পতিসর (কালিগ্রাম) ছিল সবচেয়ে সমৃদ্ধ। রবীন্দ্রনাথ পেয়েছিলেন উত্তরাধিকার সূত্রে প্রতিসরের জমিদারি। উত্তরাধিকার সূত্রে অবনীন্দ্রনাথ ঠাকুর পেয়েছিলেন শাহজাদপুরের জমিদারি। আর গগনেন্দ্রনাথ ঠাকুর পেয়েছিলেন কুষ্টিয়ার শিয়ালদহের জমিদারি। রবীন্দ্রনাথ একসময় এই তিন জমিদারিই দেখতেন। তবে পতিসরই হলো তার নিজস্ব জমিদারি এবং এই পতিসর ছিল তার আয়ের প্রধান উৎস। কিন্তু রবীন্দ্রনাথ পতিসরে বিশ্বভারতী স্থাপনের কথা ভাবতে পারেননি। কেননা এই অঞ্চল ছিল মুসলিম প্রজাপ্রধান। তিনি বিশ্বভারতী স্থাপন করেন বিরভূমের বোলপুরে, যা ছিল বিশেষভাবেই হিন্দু অধ্যুষিত এলাকা। বোলপুরের জমিদারি ছিল অনেক ছোট। এটা ক্রয় করেছিলেন রবীন্দ্রনাথের পিতা দেবেন্দ্রনাথ অনেক পরে। যারা বলছেন, রবীন্দ্রনাথ ছিলেন সাম্প্রদায়িকতার ঊর্ধ্বে, অর্থাৎ হিন্দু-মুসলমান বিরোধের ঊর্ধ্বে। তাদের কাছে প্রশ্ন রাখা যায় যে, রবীন্দ্রনাথ কেন পতিসরে বিশ্বভারতীয় স্থাপন না করে বোলপুরে বিশ্বভারতী স্থাপনের সিদ্ধান্ত গ্রহণ করেছিলেন।
রবীন্দ্রনাথের বেশির ভাগ প্রজাই ছিলেন মুসলমান কৃষক। রবীন্দ্র-সাহিত্যে এদের কোনো আলেখ্য অঙ্কিত হয়নি। মুসলমান সমাজ রবীন্দ্র-সাহিত্যে থেকেছে সম্পূর্ণ অনুপস্থিত। কী জমিদার হিসেবে, কী সাহিত্যিক হিসেবে রবীন্দ্রনাথ ছিলেন বাঙালি মুসলমান সমাজ সম্পর্কে সম্পূর্ণ উদাসীন। অথচ আশ্চর্যজনকভাবে রবীন্দ্রনাথকে নিয়ে বাংলাভাষী মুসলমান সমাজেই হতে দেখা যাচ্ছে অধিক নাচানাচি।
কেবল রবীন্দ্রনাথকে নিয়ে মাতামাতি নয়, অনেক অভাবিত ঘটনা ঘটতে দেখা যাচ্ছে আমাদের দেশে। বাংলাদেশ মুসলিম অধ্যুষিত যার রাষ্ট্রধর্ম ইসলাম। কিন্তু হঠাৎ করে এখানে দেখা গেল, সুপ্রিম কোর্টের অঙ্গনে গ্রিক বিচারের থেমিসের মূর্তি স্থাপিত হতে। কেন কী কারণে এটা স্থাপন করা হলো, তার কোনো ব্যাখ্যা পাওয়া যাচ্ছে না। যেমন ব্যাখ্যা পাওয়া যাচ্ছে না এবারে পঁচিশে বৈশাখ নিয়ে এত মাতামাতি হওয়ার হেতু। মনে হচ্ছে একটি সুদূরপ্রসারী রাজনৈতিক পরিকল্পনা নিয়ে অগ্রসর হতে চাচ্ছে একটি বিশেষ মহল। বিশ্বের নানা দেশে হচ্ছে যুদ্ধ। অনেকে ধারণা করছেন, তৃতীয় বিশ্বযুদ্ধের সম্ভাবনা এসেছে কাছিয়ে। অথচ আমাদের দেশে আলোচ্য বিষয় হলো মানবধর্ম আর বাউল দর্শন। পতিসরে বলা হলো, বাউল দর্শনের মাধ্যমে আশা সম্ভব প্রকৃত শান্তি। রবীন্দ্রনাথ যখন ১৯৩০ সালে অক্সফোর্ডে বাউলদের প্রশংসা করে বক্তৃতা দিচ্ছিলেন, তখন ইউরোপজুড়ে চলেছিল দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধের প্রস্তুতি। রবীন্দ্রনাথের বক্তৃতা যার গতিরোধ করতে পারেনি। শান্তি কামনা করলে যুদ্ধের জন্য প্রস্তুত থাকতে হয়। বাংলাদেশকেও এ কথা ভুলে গেলে চলবে না।
লেখক : প্রবীণ শিক্ষাবিদ ও কলামিস্ট
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Digital India under worldwide ransome cyber attack rooted in US Security agency!Indian companies and governments suffer and citizens lose their data deposit,Information supressed! Palash Biswas

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Digital India under worldwide ransome cyber attack rooted in US Security agency!Indian companies and governments suffer and citizens lose their data deposit,Information supressed!

Palash Biswas

Every citizen or every human being has to pay for their digital consumer mobile network which is under continuous attack and you may not defend yourself as Digital India denies you the right to privacy and right to your biometric data which has been stored in government and private computer network subjected to continuous cyber attacks and fraud.Just because the workers must die for sake of capital gain ,sensex boom for the ruling caste class hegemony, just because the generations next have to be deprived of employment for privatization,disinvestment and automation at grass root level,just because natural resources owned by the people and the nation have to be handed over to corporate companies and at the same time you lose the right to life and property.


I just visited an Appolo medicin outlet to get Insuline for my wife.She has an Appolo card and I asked for discount.The workers infomed that their network is under worldwide cyber attack ransomware.


India is also under attack and we may not know about the infliction.As is happened with Banking cards which have been cloned,duplicated and hijacked for a long period and Indian Banks did not lodge any FIR.They have to pay only a small amount of insurance money but the citizens having bank account have to lose all of their earning and savings.Who cares?


Even the 130 million AAdahar and Bank account leakage were justified as the government of India declared that the citizens have no right on their biometric data and physical integrity.


What is the threat to a country like India?


As India goes increasingly digital, our vulnerability as well as the resultant impact increase too. For instance, a ransomware attack can easily hold a service like the Delhi Metro or a power utility to ransom, quite literally. Also, the fact that a lot of what we have online is now also connected to the Aadhar data of over a billion Indians makes the threat even more real and worrisome.As Wannacry, Wannacry ransomware, Wannacry cyberattack, what is Wannacry, how to stop Wannacry, Wannacry ransomware attack, Wannacry attack, cyberattack, ransomware attack, Windows, Microsoft, NHS cyberattack, technology, technology news WannaCry cyber-attack has affected nearly hundred countries around the world. (Image credit: Malwaretech).


It is the scenario of good days ahead heralding technological infinite.We miss opposition or resistance whatsoever or the basic understand of this digital, Etailing, networking disaster!


For an instance,in England,the cyber-attack that disrupted NHS systems and forced operations to be cancelled throughout the UK on Saturday has become a bitterly contested election issue, with Labour and the Liberal Democrats blaming the crisis on the government's failure!But Indian politics crying for EVM fraud has nothing to do with digital fraud all around.


Indian politics has nothing to do for the safety,security, freedom and integrity of the nation and its citizens and it has never opposed digital ethnic cleansing and never would just because the political class is all about billionaires and millionaires and it never represents the taxpayers and citizens of India.


 What if Friday's global cyberattack on businesses, universities, and health systems has reached new size, with large institutions and security experts hurrying to address a breach that has now affected nearly 100 countries including India,Strategic partner of United States of America,Britain and Israel in America`s war against terror ,the mother of terrorism,war and civil war,cyber crimes!


Mind you,Security researchers with Kaspersky Lab have recorded more than 45,000 attacks in 99 countries including India!Latest estimates have suggested up to 75,000 individuals across nearly 100 countries were affected by the massive cyber attack that locked down computers and demanded a ransom.The assault, which began Friday and was being described as the biggest-ever cyber ransom attack, struck state agencies and major companies around the world—from Russian banks and British hospitals to FedEx and European car factories.


A total of 48 of England's NHS trusts were hit by Friday's cyber-attack, but only six are not yet back to normal, Home Secretary Amber Rudd has said.We never know the status in India!While globally organisations like UK's National Health Services (NHS) and companies like Renault, fedex and Telefonica have come out and announced they were hit but no Indian company has come out and announced that their PCs were compromised.


It is alarming.Digital network is hijacked time and again.Indian companies have been hit in this recent attack. There has been an exponential rise in ransomware cases in the last one year. 


It should be kept in mind that Today, cybercriminals have become extremely tech savvy, and each ransomware has its own unique way of encrypting.. 


Thus,another major cyber-attack could be imminent after Friday's global hit that infected more than 125,000 computer systems, security experts have warned.


Earlier 130 million Adhar and Bank accounts`data have been leaked.ATM,DEBIT Credit card pns were stolen.Deposit in Bank Acoount is no more safe irrespective of the Banking Security System as it is linked to Aaadhar which is the gateway of all cyber fraud as privacy and secret about every citizen has been subjected to ransome just to kill the working class with Atomation tool.


Mind you,UID project is originally a Nato Plan to ensure surveillance of every human being to defend US corporate and strategic interest all on the name of America`s war against Terror which justifies monopolistic aggression against humanity and nature worldwide.



Latest worldwide cyber attack roots in US Security agancy.Like all malware, ransomware too exploits vulnerabilities in operating systems. Strangely, in this instance, the hackers could have used the 'Eternal Blue hacking weapon' created by America's National Security Agency (NSA) to gain access to Microsoft Windows computers used by terror outfits and enemy states.


However,the Centre on Saturday issued a security alert to computer users, following a wave of cyberattacks that wreaked havoc across the globe. In India, about 100 computers of the Andhra Pradesh Police have been affected, according to the monitoring arm of the ministry of Electronics and Information Technology.


The Indian Computer Emergency Response Team (CERT-In), a nodal agency under the ministry to deal with cyber security emergencies, said a new ransomware named Wannacry was spreading widely.


WannaCrypt encrypts files on infected Windows systems, and spreads by using a vulnerability in the Server Message Block (SMB) in Windows systems. This exploit is named Eternal-Blue, it said. The ransomware infects other computers on a network and spreads through malicious attachments to emails, according to the advisory. 


By the way, in the end it cost @malwaretechblog just $10.69 to buy the domain name that would kill WannaCry, arguably the biggest ransomware attack the world has ever seen. But by then, this crypto-ransomware, also called WannaCrypt, had hit at least 45,000 computers spread over 74 countries demanding a $300 ransom in Bitcoins to restore access to these devices and the information inside. Alarmingly, the attack also affected UK's National Health Service stalling surgeries and other work across the British Isles as patient information and documents became inaccessible.


Indian Express further investigates:


What is ransomware?

There are many types of malware that affect a computer ranging from those that steal your information to those that just delete everything on it. Ransomware, on the other hand, prevents users from accessing their devices and data till a certain amount is paid to its creator as ransom. Ransomware usually locks computers, encrypts the data on it and prevents other software and apps from running. The WanaCrypt0r 2.0 bug, for instance, wants $300 to be paid in Bitcoins to unlock the affected computers. However, paying the ransom is no guarantee for getting the files will be restored and might just open up new attacks.


Aaditya Uthappa, Director – Enterprise Business, Paladion Networks, says this is criminal behaviour and the owners/authors of the ransomware are under no obligation to fulfil their promise of unlocking our files. Suggesting that this could be sensed as an opportunity to continue extorting money, he adds that it is better to get help from the cyber police cell before making a decision.

How do ransomware attacks take place?


Like all malware, ransomware too exploits vulnerabilities in operating systems. Strangely, in this instance, the hackers could have used the 'Eternal Blue hacking weapon' created by America's National Security Agency (NSA) to gain access to Microsoft Windows computers used by terror outfits and enemy states.


Microsoft claims it "released a security update which addresses the vulnerability that these attacks are exploiting" in March itself and advised users to update their systems in order to deploy the latest patches. A post attributed to Phillip Misner, Principal Security Group Manager Microsoft Security Response Center, said some of the attacks were using "common phishing tactics" like malicious attachments and asked users to be cautious while opening attachments.


Wannacry, Wannacry ransomware, Wannacry cyberattack, what is Wannacry, how to stop Wannacry, Wannacry ransomware attack, Wannacry attack, cyberattack, ransomware attack, Windows, Microsoft, NHS cyberattack, technology, technology news WannaCrypt had hit at least 45,000 computers spread over 74 countries demanding a $300 ransom in Bitcoins to restore access to these devices and the information inside. 


What can be the impact of a ransomware attack?


Depending on the critical nature of the computer involved, any malware attack can have serious implications in the highly digitised worlds we live in. In the WannaCry attack it is reported that many surgeries had to be put off, x-rays cancelled and ambulances called back. For many years it has been feared than an attack of this nature can bring public utilities or transport systems to a halt. And that is why a lot of stress is being laid on security of these properties across the world. If a service like an urban metro rail is target, you can rest assured that the ransom will be way above $300.



How to respond to a ransomware attack?

Disconnect from the internet to ensure there is no further infection or exfiltrating of data as the ransomware will be unable to reach the command and control servers. Set BIOS clock back in case the ransomware has a time limit associated to it as with WannaCry. You can also reach out to the Cyber Police Cell of your state immediately. Sites like nomoreransom.org or bleepingcomputer.com can also help

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख गर्भ चीरने वाले बन गए, मुस्लिम महिलाओं के मुक्तिदाता

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जाति के सच का मतलब इसके सिवाय कुछ और नहीं हो सकता कि हम जाति उन्मूलन के बाबासाहेब के मिशन के तहत चलकर समता और न्याय का रास्ता चुनें जिसके लिए मेहनतकशों का वर्गीय ध्रूवीकरण अनिवार्य है,जिसे जाति का अंत हो और निरंकुश फासीवादी रंगभेदी नस्ली कारपोरेट मजहबी सत्ता का तख्ता पलट हो। जाहिर है कि अस्मिता राजनीति को खत्म किये बिना हम मजहबी सियासत के शिंकजे से न आम जनता और न इस मुल्क को रिहा क�

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जाति के सच का मतलब इसके सिवाय कुछ और नहीं हो सकता कि हम जाति उन्मूलन के बाबासाहेब के मिशन के तहत चलकर समता और न्याय का रास्ता चुनें जिसके लिए मेहनतकशों का वर्गीय ध्रूवीकरण अनिवार्य है,जिसे जाति का अंत हो और निरंकुश फासीवादी रंगभेदी नस्ली कारपोरेट मजहबी सत्ता का तख्ता पलट हो।

जाहिर है कि अस्मिता राजनीति को खत्म किये बिना हम मजहबी सियासत के शिंकजे से न आम जनता और न इस मुल्क को रिहा कर सकते हैं।इसके लिए जाहिर है कि राजनीति के अंक गणित, बीज गणित,रेखा गणित, सांख्यिकी और त्रिकोणमिति, भौतिकी और रसायनशास्त्र को सिरे से बदलना होगा।  

पलाश विश्वास


कल रात प्रबीर गंगोपाध्याय की किताब जनसंख्या की राजनीति के हिंदी अनुवाद की पांडुलिपि उन्हें भेज दी है। फिलहाल मेरे पास अनुवाद का कोई काम नहीं है। आजीविका और आवास की समस्याओं में बेतरह उलझा हुआ हूं। ये समस्याएं इतनी जटिल हैं कि जल्दी सुलझने के आसार नहीं है।वैसे भी देश में इस वक्त सबसे बड़ा संकट आजीविका और रोजगार का है। डिजिटल इंडिया में युवाओं के लिए संगठित और असंगठित क्षेत्र में कोई रोजगार नहीं है तो मीडिया से बाहर निकलने के बाद नये सिरे से अपने पांवों पर खड़ा होना बहुत मुश्किल है,खासकर तब जब आपके लिए सर छुपाने की कोई जगह नहीं बची है।

इस बीच बुद्ध जयंती के अवसर पर दक्षिण कोलकाता के गड़िया में बंगाल के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से संवाद की स्थिति बनी है।उधर हमारे पुराने मित्र विद्याभूषण रावत ने वह वीडियो भी जारी कर दिया,जिसमें यूपी के चुनाव से पहले के हालत पर हमने चर्चा की थी।

कुछ मुश्किल सवाल रावत ने पूछे थे,जिसके जबवा शायद हम कायदे से दे नहीं सके हैं।गड़िया में जिन कार्यकर्ताओं से संवाद की स्थिति बनी है और बाकी देश के जिन मित्रों और साथियों से बात होती रहती है,उनके सवालों के जबाव भी हमारे पास नहीं है।

इस बीच दो बार हमारे प्रबुद्ध मित्र डाक्टर आनंद तेलतुंबड़े से बी बात होती रही है।उनसे भी इस बारे में चर्चा होती रही है।

घनघोर संकट है।चारों तरफ नजारा कटकटेला अंधियारा का है।

सवाल फिर जाति और वर्ग का है।

जैसा कि हम बार बार लिखते रहे हैं और बोलते रहे हैं,मेहनतकशों के वर्गीय ध्रूवीकरण के सिवाय इस गैस चैंबर से निकलने का कोई रास्ता नहीं है।

जाति के जटिल यथार्थ को जानते हुए हम ऐसा कह लिख रहे हैं।

जाति की समस्या को सुलझाये बिना,जाति को सिरे से खत्म किये बिना बदलाव की कोई सूरत नहीं बन सकती,यह सबसे बड़ी चुनौती यकीनन है।जिसे बाबासाहेब भीम राव अंबेडकर पहले ही साफ कर चुके हैं।

जाति व्यवस्था की संरचना को देखें तो बहुसंख्यक आम जनता, खासकर मेहनतकश तबके के लोग ,किसान, खेतिहर मजदूर, कृषि और प्रकृति से जुड़े तमाम समुदाय, असंगठित मजदूर और शरणार्थी दलित, पिछड़े हैं।

आदिवासी जाति व्यवस्था के अंतर्गत नहीं हैं लेकिन बाकी जनता से अलगाव की हालत में उनकी हालत सबसे खराब है।उसी तरह अल्पसंख्यकों की सामाजिक आर्थिक स्थिति भी दलितों से बेहतर नहीं है।

दूसरी ओर यह भी सच है कि जाति व्यवस्था के मुताबिक जो वर्चस्ववादी और कुलीन जातियां है, वही आर्थिक राजनीतिक सत्ता के अधिकारी हैं।उनका  ही मुक्तबाजार और एकाधिकार वर्चस्व का सत्ता वर्ग है और अस्मिता की राजनीति के तहत जातियाों को लगातार मजबूत बनाते हुए हम उनसे लड़ नहीं सकते।

हम बताना चाहते हैं कि बामसेफ से अलग हो जाने के बाद देश भर के अंबेडकरी कार्यकर्ताओं के साथ हम लोगों ने अंबेडकरी आंदोलन के एकीकरण की कोशिश बामसेफ एकीकरण अभियान के तहत किया था।जिसके लिए देशभर के अंबेडकरी कार्यकर्ताओं के तीन सम्मेलन मुंबई,नागपुर और भोपाल में हुए थे।

नागपुर और मुंबई का सम्मेलन खुला था,जिसमें हमारे और दूसरे साथियों के वक्तव्य यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

मुबंई और नागपुर के दोनों सम्मेलनों में यह आम राय बनी थी कि अंबेडकरी आंदोलन का दायरा तोड़ना होगा और इसे अस्मिता की राजनीति से बाहर निकालना होगा। यह भी तय हो गया था कि विमर्श की भाषा लोकतांत्रिक होगी, जिसमें सभी तबकों को संबोधित किया जायेगा।

विभिन्न संगठनों का संघीय ढांचा बनाकर एकीकृत अंबेडकरी आंदोलन के मिशन पर तमाम लोग सहमत थे।अंबेडकरी आंदोलन को संगठनात्मक तौर पर लोकतांत्रिकऔर संस्थागत  बनाने पर भी आम सहमति हो गयी थी।

यह तय हुआ था कि व्यक्ति निर्भर संगठन की बजाये हम संस्थागत जाति वर्चस्व की राजीति के मुकाबले संस्थागत आंदोलन और संगठन चलायेंगे। लेकिन संस्था के निर्माण के मुद्दे पर भोपाल में हुए सम्मेलन में गहरे मतभेद आ गये क्योंकि नागपुर और महाराष्ट्र के कुछ साथी नई संस्था पर अपना वर्चस्व कायम रखना चाहते थे जिससे वह अभियान स्थगित हो गया।

वे भी किसी खास जाति के ही लोग थे।जिनकी गरज बाबासाहेब के मिशन से बेहद ज्यादा अपनी ही जाति के वर्च्सव को बनाये रखने को लेकर थी,जिसके तहत उन्होंने अंबेडकरी विचारधारा और आंदोलन का बेड़ा गर्क करते हुए उसका हिंदुत्वकरणा कर दिया है।उनकी वजह से अब अंबेडकरी आंदोलन पर किसी विमर्श की भी गुंजाइश नहीं है।जाति वर्चस्व के लिए भारत में साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा और आंदोलन की भी वही गति और नियति हैं।

इस चर्चा का हवाला देना इसलिए जरुरी है कि अंबेडकरी आंदोलन के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता भी मानने लगे हैं कि जाति आधारित पहचान के साथ किसी संगठन और आंदोलन से बदलाव की कोई संभावना नहीं बनती और इससे आखिर जातिव्यवस्था को ही वैधता मिलती है और वह मजबूत होती है, जो समता और न्याय पर आधारित समाज और राष्ट्र के निर्माण के अंबेडकरी मिशन और अंबेडकरी विचारधारा के खिलाफ है।

कई साल हो गये।हम फिर पुराने साथियों को जोड़ नहीं सके हैं और न यह विमर्श चालू रख सके हैं।

इसके विपरीत दुनियाभर में जहां भी राष्ट्र और समाज में परिवर्तन हुए हैं,वह अस्मिता तोड़कर मेहनतकश आवाम की गोलबंदी से हुई है।उनका वर्गीय ध्रूवीकरण हुआ है।

चर्च की दैवी सत्ता के खिलाफ पूरे यूरोप में किसानों के आंदोलन, फ्रांसीसी क्रांति, अमेरिका की क्रांति से लेकर रूस और चीन की क्रांति के साथ साथ आजादी से पहले भारतीय जनता के संयुक्त मोर्चे के तहत स्वतंत्रता संग्राम और उसके नतीजतन भारत की आजादी इसके उदाहरण हैं।

दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ अश्वतों के आंदोलन को भी ङम अस्मिता आंदोलन नहीं कह सकते और न लातिन अमेरिकी देशों में निरंतर जारी बदलाव के संघर्ष में अस्मित राजनीति की कोई जगह है।

हालांकि राष्ट्र का चरित्र अब भी सामंती औपनिवेशिक है।लेकिन राष्ट्र अब निरंकुश सैन्य राष्ट्र  है और अर्थव्यवस्था से उत्पादकों का, मेहनतकशों और किसानों से लेकर छोटे और मंझौले कारोबारियों,छोटे और मंझौले उद्योगपतियों को या निकाल फेंका गया है या हाशिये पर रखा दिया गया है और सत्ता वर्ग के साथ संसदीय राजनीति कारपोरट पूंजी से नियंत्रित होती है।

सत्ता रंगभेदी है और फासिस्ट है।

यह सत्ता भी निरंकुश है जो दमन और उत्पीड़न के साथ साथ रंगभेदी नरसंहार के तहत आम जनता को कुचलने से परहेज नहीं करती।

समूचा राजनीतिक वर्ग करोड़पति अरबपति हो जाने से लोकतंत्र में आम जनता का वास्तव में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।

जिस संविधान की बात हम करते हैं,वह कहीं लागू नहीं है।

कानून का राज अनुपस्थित है।

समता और न्याय का लक्ष्य तो दूर की बात देश का लोकतांत्रिक संघीय ढांचा टूटने लगा है और आम जनता जाति,धर्म,नस्ल,भाषा और क्षेत्र की विविध अस्मिताओं के तहत बंटी हुई है।

भारत का विभाजन इसी अस्मिता राजनीति के तहत हुआ है और अस्मिता राजनीति के तहत राष्ट्र के रुप में हम खंड खंड हैं।

सबका अपना अलग अलग राष्ट्र है।

अस्मिता राजनीति के तहत धार्मिक ध्रूवीकरण की राजनीति ही अब राजनीति हो गयी है।जनसंख्या के हिसाब से इस देश में विभाजनपूर्व भारत की तरह अब भी दो बड़ी राष्ट्रीयताएं एक दूसरे के खिलाफ मोर्चाबंद हैं,हिंदू औकर मुसलमान और हकीकत यह है कि बाकी तमाम अस्मिताएं इन्हीं दो राष्ट्रीयताओं से नत्थी हो गयी है।

इनमें से हिंदू अस्सी फीसद या उससे ज्यादा हैं तो मुसलमान सिर्फ सत्रह प्रतिशत।अल्पसंख्यक होने की वजह से मुसलमान गहन असुरक्षाबोध और नस्ली नरसंहार के राजकाज और राजनीतिक की वजह से बेहतर सामाजिक राजनीतिक और पर बेहतर संगठित है लेकिन आर्थिक हैसियत और रोजगार के मामले में वे कही नहीं है।विविधता और बहुलता का लोकतंत्र और सहिष्णुता का अमन चैन गायब हैं।

आदर्श की बात रहने दें, धार्मिक अस्मिता अंततः निर्णायक होती है।जातियां छह हजार से ज्यादा है और कोई एक जाति भी संगठित नहीं है।

उनमें उपजातियों और गोत्र के नाम गृहयुद्ध है।

संविधान कानूनी हक हकूक पाने में मददगार है जो कहीं लागू नहीं है।जो जातियां अलग अलग भी संगठित नहीं हैं,बाबासाहेब के सौजन्य से तीन श्रेणियों में अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति और पिछड़े बतौर भी वे संगठित नहीं हो सके हैं।

सत्ता में हिस्सेदारी भी अलग अलग बाहुबलि ,वर्चस्ववादी,मजबूत जातियों को मिलती रही हैं और बाकी जातियों के लोग तमाम हकहकूक से वंचित रहे हैं।

तो जाहिर है कि जाति चाहे जितनी मजबूत हो,वे दूसरी कमजोर जातियों को दबायेंगे और सारी मलाई खाकर दूसरों को भूखों प्यासा मार देंगी।

इससे कमजोर जातियों और समुदायों,यहां तक कि धार्मिक समुदायों के लिए भी सबसे बड़ी बहुसंख्य अस्मिता की शरण में जाने के सिवाय कोई रास्ता बचता नहीं है।

एक प्रतिशत से कम या उससे थोड़ा ज्यादा जनसंख्या वाले बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म,जैन धर्म और सिख धर्म का उसीतरह हिंदुत्वकरण हो गया है ,जैसे दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का।

इनमें से किसी वर्ग का मुसलमानों से कोई साझा मोर्चा बन नहीं सका है,क्योंकि अस्सी फीसद हिंदुओं के मुकाबले मुसलमान सिर्फ सत्रह प्रतिशत हैं।

जाहिर सी बात है कि लोकतंत्र में बहुमत के साथ नत्थी हो जाने पर अस्मिता राजनीति को सत्ता में हिस्सेदारी मिल सकती है।

क्योंकि भारत में अस्मिता राजनीति अंततः धर्म राष्ट्रीयता बन जाती है।

सीधे तौर पर हिंदुत्व बनाम इस्लाम।

यही ध्रूवीकरण भारत विभाजन का आधार रहा है और आजादी के बाद पिछले सात दशकों में राजनीति कुल मिलाकर इसी ध्रूवीकरण की राजनीति है,जिससे मुसलमानों की हैसियत में कोई बदलाव नहीं हुआ और वे बलि के बकरे बना दिये गये हैं तो दूसरी तरफ हिंदुत्व की राजनीति ही सत्ता की राजनीति रही है, इस राजनीति में छह हजार से ज्यादा जातियां, अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय बौद्ध,ईसाई,सिख,जैन सारे के सारे नत्थी हो गये।

हिंदुत्व की राजनीति इसीलिए अपराजेय हो गयी है।

अस्मिता राजनीति में हिंदुत्व की विचारधारा का मुकाबला जातियां नहीं कर सकतीं और न अति अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के हित हिंदुत्व से जुड़े बिना सुरक्षित हो सकती है। बल्कि हिंदुत्व जाति और जाति व्यवस्था से निरंतर मजबूत होता है।

जाति को मान लेने का मतलब ही यह हुआ कि आप चाहे ब्राह्मणवाद,ब्राह्मण धर्म और जाति बतौर ब्राह्मणों की कितना ही विरोध करें,आप मनुस्मृति के विधानके मुताबिक चल रहे हैं।

रोजमर्रे की जिंदगी में भी तमाम जातियां हिंदुत्व के विविध संस्कार,नियम और विधि का पालन करती हैं।

जाति के सच का मतलब इसके सिवाय कुछ और नहीं हो सकता कि हम जाति उन्मूलन के बाबासाहेब के मिशन के तहत चलकर समता और न्याय का रास्ता चुनें जिसके लिए मेहनतकशों का वर्गीय ध्रूवीकरण अनिवार्य है,जिसे जाति का अंत हो और निरंकुश फासीवादी रंगभेदी नस्ली कारपोरेट मजहबी सत्ता का तख्ता पलट हो।

जाहिर है कि अस्मिता राजनीति को खत्म किये बिना हम मजहबी सियासत के शिंकजे से न आम जनता और न इस मुल्क को रिहा कर सकते हैं।इसके लिए जाहिर है कि राजनीति के अंक गणित,बीज गणित,रेखा गणित,सांख्यिकी और त्रिकोणमिति, भौतिकी और रसायनशास्त्र के सिरे से बदलना होगा।  



अपने बच्चों के कटे हुए हाथों और पांवों का हम क्या करेंगे? पलाश विश्वास

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अपने बच्चों के कटे हुए हाथों और पांवों का हम क्या करेंगे?

पलाश विश्वास

बिना क्रय शक्ति के मुक्त बाजार में जीने की मोहलत किसी को नहीं है।क्रय शक्ति बिना उत्पादन के हवा में पैदा नहीं हो सकती।जब सांसें तक खरीदनी हों,हवा पानी बिन मोल नहीं मिलता, तब सेवाक्षेत्र और बाजार से किस हद तक कितने लोगों को वह क्रयशक्ति संजीवनी मिल सकती है।हम अपने अपने निजी जीवन में इस संकट से जूझ रहे हैं।

आजीविका और रोजगार के बिना खरीदने की क्षमता खत्म होने के बाद जीना कितना मुश्किल है,रिटायर होने के साल भरमें हमें मालूम हो गया है।

आज अनेक मित्रों ने सोशल मीडिया पर जन्मदिन की शुभकामनाएं भेजी हैं।उनका आभार।हम जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से हैं,वहां जीवन मरण का कोई खास महत्व नहीं है। न हम इसे किसी तरह सेलिब्रेट करने के अभ्यस्त हैं।

इस जन्मदिन का मतलब यह भी है कि साल भर हो गया कि हम रिटायर हो चुके हैं।हमने पूरी जिंदगी जिस मीडिया में खपा दी, वहां काम मिलना तो दूर, हमारे लिए कोई स्पेस भी बाकी नहीं है। मीडिया को कांटेट की जरुरत ही नहीं है। मार्केटिंग के मुताबिक कांटेट उस सरकार और कारपोरेट कंपिनयों से मिल जाती है। इसलिए मीडिया को संपादकों और पत्रकारों की जरुरत भी नहीं है।मीडिया कर्मी कंप्यूटर के साफ्टवेयर बन गये हैं।समाचार,तथ्य,विचार,विमर्श,मतामत,संवाद बेजान बाइट हैं और हर हाल में मार्केटिंग के मुताबिक है या राजनीतिक हितों के मुताबिक।बाकी मनोरंजन।

हमारे बच्चों को शिक्षा और ज्ञान के अधिकार से वंचित करके कंप्यूटर का पुर्जा बना देने के उपक्रम के तहत उनके हाथ पांव काट लेने का चाकचौबंद इंतजाम हो गया है।स्थाई नौकरी या सरकारी नौकरी या आरक्षण ये अब डिजिटल इंडिया में निरर्थक शब्द है। कामगारों के हकहकूक भी बेमायने हैं। कायदे कानून भी किसी काम के नहीं है। रेलवे में सत्रह लाख कर्मचारी अब सिमटकर बारह लाख के आसपास हैं और निजीकरण की वजह से रेलवे में बहुत जल्द चार करोड़ ही कर्मचारी बचे रहेंगे।

किसी भी सेक्टर में स्थाई कर्मचारी या स्थाई नियुक्ति का सवाल ही नहीं उठता और हायर फायर के कांटेक्ट जाब का हाल यह है कि मीडिया के मुताबिक सिर्फ आईटी सेक्टर में छह लाख युवाओं के सर पर छंटनी की तलवार लटक रही है।कंपनियों में बड़े पैमाने पर छंटनीकी खबरें आ रही हैं. मीडिया में आई रिपोर्ट के मुताबिक कॉग्निजान्ट ने दस हजार कर्मचारियों की छंटनीकी है। इन्फोसिस ने दो हजार कर्मचारियों को अलविदा कहा तो विप्रो ने पांच सौ कर्मचारी हटाए हैं। इसके अलावा आईबीएम में भी हजारों लोगों की छंटनीकी खबरें आयी हैं।

लेआफ की फेहरिस्त अलग है।यानी आईटी कंपनियों में छंटनीकी फेहरिस्त बढ़ती जा रही है। कुल मिलाकर इस वक्त आईटी सेक्टर की तस्वीर बेहद भयावाह दिख रही है। द हेड हंटर्स कंपनी के सीएमडी के लक्ष्मीकांत के मुताबिक आईटी सेक्टर में दो लाख लोगों की नौकरियां जाने की आशंका है।इसी बीच आईटी दिग्गज आईवीएम ने अपने एंप्लायीज की छंटनीकी खबरों को निराधार बताते हुए ऐसी संभावनाओं को खारिज किया। हालांकि कंपनी के एंप्लायीज में से 1-2 फीसदी का परफ़ॉर्मेंस अप्रेजल प्रभावित हो सकता है। छंटनीकी खबरों पर एक बयान जारी कर कंपनी ने कहा, 'ऐसी रिपोर्ट्स तथ्यात्मक रूप से गलत हैं। हम अफवाहों और अटकलों पर और कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगे।' आईवीएम इंडिया में 1.5 लाख कर्मचारी काम करते हैं। कंपनी हर साल एंप्लायीज को अप्रेजल देती है। सूत्रों ने बताया कि इस बार कंपनी खराब प्रदर्शन करने वाले एंप्लायीज का चुनाव बहुत सावधानी पूर्वक करेगी।

गौरतलब है कि आईटी कंपनियों में नौकरी ठेके की होती है और काम के घंटे अनंत होते हैं।वहां कामगारों के हक हकूक भी नहीं होते।ठेके का नवीकरण का मतलब नियुक्ति है।इसी रोशनी में इस पर गौर करें कि  इस बार कंपनी खराब प्रदर्शन करने वाले एंप्लायीज का चुनाव बहुत सावधानी पूर्वक करेगी।

आईबीएम की ही तर्ज पर सरकार का वादा है।गौरतलब है कि सरकार ने आज कहा कि IT सेक्‍टर ने उसे आश्वासन दिया है कि इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छंटनीनहीं होगी और यह क्षेत्र 8-9 फीसदी की दर से वृद्धि कर रहा है।

आईटी सचिव अरूणा सुंदरराजन ने कहा कि कुछ ऐसे मामले हो सकते हैं, जहां कर्मचारियों की वार्षिक मूल्यांकन प्रक्रिया में कंपनियां उनके अनुबंध आगे न बढ़ाएं। इसके अलावा आईटी उद्योग में इस समय क्लाउड कम्‍प्यूटिंग, बिग डाटा और डिजिटल भुगतान व्यवस्था के उदय के बाद रोजगार का स्वरूप बदलाव से गुजर रहा है।अनुबंध ही नियुक्ति है और अनुबंध के नवीकरण न होने का मतलब छंटनी के अलावा और क्या होता है,सरकार इसका भी खुलासा कर दें।खबर यह है कि भारत में IT सेक्टर में जॉब जाने का खतरा लगातार मंडरा रहा है। ताजा खबर आईबीएम से आ रही है। सूत्रों की मानें तो आईबीएम इंडिया अगली कुछ तिमाही में 5000 एंप्लायीज की छंटनीकर सकता है। कंपनी के इस प्लान से परिचित सूत्रों ने हमारे सहयोगी ET NOW को बताया है कि दूसरी आईटी कंपनियों द्वारा इस तरह के कदम उठाने के बाद आईबीएम ने भी यह सख्त कदम उठाने का फैसला कर लिया है। आईटी कंपनियों का विश्लेषण है कि यह वित्त वर्ष आईटी सेक्टर के लिए चुनौतिपूर्ण होगा। इसके मद्देनजर आईटी कंपनियों ने एंप्लॉयीज की छंटनीका मन बना लिया है।रिपोर्ट में यह दावा किया गया था कि आईबीएम आने वाले क्‍वार्टर में अपने 5 हजार से ज्‍यादा कर्मचारियों की छंटनीकर सकती है। परफॉर्मेंस रिव्‍यू के नाम पर छंटनी. यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है, जब इन्‍फोसिस, विप्रो और टेक महिंद्रा जैसी आईटी कंपनियां छटनी की तैयारी कर रही हैं। ये कंपनियां परफॉर्मेंस रिव्‍यू करने में जुट गई हैं। इसी बीच आईबीएम की तरफ से भी छंटनीकिए जाने की रिपोर्ट आई।

बहरहाल सरकार ने आईटी सेक्टर में बड़े पैमाने पर छंटनीका डर खारिज किया है। सरकार ने कहा है कि छंटनीकी रिपोर्ट्स गलत और गुमराह करने वाली हैं। आईटी और टेलीकॉम सेक्रेटरी अरुणा सुंदरराजन ने मंगलवार को कहा कि आईटी इंडस्ट्री लगातार ग्रोथ कर रही है और सरकार इंडियन प्रोफेशनल्स के एच1बी वीजा के मुद्दे पर अमेरिकी अथॉरिटीज के लगातार संपर्क में है। इंडिया में वानाक्राई रैंसमवेयर साइबर अटैक के मुद्दे पर अरुणा ने कहा कि कई एजेंसियों के लोगों को मिलाकर एक टीम बनाई गई है, जो स्थिति पर लगातार नजर रखे हुए है।

डिजिटल इंडिया के सुनहले सपने कितने खतरनाक हैं,कितने जहरीले हैं,सबकुछ जानने समझने का दावा करने वाले मीडिया के लोगों को भी इसका कोई अहसास नहीं है , जहां सबसे ज्यादा आटोमेशन हो गया है।मीडियाकर्मियों को वर्तमान के सिवाय न अतीत है और न कोई भविष्य और वे ही लोग डिजिटल इंडिया के सबसे बड़े समर्थक हैं।

बाकी बातें लिख लूं,इससे पहले चालू साइबर अटैक के नतीजे के बारे में आपको कुछ बताना जरुरी है।150 से देशों में रैनसम वायर का हमला हुआ है।एक खास कंपनी के आउटडेटेड प्रोग्राम में सहेजे गये तथ्य हाइजैक हो गये हैं।खास बात है कि भारत में तमाम बैंकिंग,शेयर बाजार,मीडिया, संचार,बीमा,ऊर्जा जैसे तमाम क्षेत्रों में उसी कंपनी के कार्यक्रम पर नेटवर्किंग हैं।

एटीएम से लेकर क्रेडिट डेबिट एटचीएम कार्ड भी उसीसे चलते हैं।अब भारत सरकार इस पूरी नेटवर्किंग का अपडेशन करने जा रही है।यानी उसी खास कंपनी के नये विंडो के साथ बचाव के तमाम साफ्टवेयर खरीदे जाने हैं।

इस पर कितना खर्च आयेगा,इसका हिसाब उपलब्ध नहीं है।जाहिर है हजारों करोड़ का न्यारा वारा होना है और इस साइबर अटैक की वजह से उसी कंपनी के विंडो, प्रोग्राम ,साफ्टवेयर, एंटी वायरस की नये सिरे व्यापक पैमाने पर मार्केटिंग होगी।

भारत के नागरिकों और करदाताओं ने डिजिटल इंडिया का विकल्प नहीं चुना है।कारपोरेट कंपनियों का मुनाफा बढ़ने के लिए श्रमिकों और कर्मचारियों के तमाम हक हकूक,कानून कत्ल कर देने के बाद आधार नंबर को अनिवार्य बनाकर आटोमेशन के जरिये रोजगार और आजीविका,कृषि,व्यापार और उद्योग से बहुंसख्य जनता को एकाधिकार कारपोरेट कंपनियों के हित में उन्हीं के प्रबंधन में आधार परियोजना लागू की गयी है।

अब तेरह करोड़ आधार और बैंक खातों की जानकारियां लीक होने के बाद सरकार ने कोई जिम्मेदारी लेने से सिरे से मना कर दिया है।ताजा ग्लोबल साइबर अटैक के बाद भारत सरकार इससे कैसे निपटेगी,वह मुद्दा अलग है,लेकिन तथ्यों की गोपनीयता की रक्षा करने की जिम्मेदारी उठोने से उसने सिरे से मना कर दिया है और जो आधिकारिक अलर्ट जारी की है,उसके तहत तथ्यों की गोपनीयता,यानी जान माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी नागरिकों और करदाताओं पर डाल दी है।

इस पर तुर्रा यह कि मीडिया और सरकार दोनों की ओर से कंप्यूुटर और नेटवर्किंग की ग्लोबल एकाधिकार कंपनी के उत्पादों की साइबर अटैक के बहाने साइबर सुरक्षा के लिए मार्केटिंग की जा रही है कि आप कंप्यूटर और नेटवर्किंग को खुनद बचा सकते हैं तो बचा लें।इसमें होने वाले नुकसान की कोई जिम्मेदारी सरकार की नहीं होगी।

अबी ताजा जानकारी है कि 56 करोड़ ईमेल आईडी और उनका पासवर्ड लीक हो गया है।नेटवर्किंग में घुसने के लिए यह ईमेल आईडी और पासवर्ड जरुरी है।नेट बैंकिंग भी इसी माध्यम से होता है।डिजिटल लेनदेन से लेकर तमाम तथ्य और मोबाइल नेटवर्किंग और ऐप्पस भी इसीसे जुड़े हैं।अब आधार मार्फत लेनदेन मोबािल जरिये करने की तैयारी है।

इसका नतीजा कितना भयंकर होने वाला है,हम इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं।निजी कंपनियों और ठेका कर्मचारियों को हमने उंगलियों की जो छाप समेत अपने तमाम तथ्य सौंपे हैं,उसकी गोपनीयता की कोई गारंटी सरकार देने को तैयार नहीं है,जबकि सारी अनिवार्य सेवाओं से,बाजार और लेन देन से भी आधार नंबर को जोड़ दिया गया है।जिसके डाटाबेस सरकार और गैरसरकारी कंप्यूटर नेटवर्क में है।जैसे कि तेरह करोड़ एकाउंट के लीक होने के बाद भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में खुलासा भी किया कि यह सरकार पोर्टल से लीक नहीं हुआ।

प्राइवेट नेटवर्क में जो डाटाबेस है,जाहिर है कि उसकी लीकेज की कोई जिम्मेदारी भारत सरकार भविष्य में भी उठाने नहीं जा रही है।

रोजगार सृजन हो नहीं रहा है और डिजिटल इंडिया की मुक्तबाजार व्यवस्था में रोजगार और आजीविका दोनों खत्म होने जा रहे हैं।

हिंदू राष्ट्र में किसानों की आमदनी दोगुणा बढाने के दावे के बावजूद तीन साल में कृषि विकास दर 1.6 फीसद से ज्यादा नहीं बढ़ा है ,जबकि किसानों और खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की दर में तेजी से इजाफा हो रहा है।

रोजगार विकास दर न्यूनतम स्तर पर है।केंद्र में मोदी सरकार को तीन साल पूरे हो चुके हैं, कई क्षेत्र में सरकार का दावा है कि उसने काम किया है।

बिजली उत्पादन, सड़क निर्माण से लेकर कई विभाग में बड़े कामों का केंद्र सरकार ने दावा किया है, लेकिन इन सबके बीच सरकार के सामने जो सबसे बड़ी समस्या है वह यह कि पिछले तीन सालों में बेरोजगारी बड़ी संख्या में बढ़ी है।

लोगों को रोजगारदेने में मौजूदा केंद्र सरकार तकरीबन विफल रही है और आज भी देश के युवा रोजगारकी तलाश में यहां वहां भटक रहे हैं और एक अदद अच्छे दिन की तलाश कर रहे हैं। आठ साल के सबसे निचले स्तर पर रोजगार सृजन।

गौरतलब है कि केंद्रीय श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2015 और साल 2016 में क्रमशः 1.55 लाख और 2.31 लाख नई नौकरियां उपलब्ध हुईं थी।

ये आंकड़े रोजगारके 8 प्रमुख क्षेत्रों टेक्सटाइल, लेदर, मेटल, ऑटोमोबाइल के 1,932 यूनिट के अध्ययन पर आधारित थे। 2009 में मनमोहन सिंह के कार्यकाल में 10 लाख नई नौकरियां तैयार हुई थीं।

वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार हैं जो नई नौकरियां तैयार नहीं कर पाई है। दरअसल, भारत में बहुत बड़े वर्ग को रोजगारदेने वाले आईटी सेक्टर में हजारों युवाओं की छंटनी हो रही है।

नरेंद्र मोदी सरकार अपने तीन साल पूरे होने का जश्न मनाने की तैयारी में है, वहीं देश में नए जॉब्स की संभावनाओं को लेकर जारी एक रिपोर्ट ने सभी को चिंता में डाल दिया है।

पिछले आठ साल का रिकॉर्ड देखें तो रोजगारलगातार घट रहे हैं और 2016 में तो यह आंकड़ा सबसे नीचे पहुंच गया। ऊपर से यह आशंका भी है कि आने वाला समय कहीं ज्यादा मुश्किलों भरा रह सकता है। टेलिग्राफ के अनुसार, 2016 में महज 2.31 लाख नई नौकरियां पैदा हुई हैं।

नए रोजगारका आकंड़ा 2009 के बाद से लगातार गिर रहा है। आठ प्रमुख सेक्टर्स की बात करें तो 2009 में 10.06 लाख लोगों को नौकरी मिली थी।

छंटनी का आलम इतना भयंकर है कि आउटसोर्सिंग आधारित आईटी को शिक्षा और रोजगार का फोकस बनाकर विश्वविद्यालयों,ज्ञान विज्ञान,उच्चशिक्षा और शोद को तिलाजंलि देकर डिजिटल इंडिया में विकास का इंजन जिस सूचना तकनीक को बना दिया गया,वहां युवाओं के हाथ पांव काट देने के पुख्ता इंतजाम हो गये हैं।

देश में बड़ी संख्या में रोजगार देने वाले इन्फ़र्मेशन टेक्नॉलजी सेक्टर में छंटनीकी आशंका से देश के उन शहरों में रियल एस्टेट कंपनियों की चिंता बढ़ गई है जिन्हें आईटी हब कहा जाता है। रेजिडेंशल प्रॉपर्टी की सेल्स में हाल के समय में तेजी आई है, लेकिन अगर आईटी कंपनियों में छंटनीका दौर चलता है तो बेंगलुरु, हैदराबाद, पुणे, चेन्नै और गुड़गांव सहित कई बड़े शहरों में प्रॉपर्टी मार्केट में मंदी आ सकती है। नाइट फ्रैंक इंडिया के चीफ इकनॉमिस्ट और नैशनल डायरेक्टर सामंतक दास ने कहा, 'रेजिडेंशल प्रॉपर्टी मार्केट काफी हद तक सेंटीमेंट से चलता है।

बहरहाल आईटी कंपनियों में छंटनी का शिकार हुए कर्मचारी अब इन कंपनियों के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं। इसके लिए उन्होंने ऑनलाइन आईटी विंग बनाया है, जिससे रोजाना सैकड़ों की तादाद में वो आईटी कर्मचारी जुड़ रहे हैं, जिन्हें कंपनियों ने नौकरी से निकाल दिया है। अप्रेजल का ये सीजन आईटी इंप्लॉईज के लिए बुरा सपना क्यों साबित हो रहा है।

आईटी सेक्टर में आने वाले समय में छंटनीकी संभावनाओं को देखते हुए चेन्नै में एंप्लॉयीज यूनियनें सॉफ्टवेयर प्रफेशनल्स को एक होने के लिए कह रही हैं। बढ़ते ऑटोमेशन और आउटसोर्सिंग के सबसे बड़े बाजार अमेरिका में बढ़ रहे विरोध के चलते आईटी सेक्टर में छंटनीकी संभावना है। तमिलनाडु में करीब चार लाख आईटी प्रफेशनल्स काम करते हैं। यहां पर ज्यादातर मिडिल लेवल के मैनेजरों को नौकरी से निकाले से जाने के मामलों में बढ़ोतरी देखने को मिली है।

मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के अनुभवों से उत्साहित ट्रेड यूनियनों को लग रहा है कि आईटी सेक्टर में इस सेक्टर के जैसा भाव लाना आसान नहीं है।

कोलकाता के दीप्तिमान सेनगुप्ता ने 2011 में सीनियर सिस्टम एनालिस्ट के रूप में दिग्गज सॉफ्टवेयर कंपनी आईबीएम में काम शुरू किया था। अच्छे परफॉर्मेंस की वजह से वो 2013 में  बेस्ट इंप्लाई भी बने। लेकिन पिछले साल ये कंपनी की नॉन-परफॉर्मर लिस्ट में शामिल हुए और अब इन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।

दीप्तिमान की ही तरह कैपजैमिनी के ईशान बनर्जी को भी छंटनी का शिकार होना पड़ा।

आईटी कंपनियों के ये सारे कर्मचारी अब एकजुट हो रहे हैं। उन्होंने न्यू डेमोक्रैट्स डॉट कॉम वेबसाइट पर आईटी विंग बनाया है, जिसमें आईटी कंपनियों की छंटनी का शिकार हुए कर्मचारी जुड़ रहे हैं। अब 18 मई को डेमोक्रेटिक वन के सभी सदस्य मल्टीनेशनल कंपनियों के खिलाफ आगे की रणनीति तैयार करेंगे।

एक्जीक्यूटिव सर्च फर्म हेडहंटर्स इंडिया का अनुमान है कि अगले 3 सालों में देश में आईटी कंपनियों में पौने दो लाख से दो लाख तक कर्मचारियों की छंटनी हो सकती है। हालांकि आईटी कंपनियों की संस्था नैसकॉम छंटनी की आशंका से इनकार कर रही है।

दरअसल, आईटी सेक्टर में ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का चलन बढ़ने की वजह से लोगों की जरूरत कम होती जा रही है। वहीं ग्लोबल इकोनॉमी में मंदी जारी रहने का असर आईटी सेक्टर की कंपनियों की ग्रोथ पर भी दिखने लगा है।

वहीं इस पर आइटी सेक्रटरी अरूणा सुंदराजनका कहना है कि, आइटी सेक्टर में बड़े पैमाने पर नौकरियां नहीं गई हैं। अरूणा सुंदराजन ने आगे कहा कि आईटी सेक्टर पर कोई बड़ा संकट नहीं है और इसका डाटा मंत्रालय के पास है। सेक्टर की स्थिति सामान्य है।


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এক শ বছরের মধ্যেই এই পৃথীবী ছেড়ে যেতে হবে,কতজন পারবেন গ্রহান্তরে বসবাস করতে? Next thing RSS might do,it might replace Gandhi with Ambedkar to make India full bloom Hindu Nation and no resistance is possible but creative resistance! Stephen Hawking says we must start searching for the next Earth The physicist warns that Earth is becoming overpopulated and it's time to start looking for a new home. পলাশ বিশ্বাস

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এক শ বছরের মধ্যেই এই পৃথীবী ছেড়ে যেতে হবে,কতজন পারবেন গ্রহান্তরে বসবাস করতে?

Next thing RSS might do,it might replace Gandhi with Ambedkar to make India full bloom Hindu Nation and no resistance is possible but creative resistance!

Stephen Hawking says we must start searching for the next Earth

The physicist warns that Earth is becoming overpopulated and it's time to start looking for a new home.

জীবন জীবিকা ,শিক্ষা ও চিকিত্সারর সঙ্গে এই পৃথীবীকে বসবাস যোগ্য করে রাখার লড়াঈ অনিবার্য..ষোলো শতাব্দীর ভবিষ্যদ্বক্তা নস্ট্রাডামুসের চেয়ে বিশ শতাব্দীর বিজ্ঞানী স্টিফেন হকিংয়ের ভবিষ্যদ্বাণীর দাম বেশি। বহুবার নস্ট্রাডামুসের নামে 'কেয়ামত'-এর ভবিষ্যদ্বাণী করা হয়েছিল, বহুবার সেসব ভুল প্রমাণিত হয়েছে। কিন্তু 'সময়ের সংক্ষিপ্ত ইতিহাস'-এর লেখক হকিং যখন বলেন, 'বাঁচতে হলে মানুষকে ১০০ বছরের মধ্যে পৃথিবী ছাড়তে হবে'; তখন কাণ্ডজ্ঞানওয়ালা মানুষ ভয় পাবেই।


Now Hawking, the renowned theoretical physicist turned apocalypse warning system, is back with a revised deadline. In "Expedition New Earth" — a documentary that debuts this summer as part of the BBC's "Tomorrow's World" science season —‚ Hawking claims that Mother Earth would greatly appreciate it if we could gather our belongings and get out — not in 1,000 years, but in the next century or so.


জীবন জীবিকার  মরণ বাঁচন লড়াঈয়ের এর নরসংহার সংস্কৃতির মুক্তবাজারে প্রখ্যাত পদার্থবিদ স্টিফেন হকিং মনে করেন, অস্তিত্ব রক্ষা করতে হলে আগামী এক শতাব্দীর মধ্যেই মানবজাতিকে পৃথিবী ছাড়তে হবে। বেঁচে থাকার জন্য অন্য কোনো গ্রহে আবাস গড়তে হবে মানুষকে।আমি প্রথমথেকেই ক্রিএটিভ এক্টিভিজ্ম কেই রেসিস্ট ফ্যাসিস্ট নিরন্কূশ গ্লৌবাল অর্ডারের ও ধর্মীয় মৌলবাদী রাষ্ট্র ও রাজনাতির বিরুদ্ধে মানুষের বেঁচে বর্তে থাকার একমাত্র বিকল্প রাজনীতি বলে আসছি।বাংলা ,বাংলাদেশ ও বাঙালি জনসমগ্রের জন্য ধর্মীয় রাষ্ট্র ও রাজনীতি এই মুহুর্তে সবচেয়ে বড় বিপর্যয় গোরিকীকরণের সুনামী সময়ে

জলবায়ু পরিবর্তনের প্রভাব, মহামারি ও জনসংখ্যা বৃদ্ধির কারণে এ গ্রহের অস্তিত্ব হুমকির মুখে পড়ছে বলে মনে করেন ব্রিটিশ এই বিজ্ঞানী। স্টিফেন হকিং 'এক্সপেডিশন নিউ আর্থ'নামের বিবিসির একটি নতুন তথ্যচিত্রে এ মন্তব্য করেছেন। খবর দ্য টেলিগ্রাফের।

বিবিসি টু'তে ওই তথ্যচিত্র সম্প্রচার করা হয়েছে। এ তথ্যচিত্রের নির্মাতা হকিং নিজেই। এতে হকিং বলেছেন, জলবায়ুর পরিবর্তনের প্রভাব, উল্কার আঘাত, মহামারি এবং জনসংখ্যা বৃদ্ধি এ গ্রহটিকে 'ক্রমাগতভাবে বিপজ্জনক'করে তুলেছে।

অস্তিত্ব রক্ষা করতে হলে আমাদের এ পৃথিবী ত্যাগ করা প্রয়োজন। হকিংয়ের ধারণা, আমরা যদি নতুন একটি পৃথিবী খুঁজে পেতে ব্যর্থ হই, তবে মানবজাতির অস্তিত্ব সর্বোচ্চ ১০০ বছর পর্যন্ত টিকবে।

যুগান্তকারী ধারাবাহিক অনুষ্ঠান 'টুমোরোস ওয়ার্ল্ড'তৈরির জন্য হকিং ও তার সাবেক ছাত্র ক্রিস্টোফ গালফার্ড মহাকাশে কিভাবে মানুষ বাঁচতে পারবে তা অনুসন্ধান করতে পুরো বিশ্ব ভ্রমণ করবেন।

ভবিষ্যৎ সম্পর্কিত বিষয়াদি নিয়ে তৈরি টুমোরোস ওয়ার্ল্ড ধারাবাহিকটি ৩৮ বছর ধরে সম্প্রচারিত হওয়ার পর ১৪ বছর আগে বিবিসি বাতিল করে।


Media reports:Humanity's future is in space and it's time to start looking for our future home, according to physicist Stephen Hawking.

Speaking on Friday at The Royal Society in London, Hawking said, "I strongly believe we should start seeking alternative planets for possible habitation."

Earlier this month, Hawking predicted that if the human race is to survive, we will need to leave Earth within the next 100 years.

"We are running out of space on Earth," he said, "and we need to break through the technological limitations preventing us living elsewhere in the universe."

Fortunately for all of us, efforts are already underway to find a new home for humanity. Last year, SpaceX founder Elon Musk unveiled his plan to colonise Mars "in our lifetimes". Musk has set his sights on building rockets large enough to carry 100 passengers to self-sustaining cities in a terraformed Martian landscape.

If you'd rather try further afield, there's the Trappist-1 star system. Astronomers announced in February that at least seven Earth-sized planets have been discovered just 39 light years away. More significantly, three of those planets could potentially support life. Or there's Proxima b, a nearby exoplanet where life "could still be evolving long after our sun has died". Hawking's Breakthrough Starshot initiative already plans to target it for a flyby mission.

Colonising new planets will be the subject of Hawking's keynote speech at next month's Starmus event in Trondheim, Norway. He says that he's not alone in his views and that many of his colleagues will also discuss the subject in what he claims will be "an extraordinary festival."

Starmus is a celebration of science and the arts, founded by astrophysicist Garik Israelian. Next month's event will be the fourth Starmus festival. Speakers will include astronaut Buzz Aldrinprofessor Brian Cox and 11 Nobel laureates. But it's also rooted in the belief that music and the arts can help inspire scientific understanding and discovery. Director Oliver Stone will appear at this year's festival and its advisory board includes musician Peter Gabriel and Brian May, the Queen guitarist and astrophysicist who released his own VR viewer last year.

The Starmus festival aims to bridge the divide between scientists and the public. Neuroscientist and Nobel laureate Edvard Moser said it's important than ever that "science should not be an elitist activity." He criticised President Trump, who has been openly sceptical of the scientific consensus on global warming, pointing out that "a few months ago, we didn't even know what an alternative fact was." But he argued that the answer is to teach people how scientists collect data and how science corrects itself.

Starmus hosts the awards for the Stephen Hawking Medal for Science Communication, which recognises individuals who have helped the public better understand science through writing, music and film. This year's winners will be given a medal designed by Alexei Leonov, the first man to walk in space. They'll also receive an 18-karat gold Omega watch.

Hawking, 75, has previously warned that the threats of climate change, overpopulation, asteroid strikes and genetically engineered viruses will make the next century a particularly dangerous one for our planet. In recent years, he has also discussed the potential dangers of contact with aliensartificial intelligence and other avoidable catastrophes.

The Starmus festival will run from 18-23 June. It will be hosted by NTNU, the Norwegian University of Science and Technology.




जनसंख्या सफाये के लिए इससे बेहतर राजकाज और राजधर्म नहीं हो सकता। सुनहले दिनों के जश्न में बेमतलबके मुद्दों पर बांसों उछलते रहिए। वैश्विक अर्थव्यवस्था और दुनियाभर में नरसंहार संस्कृति की वजह से तब तक शायद समूची गैर जरुरी प्रजातियों के साथ पिछड़ी अश्पृश्य और अश्वेत मनुष्यता के सफाये के साथ पृथ्वी की जनसंख्या कम से कम इतनी तो हो जायेगी कि बचे खुचे लोगों के लिए अंतरिक्ष की उड़ान म�

Next: सरहदों पर,सरहदों के भीतर युद्ध,वतन सेना के हवाले! यह युद्ध किसलिए,किसके लिए और इस युद्ध में मारे जाने वाले लोग कौन हैं? यह सारा युद्धतंत्र समता और न्याय के खिलाफ नस्ली रंगभेद का तिलिस्म है। यूपी जीतने के बाद वहां मध्ययुगीन सामंती अंध युग में जिसतरह दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के खिलाफ युद्ध जारी है,उससे बाकी देश में युद्ध क्षेत्र सरहदों के भीतर कहां कहां बन रहे हैं और बनने वाले
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जनसंख्या सफाये के लिए इससे बेहतर राजकाज और राजधर्म नहीं हो सकता।

सुनहले दिनों के जश्न में बेमतलबके मुद्दों पर बांसों उछलते रहिए।

वैश्विक अर्थव्यवस्था और दुनियाभर में नरसंहार संस्कृति की वजह से तब तक शायद समूची गैर जरुरी प्रजातियों के साथ पिछड़ी अश्पृश्य और अश्वेत मनुष्यता के सफाये के साथ पृथ्वी की जनसंख्या कम से कम इतनी तो हो जायेगी कि बचे खुचे लोगों के लिए अंतरिक्ष की उड़ान में हम समता और न्याय के लक्ष्य को हासिल कर लें।


पलाश विश्वास

प्रायोजित घटनाओं और वारदातों की क्रिया प्रतिक्रिया में कयमाती फिजां की तस्वीरें सिरे से गायब हैं।

सुनहले दिनों के तीन साल पूरे होने के बाद रोजी रोटी का जो अभूतपूर्व संकट खड़ा हो गया है,डिजिटल इंडिया के नागरिकों,बेनागरिकों की नजर उसपर नहीं है।

सारी नजरें सरहद पर है।

दुश्मन को फतह करने का मौका बनाया जा रहा है और अंध राष्ट्रीयता और देशभक्ति की सुनामी ऐसी चला दी गयी है कि सरहदों में कैद वतन की जख्मी लहूलुहान जिस्म पर किसी का ध्यान नहीं है।

पिछले तीन साल में रोजार पिछले दस साल के मुकाबले कम है।

कृषि विकास दर 1.6 प्रतिशत है।

मेहनतकश तबके की रोजमर्रे की जिंदगी में रोजी रोटी का अता पता नहीं है। असंगठित क्षेत्रों में रोजगार खत्म हो रहा है तो संगठित क्षेत्र में छंटनी की बहार है। अकेले आईटी सेक्टर में साढ़े छह लाक युवाओं पर छंटनी की तलवार लटक रही है।

दस फीसद इंजीनियर रोजगार के लायक नहीं है,कारपोरेट दुनिया ने ऐलान कर दिया है।

मेहनकशों के हकहकूक सिरे से खत्म हैं और उत्पादन प्रणाली तहस नहस है।

डिजिटल इंडिया में खुली लूट,धोखाधड़ी,साइबर अपराध की ई-टेलिंग हैं तो खुदरा बाजार में मरघट का सन्नाटा है और किसानों, खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या दर बेहद बढ़ गयी है।

रक्षा,हथियार,आंतरिक सुरक्षा,परमाणु ऊर्जा सेक्टर निजी देशी विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया गया है और उनके मुनाफे के लिए युद्ध गृहयुद्ध अनिवार्य हैं।

मीडिया वही माहौल बना रहा है और आम जनता की तकलीफों की तस्वीर कहीं नहीं है।मीडिया में अब कंप्यूटर के सिवाय मनुष्ट हैं ही नहीं।

आम जनता को अपनी तकलीफों का ख्याल नहीं है और पढ़े लिखे लोग नागरिक और मानवाधिकार को तिलांजलि देकर सैन्य राष्ट्र के युद्धोन्माद की  मजहबी सियासत की भाषा में जुमलेबाजी कर रहे हैं और उसकी प्रतिक्रिया में जवाबी तरक्कीपसंद सियासती तौर पर बराबर जुमलेबाजी की आंधी चल पड़ी है।

रोजी रोटी का सवाल कहीं नहीं है।

न संसद में और न सड़क पर।

शिक्षा चिकित्सा और बुनियादी सेवाओं और जरुरतों पर चर्चा नहीं है।

न संसद में और न सड़क पर।

हमारे मुद्दे बेहद शातिराना ढंग से सत्ता वर्ग तय कर रहा है और हम उन्ही मुद्दों पर उनकी भाषा में तमाम माध्यमों और विधाओं में बोल लिख रहे हैं।

हम बुनियादी ज्वलंत मुद्दे पर न बोल रहे हैं और न लिख रहे हैं।

अपने बोलते और लिखते रहने की आदत पर हमें घिन होने लगी है।

सिर्फ आदत से मजबूर हैं वरना आत्महत्या और नरसंहार के कार्निवाल उपभोक्ता समय में किसी को पढ़ने सुनने की फुरसत कहां है?

यकीनी तौर पर हमारी लहूलिहान चीखेँ आपतक पहुंच नहीं सकती।फिर भी हम खामोश यूं हाथ पर हाथ धरे तमाशबीन बने नहीं रह सकते।क्योंकि मारे जा रहे और मारे जाने वाले तमाम लोग हमारे अपने हैं और खून भी हमारा ही लहू का समुंदर है।

इसी बीच चीन से खबर आयी है कि उनकी असल जनसंख्या 129 करोड़ है और भारत की असल जनसंख्या उससे ज्यादा है।

2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक और आजादी के बाद जन्म मृत्युदर औसत के मुताबिक यह दावा बेबुनियाद नहीं है।

इसी बीच मशहूर वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंग ने चेतावनी दे दी है कि सौ साल में यह दुनिया इंसानों की रिहाइश के लायक नहीं रहेगी।इससे पहले वे एक हजार साल तक पृथ्वी के बने रहने की बात कर रहे थे।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी के बाद अब वे कह रहे हैं कि इस दुनिया के लोगों को किसी और सौर्यमंडल के किसी अजनबी ग्रह में ले जाना होगा और तभी मनुष्यता बच सकेगी।

तेजी से दुनिया के तबाह होने की सबसे बड़ी वजह जनसंख्या विस्फोट बता रहे हैं तो दूसरी वजह ग्लोबल वार्मिंग,प्रदूषण,जल संकट,जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरण समस्याओं को बता रहे हैं।

एक हजार साल की मोहलत को सौ साल की जिंदगी बताने वाले वैज्ञानिक हाकिंग जाहिर है कि कोरी बकवास नहीं कर रहे हैं।

विकसित देश और विकसित देश संसाधनों पर एकाधिकार कायम करके जिस अंधाधुंध तरीके से उनका इस्तेमाल कर रही है, एक पृथ्वी तो क्या दस दस पृथ्वी के विनाश और विध्वंस के लिए वह पर्याप्त है।

जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ रही है,उसी तेजी से संसाधनों पर कारपोरेट पूंजी और सत्ता वर्ग का एकाधिकार बढ़ रहा है।

अधिकांश जनगण रोजी रोटी से मोहताज कर दिये गये हैं।

कामगारों और मेहनतकशों के हक हकूक खत्म हैं तो युवाओं के लिए कोई मौका नहीं है।उनके हाथ पांव काट दिये गये हैं।

खेती और हरियाली खत्म होते जाने से, विकास के नाम अंधाधुंध शहरीकरण और आटोमेशन के कारण रोजगार और आजीविका खत्म है।

नैसर्गिक आजीविका या स्थानीय रोजगार हैं नहीं।

प्रकृति के खिलाफ युद्ध जारी है तो प्रकृति से जुड़े बहुसंख्य कृषिजीवी मनुष्यों की जल जंगल जमीन छीन लिये जाने से खुदकशी और मौत के अलावा उनके लिए तीसरा कोई विकल्प है नहीं।

राजकाज,राजनय और अर्थव्यवस्था ग्लोबल शैतानी दुश्चक्र की रंगभेदी नस्ली व्यवस्था के शिकंजे में है।

कारपोरेट पूंजी के वर्चस्ववादी एकाधिकार का तंत्र में राष्ट्र के सैन्य राष्ट्र के अवतार में उपनिवेश बन जाने से और सामंती जाति वर्ण वर्ग के कब्जे में सारे मौके और सारे संसाधन एकमुश्त हो जाने से बहुसंख्य जनसंख्या के लिए जीने की कोई सूरत ही नहीं है।

अन्याय और असमता की नरसंहार संस्कृति राजकाज,राजनय और वित्तीय प्रबंधन  का चरित्र है।

आजादी के बाद से बुनियादी मुद्दों को दबाने के लिए,आम जनता के दमन उत्पीड़न और सफाये के लिए लगातार युद्ध और युद्धोन्माद का प्रयोग बेहद कामयाबी के सात किया जाता है।

राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रवाद के कारोबार में हथियारों की होड़ और युद्धतंत्र को मजबूत करने के लिए रक्षा सौदे और परमाणु समझौते के तहत लाखों करोड़ का न्यारा वारा होता रहा है,जो कालेधन की गंगोत्री है और देश में मजहबी सियासत की कारपोरेट फंडिंग भी उसी कालेधन से होती है।

लेकिन राष्ट्र और प्रतिरक्षा,आंतरिक सुरक्षा और देशभक्ति के नाम जब हम नागरिक और मानवाधिकार ,कायदे कानून, सभ्यता और मनुष्यता, बुद्धि विवेक विमर्श,बहुलता विविधता और सहिष्णुता तक को बलि चढाकर मजहबी नस्ली सियासत की कठपुतलियां बनकर नाच रहे होते हैं,तब इस तिलिस्म के टूटने के आसार कहीं नहीं है।

पृथ्वी विनाश के कगार पर है।इस पृथ्वी को बचाने के लिए मनुष्यता को बचाना बेहद जरुरी है।

यहीं बात गांधी से लेकर सुंदरलाल बहुगुणा,आइंस्टीन से लेकर तालस्ताय और रवींद्रनाथ लगातार दुनियाभर में कहते रहे हैं।लेकिन खासकर भारत में पर्यावरण चेतना सिरे से गायब है।

प्रकृति से जुड़े जिन समुदायों का संसाधनों पर स्वामित्व था,उन्हें न सिर्फ जल जंगल जमीन और आजीविका से बेधखल कर दिया जाता रहा है बल्कि उनका सफाया ही विकास का मूल मंत्र हैं।

प्राकृतिक संसाधनों से बेदखली और कारपोरेट एकाधिकार की वजह से नैसर्गिक रोजगार सिरे से खत्म हैं।

अपनी मातृभाषा में स्थानीय रोजगार के बदले दक्षता और अजनबी भाषा की अनिवार्यता के साथ रोजगार के शहरों और महानगरों में केंद्रित हो जाने से स्थानीय रोजगार भी कहीं नहीं है।

उत्पादन प्रणाली तहस नहस हो जाने से रोजगार सृजन भी नहीं हो रहा है।

भारत के सात प्रतिसत विकास दरके मुकाबले रोजागर सृजन सिर्फ एक प्रतिशत है।

भारत विभाजन और जनसंख्या स्थानांतरण के बाद जिस पैमाने पर सीमाों के आर पार शरणार्थी सैलाब उमड़ते रहे हैं,उससे ज्यादा प्रकृति और प्रकृति सेजुड़े समुदायों के खिलाफ निरंतर जारी युद्ध और गृहयुद्ध से विकास के नाम बेदखल विस्थापितों और स्थानीय,जिला या सूबे के स्तर पर नौकरियां,आजीविका और रोजगार के मौके खत्म हो जाने से जड़ों से उखड़े लोगों की संख्या बेहद ज्यादा है।

इक्कीसवीं सदा में जिस तेजी से तकनीक का विकास हुआ है,उसी तेजी से शिक्षा,ज्ञान विज्ञान का अवसान भी होता रहा है।उसी तेजी से मातृभाषा, दर्शन, संस्कृति,विचारधारा,संस्कृति और धर्म का अंत भी होता जा रहा है।

धर्म अब सिर्फ अस्मिता है,वर्चस्ववादी अस्मिता,अज्ञान का घऩा अंधेरा।

दर्शन विरोधी,विज्ञान विरोधी,प्रकृतिविरोधी और मनुष्विरोधी नस्ली नरसंहार अब धर्म का सबसे वीभत्स चेहरा है,जो राजकाज है,राजनय है और वि्ततीय प्रबंधन भी है।जो स्त्री विरोधी है।जो इतिहासविरोधी और भविष्विरोधी अतीतमुखी है।

आरण्यक और जनपद संस्कृति से की कोख से जनमे धर्म में ज्ञान की खोज मोक्ष की खोज ऐसी भारतीय परंपरा रही है।

अब अज्ञानता का अंधकार का धर्मोन्माद धर्म है।

मनुष्यता के जिन मूल्यों पर धर्म की बुनियाद खड़ी थी,वह ध्वस्त है।

धर्म भी कारपोरेट पूंजी और सियासत के शिकंजे में प्रकृति के विरुद्ध है।

इस सियासती नस्ली मजहब की वजह से दंगों का सिलसिला अनंत है।

दलितों और स्त्रियों पर अत्याचार का सिलसिला अनंत है।

ग्लोबल कारपोरेट शैतानी दुश्चक्र जब पृथ्वी के सारे देशों और उनके संसाधनों पर एकाधिकार कायम कर चुका है,जब समूची पृथ्वी उसका उपनिवेश है।

तब इस पृथ्वी के इसी गति से प्रकृति और संसाधनों के विनाश के मद्देनजर से सौ साल तक भी बचे रहने के आसार सचमुच नहीं है।

मौसम,जलवायु,पर्यावरण इतने जहरीले हो गये हैं कि इस सच को समझने के लिए किसी वैज्ञानिक आइंस्टीन या स्टीफेन हाकिंग के स्तर के ज्ञान के उत्कर्ष की जरुरत नहीं है,यह मनुष्यता के सामान्य विवेक औरचेतना का मामला है।

तकनीकी विकास की जो गति है,ऐसा कतई असंभव भी नहीं है कि सौ दो सौ साल तक इस खतरनाक मरती हुई पृथ्वी से निकलकर किसी और सौर्यमंडल के किसी और ग्रह में सीरिया,मध्यपूर्व और बांग्लादेश के शरणार्थियों की तरह मनुष्यों के पुनर्वास के हालात बने।

फिलहाल आधी दुनिया शरणार्थी है।

जिनकी रोजी रोटी,शिक्षा चिकित्सा का कहीं कोई व्यवस्था नहीं है।

असमता और अन्याय की विश्वव्यवस्था में उनसे उनकी नागरिकता और उनके देश भी छीने जा रहे हैं।

अब इस पृथ्वी पर शरणार्थियों के लिए कोई शरणस्थल नहीं है।

ऐसे में इस पृथ्वी की समूची जनसंख्या भारत विभाजन के व्कत हुए जनसंख्या स्थानातंरण के असफल प्रयोग की तर्ज पर किस सौर्यमंडल और किस ग्रह में सुरक्षित सकुशल स्थानांतरित किये जायेंगे, आने वाली पीढ़ियों के लिए अब इसी ख्वाब के अलावा कुछ भी नहीं है।

वैश्विक अर्थव्यवस्था और दुनियाभर में नरसंहार संस्कृति की वजह से तब तक शायद समूची गैर जरुरी प्रजातियों के साथ पिछड़ी अश्पृश्य और अश्वेत मनुष्यता के सफाये के साथ पृथ्वी की जनसंख्या कम से कम इतनी तो हो जायेगी कि बचे खुचे लोगों के लिए अंतरिक्ष की उड़ान में हम समता और न्याय के लक्ष्य को हासिल कर लें।

जनसंख्या सफाये के लिए इससे बेहतर राजकाज और राजधर्म नहीं हो सकता। सुनहले दिनों के जश्न में बेमतलबके मुद्दों पर बांसों उछलते रहिए।



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सरहदों पर,सरहदों के भीतर युद्ध,वतन सेना के हवाले! यह युद्ध किसलिए,किसके लिए और इस युद्ध में मारे जाने वाले लोग कौन हैं? यह सारा युद्धतंत्र समता और न्याय के खिलाफ नस्ली रंगभेद का तिलिस्म है। यूपी जीतने के बाद वहां मध्ययुगीन सामंती अंध युग में जिसतरह दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के खिलाफ युद्ध जारी है,उससे बाकी देश में युद्ध क्षेत्र सरहदों के भीतर कहां कहां बन रहे हैं और बनने वाले

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सरहदों पर,सरहदों के भीतर युद्ध,वतन सेना के हवाले!

यह युद्ध किसलिए,किसके लिए और इस युद्ध में मारे जाने वाले लोग कौन हैं?

यह सारा युद्धतंत्र समता और न्याय के खिलाफ नस्ली रंगभेद का तिलिस्म है।

यूपी जीतने के बाद वहां मध्ययुगीन सामंती अंध युग में जिसतरह दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के खिलाफ युद्ध जारी है,उससे बाकी देश में युद्ध क्षेत्र सरहदों के भीतर कहां कहां बन रहे हैं और बनने वाले हैं,कहना मुश्किल है।बंगाल में धार्मिक ध्रूवीकरण से यूपी जैसा हाल है बहरहाल।

सेना को रक्षा मंत्री का खुला लाइसेंसःयुद्ध जैसे क्षैत्र में आप हों तो स्थिति से कैसे निपटें!

युद्ध क्षेत्र के बहाने क्या भारत सरकार अब पूरे वतन को सेना के हवाले करने और आम जनता के कत्लेआम करने की छूट देने जा रही है,राष्ट्रभक्त जनगण इस पर जरुर विचार करें,क्योंकि विमर्श और विचार के एकाधिकार उन्हींके हैं।

पलाश विश्वास

हमारे समय के सशक्त संवेदनशील प्रतिनिधि कवि मंगलेश डबराल ने अपनी दीवाल पर  लिखा हैैः

जैसे हालात बन रहे हैं, वे हमें कभी भी किसी युद्ध की ओर ले जा सकते हैं. यह बेहद गंभीर खतरा पैदा होने जा रहा है जो दोनों तरफ तबाही और त्रासदी लायेगा. इस बारे में हम जितनी जल्दी चेत जाएँ, उतना बेहतर होगा.किसी भी सरकार को अपने देश और उसके नागरिकों पर युद्ध थोपने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए..

मंगलेश दा का यह बयान बेहद गौरतलब है।

इसी के साथ यूपी जीतने के बाद वहां मध्ययुगीन सामंती अंध युग में जिसतरह दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के खिलाफ युद्ध जारी है, उससे बाकी देश में युद्ध क्षेत्र सरहदों के भीतर कहां कहां बन रहे हैं और बनने वाले हैं, कहना मुश्किल है। बंगाल में धार्मिक ध्रूवीकरण से यूपी जैसा हाल है बहरहाल।

गौर करें कि रक्षा मंत्री अरुण जेटली जो संयोग से देश के सर्वोच्च वित्तीय प्रबंधक हैं,ने क्या कहा है।गौरतलब है कि केंद्रीय रक्षा मंत्री अरुण जेटलीने कहा है कि सेना युद्ध जैसे क्षेत्रों में फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है। इसके लिए उन्हें सांसदों से विचार विमर्श की आवश्यकता नहीं है। जेटली ने यह बात कश्मीर में युवक को जीप से बांधने को लेकर जारी विवाद पर बोलते हुए कही।

किसी रक्षा मंत्री को सांसदोंं के खिलाफ ,संसद के खिलाफ यह वक्तव्य शायद लोकतंत्र के इतिहास में बेनजीर है कि रक्षामंत्री जेटली ने कहा कि सैन्य समाधान, सैन्य अधिकारी ही मुहैया करवाते हैं। युद्ध जैसे क्षैत्र में आप हों तो स्थिति से कैसे निपटे, हमें अधिकारियों को निर्णय लेने की अनुपति देनी चाहिए। जेटली आगे बोले कि उन्हें सांसदों से विचार विमर्श की आवश्यकता नहीं है ऐसी स्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए।

माननीय वित्तमंत्री को अच्छी तरह मालूम है कि कमसकम यूपी और बंगाल में भी हालात तेजी से कश्मीर के युद्ध क्षेत्र से बनते जा रहे हैं।

असम,त्रिपुरा और पूर्वोत्रर में वहीं हाल है और आदिवासी भूगोल को तो भारत सरकार और भारतीय संसदीय व्यवस्था युद्धक्षेत्र मानती ही है।

युद्ध क्षेत्र के बहाने क्या भारत सरकार अब पूरे वतन को सेना के हवाले करने और आम जनता के कत्लेआम करने की छूट देने जा रही है,राष्ट्रभक्त जनगण इस पर जरुर विचार करें,क्योंकि विमर्श और विचार के एकाधिकार उन्हींके हैं।

पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के भूगोल से बाहर होने के बावजूद भारत उस युद्ध से लहूलुहान होता रहा है क्योंकि तब भारत ब्रिटिश हुकूमत का एक गुलाम उपनिवेश था और चूंकि ब्रिटेन इस युद्ध में प्रबल पक्ष रहा है तो उसने भारतीय जनता और उसके खंडित नेतृत्व से पूछे बिना भारत को उस युद्ध में शामिल कर लिया। साम्राज्यवादी हित में भारतीय जवानों ने अजनबी जमीन और आसमान के दरम्यान अपने प्राणों की आहुति दे दी.जबकि इस युद्ध में भारतीय हित कहीं भी दांव पर नहीं थे।भारत तब न स्वतंत्र था और न संप्रभु था।पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटिश पक्ष के साथ भारत नत्थी था, लेकिन उसे न भारतीय राष्ट्रीयता, न राष्ट्रवाद, न धर्म, न राजनीति, न समाज और नही देशभक्ति का कोई लेना देना था।

इसके उलट अमेरिका स्वतंत्र संप्रभु महाशक्ति है और दुनियाभर के युद्ध गृहयुद्ध में अमेरिकी हित जुड़े हुए हैं।अमेरिकी सेनाएं,अमेरिकी युद्ध तंत्र जमीन के हर चप्पे पर तैनात है और अंतरिक्ष के अनंत में,समुदंरों की गहराई में भी उसके युद्धतंत्र का विस्तार है।अमेरिका में राष्ट्रपति प्रणाली है और अमेरिकी राष्ट्रपति के आदेश से ही अमेरिका दुनियाभर में कहीं भी युद्ध और गृहयुद्ध की शुरुआत कर सकता है।

लातिन अमेरिका से लेकर वियतनाम,वियतनाम से लेकर ईरान इराक अफगानिस्तान,अरब वसंत और सीरिया तक हम अमेरिका का यह युद्ध न सिर्फ देख रहे हैं,बल्कि हम उस युद्ध में सक्रिय पार्टनर हैं आतंक के विरुद्ध युद्ध के नाम,जिससे हमारी राजनीति,राजनय और अर्थव्यवस्था जुड़ा हुई है।

विश्वव्यापी अमेरिकी युद्ध अब भारतीय उपमहाद्वीप का युद्ध है।

युद्ध और गृहयुद्ध की आंच में हम पल पल झुलस रहे हैं।

हम जख्मी हो रहे हैं और हमारे लोग हर पल मारे जा रहे हैं।

पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हम न आजाद थे और न संप्रभु।

जबकि हम 15 अगस्त सन् 1947 से स्वतंत्र और संप्रभु हैं।तब भी हम युद्ध के फैसले पर कुछ कहने को आजाद नहीं थे और आज भी हम इसके लिए आजाद नहीं है।इसके साथ ही युद्ध अब सत्ता की राजनीति है तो बहुसंख्यक का धर्मोन्माद भी है और युद्ध कारपोरेट हितों का मुक्तबाजार है।युद्ध का विनिवेश भी है और निजीकरण भी।युद्ध के इस राजधर्म के राजसूय यज्ञ के बेलगाम घोड़े ,सांढ़ और बालू जनपदों को रौंदने को आजाद हैं और निरंकुश जनसंहार ही राष्ट्रवाद की नई संस्कृति है,जिसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति स्त्रियों, मेहनतकशों, किसानों, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, शरणार्थियों के खिलाफ हो रही है।

यह सारा युद्धतंत्र समता और न्याय के खिलाफ नस्ली रंगभेद का तिलिस्म है।

फिर भी हम अमेरिका के युद्ध में स्वेच्छा से शामिल हैं, जिस अमेरिकी युद्ध का सबसे प्रबल विरोध अमेरिका में साठ के दशक में कैनेडी समय से लेकर अब तक जारी है।भारत में युद्ध के खिलाफ न कोई आंदोलन है और न कोई विमर्श है।

अमन चैन, भाईचारा,समता ,न्याय,संविधान,नागरिक और मानवाधिकार की बातं करना जहां राष्ट्रद्रोह है, वहां राष्ट्रवादी मजहबी सियासती युद्ध और युद्धोन्माद पर किसी तरह के संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है।

भारतीय सेना के महान सेना नायकों ने 1962 के भारत चीन युद्ध से लेकर 1971 के बांग्लादेश युद्ध पर काफी कुछ लिखा है।

फिरभी समाज में,राजनीति में,लोकतंत्र में,मीडिया और साहित्य में भी हमने आजादी के बाद के युद्धों का सच जानने की कोशिश नहीं की है।हमने इन युद्धों के कारणों की तो रही दूर,उसके खतरनाक नतीजों पर भी कभी गौर नहीं किया है जैसे कि हम गुलाम देश में पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के नतीजे से भुखमरी,मंदी और बेरोजगारी को सीधे जोड़ पा रहे थे।

साठ के दशक में भारत की जनसंख्या परिवार नियोजन के बिना घर घर बच्चों की फौज के बावजूद आज के मुकाबले आधी थी।तब भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी और देश में तमाम काम धंधे कृषि से जुड़े थे। तब ज्यादातर जनता निरक्षर थी। देहात और जनपदों में स्थानीय रोजगार थे। उसी दौर में हरित क्रांति की वजह से खेती की उपज बढ़ जाने की वजह से साठ के दशक की बेरोजगारी और भूख के जबाव में शुरु हुए जनांदोलनों और जनविद्रोहों का जैसे सत्ता वर्ग के हितों और राष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर कोई खास असर नहीं हुआ,उसी तरह भारत चीन युद्ध का भी कोई खास असर नहीं हुआ।

1965 और 1971 की लड़ाइयों के दौरान रक्षा खर्च अंधाधुंध बढ़ जाने,हथियारों की अंधी दौड़ शुरु हो जाने और हरित क्रांति की वजह से आम किसानों की बदहाली से कृषि संकट गहरा जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था में जो भारी उलटफेर हुए,इन दोनों युद्धों को जीत लेने के जोश में उनके नतीजों पर गौर किया ही नहीं गया।सीमापार से शरणार्थी सैलाब का जो अटूट सिलसिला शुरु हुआ,उसका भी राष्ट्रवाद के नाम नाजायज फायदा उठाया जाने लगा।

साठ के दशक के मोहभंग,जनांदोलनों और जनविद्रोहों के बावजूद गहराते हुए कृषि संकट और हरित क्रांति के नतीजों पर गौर नहीं किया गया।जिसके नतीजतन अस्सी के दशक में पंजाब से लेकर असम,त्रिपुरा और समूचे पूर्वोत्तर में अशांत युद्ध क्षेत्र बन गये।

इसी दौरान औद्योगीिकरण और शहरीकरण के बहाने प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के तहत जल जंगल जमीन से बेदखली के कारपोरेट हितों के वजह से समूचा आदिवासी भूगोल शत्रुदेश में तब्दील हो गया और तबसे लेकर आदिवासी भूगोल के खिलाफ कारपोरेट सैन्य राष्ट्र का युद्ध सरहदों के भीतर जारी है और हम अपने राष्ट्रवाद की वजह से इस युद्ध की नरसंहार संस्कृति के समर्थक बन गये हैं तो युद्ध और गृहयुद्ध के मद्देनजर हर साल अरबों का वारा न्यारा सैनिक तैयारियों,रक्षा सौदों और आंतरिक सुरक्षा के लिए देस के चप्पे पर सैन्य तैनात करने की कवायद में होने लगा है।

इन युद्धों के कारपोरेट और राजनीतिक हितों पर हमने अब भी कोई सवाल ऩहीं उठाये हैं।हमने रक्षा और आंतरिक सुरक्षा क्षेत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाप विनिवेश जैसे राष्ट्रविरोधी करतब पर भी कोई सवाल नहीं किये।क्योंकि ऐसा कोई सवाल उठाते ही राष्ट्रभक्तों के युद्धोन्माद हमरा समूचे वजूद को किसी शत्रुदेश की तरह तहस नहस कर देगा।

जाहिर है कि हम लोग बेहद डरे हुए हैं और हमारी वीरता,निडरता की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हमारी अंध राष्ट्रभक्ति है,जिसकी आड़ में अपनी स्वतंत्रता संप्रभुता का सौदा करके हम अपनी महीन खाल बचा लेते हैं।

हथियारों की होड़ और युद्ध गृहयुद्ध के कारोबारी और राजनीतिक हितों से लेकर रक्षा सौदों में निरंतर हुए घोटालों की हमने कोई पड़ताल नहीं की है क्योंकि हम उतने भी आजाद और संप्रभु कभी नहीं रहे हैं कि अमेरिका की तरह सत्ता और राष्ट्र की भूमिका को राष्ट्रहित और जनहित की कसौटी पर कसने की हिम्मत कर सकें या अमन चैन के लिए युद्ध और युद्धोन्माद का विरोध कर सकें।

1948 के कश्मीर युद्ध से लेकर कारगिल युद्ध तक सारे युद्दों का हम सिर्फ महिमामंडन करने को अभ्यस्त हैं क्योंकि  उनका सच जानने का हमें कोई नागरिक अधिकार नहीं है।

यह पवित्र देशभक्ति और अंध राष्ट्रवाद का मामला है।

फिर अब राष्ट्र ही सब एक मुकम्मल सैन्यतंत्र में तब्दील है और नागरिक और मानवाधिकार को हम तिलांजलि दे चुके हैं और हम बतौर वजूद किसी रोबोट की तरह सिर्फ एक नंबर हैं और सरकार कहती है कि हमारे अपने शरीर पर हमारा कोई हक नहीं है,हमारी निजता और गोपनीयता पर राष्ट्र का हक है तो जाहिर सी बात हैं कि हमारे दिलोदिमाग पर भी हमारा न कोई हक है और न उनपर हमारा कोई बस है।

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