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महत्वपूर्ण खबरें और आलेख निरंकुश जनसंहार ही राष्ट्रवाद की नई संस्कृति, वतन सेना के हवाले! UP-बंगाल में भी हालात तेजी से कश्मीर जैसे बन रहे

Previous: सरहदों पर,सरहदों के भीतर युद्ध,वतन सेना के हवाले! यह युद्ध किसलिए,किसके लिए और इस युद्ध में मारे जाने वाले लोग कौन हैं? यह सारा युद्धतंत्र समता और न्याय के खिलाफ नस्ली रंगभेद का तिलिस्म है। यूपी जीतने के बाद वहां मध्ययुगीन सामंती अंध युग में जिसतरह दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के खिलाफ युद्ध जारी है,उससे बाकी देश में युद्ध क्षेत्र सरहदों के भीतर कहां कहां बन रहे हैं और बनने वाले
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समाचार > देश
संघ मुक्त भारत बनाने के नीतीश कुमार के नारे का फर्जीवाड़ा सामने आ गया है
संघ मुक्त भारत बनाने के नीतीश कुमार के नारे का फर्जीवाड़ा सामने आ गया है

नितीश सरकार भी संघ के एजेंडे पर काम कर साम्प्रदायिक हिंसा के दोषियों को बचा रही है और न्याय की आवाज बुलंद करने वालों का दमन कर रही है।

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-25 23:01:14
गौगुण्डों के समर्थन में नीतीश की पुलिस नीतीश और योगी-मोदी में कोई फर्क नहीं- रिहाई मंच
गौगुण्डों के समर्थन में नीतीश की पुलिस, नीतीश और योगी-मोदी में कोई फर्क नहीं- रिहाई मंच

गौगुण्डों और सहारनपुर दलित हिंसा पर आंदोलन की रणनीति बना रहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर माओवादी बता कर नीतीश की पुलिस ने की छापेमारी

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-25 22:39:57
बुलंदशहर राजमार्ग पर हत्या लूट और सामूहिक दुष्कर्म भाजपा सरकार पर काला धब्बा  रामगोविंद चौधरी
अच्छे दिन के तीन साल  उपलब्धियां गिनवाने की हिम्मत नहीं जुटा सके प्रभु
अच्छे दिन के तीन साल : उपलब्धियां गिनवाने की हिम्मत नहीं जुटा सके प्रभु?

रेलवे बोर्ड के चेयरमैन, सदस्य व रेल मंत्री सुरेश प्रभाकर प्रभु से लेकर उनके दो सहयोगी मंत्री भी रेलवे की तीन वर्ष की उपलब्धियां गिनवाने नहीं आए।

देशबन्धु
2017-05-25 22:13:16
जिओ को टक्कर देगा वोडाफोन का ये प्लान
जिओ को टक्कर देगा वोडाफोन का ये प्लान

वोडाफोन सुपरडे के साथ उपभोक्ता 19 रुपये में एक दिन के लिए वोडाफोन नेटवर्क पर अनलिमिटेड लोकल और एसटीडी कॉल्स कर सकते हैं, साथ ही उन्हें 100 एमबी ड...

एजेंसी
2017-05-25 21:39:46
बहनजी बोलीं- भीम आर्मी भाजपा के संरक्षण में पलने वाला संगठन
बहनजी बोलीं- 'भीम आर्मी' भाजपा के संरक्षण में पलने वाला संगठन

मायावती ने कहा कि भीम आर्मी का बसपा से कोई लेना देना नहीं है। योगी सरकार इस सेना को बसपा से जोड़कर सहारनपुर की जातिवादी घटनाओं को लेकर अपनी विफलत...

एजेंसी
2017-05-25 20:14:16
यूपी में आया जंगलराज  यमुना एक्सप्रेस-वे पर चार महिलाओं से बलात्कार एक की हत्या
यूपी में आया जंगलराज : यमुना एक्सप्रेस-वे पर चार महिलाओं से बलात्कार, एक की हत्या

उत्तर प्रदेश में सत्ता बदलने के बाद से अपराधियों के हौसले बुलन्द हैं। प्रदेश में ना तो कानून राज नजर आ रहा है औऱ ना ही अपराध मुक्त प्रदेश। उत्तर ...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-25 16:32:22
मोदी सरकार ने पटरी व्यवसाय को डाला संकट में
मोदी सरकार ने पटरी व्यवसाय को डाला संकट में

नोटबंदी के कारण छोटा मझोला कुटीर उद्योग बर्बाद हो गया इसमें लगे लोगों के सामने आज आजीविका का संकट पैदा हो गया है और इस बहाने शुरू की गया कैशलैस इ...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-25 13:20:51
लोकतंत्र में हमारा हिस्सा कहां है
लोकतंत्र में हमारा हिस्सा कहां है?

लोकतंत्र में किसी गांव को लोकतंत्र के अधिकार से दूर रखना अन्याय है। सदियों से यहां के लोग गुलामी की जिंदगी गुज़ारने को मजबूर हैं लेकिन सरकार को इ...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-25 12:03:37
गौ आतंकियों के हमले में जिस पहलू खान की मौत हुई वह एक मुसलमान की मौत थी या एक किसान की
गौ आतंकियों के हमले में जिस पहलू खान की मौत हुई, वह एक मुसलमान की मौत थी या एक किसान की ?

आत्महत्या कर रहे किसान के लिए पशुपालन बड़ा सहारा था, उसे भी सरकार छीन रही है, एक तरफ गौ-रक्षा के नाम पर तमाम कानून बनाए जा रहे हैं, दूसरी तरफ गौ-...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-25 11:48:39
ब्राह्मणवादी-सामंती-सांप्रदायिक हमले व दमन के खिलाफ दो दर्जन संगठन एक मंच पर



हस्तक्षेप > आपकी नज़र
सांताक्रूज़ में क्रास का अपवित्रीकरणः तथ्यान्वेषण रपट
निरंकुश जनसंहार ही राष्ट्रवाद की नई संस्कृति वतन सेना के हवाले up-बंगाल में भी हालात तेजी से कश्मीर जैसे बन रहे
निरंकुश जनसंहार ही राष्ट्रवाद की नई संस्कृति, वतन सेना के हवाले! UP-बंगाल में भी हालात तेजी से कश्मीर जैसे बन रहे

UP जीतने के बाद वहां मध्ययुगीन सामंती अंध युग में जिस तरह दलितों,  अल्पसंख्यकों,  स्त्रियों के खिलाफ युद्ध जारी है, उससे बाकी देश में युद्ध क्षेत...

पलाश विश्वास
2017-05-25 16:55:01
बहनजी का सहारनपुर दौरा  मिश्राजी का वैचारिक प्रभाववर्चस्व
बहनजी का सहारनपुर दौरा : मिश्राजी का वैचारिक प्रभाव/वर्चस्व

मायावतीजी बहुजन की जमीन पर टिकी रहतीं तो देश की सबसे बड़ी नेता के रूप में उभरने की हर सलाहियत रखती थीं। अभी भी एक वैचारिक रूप से आक्रामक दलित नेतृ...

अतिथि लेखक
2017-05-25 13:31:43
जातिगत अत्याचारों से बचने के लिए दलित अपना रहे हैं बौद्ध धर्म और इस्लाम
जातिगत अत्याचारों से बचने के लिए दलित अपना रहे हैं बौद्ध धर्म और इस्लाम

दलितों का कहना है कि आदित्यनाथ की सरकार, केवल ठाकुरों की सरकार है। दलितो ने यह धमकी दी है कि अगर आदित्यनाथ, भगवा ब्रिगेड द्वारा दलितों पर किए जा ...

राम पुनियानी
2017-05-25 12:18:02
जुमलेबाजी के तीन साल  जश्न के शोर में कहीं सच फिर से दब न जाए
जुमलेबाजी के तीन साल : जश्न के शोर में कहीं सच फिर से दब न जाए?

नमामि-गंगे, स्वच्छ-भारत, मेक इन इंडिया,जन धन योजना से लेकर 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' जैसी योजनाएँ भी धरातल से गायब हो गईं हैं। इसके अतिरिक्त काला धन...

अतिथि लेखक
2017-05-24 13:15:00
बाहुबली का
बाहुबली का "दक्षिण दोष" : बाहुबली ने हिन्दुत्व के तथाकथित वैभवशाली अतीत पर फिल्म की राह खोल दी

हिंदुत्ववादियों ने बाहुबली सीरीज का जोरदार स्वागत किया है यह फिल्म क्षत्रिय गौरव का रौब दिखाती है और कटप्पा के सामंती वफ़ादारी को एक आदर्श के तौर ...

हस्तक्षेप डेस्क
2017-05-23 17:04:13
आखिर ये बुद्धिजीवी जनमत को पोलराइज़ क्‍यों नहीं करते
आखिर ये 'बुद्धिजीवी' जनमत को पोलराइज़ क्‍यों नहीं करते ?

हमारे यहां ही बुद्धिजीवी इतना पोलराइजि़ंग यानी बांटने वाला जीव होता है या कहीं और भी? 'बुद्धिजीवी' शब्‍द इतना घृणित क्‍यों बना दिया गया है? इसे ...

अभिषेक श्रीवास्तव
2017-05-23 11:29:51
भीम आर्मी का शानदार प्रोटेस्‍ट इस सरकार ब्राह्मणवाद या हिंदुत्‍व के लिए ही नहीं बल्कि यथास्थिति के लिए भी ख़तरा है
भीम आर्मी का शानदार प्रोटेस्‍ट इस सरकार, ब्राह्मणवाद या हिंदुत्‍व के लिए ही नहीं, बल्कि यथास्थिति के लिए भी ख़तरा है

जंतर-मंतर की अराजक और भयंकर असर्टिव भीड़ एक उम्‍मीद के साथ मेरे मन में डर भी पैदा करती है। भीम आर्मी का शानदार प्रोटेस्‍ट इस सरकार, ब्राह्मणवाद ...

अभिषेक श्रीवास्तव
2017-05-23 00:32:38
अच्छाजी बिलकिस बानो केस में पीड़िता के अमिकस क्यूरी हरीश साल्वे राष्ट्रवादियों के हैं
अच्छाजी! बिलकिस बानो केस में पीड़िता के अमिकस क्यूरी हरीश साल्वे राष्ट्रवादियों के हैं !

विपक्ष नवाज़ शरीफ से पूछ रहा है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी से कोई सीक्रेट डील हुई है? ऐसे बयानों का क्या अर्थ निकालें कि नवाज शरीफ ने जानबूझ कर यह...

अतिथि लेखक
2017-05-22 20:19:33
विचारधारा को कुएं में कैद मत करिए वरना यह समाज मौत का कुआं बन जाएगा।
विचारधारा को कुएं में कैद मत करिए वरना यह समाज मौत का कुआं बन जाएगा।

मतभेद को ज़ाहिर करने के पचास तरीके हैं। हर व्यक्ति का तरीका अलग-अलग हो सकता है, इसे समझिये। विचारधारा को कुएं में कैद मत करिए वरना यह समाज मौत का ...

अभिषेक श्रीवास्तव
2017-05-22 00:18:02
राजीव गांधी के हत्यारे  लिट्टे vp चंद्रशेखर और गोयनका और उनके दोनों अखबार ही नहीं बल्कि एक पूरा जमावड़ा था
राजीव गांधी के हत्यारे : लिट्टे VP, चंद्रशेखर और गोयनका और उनके दोनों अखबार ही नहीं बल्कि एक पूरा जमावड़ा था

1991 में राजीव गांधी की मौत के बाद चंडीगढ़ आये प्रभाष जोशी ने खुलेआम कहा था कि अब राजीव गांधी नहीं रहे, हम अपने अखबार का सुर नर्म करेंगे...

राजीव मित्तल
2017-05-21 12:46:11
अच्छे दिन के 3साल  मोदी सरकार पर नज़र रखने अब तक असफल रही कांग्रेस
अच्छे दिन के 3साल : मोदी सरकार पर नज़र रखने अब तक असफल रही कांग्रेस

कांग्रेस का ड्राइंग रूम की पार्टी बन जाना इस देश की भावी राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

शेष नारायण सिंह
2017-05-21 11:58:31
गुंडई बाजार और दहशत का मिश्रण बना भगवा गमछा
गुंडई, बाजार और दहशत का मिश्रण बना भगवा गमछा

बहुत हद तक आप कह सकते हैं कि इस साल की गरमी भाजपा के नाम है। आखिर मौसम से लड़ने के तरीके में आए इस बदलाव का क्या मतलब है, क्या किसी दूसरे रंग ...

शाहनवाज आलम
2017-05-21 11:25:35
भगाना  भारत में लोकतंत्र केवल दबंगई का है और इस वक्त लम्पट उसका ज्यादा लाभ उठा रहे हैं
भगाना : भारत में लोकतंत्र केवल दबंगई का है और इस वक्त लम्पट उसका ज्यादा लाभ उठा रहे हैं

भगाना का मामला भारत की राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलता है। ये दिखाता है कि भारत में लोकतंत्र केवल दबंगई का है और इस वक्त लम्पट उसका ज्य...

Vidya Bhushan Rawat
2017-05-21 11:04:48
बाद में मोमबतियां जलाने से बेहतर है जीते जी प्रोफेसर वाघमारे के साथ संघर्ष में शामिल हो जायें
बाद में मोमबतियां जलाने से बेहतर है जीते जी प्रोफेसर वाघमारे के साथ संघर्ष में शामिल हो जायें

दलित प्रोफेसर वाघमारे के जातीय उत्पीड़न की अंतहीन दास्तान

अतिथि लेखक
2017-05-20 00:09:50
अच्छे दिनों के तीन साल का जश्न  सच छुपाने के लिए शोर
अच्छे दिनों के तीन साल का जश्न : सच छुपाने के लिए शोर

चूंकि मोदी सरकार चौतरफा संकट बढ़ाने वाले विकास के नवउदारवादी रास्ते पर ही और तेजी से बढऩे जा रही है, हिंदुत्ववाद के रास्ते से जनता के असंतोष को द...

राजेंद्र शर्मा
2017-05-19 15:37:16
आरएसएस की गर्भविज्ञान संस्कार परियोजना  भयावह अमानवीय नस्लीय परियोजना
ये अच्छे दिन आपको मुबारक हम अपने बच्चों के कटे हुए हाथों और पांवों का हम क्या करेंगे
ये अच्छे दिन आपको मुबारक हम अपने बच्चों के कटे हुए हाथों और पांवों का हम क्या करेंगे?

रोजगार सृजन हो नहीं रहा है डिजिटल इंडिया की मुक्तबाजार व्यवस्था में रोजगार और आजीविका दोनों खत्म हो रहे हैं। आज भी युवा रोजगार की तलाश में यहां ...

पलाश विश्वास

2017-05-19 10:21:08

Opinion > Debate
dalitism  proletarian revolution  how present dalit movement is different from aap
Dalitism & Proletarian Revolution : How present Dalit movement is different from AAP

Present Dalit movement is different than that of AAP, yet there is some similarities between the two. Both uphold capitalism and the pillars of b...

Gp Capt KK Singh
2017-05-26 00:13:41
kazi nazrul islam voice of united bengal
Kazi Nazrul Islam Voice of United Bengal

In Bengal, before Independence, Kazi Nazrul was the peoples' poet , irrespective of caste, creed or class. Nazrul epitomised what may be termed a...

Aurobindo Ghose
2017-05-24 12:57:03
what has the left front government in bengal done to dalits
what has the left front government in Bengal done to Dalits

what has the left front government in Bengal done to Dalits and how does Bengal's Bhadralok manipulate the entire political discourse to deny Dal...

Vidya Bhushan Rawat
2017-05-21 11:45:57
achchhe din  jobs are going away


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रोजगार नहीं मिलेगा,स्वरोजगार का बंदोबस्त है! लाखों स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे हैं।जो देश के अलग अलग युद्धक्षेत्र में मरने और मारने के लिए तैनात किये जा रहे हैं।यही स्वरोजगार है शायद। अन्यत्र सभी सेक्टर में तो छंटनी और कत्लेआम का माहौल है। पलाश विश्वास

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रोजगार नहीं मिलेगा,स्वरोजगार का बंदोबस्त है!

लाखों स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे हैं।जो देश के अलग अलग युद्धक्षेत्र में मरने और मारने के लिए तैनात किये जा रहे हैं।यही स्वरोजगार है शायद।

अन्यत्र सभी सेक्टर में तो छंटनी और कत्लेआम का माहौल है।

पलाश विश्वास

मोदी उत्सव के शुभारंभ पर गोहत्या निषेध लागू करने करने के लिए देशभर में मांसाहार प्रतिबंधित कर दिया गया है।गायों के साथ खेती के लिए पालतू जानवरों कीक बिक्री भी  प्रतिबंधित कर दी गयी है।तो दूसरी ओर युद्धोन्माद का माहौल घना बनाने के लिए अरुणाचल को असम से जोड़ने वाले सबसे लंबे पुल के उद्घाटन को चीन से निबटने की सैनिक तैयारी बतौर पेस किया जा रहा है।

अरुणाचल को लेकर भारत चीन विवाद पुराना है और सड़क संपर्क से अरुणाचल को बाकी भारत से जोड़ने की इस उपलब्धि को चीन के सात युद्ध बतौर प्रचारित करने की राजनाय और राजनीति दोनों समझ से बाहर है।

1962 के भारत चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में संसद में नेहरु क बयान को काफी लोग जिम्मेदार मानते हैं।इस सरकारी पार्टीबद्ध राष्ट्रवादी प्रचार से क्या चीन को युद्ध का खुला न्यौता दिया जा रहा है या नहीं,हमारी समझ से बाहर है।यह भी समझ से बाहर है कि संवेदनशील सीमा क्षेत्र में सैन्य तैयारियों का खुलासा करके मीडिया किस तरह का देशप्रेम दिखा रहा है।

सामान्यज्ञान तो यह बताता है कि सुरक्षा संबंधी तैयारियों के बारे में सख्ती के साथ गोपनीयता बरतनी चाहिए।देश की सुरक्षा तैयारियों के राजनीतिक इस्तेमाल को क्या कहा जा सकता है,भक्तमंडली तय कर लें।

मोदी उत्सव की शुरुआत में हालांकि संघ के सिपाहसालार ने ईमानदारी बरतते हुए साफ कर दिया है कि सबको नौकरी देना उनकी सरकार का काम नहीं है।बल्कि राजकाज स्वरोजगार पर है।शाह ने कहा, ''हमने रोजगारको नये आयाम देने की कोशिश की, क्योंकि 125 करोड़ लोगों के देश में हर किसी को रोजगारमुहैया कराना संभव नहीं है। हम स्वरोजगारको बढ़ावा दे रहे हैं और सरकार ने आठ करोड़ लोगाें को स्वरोजगारी बनाया है।

इस स्वरोजगार का मसला क्या है,उनने खुलासा नहीं किया है।

किस सेक्टर में स्वरोजगार मिलना है ,इसकी कोई दिशा कम से कम हम जैसे कम समझ वाले लोगों की समझ के बाहर है।

संघ परिवार के स्वदेशी जागरण मंच को भी यह मामला शायद समझ में नहीं आ रहा है।सबसे ज्यादा चिल्ल पों स्वदेशी जागरण मंच के स्वयंसेवक मचा रहे हैं।हालाकि उन्हें अभी किसी ने राष्ट्रद्रोह का तमगा दिया नहीं है।

खेती में तो किसान और खेतिहर मजदूर खुदकशी कर रहे हैं और खुदरा कारोबार समेत तमाम काम धंधे पर कारपोरेट एकाधिकार है।

युद्ध जैसी परिस्थिति से निपटने के लिए देश सेना के हवाले हैं और संसद और सांसदों को उनसे सवाल पूछने का हक भी छीन लिया गया है।

यूपी में ऐसी ही युद्ध परिस्थिति में कत्ल और बलात्कार के खून के धब्बे मिटाने के लिए अलग प्रचार अभियान चल रहा है और बाकी सचार कंपनियों पर निषेधाज्ञा जारी करके एक चहेती कंपनी के मोबाइल से दंगा भड़काने का पवित्र धर्म कर्म जारी है।रक्षा उत्पादन में भी उसी कंपनी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है तो तीन साल के राजकाज के हिंदुत्व की आड़ में एक योगी का कारपोेरेट साम्राज्य ग्लोबल हो गया है।

अफसोस है कि यूपी वालों को देश बचा लेने की अपील हमने की थी।

कोलकाता में बैठकर यूपी की जमीनी हालत न जानने की वजह से हम यह गलती कर बैठे।

नोटबंदी के बाद वह चुनाव कब्रिस्तान और श्मशानघाट के मुद्दे पर लड़ा गया है और योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के  चंद दिनों में ही यूपी देश का सबसे बड़ा श्मशान और सबसे बड़ा कब्रिस्तान बी साबित होने लगा है।

जिस हिंदुत्व की सुनामी के दम पर यूपी फतह कर लिया गया,वह हिंदुत्व अब जातियों के महाभारत में तब्दील है और यूपी में जाति युद्ध के हालात कश्मीर के संगीन हालात से कम नहीं है।

जातियों में बंटकर हिंदी आपस में मारकाट करके खुद अपना सफाया कर रहे हैं,हिंदुत्व के एजंडे का यह करतब या करिश्मा भी खूब है।वोट से पहले समरसता और वोट के बाद महाभारत और हस्तिनापुर का साम्राज्यऔर राजकाज ही यूपी की संस्कृति है तो बाकी देश की भी संस्कृति वहीं है।

आत्मध्वंस का राजमार्ग शायद यमुना एक्सप्रेस वे का नया नाम है या फिर गंगा सफाी का मतलब गंगा यमुना के मैदानों में बसी आबादी का सफाया है।

धार्मिक ध्रूवीकरण के तहत हिंदुत्व के नाम पर बंगाल में जो हो रहा है,उसके दृश्य भी सार्वजनिक हैं और बंगाल में भी हाल यूपी जैसे ही हैं।

स्वरोजगार से गोरक्षा का कोई संबंध है या नहीं ,कहा नहीं जा सकता।देश जीतने के लिए भी स्वरोजगार का नया क्षेत्र खुल गया है।

लाखों स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे हैं।जो देश के अलग अलग युद्धक्षेत्र में मरने और मारने के लिए तैनात किये जा रहे हैं।यही स्वरोजगार है शायद।

अन्यत्र सभी सेक्टर में तो छंटनी और कत्लेआम का माहौल है।

नोटबंदी से मुलायम और मायावती के खजाना बेकार करने की रणनीति से यूपी फतह जरुर कर ली गयी,लेकिन उससे कालाधन कितना निकला ,इसका कोई हिसाब नहीं मिला है।

बहरहाल नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र में देशभर में नकदी संकट की वजह से लाखों लोग बेरोजगार हो गये और नोटबंदी की मार से उत्पादन इकाइयों और कारोबार जगत को उबरने का मौका अभी नहीं मिला है तो काम खोने वाले लोगों को नौकरी दोबारा मिलने की कोई संभावना नहीं दिखती है।खेती भी चौपट है और किसानों के लिए खुदकशी जिंदगी का दूसरा नाम है।

यह बेरोजगारी,मंदी,भूख,अकाल,भुखमरी,प्राकृतिक आपदाओं और महामारी का डिजिटल इंडिया है।ज्ञान के बदले मोक्ष का रास्ता अब तकनीक है।आगे स्वर्ग है।

संगठित क्षेत्र में अब तक सिर्फ आईटी सेक्टर में कम से कम पचास हजार युवाओं की छंटनी हो चकी है और अगले तीन साल में साढ़े छह लाख युवाओं के हात पांव दक्षता और तकनीक के नाम पर काट लिए जाने की तैयारी है।

अकेली कंपनियों में सिर्प एल एंड टी में 14 हजार लोगों की छंटनी हो गयी है।

एचडीएफसी बैंक में 10 हजार लोग निकाले गये हैं।

बाकी बैंकों में कितने लोग निकाले गये हैं,मार्केटिंग और मीडिया में भी व्यापक छंटनी के तहत कुल कितने लोग निकाले गये हैं और आगे निकाले जायेंगे,यह अंदाजा लगाकर हिसाब जोड़ने का मामला है क्योंकि इस सिलसिले में कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है।

विदेशी विनिवेश सर्वोच्च स्तर पर है और 2024 तक सेनसेक्स के पूंजी बाजाक केसूचंकांक के एक लाख तक पहुंचने की उम्मीद बतायी जा रही है।

मुनाफा के लिए सात प्रतिशत जीडीपी के मुकाबले एर प्रतिशत रोजगार सृजन का समीकरण हमारे पास है और सभी सेवाओं,सभी सेक्टरों,सभी सराकारी संस्थाओं और उपक्रमों में विनिवेश और निजीकरण के बाद कितना रोजगार बचा रहेगा,इसका हिसाब पढ़े लिखे लोग खुद लगा लें तो बेहतर है।

जाहिर है कि बलि से पहले जैसे बलिप्रदत्त को नशा कराया जाता है, उसीतरह जनसंख्या सफाये के लिए युद्धोन्माद और मजहबी जाति अस्मिता दंगों का यह माहौल तैयार किया जा रहा है ताकि संसादनों,मौकों,समता और न्याय से इस देश की बहुसंख्य आपस में मारकाट करती जनता का सफाया कर दिया जाये।

हमने पहले ही लिखा है कि हमें मानवाधिकार के बारे में चर्चा नहीं करनी चाहिए। धर्मांध देशभक्तों को नागरिक और मनावाधिकार की चर्चा से बहुत तकलीप होती है। हम तो गायों के बराबर हक हकूक मांग रहे हैं।

जितना चाकचौंद इतंजाम गायों को बचाने के लिए हो रहा है,इंसानों और इंसानियत को बचाने किए वैसे ही इंतजाम किये जायें तो बेहतर है।

लेकिन संघ के अश्वमेध अभियान के सिपाहसालार ने साफ साफ कह दिया है कि रोजगार नहीं मिलेगा,स्वरोजगार का बंदोबस्त है।

जाहिर है कि स्वरोजगार संघ परिवार की सेवा से ही संभव है

गौरतलब है कि गाय,बैल के अलावा भैंस से लेकर ऊंट तक खेती के काम में लाये जाते हैं।दूध का मामला साफ नहीं है वरना बकरियां भी नहीं बिकेंगी।बहरहाल मंगलवार को जारी केंद्र सरकार के नोटिफिकेशन में कहा गया है, "ऐसा उपक्रम कीजिए कि जानवर सिर्फ खेती के कामों के लिए लाए जाएं, न कि मारने के लिए।"इसके तहत कई कागजातों का प्रावधान किया है। नए नियम के मुताबिक सौदे से पहले क्रेता और विक्रेता, दोनों को ही अपनी पहचान और मालिकाना हक के दस्‍तावेज सामने रखने होंगे। गायखरीदने के बाद व्‍यापारी को रसीद कीपांच कॉपी बनवाकर उन्‍हें स्‍थानीय राजस्‍व कार्यालय, क्रेता के जिले के एक स्‍थानीय पशु चिकित्‍सक, पशु बाजार कमेटी को देनी होगी। एक-एक कॉपी क्रेता और विक्रेता अपने पास रखेंगे। बता दें कि अधिकतर राज्‍यों में साप्‍ताहिक पशु बाजार लगते हैं।

बहरहाल मीडिया के मुताबिक 26 मई 2017 को देश के तकरीबन 400 अखबारों में पहले पेज विज्ञापन दिया गया है, जो मोदी सरकार के तीन साल की उपलब्धियों से अटा है.

केंद्र सरकार का हर मंत्रालय अपनी बेमिसाल उपलब्धियों के बखान के लिए एक पुस्तिका भी जारी करेगा, जिसमें मोदी काल को यूपीए काल से बेहतर ठहराने की हर संभव कवायद होगी.

टीवी पर रेडियो पर विज्ञापनों की भरमार होगी. इस जश्न को 'मोदी फेस्ट' का नाम दिया गया है जो देश के तकरीबन हर छोटे-बड़े शहर में मनाया जाएगा.

इस फेस्ट की शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी 26 मई को असम से करेंगे. 20 दिन चलने वाले इस फेस्ट में मोदी सरकार के तमाम मंत्री, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और उनके मंत्री, पार्टी के छोटे-बड़े पदाधिकारी ब्रांड मोदी को अजर-अमर बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

पर कम होते रोजगार अवसरों और छटनी की खबरों से इस फेस्ट पर ग्रहण सा लग गया है. प्रधानमंत्री मोदी सालाना एक करोड़ रोजगार देने के वायदे को पूरा करने में अब तक पूरी तरह नाकाम रहे हैं.

देश में रोजगार की दशा और दिशा पर केंद्र सरकार के श्रम मंत्रालय का श्रम ब्यूरो हर तिमाही में सर्वे कर आंकड़े जारी करता है. पिछली कई तिमाहियों में यह आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश में रोजगार सृजन लगातार कम हो रहा है.

श्रम ब्यूरो के ताजा सर्वे के अनुसार वर्ष 2015 और 2016 में 1.55 और 2.13 लाख नए रोजगार सृजित हुए जो पिछले आठ का सबसे निचला स्तर है.

मनमोहन सिंह काल के आखिरी सबसे खराब दो सालों यानी 2012 और 2013 में कुल 7.41 लाख नए रोजगार सृजित हुए पर मोदी राज के दो सालों 2015 और 16 में कुल 3.86 लाख रोजगार सृजित हुए हैं. यानी 2.55 लाख रोजगार कम.

यूपीए-2 के शुरू के दो साल यानी 2009 और 2010 में 10.06 और 8.65 लाख नए रोजगार सृजित हुए थे. यदि इसकी तुलना 2015 और 2016 से की जाए तो मोदी राज के इन दो सालों में तकरीबन 74 फीसदी रोजगार के अवसर कम हो गए हैं.

श्रम मंत्रालय का श्रम ब्यूरो ने यह तिमाही सर्वे 2008-09 के वैश्विक संकट के बाद रोजगार पर पड़े प्रभाव के आकलन के लिए 2009 से शुरू किया था.

मोदी सरकार ने इस सर्वे में कई बदलाव किए हैं और सर्वे में शामिल प्रतिष्ठानों की संख्या 10 हजार कर दी है जो पहले तकरीबन दो हजार थे. इस सर्वे में देश के समस्त राज्यों को  शामिल किया गया जो पहले 11 राज्यों तक सीमित था.

पहले इस श्रम सर्वे में यानी 2015 तक आठ सेक्टर शामिल थे-कपड़ा, चमड़ा, ऑटोबोइल्स, रत्न और आभूषण, ट्रांसपोर्ट, आईटी/बीपीओ, हैंडलूम,पॉवरलूम.

2016 में कुछ और सर्विस सेक्टर शामिल किए गये. अब इसमें यह आठ सेक्टर हैं- मैन्यूफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन, व्यापार, ट्रांसपोर्ट, होटल और रेस्त्रां, आईटी/बीपीओ, शिक्षा और स्वास्थ्य. यूपीए काल में कंस्ट्रक्शन में रिकॉर्ड रोजगार के अवसर पैदा हुए थे, पर तब यह सेक्टर श्रम सर्वे में शामिल नहीं था.

बिजनेस स्टैंडर्ड में श्यामल मजुमदार का यह विश्लेषण जरुर पढ़ लेंः

ऑटोमेशन की वजह से नौकरियां जाने को लेकर हाल में मची उथल-पुथल को समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। सभी को पता था कि यह जल्द ही आने वाला है लेकिन जब यह वास्तव में सामने आया तो अधिकतर लोग अचंभित नजर आने लगे। इस साल ऑटोमेशन के चलते सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नौकरियां गंवाने वाले कर्मचारियों की संख्या उतनी अधिक नहीं है लेकिन भविष्य में यह आंकड़ा काफी परेशानी पैदा करने लायक हो सकता है। अगर कंपनियों और सरकार ने आईटी कर्मचारियों के प्रशिक्षण और कौशल विकास पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया तो स्थिति बिगड़ सकती है। उसके अभाव में बहुतेरे लोगों के लिए रोजगार की संभावनाएं क्षीण नजर आ रही हैं।

कर्मचारी और संगठन दोनों ही तकनीक के मोर्चे पर हो रही तीव्र प्रगति के साथ कदमताल नहीं कर पा रहे हैं। मसलन, कंप्यूटर प्रोसेसर की क्षमता हरेक 18 महीनों में दोगुनी हो जाती है। इसका मतलब है कि प्रोसेसर हरेक पांच साल में 10 गुना अधिक शक्तिशाली हो जाता है। ऐसे में सभी को तकनीकी बेरोजगारी जैसी शब्दावली के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इस पर कोई संदेह नहीं है कि तकनीकी प्रगति का कौशल, पारिश्रमिक और नौकरी पर गहरा असर पड़ता है। तीव्र गणना क्षमता वाले सस्ते कंप्यूटरों और बड़ी तेजी से बुद्धिमान हो रहे सॉफ्टवेयर की जुगलबंदी ने मशीनों की क्षमता को उस स्तर तक पहुंचा दिया है जिसे कभी मानव की सीमा से परे समझा जाता था। अब बोले गए शब्दों को समझ पाने, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने और खास पैटर्न को पहचान पाने में भी ये सक्षम हो चुके हैं।

ऐसे में आश्चर्य नहीं है कि अतीत के कॉल सेंटर कर्मचारियों की जगह सवालों के खुद-ब-खुद जवाब देने वाले सिस्टम लेने लगे हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता या ऑटोमेशन बड़ी तेजी से कारखानों से निकलकर उन क्षेत्रों में भी तेजी से पैठ बना रहा है जो बड़ी संख्या में रोजगार देते रहे हैं। रोजमर्रा का अनुभव बताता है कि तकनीकी बदलाव ने पिछले दो दशकों में किस तरह से कम और मध्यम स्तर की दक्षता वाली नौकरियों का सफाया ही कर दिया। क्या कोई भी कंपनी (एयर इंडिया जैसी को छोड़कर) सचिवों, टाइपिस्टों, टेलीफोन, कंप्यूटर ऑपरेटर और क्लर्कों की भारी-भरकम फौज को बरकरार रख पाई है? इन्फोसिस के प्रबंध निदेशक विशाल सिक्का ऑटोमेशन के चलते चलन से बाहर हो जाने की समस्या के बारे में पिछले कुछ समय से लगातार बोलते रहे हैं। कंपनी की तरफ से शुरू किया गया 'ज़ीरो डिस्टेंस' कार्यक्रम इसी सोच को बयां करता है। ग्राहकों के साथ संपर्क के स्तर पर ही आकार लेने वाले विचारों को फलने-फूलने का मौका देने के लिए यह कार्यक्रम शुरू किया गया है। कंपनी ने अपने कर्मचारियों के भीतर से करीब 300 लोगों की पहचान की है।

सिक्का ने इन्फोसिस के कर्मचारियों को नव वर्ष पर दिए अपने पहले बधाई संदेश में ही गंभीर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था, 'इस समय तकनीक के क्षेत्र में सबसे बड़ा गतिरोध ऑटोमेशन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के ज्वारीय उफान के चलते आ रहा है जो आसानी से तकनीकी नौकरियों को बेदखल कर सकते हैं। खुद को आगे रखने के लिए जरूरी है कि उन्हें अपने सपनों की दुनिया से बाहर निकलना चाहिए और महज मशीनी तौर पर अपना काम पूरा करने के बजाय उपभोक्ताओं के लिए अधिक मूल्यवान कार्य करने पर ध्यान देना होगा।' सिक्का ने अपने संदेश में कहा था, 'अगर हम संकीर्ण जगह में ही सिमटे रह गए, केवल लागत पर ही ध्यान देते रहे और कोई समस्या आने पर प्रतिक्रिया में ही समाधान तलाशते रहे तो हम बच नहीं पाएंगे।' अब ज्यादा चर्चा बड़े डाटा और डाटा विश्लेषण की हो रही है जिसके चलते परंपरागत आईटी पेशेवरों और प्रबंधकों के सामने अपनी क्षमता का विस्तार करने या फिर नौकरी गंवाने की चुनौती खड़ी होने लगी है। अब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि हमारी दुनिया का डिजिटल रूपांतरण हो जाने से परंपरागत आईटी सेवा उद्योग गंभीर खतरे में आ चुका है।

ब्रिटेन के ऑक्सफर्ड मार्टिन स्कूल के कार्ल बेनेडिक्ट फ्रे और माइकल ए ऑजबर्न ने 'द फ्यूचर ऑफ एम्प्लॉयमेंट' शीर्षक से जारी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अमेरिका में इस समय उपलब्ध नौकरियों में से करीब आधी नौकरियां अगले दो दशकों में ऑटोमेशन की वजह से खत्म हो जाएंगी। रिपोर्ट के अनुसार, 'हमारा अनुमान है कि अमेरिका के कुल रोजगार का 47 फीसदी हिस्सा ऑटोमेशन के चलते गहरे खतरे में होगा। इसका मतलब है कि अनुषंगी कारोबार भी अगले एक या दो दशकों में ऑटोमेशन की जद में आ जाएंगे।' उद्योगों में लगे रोबोट विवेक और निपुणता बढऩे से अब पहले से अधिक उन्नत होते जा रहे हैं। वे रोजमर्रा से अलग हटकर भी विस्तृत मानवीय गतिविधियों को अंजाम देने में सक्षम होंगे। तकनीकी क्षमता के लिहाज से देखें तो उत्पादन कार्यों में बड़े पैमाने पर लगे लोगों की नौकरी अगले एक दशक में लुप्त होने की आशंका है।

लेकिन मुद्दा यह है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता या ऑटोमेशन को रोका नहीं जा सकता है क्योंकि इससे कंपनियों को आकर्षक रिटर्न मिलता है और जो काम इंसान नहीं कर सकते हैं उन्हें भी इसके जरिये बखूबी अंजाम दिया जा सकता है। जैसे, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप का आकलन है कि अमेरिका में एक वेल्डिंग कर्मचारी पर प्रति घंटे लागत रोबोटिक वेल्डर की तुलना में तिगुनी होती है। ऐसी स्थिति में कंपनियां उन्हीं लोगों को काम पर रखेंगी जिनके पास ऊंचे दर्जे के काम अंजाम देने की क्षमता होगी। भारत जैसे देश के लिए तो यह मामला और भी अधिक गंभीर है जहां एक करोड़ से भी अधिक लोग हर साल रोजगार की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। सार्थक काम की बात छोड़ दीजिए, जब लोग अपनी नौकरी ही नहीं बचा पाएंगे तो उससे काफी गंभीर सामाजिक समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। ऐसे में नौकरी की चाह रखने वालों के लिए अपनी काबिलियत बढ़ाने और नए सिरे से कौशल बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

 

 


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#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি ও জীবন জীবিকা বিমুখ প্রযুক্তিনির্ভর বিজ্ঞান যুক্তি বিরোধী বেকারত্বের শিক্ষা নিয়ে কিছু জরুরী কথা! বিকল্প শিক্ষা ব্যবস্থার পরিকাঠামো নিয়ে কিছু চিন্তা ভাবনা! Palash Biswas

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#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি ও জীবন জীবিকা বিমুখ প্রযুক্তিনির্ভর বিজ্ঞান যুক্তি বিরোধী বেকারত্বের শিক্ষা নিয়ে কিছু জরুরী কথা!
বিকল্প শিক্ষা ব্যবস্থার পরিকাঠামো নিয়ে কিছু চিন্তা ভাবনা!
Palash Biswas


India may be the world's fastest growing major economy, but the benefits of that growth do not seem to be percolating down to the masses.This is the problem of development not discussed at all.

Beef gate yet again the best tool activated to divert the urgent discussion on economic crisis,employment,education,health and environment which helps the politics of demography, religion,violence,ethnic cleansing and Apartheid,Patriarchy!

Total failure of governance,law and order, fiscal management covered with rigid blind nationalism of Hindutva and beef ban helps to dismiss every mandatory question.

Thus,India politics as well as people of India have been arrested within the tap of a cultural shock created against the majority of Indian demography,970 million to implement the corporate Hindutva agenda of ethnic cleansing!

Ban on sale of cattle at markets for slaughter: Citing federalism, West Bengal, Kerala object to Centre's order

Kerala CM Pinarayi Vijayan as well as West Bengal CM Mamata Banjeree opposed the ban and appealed to his counterparts in other states to object to the "covert attempt to usurp powers of the state legislature in guise of rules under a Central Act."

Hindustan time reports:

Where are the jobs? Being in denial over unemployment woes won't help Modi govt

To begin with, it is imperative that the government and the ruling coalition acknowledge the challenge, and not be dismissive about it. Ambiguous expressions such as "promoting self-employment" do not help.

 Please read:
Business Standard reports:
On May 1, the annual workers' march in Bengaluru to mark the Labour Day saw for the first time a group representing employees of the (IT) industry. It was probably an ominous sign of things to come.

The past few weeks have seen several hundred people let go of by IT services firms joining the Forum for (FITE) or the (NDLF) Wing, two unions claiming to represent tech workers fighting for their rights.

FITE has led the charge by filing cases with the labour departments in Bengaluru, Pune, Hyderabad and Chennai against firms such as Wipro, Tech Mahindra and Cognizant, saying engineers were wrongly terminated by these 

Nitin Sharma (name changed to protect identity), for example, was one such worker who reached out to FITE after being let go.

Sharma, an employee of a large IT services firm, got a promotion last year after four years. When a set of new employees joined his team at a lower pay scale, a senior informed him about his imminent exit. A few days later, he was asked to resign. "I have documents to prove I showed consistent performance. Suddenly, I was given the lowest performance rating available. They said the HR (human resources) department gave me this rating," said Sharma. 

More such people are reaching out to trade unions for help. The have said people were let go because of weak performance as part of the annual review exercise. But this has attracted attention this year as the sector faces its worst crisis in a decade — primarily because of rising protectionism overseas and increasing automation.

For nearly two decades, India's export-focused software industry saw rapid double-digit growth as western clients outsourced work to cut costs and improve profitability. The sector logged exports of $110 billion last year and employed 3.9 million people. 
As the industry matured, grew in single digits. Costs rose, too. But clients started cutting outsourcing budgets on traditional services and spending more on digital and cloud technologies. Lower-end work such as testing and maintenance, which employed a huge number, saw major automation. Then came the blow from abroad. Governments in the US, the UK, Australia and Singapore started restricting movement of inbound labour to protect local jobs. Indian then started looking at ways to cut costs. Non-performers or those who did not have the skills to migrate to new areas were let go. The started hiring residents in the country of operation to get around the governments' labour blockade.

While the industry remains a net hirer, said lobby group Nasscom, "workforce realignment linked to performance appraisal processes is a regular feature every year. Skilling and workforce realignment are essential to remain competitive in international markets. It needs to be appreciated that such workforce realignment is a normal part of the internal process of based on their own operational imperatives." 

Usually, employees let go during the annual appraisal cycles would be absorbed by other firms looking for such skill-sets. This year, however, people being laid off are not getting jobs. Engineers laid off in 2016 are still struggling to get jobs in the new environment. This has led to such engineers getting into unions or forming groups. 

For more than a decade, have largely stayed away from such groupings. High-paying salaries, opportunities to travel to client locations abroad and retention efforts by kept these people glued to the job.  

In 2014, Tamil Nadu saw efforts to unionise after Tata Consultancy Services (TCS) allegedly laid off a large number. The company had denied any such move. Three unions — FITE, a platform formed by the Young Tamil Nadu Movement (YTNM); NDLF Wing and Knowledge Professionals Forum — emerged and started taking up the cases of those who approached them.

Their fight got a shot in the arm in January 2015, when a woman employee got an interim injunction against a termination order issued by TCS. The employee, who was pregnant, was later reinstated by TCS, "as an exceptional case, in line with its practice of not relieving any employee during pregnancy".

Other employees, too, started petitioning the labour department. In June 2016, the Tamil Nadu government allowed employees of to form a trade union, saying labour legislations did not exempt in the IT and IT-enabled services verticals. Maharashtra, too, said the IT sector would get no exemption in this regard.

Maharashtra's Commissioner of Labour Yeshawant Kerure said, "As there is no special Act governing IT, we can only try to protect labour interests based on acts like the Industrial Disputes Act. We try to resolve disputes by inviting both parties to mediate. If that fails, then we advise them to approach the respective labour court. IT sector needs special attention, which is something we will be looking at. There is very little representation in terms of employee rights and that too from a single group". 

Industry response

The industry has played the survival card. When the going was good for companies, employees benefitted. But during tough times, they need to evolve to survive. Firms also say they spend millions of dollars to train and upgrade skills of employees.

C Prabhakar, president of Karnataka Employers' Association, and a labour law expert, said it could become a "question of survival" for IT if they retain surplus people who cannot hone new skills. "The quantum of employees let go of is normal, like before. In IT companies, unlike manufacturing, individual contribution of software engineers is important and there is scope for enhancing skills, too. Even if the management cannot oppose formation of unions, encouraging such unions may turn out to be detrimental," said Prabhakar, a former board member at Wipro. IT provide better service conditions than, say, a factory, he said. "should realise the importance of re-skilling themselves," he added.

Saurabh Govil, head of human resources for Wipro, said in a recent interview: "Unions come as a consequence of an economic reason. Here we are dealing with knowledge workers. They understand it is about being transparent, and fair. You can take a tough call. If you treat people with respect transparency and perceived fairness, then there would not be an issue."

IMPERATIVES FOR JOB CREATION IN INDIA

Vivan Sharan | in Oped/the Pioneer

Recent lay-offs in the IT sector call for the creation of a virtuous cycle of progressive policies which can lead to rounds of investment, innovation and consumption

Recent lay-offs of workers in India's cost-arbitrage driven Information Technology (IT) sector, and the Prime Minister Office's renewed emphasis on job creation have resulted in a much-needed public debate on the future of work. Automation threatens most jobs in India, according to the World Bank, which also maintains that the more widespread the use of technology, the more the impact on jobs. This argument can be challenged in the context of India's large informal workforce. Here, technological dispersion has created jobs through efficiency gains. Notably, in the case of the logistics sector, the use of tracking and communication tools (such as GPS-enabled mobile phones) has helped in the formalisation of supply chains, in unlocking value and in creating jobs. Indeed, very few deterministic assumptions are appropriate in India where 100 million broadband consumers were added in a short period between August 2016 and this February — denoting technological dispersion without precedent.

To grapple with technological complexities, policy-makers must look at the job discourse from a holistic vantage point. For instance, it may be tempting for them to pick winners when faced with technological uncertainties. Energy policy is an example of this — several international Governments have pre-empted technological choices of industries and consumers,with policies aimed at incentivising one technology over another. Empirical evidence, including from advanced industrial economies such as Germany, shows that this approach skews market incentives and yields suboptimal employment. For India, with limited technical resources and capacity of Government, a rigid approach is even more problematic. Our policy-makers must strive to be technology-agnostic while also continuously engaging with the private sector to address difficulties that limit value creation.

Instead of responding to new economic paradigms through knee-jerk protectionism, the Government should rapidly implement the many small, yet powerful interventions that can help the private sector survive technological disruptions. Generation of value and surplus — to invest into technology, upskilling and jobs is central to surviving disruptions across industries.

Inherently, resilient industries such as those within the 'creative economy', which spans the entire media and entertainment sector, offers a good illustrative template for this. The creative economy has propelled multi-billion dollar brands, enhanced India's soft power projection, engaged thousands of entrepreneurs, provided platforms for timely dissemination of vital information and news and contributed significantly to service sector growth. Although its impact is felt globally and it employs over 6.5 lakh workers, the relative contribution of India's creative economy to the GDP (0.9 per cent), is much less than what is seen in most emerging market counterparts; such as Indonesia (over 1.5 per cent), South Africa (over three per cent) and Brazil (nearly 3.5 per cent). Advanced economies of course are in a different league altogether. Illustratively, Bollywood's annual revenues add up to less than a tenth of the size of the Harry Potter franchise.

The anatomy of low value addition in the Indian creative economy illustrates several elements of the job creation conundrum. The television market has been disrupted by technological change globally — online video, Direct To Home and other technologies have disintermediated downstream distributors and helped spread video on demand. At the same time upstream broadcasters in India, who underwrite most content on television and account for about half the economic size of the creative economy, face onerous price regulations. Successive Governments have chosen to protect distributors under the banner of consumer protection instead of letting an industry with proven job creation ability operate on market terms. In a competitive television market with nearly 1,000 channels and no dominance by any one stakeholder or channel, there is no economic case to be made for price regulation. The Government's own attempts at justifying otherwise have never relied on any economic rationale.

Owing to an inability to monetise high value content, little surplus is available in the industry for requisite technology and infrastructure investments required for seamless distribution of video on congested Indian wireless networks. Moreover, because of the current regime, most of the creative content on TV is aimed at garnering maximum eyeballs to keep advertisers happy. This limits the versatility of Indian content and if data remains cheap, discerning consumers will eventually be left with no option but to cut their cords. At the imminent inflection point where mainstream Indian content creators and distributors are forced to compete with global peers, the creative engine will struggle to keep going. It will find itself hopelessly short of funds, infrastructure, and workers with the wherewithal to augment their output to match global standards.

Such a vicious cycle can play out in most industries that depend on technology in some form. The Government should begin thinking of the future of jobs in terms of a virtuous cycle. That is progressive policies and regulations can potentially create the much-desired cycles of investments, innovation and consumption, which can in turn generate new jobs and secure existing ones through upskilling. Creation of economic value should be the mission statement of Government and towards this, it must not pre-empt technological change.

(The writer is a partner at Koan Advisory Group, New Delhi)


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ভারতের জন্য একটি আত্মার খোঁজে কর্নেল ভূপাল লাহিড়ী

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ভারতের জন্য একটি আত্মার খোঁজে

                     

                                কর্নেল ভূপাল লাহিড়ী

    

      সমস্ত বিশ্বজুড়ে একদিকে যেমনটেকনোলজির উন্নতি হচ্ছে অত্যন্ত দ্রুত গতিতে এবং লাফিয়ে লাফিয়ে বৃদ্ধি পাচ্ছে বিলাসবহুল দ্রব্যের চাহিদা ও ব্যবহার, অপর দিকে তারই সাথে পাল্লা দিয়ে বাড়ছে মানুষের অনৈতিকতা, হিংসা ও হিংস্রতা। এই মানবিকতার অবনমনের চিত্র আমাদের দেশ ভারতবর্ষেও অত্যন্ত স্পষ্ট। একজন ধর্ষিতা মহিলা উলঙ্গ হয়ে দিন দুপুরে দিল্লির রাজপথ দিয়ে চিৎকার করে ছুটছে -অসংখ্য পথচারি  সে দৃশ্য দাঁড়িয়ে দেখছে, কেউ সাহায্যের জন্য এগিয়ে আসছে না। ছত্তিশগড় রাজ্যে রায়পুরের রেভিনিউ বিভাগের আধিকারিকরা বাধ্য করছেন পঁচানব্বই বয়সের এক অসুস্থ বৃদ্ধাকে এই গ্রীষ্মের দাবদাহের মধ্যে চল্লিশ কিলোমিটার পথ ঠেলাগাড়িতে চড়ে সশরীরে তাদের দফতরে উপস্থিত হতে, যাতে করে তিনি তার তিন মাসের বকেয়া পেনসন-এর ১০৫০ টাকা পান। সম্প্রতি উড়িষ্যার হাসপাতাল থেকে এক পিতাকে তার মৃত কন্যার শবদশ কিলোমিটারের বেশি পথ কাঁধে করে বয়ে নিয়ে যেতে আমরা দেখেছি। প্রতিদিন এরকম অসংখ্য ঘটনা খবরের কাগজের পৃষ্ঠায় পৃষ্ঠায় আর টেলিভিসনের পর্দায়।

     বিশ্ববিখ্যাত সমাজ বিজ্ঞানীরা ও মনোস্তত্ববিদ্‌রা এই সমস্যার চুলচেরা বিশ্লেষণ করেছেন এবং কারণগুলো দেখিয়েছেন। তার মধ্যে রয়েছে ভোগবাদজনিত লোভের আধিক্য, একদিকে জনসংখ্যা বৃদ্ধি ও অপরদিকে প্রয়োজনীয় ভোগ্য বস্তুর অপ্রতুলতা, বেকার সমস্যা, তীব্র ও অস্বাস্থ্যকর প্রতিযোগিতা, হতাশাজনিত মনোবিকার ইত্যাদি ইত্যাদি। আধুনিক কালের পণ্ডিতেরা নানা কারণ দেখিয়েছেন বটে, কিন্তু এই সর্বগ্রাসী ও সর্বনাশা সমস্যার সমাধান কীভাবে হবে, সে রাস্তা দেখাতে পারেননি।

   আমরা ভারতবাসীরা নেহাতই হতভাগা, নইলে এই সমস্যার যে সমাধানসূত্র আমাদের প্রাচীন কালের মুনি ঋষিরা বেদ উপনিষদে লিখে গেছেন, সেদিকে আমরা ফিরেও তাকাইনি। বেদান্তের যে অমৃতকুম্ভ স্বামী বিবেকানন্দ আমেরিকা ও ইউরোপে বয়ে নিয়ে গিয়েছিলেনএবং মানুষের চৈতন্যবিকাশের জন্যযে আধ্যাত্মিকতার বানী বিশ্ববাসীকে শুনিয়েছিলেন, সেই মহাজাগরণের স্বদেশি মন্ত্রকে আমরা স্বেচ্ছায় বিসর্জন দিয়েছি। সেই সাথে আমদানি করেছি বিদেশি মন্ত্র - power flows through the barrel of the gun! রক্তাক্ত বিপ্লবের মধ্য দিয়েই আসবে দেশের ক্রান্তি!     

     স্বামী বিবেকানন্দের জন্মভূমি এই আধ্যাত্মিক ভারতবর্ষে দীর্ঘদিন ধরে দেখলাম বন্দুকের ব্যারেল গরম করা সেই ইম্পোর্টেট বিপ্লবের ছবিআমাদের চোখের সামনে সেই হিংসাত্বক রাজনীতি সমাজের সর্বস্তরে ধীরে ধীরে সঞ্চারিত হয়ে সর্বত্র এক হিংস্র ও অমানবিক বাতাবরণ সৃষ্টি করলরাজনৈতিক নেতাদের পোষা সমাজবিরোধীর দল বন্দুক আর বোমা হাতে নিয়ে বুক চিতিয়ে দিন রাতদাপিয়ে বেড়াল শহরের অলি গলিতে আর গ্রামের মাঠে ঘাটে।

   সম্প্রতিকালে এই ছবিটা অবশ্য পাল্টেছে। এখন বন্দুক বোমা নয়। হাতে তরোয়াল আর ত্রিশূল হাতে নিয়ে গৈরিক বস্ত্রধারীদের রাজপথে মিছিল! ভারতবাসীর চৈতন্যবিকাশের জন্য স্বামীজীর আধ্যাত্মিক শিক্ষার পরিকল্পনা এখন তরোয়াল ও ত্রিশূলধারীদের পায়ের তলায় রাজপথে গড়াগড়ি।

    স্বাধীনতার পর থেকেই রাজনৈতিক দলগুলোর মধ্যে চলেছেরক্তক্ষয়ী ক্ষমতা দখলের লড়াই, আর সেই  লড়াইয়ে চারিদিকেসৃষ্টি হয়েছে হিংস্রতারবাতাবরন।এক প্রতিবেশী আর এক প্রতিবেশীর ঘরে আগুন দিচ্ছে। দেওর দাদাকে খুন করে রক্তমাখা ভাত বৌদিকে খেতে দিচ্ছে।

   নোংরা ভোটের রাজনীতিতেআর সর্বগ্রাসী দুর্ণিতীতেসংবিধান রচয়িতাদের ওয়েলফেয়ার স্টেটের স্বপ্ন কবে উবে গেছে কর্পুরের মতোদুর্নিতিগ্রস্ত রাজনৈতিক নেতা, মেরুদণ্ডহীন পদলেহনকারী প্রশাসন ও সম্পদ-লুন্ঠনকারী মাফিয়াদের আঁতাতের ফলে রাষ্ট্রব্যবস্থা পরিণত হয়েছে আত্মাহীন এক বিশাল শোষণযন্ত্রেসাধারণ মানুষের অধিকার, আশা, আকাঙ্ক্ষা এই অমানবিক যন্ত্রদানবেরচাকার তলে আজ পিষ্ট।  

   এসব দেখে শুনেও, আমরা সমাজের শান্তিপ্রিয় সাধারণ মানুষচাতকের মতোচেয়ে আছি,কবে এই হৃদয়হীন যন্ত্রে একটি আত্মা প্রতিস্থাপিত হবে, কবে কোন রাজনৈতিক দল কৃপা করে  আমাদের মাথায় দুফোঁটা শান্তিজল ছেটাবে!

  আমরা জানি, নৈতিকতা না থাকলে, ব্যক্তি বা সমাজের সমৃদ্ধি সম্ভব নয়। আমাদের ব্যক্তিজীবনে, সমাজে ও রাষ্ট্রে যদি নৈতিকতা, শান্তি ও সমৃদ্ধি ফিরিয়ে আনতে হয়, তাহলে আমাদের আর্থিক উন্নয়ন ও ভোগবিলাসের দ্রব্য আহরণের সাথে সাথে চেতনাবিকাশের দিকেও নজর দিতে হবে। আর এই চেতনাবিকাশের একমাত্র পথ আধ্যাত্মিকতা। সেই পথের কথা লেখা আছে আমাদের প্রাচীন বেদে ও উপনিষদে। এবং সেই পথের কথাই আমাদের সরল ভাষায় একদিন বুঝিয়েছেন স্বামী বিবেকানন্দ।

  আধ্যাত্মিকতার উদ্দেশ্য ঈশ্বর-প্রাপ্তি নয় -উদ্দেশ্য আত্মার উন্নয়ন, চৈতন্যের উন্মেষ,ব্যক্তি ও ব্যষ্টির (সমাজ ও রাষ্ট্রের)উন্নত জীবন দর্শন। সেই জীবন-দর্শনের তত্ত্ব সকল ধর্ম-গ্রন্থেই লেখা আছে, এক্ষেত্রে ধর্মে ধর্মে কোনও বিভেদ নেই। কিন্তু মুশকিলটা হয়েছে কট্টরবাদীদের নিয়ে। তারা ধর্ম নামক দর্শনকে দুমড়িয়ে মুচড়িয়ে এমন ভয়ঙ্কর রূপ দিয়েছে, ধর্ম থেকে আধ্যাত্মিকতাটাই উধাও হয়ে হয়ে গেছে। এখন ধর্ম কথাটা শুনলেই সাধারণ মানুষের মনে আতঙ্ক সৃষ্টি হয়, গায়ে কাঁটা দেয়। ওই ভয়ঙ্কর বস্তুটি থেকে দশ হাত দূরে থাকো!

   কিন্তু আমাদের বুঝতে হবে নৈতিকতার ক্রমাগত অবক্ষয় ও অমানবিকতার এই মহামারিকে প্রতিরোধ করতে হলে আধ্যাত্মিকতা ছাড়া অন্য কোনো পথ নেই। তাই ধর্মনির্বিশেষে আধ্যাত্মিকতার প্রকৃত অর্থ ও উদ্দেশ্য অনুধাবন করে সেটিকে আমাদের ব্যক্তি ও সমাজ-জীবনে সামিল করতে হবে। আর সেটি যাতে করে আমাদের প্রত্যেকের আত্মার গভীরে প্রবেশ করে জীবনের অবিচ্ছেদ্য অঙ্গ হয়ে যায়,শুরুটা করতে হবে সেই ছোটোবেলা থেকে।

  এভাবেই একদিন পুনঃপ্রতিষ্ঠিত হবে ভারতের আত্মা। প্রত্যেক ভারতবাসীর মনে আবার ভেসে উঠবে ভারতমাতার সেই ছবি যাকে শৃঙ্খলমুক্ত করতে একদিন হাজার হাজার স্বদেশপ্রেমী তাঁর পদাম্বুজে অঞ্জলি দিয়েছে তাদের বুকের তাজা রক্ত।

#AyodhyaBack#Beefgate#Military State हे राम!यह समय सैन्य राष्ट्र में कारपोरेट नरबलि का समय है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का हिंदुत्व राष्ट्रवाद हमारे हिंदू मानस के कारपोरेट उपभोक्ता मन और मानस में इंसानियत का कोई अहसास पैदा ही नहीं होने दे रहा है।यही हमारी संसदीय राजनीति भी है।राम !राम ! पलाश विश्वास

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#AyodhyaBack#Beefgate#MilitaryState

हे राम!यह समय सैन्य राष्ट्र में कारपोरेट नरबलि का समय है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का हिंदुत्व राष्ट्रवाद हमारे हिंदू मानस के कारपोरेट उपभोक्ता मन और मानस में इंसानियत का कोई अहसास पैदा ही नहीं होने दे रहा है।यही हमारी संसदीय राजनीति भी है।राम !राम !

पलाश विश्वास

हम इसे कतई देख नहीं पा रहे हैं कि भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले और अपनी जान कुर्बान करने वाले हमारे पूर्वजों के सपनों का भारत कैसे ब्रिटिश हुकूमत के औपनिवेशिक दमन उत्पीड़न के मुकाबले समता और न्याय के खिलाफ,नागरिक मानवाधिकारों के खिलाफ,मनुष्य और प्रकृति के खिलाफ होता जा रहा है।

भारतीय आध्यात्म मानवतावाद को ही धर्म मानता रहा है,जिसमें ज्ञान की खोज को ही मोक्षा का रास्ता माना जाता रहा है और सत्य और अहिंसा के तहत ज्ञान का वहीं खोज भारत की जमीन पर रचे बसे तमाम धर्मों,संप्रदायों और समुदायों का आध्यात्म रहा है,जिसे हम बहुलता और विविधता की संस्कृति कहते हैं।हमारा राष्ट्रवाद इस भारतीय संस्कृति और भारतीयता के इस धर्म,दर्शन और आध्यात्म के भी खिलाफ है।

मुक्तबाजारी समाज में मनुष्यता और प्रकृति की परवाह किसी को नहीं है इसलिए नरसंहार संस्कृति के राजकाज बन जाने और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के सैन्य राष्ट्र से हमारे विवेक में कोई कचोट पैदा नहीं होती।

तकनीक ने बाजार का अनंत विस्तार कर दिया है और क्रयक्षमता के वर्चस्व की तकनीकों ने ज्ञान की खोज और भारतीय दर्शन और आध्यात्म के मनुष्यताबोध को सिरे से खत्म कर दिया है।हम हिंसा,दमन,उत्पीड़न,अन्याय,असमता और नरसंहार की कारपोरेट व्यवस्था को ही विकास और सभ्यता मानते हैं।

ज्ञान और ज्ञान की खोज हमारे लिए बेमतलब हैं और इसी वजह से शिक्षा सिर्फ बाजार और क्रयक्षमता के लिए नालेज इकोनामी का तकनीकी ऐप है।

गाय और राम के नाम अंध राष्ट्रवाद की बुनियाद यही है।

बाबरी विध्वंस का जश्न नये सिरे से शुरु हो गया है।

यूपी के किसी मुख्यमंत्री ने 2002 के बाद पहलीबार अयोध्या पहुंचकर कारसेवा का नये सिरे से शुभारंभ अस्थायी राममंदिर में रामलला के दर्शन और पूजन से शुरु कर दिया है।अयोध्या में मुक्यमंत्री का कारसेवा नोटबंदी का चरमोत्कर्ष है ,जिसके मार्फत उनका राज्याभिषेक हो गया।

गौरतलब है कि यह कारसेवा  बाबरी विध्वंस मामले में लौहपुरुष रामरथी लालकृष्ण आडवाणी,मुरलीमनोहर जोशी, उमाभारती,विनय कटियार समेत तमाम अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट तैयार हो जाने के तुरंत बाद शुरु हो गयी है।

अभी गोहत्या प्रतिबंध के तहत धार्मिक ध्रूवीकरण का खेल पूरे शबाब पर है और विकास,सुनहले दिन,मेकिंग इन इंडिया,डिजिटल इंडिया,स्मार्ट बुलेट आधार इंडिया के सारे के सारे कार्यक्रम फिर एकीकृत रामजन्मभूमि आंदोलन में तब्दील है।

राजकाज और अर्थव्यवस्था अब नये सिरे से  हिंदुत्व की राजनीति के राजधर्म निष्णात है।

गायों की हत्या रोकने के लिए दलितों, मुसलमानों, पिछड़ों और सिखों,स्त्रियों और बच्चों तक की हत्या जारी है।

नागरिक और मानवाधिकार गाय के अधिकार में समाहित है और पूरा देश गाय का देश बन गया है जहां मनुष्यों की बलि गायों की सेहत और सुरक्षा के लिए दी जा रही है।

तो दूसरी ओर,आर्यावर्त के इस हिंदुत्ववादी वर्चस्व के खिलाफ दक्षिण भारत में तेजी से द्रविड़नाडु की मांग उठने लगी है जिसे रजनीकांत के भाजपा में शामिल होने या अलग दल बना लेने के गपशप में नजरअंदाज किया जा रहा है।

मध्य भारत और पूर्वोत्तर भारत में गृहयुद्ध के हालात बने हुए हैं और आदिवासी भूगोल से लेकर दलित अस्मिता  के नये राष्ट्र हिंदू राष्ट्र के खिलाफ विद्रोह पर उतारु हैं।

इसी के मध्य कश्मीर की जनता के खिलाफ भारतीय सेनाध्यक्ष ने औपचारिक युद्ध घोषणा कर दी है।पहले सैन्य अधिकारी को अपनी जीप के समाने किसी मनुष्य को बांधकर उपदर्वियो से निबटने के लिए पुरस्कृत किया गया और उनके करतब पर सारे राष्ट्रभक्त नागिरक बाग बाग हो गये।

फिर भारत के हिंदू राष्ट्र के सेनाध्यक्ष ने साफ साफ शब्दो में कह दिया कि सेना कश्मीर में कश्मीर समस्या के समाधान के लिए तैनात नहीं है बल्कि वे राष्ट्रद्रोही बागी जनता के दमन के लिए काम कर रही है।

गौरतलब है कि मीडिया के मुताबिक कश्मीरमें एक शख्स को जीप पर बांधने वाले मेजर नितिन गोगोई का सेना प्रमुख बिपिन रावत ने समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि घाटी में भारतीय सेना को गंदे खेल का सामना करना पड़ रहा है और इससे अलग तरीके से ही निपटा जा सकता है। पीटीआई से बातचीत में जनरल रावत ने कहा कि मेजर लीतुल गोगोई को सम्मानित करने का मकसद युवा अफसरों का आत्मबल बढ़ाना था। उन्होंने कहा कि इस मामले में कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी चल रही है, लेकिन आतंकवाद प्रभावित राज्यों में मुश्किल हालात में काम कर रही सेना का मनोबल बढ़ाना जरूरी है। उन्होंने सख्त लहजे में कहा कि 'कश्मीरमें चल रहा प्रॉक्सी वॉर बेहद निचले स्तर का है। ऐसे में सेना को भी बचाव के नए-नए तरीके खोजने पड़ेंगे।' जनरल रावत ने कहा, 'जब सैनिकों पर लोग पत्थर फेंकते हैं, पेट्रोल बम फेंकते हैं, उस वक्त क्या मैं सैनिकों को यह कहूं कि आप चुपचाप सहते रहो और मारे जाओ। मैं तुम्हारे शवों को तिरंगे में लपेट कर इज्जत के साथ तुम्हारे घर भेज दूंगा? सेना के जवानों के मनोबल को ऊंचा रखना मेरी जिम्मेदारी है।

सेनाध्यक्षजनरल बिपिन रावत का कहना है कि अगर सामने खड़ी भीड़ गोलियां चला रही होती तो सेना के लिए मुकाबले का फैसला आसान हो जाता।सलवा जुड़ुम और अल्पसंख्यकों के देशभर में चल रहे फर्जी मुठभेड़ का यही फार्मूला है।सेनाध्यक्ष के कहने का साफ मतलब है कि वे इतंजार कर रहे हैं कि जनता सेना पर गोली चलाये तो सेना इसका जबाव सैन्य तौर तरीके से दे देगी।

लोकतंत्र में एकता और अखंडता जैसे संवेदनशील मुद्दों को सुलझाने की यह रघुकुलरीति भक्तों के लिए जश्न का मौका है।

सेनाध्यक्ष के इस युद्ध घोषणा जैसे मंतव्य से कश्मीर समस्या कितनी सुलझेगी और उससे भी बड़ा सवाल है कि भारतीय सैन्य राष्ट्र को कश्मीर समस्या या देश में कहीं भी जनांदोलन या जनविद्रोह जैसी चुनौतियों से निबटने के इस तरीके का सभ्यता और मनुष्यता,लोकतंत्र और राष्ट्र की सुरक्षा से क्या संबंध है।

भारतीय राजनीति, भारतीय समाज में गोहत्या निषेध के रामभक्त समय में इस पर किसी संवाद या विमर्श की कई गुंजाइश भी शायद नहीं है।

इस सैन्य वक्तव्य के क्या राजनीतिक असर होगें और उसके सैन्य परिणाम कितने भयंकर होंगे ,इस पर बी बोलेने लिखने की शायद कोई इजाजत नहीं है।

कश्मीर शब्द का उच्चारण ही जैसे राष्ट्रद्रोह है। इस मुद्दे पर सेना प्रधान बोल सकते हैं,आम नागरिक अपनी जुबान बंद रखें तो बेहतर।

यह सैन्य राष्ट्र का निर्माण ही हिंदुत्व का चरमोत्कर्ष है और इसराष्ट्र के लिए कश्मीर ही एकमात्र संकट नहीं है।सिर्फ दलित,आदिवासी,पिछड़े,अनार्य,द्रविड़ और तमाम नस्ली समूहों के अलावा मेहनकशों,किसानों और थार्रों युवाओं का भी इस राष्ट्र से मुठभेड़ होने की भारी आशंका है।

इस अनिवार्य टकराव के  लक्षण देश भर में प्रगट होने लगे हैं।

भुखमरी की स्थिति में खाद्य आंदोलन या बेरोजगारी की हालत में मेहनतकशों और छात्रों के विद्रोह के हालात में यह राष्ट्र क्या करेगा,सेनाध्यक्ष के वक्तव्य से शायद उसका भी खुलासा हो गया है।

ऐसे हालात में  हिंदुत्व के कायाकल्प की वजह से मनुस्मृति राज बहाल रखने पर आमादा भारतीय राजनीति के सारे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मुलम्मे और कारपोरेट पैकेज शायद बेपर्दा हो जायेंगे।जितनी जल्दी हो,बेहतर होगा।

मौजूदा राष्ट्र का यह सैन्य अवतार हमें इतना गदगदाया हुआ है,राष्ट्र की संरचना इसतरह सिरे से बदल गयी है और राजनीति और राजकाज का जो हिंदुत्व कायाक्लप हो गया है,उसके चलते क हम यह सोच भी नहीं पा रहे हैं कि भविष्य में तेज हो रहे दलित आंदोलन,आदिवासी जनविद्रोह और दक्षिण भारत में जैसे दिल्ली के आधिपात्य के खिलाफ दक्षिण भारत के द्रविड़ अनार्य आत्मसम्मान के द्रविड़नाडु जैसी चुनौतियों के मुकाबले यह राष्ट्रधर्म का सैन्य दमनकारी चरित्र का नतीजा भारत की एकता और अकंडता के लिए कितना खतरनाक होने वाला है।

रामरथ से अवतरित कल्कि अवतार की ताजपोशी के बाद भारत राष्ट्र की संरचना और भारतीय राजनीति के हिंदुत्व कायाकल्प जितना अबाध हुआ है,वह वास्तव में भारतीय संविधान के बदले मनुस्मति विधान के ब्राह्मण धर्म के अंधकार का वृत्तांत है और सामाजिक यथार्थ और उत्पादन संबंध,अर्थव्यवस्थी पवित्र मिथकों के शिकंजे में हैं और विज्ञान विरोधी मानवविरोधी आटोमेशन की तकनीकी शिक्षा हमें इस चस तक पहुंचने नहीं देती।

वोटबैंक के लिए हिंदुत्व और राजकाज में जाति,भाषा,क्षेत्र और नस्ल के आधार पर रंगभेदी नरसंहार का गणित हमारी समझ से बाहर है।शिक्षा का अवसान है तो मनुष्यता का अंत है और सभ्यता गोहत्यानिषेध का रामजन्मभूमि आंदोलन है।

निरंकुश धर्मोन्मादी नस्ली फासिस्ट सत्ता के खिलाफ संसदीय गोलबंदी के तहत हिंदुत्व की राजनीति को हिंदुत्व की राजनीति के तहत मजबूत करने में सत्ता वर्ग का विपक्षी खेमा कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है।

मुक्तबाजारी हिंदुत्व के एकाधिकार वर्चस्व के मनुसमृति विधान लागू करने के लिए कारपोरेट फंडिंग से मुनाफा की शेयरबाजारी राजनीति का बगुला भगत पाखंडी चरित्र रामनाम की तर्ज पर जुमलेबाजी की हवा हवाई मीडियाई मोदियाई तौर तरीके के साथ 1991 से हिंदू राष्ट्र के एजंडे के साथ जिस बेशर्मी से चल रही है,उसका ताजा नजारा यह गोसर्वस्व राम के नाम नया राजसूय यज्ञ आयोजन है।

संसदीय विपक्ष जनता से पूरी तरह अलग थलग कारपोरेट हित में संघ परिवार के नूस्खे पर ही राजनीति कर रहा है और तमाम बुनियादी मुद्दे और सवाल जैसे सिरे से माध्यमों और विधाओं से गायब हैं,उसीतरह राजनीति और समाज में भी उनका कहीं अतापता नहीं है।

बुनियादी और आर्थिक सवालों को हाशिये पर रखकर सत्ता समीकरण के वोटबैंक राजनीति के तहत धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता के नाम पर जानबूझकर संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे के गाय और राम के मुद्दे पर पक्ष प्रतिपक्ष की राजनीति और सारा विचार विमर्श सीमाबद्ध है और पीड़ित उत्पीड़ित आवाम की चीखें कहीं दर्ज हो नहीं रही हैं तो दूसरी तरह राष्ट्र का सैन्यीकरण फासिस्ट नस्ली रंगभेदी नरसंहार के एजंडे के तहत मुकम्मल है।

हम अरबों करोड़ों में खल रहे राजनेताओं को इतना डफर नहीं मानते कि वे संघ परिवार के बिछाये जाल में फंसकर राजकाज और राजनय,अर्थव्यवस्था के तमाम मुद्दों,कृषि संकट,कारोबार और उद्योग के सत्यानाश,बेरोजगारी छंटनी,मंदी,भुखमरी और बुनियादी सेवाओं और जरुरतों को क्रयशक्ति से जोड़ने के खिलाफ गोहत्या प्रतिबंध के खिलाफ गोमांस उत्सव जैसे संवेदनशील सांस्कृतिक जोखिम उठाकर अस्सी प्रतिशत से ज्यादा बहुसंख्य जनसंख्या के गाय और राम के नाम हिंदू सैन्य राष्ट्र के पक्ष में ध्रूवीकरण कैसे होने दे रहे हैं या फिर रामजन्मभूमि आंदोलन केतहत जनसंख्या की राजनीति के तहत धारिमिक ध्रवीकरण की संघी रणनीति को कामयाब करने में कोई कोर कसर छोड़ क्यों नहीं रहे हैं।

क्योंकि सिखों के नरसंहार के वक्त  भी राष्ट्र की एकता और अखंडता के नाम समूची राजनीति कांग्रेस की सत्ता और संघ परिवार के हिंदुत्व के साथ गोलबंद थी।सिखों के सैन्य दमन का भी भारतीय धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील हिंदुत्ववादी सवर्ण राजनीति का कोई विरोध उसी तरह नहीं किया था जैसे कि भारत के अभिन्न अंग कश्मीर घाटी की बहुसंख्य मुस्लिम आबादी के खिलाफ युद्ध का कोई विरोध नहीं हो रहा है या मध्य भारत और आदिवासी भूगोल में भारतीय नागरिकों का अबाध कत्लेआम और पूरे देश में दलित और आदिवासी औरतों के साथ बलात्कार और समामूहिक बलात्कार के मुद्दे पर सड़क से संसद तक सन्नाटा पसरा हुआ है या पूर्वोत्तर में नस्ली रंगभेद के चलते वहां जारी नागरिक और मानवाधिकार के सैन्य दमने से हिंदू अंतरात्मा में कोई मानवीय संवेदना की सुनामी पैदा नहीं होती जैसे राम और गोमाता के नाम पर पैदा हो रही है।

यह समय सैन्य राष्ट्र में कारपोरेट नरबलि का समय है और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का हिंदुत्व राष्ट्रवाद हमारे हिंदू मानस के कारपोरेट उपभोक्ता मन और मानस में इंसानियत का कोई अहसास पैदा ही नहीं होने दे रहा है।

यही हमारी संसदीय राजनीति भी है।


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Hindutva Goons Destroyed Ambedkar Statue in Dumdum! Palash Biswas

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Hindutva Goons Destroyed Ambedkar Statue in Dumdum!
Palash Biswas 
It is claimed that Untouchability is not prcticed in Bengal.Bengalies are knwonas progressive,liberal and secular and they claim to be democrat dening any space whatsoever to Dali,OBC and Tribes.The secular and democratic posture is limited to Muslim Vote Bank only using the Muslim demography to sustain caste Hidnu dominance in every spare of life as the truth is exposed by Sacchar commission which ended the 35 years span of Left rule in Bengal.Present CM is also very loud to use the same Muslim demography and playing Hindutva cards on RSS dicated line of Ram,Hanuman puja replicating the Durga and Kali puja politics in vogue hitherto.
Dr.BR Ambedkar or Dalit or Bahujan politics has never been a factor since partition of India and Ambedkirites are micro minority in dalits.Matua movement played a key role to elect Dr.BR Ambedkar to the constituent assembly thanks to the dicsiples of Guruchand Thakur led by Jogendra Nath Mandal And Barrister Mukund Bihari Mallick.
But the constituency  constituted by East Bengal districts of Faridpur,Jaissore and Khulna went to Pakistan and Babasaheb had to be reelected with Congress help and since then he had been out of Bengal Politics as his lieutenant Jogendra Nath Mandal remained in Pakistan.
Most of the Partition victim Dalit refugees and Matus living in Bengal have been Hinduised.While most of theDalit and Matua refugees have been ejected out of Bengal to ensure caste Hindu demographic supremacy to sustain Manusmriti Zamindari rule in Bengal.
In such circumstance,destroying Ambedkar Statue in dalit dominated north Bengal suburban area North dumdum seems quite strange because it has got no political significance as far as HINDU V/S Muslim polarized Vote Bank equation based power politics is concerned.
But Dr Ambedkar represents the identity  as well as existence of Dalits,tribes,OBCs and minorities and the purpose might be detected in the deep rooted caste Hindua Bengali nationalism of hatred and violence against the movement with an objective of equality and justice.
It exposes the liberal,progressive,democrat and secular socity ,politics and nationalism of caste Hindu Hindutva dominant and decicisive.
Pl see the reports:
[31/05 10:59] Bijan Hazra: উত্তর দমদমের পার্কে আম্বেড্করের মূর্তি ভাঙ্গার প্রতিবাদে আগামী রবিবার 4-6-2017 বেলা 2 টোর সময় দূর্গানগর "friends মিশন" এ এক আলোচনা আয়োজন করা হয়েছে , এবং অন্যান্য বিষয়, অনগ্রসর জনজাগরণী মঞ্চের তরফ থেকে সকলকে উপস্থিতি থাকার জন্য আহ্বান জনান হচ্ছে
[31/05 11:03] Bijan Hazra: দুস্কৃতিরা ভেঙ্গেছে !!??? কেমন ধরনের দুস্কৃতি ? যাদের রাগ আম্বেদকরের মূর্তির উপর !! যে আম্বেদকরের জন্য আজ গরীব নীচুতলার ঘরের ছেলেমেয়েরা মাধ্যমিকে সবার থেকে আগে থাকছে !! 
যারা ভেঙ্গেছে তারা তো সামান্য দু টাকার দুস্কৃতি নয় ।
এই দুস্কৃতিদের তাহলে কোথায় পাওয়া যাবে ? 
বস্তিতে না অট্টালিকায় ?

আমরা গুড়িয়ে দেব ওদের ষড়যন্ত্রের হাতঃ
বাবরি মসজিদ ধ্বংসের সময় আরএসএস, বজরংদল, বিশ্ব হিন্দু পরিষদ, সারা ভারত ব্রাহ্মণ সভা প্রভৃতি ৬টি কট্টর মনুবাদী সংগঠন কুম্ভ মেলায় মিলিত হয়ে তাদের আগামী কর্মসূচী নিয়ে একটি গোপন এজেন্ডা প্রকাশ করে। এই গোপন এজেন্ডা থেকে আমরা জানতে পারি যে তারা একটি মহাপ্রলয় মিশন সামনে রেখে ব্রাহ্মণবাদী শক্তির উত্থান ঘটাতে চাইছেন।

এই গোপন এজেন্ডায় তারা জানিয়ে দেয় যে, "অধর্মী আম্বেদকরের জন্য যুক্তিবাদ এবং বুদ্ধ ধর্মের প্রসার আবার শুরু হয়েছে। এই প্রসার বাড়তে থাকলে ভারতবর্ষ থেকে ব্রাহ্মন্যবাদ ধ্বংস হয়ে যাবে। সুতরাং তাদের এক এবং অদ্বিতীয় কর্মসূচী হল আম্বেদকরকে ধ্বংস করা। এই ধ্বংসের ক্রিয়া হিসেবে তারা ন্যায়, অন্যায়, ধর্ম-অধর্ম, অস্ত্রশস্ত্র, ষড়যন্ত্র, হত্যা প্রভৃতিকে হাতিয়ার হিসেবে বেছে নেয় এবং বিজেপি দলকে ক্ষ্মতায় এনে তাদেরকে ঢাল হিসেবে ব্যবহার করার সিদ্ধান্ত নেয়। এরপর শুরু হয়ে যায় রাষ্ট্র জুড়ে আম্বেদকর এবং বুদ্ধের স্টাচ্যু ভেঙ্গে ফেলার কদর্যতা। গত বছর ওরা ভগনা ডিহির বিখ্যাত সিধু-কানু মূর্তিও ভেঙ্গে ফেলেও স্পর্ধা জাহির করে !!!

পশ্চিমবঙ্গের বর্তমান সরকারের আপস এবং অপদার্থতার জন্যই এই জঘন্য শক্তি এখানে মাথা তুলে বিষ ঢালার চেষ্টা শুরু করেছে। শুরু হয়েছে জাতপাতের নামে সামাজিক বয়কট এবং সাম্প্রদায়িক উস্কানী। মমতা ব্যানার্জির আপসের জন্যই এই শয়তানী শক্তি তাদের গোপন এজেন্ডা নিয়ে অনেকটাই এগিয়ে গেছে। আমাদের বুঝতে অসুবিধা নেই যে এই ঘোরতর আম্বেদকর বিরোধী শয়তানরাই গত রবিবার রাতে উত্তর দমদমে নিমতা থানার ৯ নং ওয়ার্ডে স্থাপিত বাবা সাহেব আম্বেদকরের মূর্তি ভেঙ্গে ফেলার স্পর্ধা দেখিয়েছে !!!

এই ঘটনাকে শাক দিয়ে মাছ ঢাকার চেষ্টা করছে বর্তমান শাসক দল। ধিক্কার জানাই এই অপকর্মের।

অবিলম্বে বৃহত্তর কর্মসূচী নিয়ে আমরা এর শেষ দেখে নিতে চাই।
জয় ভীম, জয় ভারত 
জয় ভীম ইন্ডিয়া নেটওয়ার্ক এবং দলিত-বহুজন স্বাধিকার আন্দোলনের পক্ষে 
শরদিন্দু উদ্দীপন

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प्रणय राय के यहां छापे के तुरंत बाद पालतू चैनल इंडिया टुडे के राजदीप सरदेसाई के कानून का हवाला देकर इस छापे के समर्थन में अपने यहां भी छापे का न्यौता मीडिया का यह हिंदुत्व बोध उजागर करता है। पलाश विश्वास

Next: डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर मारकाट करती आम जनता भी है। ईमानदारी और विचा
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प्रणय राय के यहां छापे के तुरंत बाद पालतू चैनल इंडिया टुडे के राजदीप सरदेसाई के कानून का हवाला देकर इस छापे के समर्थन में अपने यहां भी छापे का न्यौता मीडिया का यह हिंदुत्व बोध उजागर करता है।
पलाश विश्वास

केंद्र सरकार के अधीन जांच एजंसियों का हमेशा मजबूत क्षत्रपों की नकेल कसने के काम में राजनीतिक  इस्तेमाल होता रहा है।
पिंजड़े में कैद तोता की उड़ान का राजनैतिक एजंडा का खुलासा बार बार बराबर होता रहा है।रघुकुल रीत है यह।
लालूप्रसाद,मुलायम,ममता से लेकर जयललिता तक हजारों किस्से हैं।
जाहिर सी बात है कि कानून से ऊपर कोई नहीं है।
लेकिन बंगाल पर कब्जे के लिए नारदा और शारदा प्रकरण में जिस तरह एजंसियों का आरएसएस एजंडा के मुताबिक इस्तेमाल होता रहा है और संसद में कानून बनाने बिगड़ने के कारपोरेट एजंडा में अल्पमत को बहुमत में बदलने या संसदीय सहमति हासिल करने के लिए जो ब्लैकमैलिंग की संस्कृति है,वहां कानून और न्याय जैसे शब्द,निष्पक्षता और जांच जैसे तेवर गोरक्षा के अरब वसंत के धर्मोन्माद की तर्ज पर निरंकुश आपातकालीन फासिज्म के लक्षण हैं।
एनडीटीवी कोई दूध का धुला है,ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है।
बल्कि रवीश कुमार के चुने हुए मुद्दों पर बेबाकी के अलावा उसके तमाम अंतर्विरोध जगजाहिर है।राडिया टेप का प्रकऱण याद कर लें।
लेकिन पालतू छी चैनल समूह के मुकाबले इसमें कोई शक नहीं है कि एनडीवी कमोबेश आम जनता के मुद्दों पर अपनी  मौकापरस्ती के बावजूद मुखर रहा है।
 जबकि बाकी मीडिया में सरकार राजसूय यज्ञ और अश्वमेधी नरसंहार नरबलि अभियान का ही खुल्ला य़ुद्धोन्मादी रंगभेदी युद्धोन्माद है।
प्रणय राय के यहां छापे के तुरंत बाद पालतू चैनल इंडिया टुडे के राजदीप सरदेसाई के कानून का हवाला देकर इस छापे के समर्थन में अपने यहां भी छापे का न्यौता मीडिया का यह हिंदुत्व बोध उजागर करता है।
ऐसे में प्रणय राय और बरखादत्त की वजह से हमेशा चर्चित और रवीश की वजह से धेखने लायक एनडीटीवी पर कानून के राज के इस भयंकर जलवे से आपातकाल का अंधकार गहराने लगा है लेकिन जश्न फिर भी मनाया जा रहा है।

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डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर मारकाट करती आम जनता भी है। ईमानदारी और विचा

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डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर मारकाट करती आम जनता भी है।
ईमानदारी और विचारधारा के पाखंड की तरह न्यायिक प्रक्रिया और जांच एजसिंयों की भूमिका भी मौके के हिसाब से सापेक्षिक है। 
पलाश विश्वास

हम लागातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हरित क्रांति के बाद से लगातार गहराते कृषि संकट और मुक्तबाजारी कारपोरेटअर्थव्यवस्था भारत में तमाम समस्याओं की जड़ है।

डिजिटल इंडिया,आधार निराधार,बायोमेट्रिक लेन देन जैसे तकनीकी तिलिस्म में बुनियादी जिन मुद्दों और समस्याओं को हम नजरअंदाज कर रहे हैं,वे मूलतः कृषि और कृषि आजीविका से जुडे रोजगार, कारोबार, उद्योग धंधों और किसानों,मेहनतकशों और कारोबरियों से लेकर युवाओं और स्त्रियों की समस्याएं है।

किसानों की बदहाली और उनकी थोक खुदकशी के अलावा बेरोजगारी ,पर्यावरण संकट,भुखमरी,प्राकृतिक आपदाओं,मंदी की तमाम समस्याओं के तार कृषि संकट से जुड़े हैं।जिसे हम भारत की नागरिक की हैसियत से सिरे से नजरअंदाज कर रहे हैं और हमारा सारा विम्ऱस नस्ली रंगभेद के तहत कृषि,जनपद,किसानों और मेहनतकशों,आदिवासियों और स्त्रियों के खिलाफ हैं और मनुस्मृति का हिंदुत्व राजकाज और राजनीति,अर्थ व्यवस्था भी वही है।

हम निजी तौर पर यह समझ नहीं रहे हैं तो कारपोरेट मीडिया या कारपोरेट राजनीति से किस समता और न्याय की उम्मीद कर रहे हैं,समझ लीजिये।

हमने बार बार यह कहा है कि सत्ता वर्ग की कोई जाति नहीं सत्ता वर्ग दरअसल सत्ता वर्ण है।

जाति व्यवस्था के शिकंजे में कृषि,प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े बहुसंख्य आम जनता हैं जो जल जगंल जमीन रोजगार आजीविका ,काम धंधे,गांव देहात से बेदखल आधार नंबर के उपभोक्ता वजूद में समाहित है।

हम एनडीटीवी के कायल नहीं है।
हम प्रणय राय,बरखा दत्ता या रवीश कुमार या राडिया टेप को दूध का धुला नहीं मानते हैं।लेकिन एनडीटीवी पर छापामारी की वारदात की राजनीति को खतरनाक मानते हैं क्योंकि खासकर किसानों और मेहनतकशों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों,स्त्रियों और जाति धर्म निरविशेष आम जनता की समस्याओं और उनकी रोजमर्रे की तकलीफों,उनके दमन उत्पीड़न के खिलाफ कही कोई चीख दर्ज नहीं होती।कारपोरेट मीडिया के अंग होने के बावजूद एनडीवी अपने हिसाब और मौके के हिसाब से कभी कभार इन बुनियादी मुद्दों को उठाता है।

इसीलिए एनडीवी पर हमले का समर्थन दरअसल हिंदुत्वबोध की मानसिकता है।

कानून का राज है तो सबके लिए समान होना चाहिए।कानून के ऊपर कोई नहं होना चाहिए।एन डीटीवी भी कानून के ऊपर नहीं है।लेकिन खुली लूट खसोट के तंत्र में जो एकाधिकार और वर्चस्व के स्टा सुपरस्टार हैं,वे सारे के सारे कानून से ऊपर हैं।

मसलन माल्या लाखों करोड़ का न्यारा वारा करके लंदन में मौज मस्ती कर रहे हैं और कुछ हजार कर्ज के लिए सरकारी एजंसियां,बैंक और सूदखोर किसानों को थोक दरों पर खुदकशी के लिए मजबूर कर रहे हैं।

तो दूसरी तरफ क्रिकेट कैसिनों के काले धंधे को युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद का खुल्ला मुनाफा खेल बना दिया गया है, उसके तहत लंदन के कार्निवाल में हमारे तमाम आदरणीय के साथ माल्या नजर आ रहे हैं।

गावस्कर जैसे आइकन के साथ माल्या हैं तो विराट कोहली कीचैरिटी डिनर के भी वे आकर्षण हैं।कानून ऐसे तमाम मामलों में विकलांग है।

अभी अभी रामचंद्र गुहा ने ंबीसीसीआई से इस्तीफा देकर इस कैसिनों की जो अंदरुनी तस्वीरे पेश की हैं और उनसे जुड़े जो राजनीतिक चेहरे अरबपति वर्ग के सुपर सितारे हैं,उनके लिए कानून का राज कहीं नहीं है।

गुहा के लेटर बम पर जाहिर है कि कोई कार्रवाई नहीं हुई और न होने के आसार हैं,लेकिन निजी तौर पर सत्तर के दशक से नैनीताल समाचार और पहाड़ से जुड़े इस इतिहासकार के काजल की कोठरी से बेदाग निकालने पर हमें राहत महसूस हुई  है।

बाकी लोग ईमानदार हैं तो खामोश होकर वहां बने क्यों हुए हैं ,यह कानूनी सवाल से बड़ा नैतिका का सवाल है।

ईमानदारी मौकापरस्त है और सापेक्षिक भी तो इस सिलसिले में हम वस्तुगत दृष्टि से सामाजिक,राजनीति,आर्थिक और ऐतिहासिक संदर्भों का भी ख्याल रखें तो बेहतर है।

प्रधान संवयंसेवक की राजनीति और लोकप्रियता को देश विदेश में प्रायोजित करने वाले अदानी समूह पर 72 हजार करोड़ के घोटाले का आरोप है तो तमाम सेक्टर जिसमें रक्षा और परमाणु ऊर्जा, बैंकिंग बीमा,बिजली,संचार जैसे सेक्टर ,तेल गैस पेट्रोलियम,कोयला,इस्पात से लेकर शिक्षा चिकित्सा तक जिन चुनिंदा कारपोरेट कंपनियों का एकाधिकार बन गया है, उनके खिलाफ लाखों करोड़ के घोटाले हैं लेकिन उनपर कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है।

ताजा वाकया बायोमेट्रिक लेनदेन और आधार लिंकिंग के जरिये मोबाइल नंबर को आधार से जोड़ने के नाम पर पेमेंट बैंक का एकाउंट खोलने के लिए मजबूर करना है।

आधार लिंक करने के लिए पेमेंट बैंक का एकाउंट खोलकर बायोमेट्रिक असुरक्षित लेन देन का जोखिम उछाने के लिए नागरिक मजबूर हैं क्योंकि सारी सेवाएं मोबाइल सिम से जुडी़ हैं।

सिम से आधार नत्थी अनिवार्य  कर दिया गया है तो सिम बचाने के लिए पेमेंट बैंक का ग्राहक करोड़ों के तादाद में हो रहे हैं और आधार की आड़ में लाखों करोड़ की पूंजी बाजार और सरकार से ऐठने का यह खेल कानून के ऊपर है और इस रोकने के लिए किसी भी स्तर पर कोई न्यायिक पहल या सक्रियता  का सवाल भी नहीं उठता।

ईमानदारी और विचारधारा के पाखंड की तरह न्यायिक प्रक्रिया और जांच एजसिंयों की भूमिका भी मौके के हिसाब से सापेक्षिक है। 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खुली अवमानना हो रही है तो सुप्रीम कोर्ट और कानून का राज खामोश हैं।मीडिया और राजनीति की सेहत पर असर नहीं।

इधर पीड़ित पत्रकारों  का पक्ष रखते हुए हमारे भड़ासिया मित्र ने मीडिया में आटोमेशन और छंटनी के अलावा तमाम घोटालों का जो सच पेश किया है, गौरतलब है कि इन तमाम मामलों में भी आटोमेशन के नरसंहार पर रोक के लिए कोई पक्ष नहीं खड़ा हो रहा है।

मीडिया में शत प्रतिशत आटोमेशन और थोकसंस्कृति का माहौल है तो कौन बचा है मीडिया में जो जनसुनवाई के लिए मरेगा खपेगा,बताइये।

वहां सुप्रीम कोर्ट की देखरेख के बावजूद पत्रकारों गैर पत्रकारों के   वेतनमान से लेकर उनकी कार्यस्थितियों पर न सुप्रीम कोर्ट, न श्रम विभाग की और न किसी सरकारी एजंसी की कोई नजरदारी है।

वेतन के एरियर पर इनकाम टैक्स लगाकर वेतन में एरियर को न जोड़कर पीएफ की देय रकम की डकैती तो खुलकर हुई है,जो प्रोमोशन नये वेतनमान के साथ देने थे,कहीं नहीं दिये गये हैं।

ठेकेवाले पत्रकारों गैरपत्रकारों  के लिए कोई सिफारिश लागू नहीं की गयी है और दर्जनों संस्करण आटोमेशन के बिना ख्रच विज्ञापन बटोरु पेड न्यूज के खुल्ला खेल फर्रुखाबादी के बावजूद अखबारों की श्रेणी तय करने में मर्जी माफिक जो घोटाले हुए हैं,इन तमाम मामलों में कानून का राज कहीं बहाल नहीं हुआ है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के चमकदार चेहरों के अलावा खुल्ला जो शोषण दमन उत्पीड़न है,उसके लिए कहीं सुनवाई नहीं है।

एनडीटीवी भी इस पाप से बरी नहीं है।लेकिन जिस डिजिटल इंडिया के आटोमेशन और नरसंहार संस्कृति के तहत यह सबकुछ हो रहा है,उसके लिए मीिडिया पर जो फासिस्ट हमला है,उसे हम मीडिया मालिकान और कुछ बेईमान लोगों की वजह से जायज नहीं मान सकते।

सारी बहस,सारी राजनीति  गोरक्षा और राममंदिर एजंडे के हिंदुत्व के तहत हो रही है और इस हिंतुत्व राजनीति में हर पक्ष क लोग समान रुप से आम जनता के खिलाफ लामबंद हैं।

लोकतंत्र सिरे से खत्म है और सारा देश मृत्यु उपत्यका है।

हम इन दिनों विक्टोरियन अंग्रेजी में एक अत्यंत जटिल दस्तावेज का हिंदी अनुवाद कर रहे हैं।

1936 में छोटानागपुर के आदिवासियों के हक हकूक पर शरत चंद्र दास ने यह दस्तावेज दलितों की तरह आदिवासियों को भी अल्पसंख्यक मानकर राजनीतिक आर्थिक सांस्कृतिक शैक्षणिक आरक्षण देने की मांग लेकर लिखा था ,जिसमें आदिवासियों के अलगाव का खुल्ला विरोध उन्होंने किया है और विकसित समुदायों की तुलना में आदिवासियों की हर क्षेत्र में तरक्की के त्थयपेश करते हुए उन्हें पिछड़ा मानेन के नस्ली  रंगभेद का जमकर विरोध करते हुए आदिवासी अस्मिता की सही तस्वीर पेश की है।

गौरतलब है कि पूना समझौते तके तहत दलितों को संरक्षण मिला था और आदिवासियों को नहीं मिला था।

आदिवासियों के आजाद भारत के संविधान के तहत संरक्षण मिला है लेकिन आदिवासियों का अलगाव,दमन उत्पीड़न अभी खत्म नहीं हुआ है।

सिर्फ आदिवासी हीं नहीं, संरक्षण के बावजूद दलितों,पिछड़ों,अल्पसंख्यकों और स्त्रियों के खिलाफ नरसंहार बलात्कार अभियान जारी है और पीड़ित उत्पीड़ित आम जनता खेती और देहात से जुड़े हैं या फिर मेहनतकश हैं।


डिजिटल इंडिया के तिलिस्म में आधी आबादी और उनकी संतानों की दशा भी आदिवासियों,पिछड़ों,दलितों से बेहतर नहीं है।पढ़ेलिखे तकनीकी लोगों का भी कर्म फल भाग्य और नियति अछूतों से अलग नहीं है।

इस संकट का एपिसेंटर भारतीय कृषि ह,जिसपर सिर्फ किसान और खेतिहर मजदूर ही नहीं,जात पांत मजहब भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में भगवा ध्वजा के साथ बाहुबलि की तर्ज पर माकाट करती आम जनता भी है।
शरत चंद्र राय ने 1936 में जो लिखा है,वह आज भी सच है।मसलनः

आदिवासियों के साथ हमारी तमाम पेशागत सहानुभूति के बावजूद बेहद शर्मिंदगी के साथ हमें इसे मानना होगा कि  जब कभी हितों के टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है,तब आदिवासियों को देशवासियों की सहानुभूति बहुत कम मिल पाती है।उन्हें अपनी ही ताकत और सरकारी सक्रिय सहानुभूति और मदद पर जीना होता है।


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M C Raj, Dalit leader & founder of REDS, Tumkur passed away

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M C Raj, Dalit leader & founder of REDS, Tumkur passed away
Palash Biswas
I am just stunned as this news breaks in:
Arun Khote
11 hrs · Lucknow · 
M C Raj, Dalit leader & founder of REDS, Tumkur passed away just a hr. before !
I have been aware of His Dalit Panchayat experiment and I visited rural karnatak Dalit areas twice once alone and later accompanied by Sabita.Raj associated by his elegant wife Jyothi and brillint daughter Archan had been working for long with his own ideology of dalit emancipation and most of our friends countrywide realized the need to replicate his Dalit format of emancipation.
Raj used Black Tika and dress as his followers do.
Raj also introduced Dalit as religion and I met severl people who converted to Dalit religion.
He was leading a campaign for propertional representation as election reform for decades>it always has been academic and he worked like a research student life long.
Raj is known of his works in Kannad and English and he wrote books like Daliocracy and Dalitology.
Let us stand with Jyothi and sArchana along with his followers and frioends in mourning!

To undersatnd Raj and his work,this write up by him should be realevant.

Whither Dalit Liberation???

M C Raj

Is the Una event an eye opener? There is nothing in the rhetoric of the Una struggle. However, it is a pointer to the recent awakening and upsurge of Dalit energy in the country. It is no big event to gloat about by Adijans (Dalits) across the country. Jignesh Mevani is taking recourse to a beaten track and offers only a nuisance value to the ruling caste. His approach will propel him as a new Adijan leader, and the story will end there. He will become part of the galaxy of Dalit leaders who have disappeared in the same speed that they appeared. We have seen it happening repeatedly. Much of his public statements have only the traditional rhetoric value and do not bear any substantial forays into a new arena of building up people.
Having said this, I must appreciate the new spirit of resistance that has emerged in Una and the strength of the resistance that people have manifested. It's inevitable that one or other leader appears in such a situation. The funny thing is that Dalit leaders all over the country also indulge in such usual rhetoric and are not serious about the future of Adijan liberation. It is sad. The new spirit of resistance that has emerged in the recent past needs to take care of a few fundamental realities in Dalit liberation.
Dalit oppression in India is too long in history. Historians date it back to 3000-4000 years. It's going to be a Himalayan task for any leader to converge a people by presenting a history of this long duration. Not only people's memory is short but also given the ban on education for Dalits they will not even grasp the enormity of the oppression. A new method of educating the Adijans on their history is of paramount importance. It cannot be done through the formal education institutions that are entirely controlled by caste forces. Intensive community education has to be initiated and implemented through a voluntary force. Groups of committed young people have to be identified and trained intensively on Adijan history. Such a history lays buried in the history of Hinduism, in its scriptures, and within the oral traditions of the Adijan communities. They need to be unearthed by Adijan scholars, and new interpretative literature has to be created at the earliest.
Dalit oppression is systemic and structural. It is not whimsical. It is an irony that Adijan leadership operates within the parameters of the same caste system that oppresses them. The solution has to be outside of the system that oppresses them and not within the system. Any struggle within the system will only lead to compromise at different levels. If demands are made for better rights within the system, marginal benefits will surely accrue. The caste system will happily indulge in tinkering with the system to blunt resistance. Adijans must ever be alert on this shenanigan. A systemic and structural oppression cannot be tackled with mere rhetoric from the Adijan leadership.
If caste system and its offspring have to be dealt with appropriately, there needs to be an alternative system that can effectively take it on. Such systems and structures are a far cry in the Adijan communities because of millennia old co-option technology unleashed on them by the caste forces. Such technology has been so successful that even educated Adijan leaders don't give a damn for regenerating the latent internal governance systems of the communities. It's a tragedy that the leadership does not recognize the existence of the community's inner strength based on its cultural values.
I must add that the Adijan culture is loaded with multiple values. It is not uniform nor is it uni-focal. It is the beauty of the Adijan culture that it is open to differences and is very inclusive. The caste system is inherently exclusive. Adijan system is inherently inclusive. The difference is that caste forces have developed discourses of inclusiveness to camouflage their exclusive system effectively. To take the Adijan system to the mainstream, the Adijan leadership should immediately give it formal structures that can stand above oppressive systems and structures.
The development of Adijan systems and structures cannot immediately be started at the national level. It has to start at the level of the community with mechanisms of internal governance. For example, promotion of Adijan festivals to replace some festivals of Hinduism that are direct insults on the Adijan ancestors can be a starting point. The Adijan leadership should also provide alternative festival to the community so that they are not left empty without anything to fall back. Such festivals should revive the celebratory dimension of the Adijan community.
Conflict resolution can quickly become an internal affair of Adijan leadership instead of running to the caste leadership for resolution of even family disputes. Selection of beneficiaries under various development schemes of the governments can be made at the level of the community instead of the caste forces selecting their Adijan agents as beneficiaries.
During panchayat elections, the community must be enabled to choose their contesting candidates. Mechanisms of preventing the caste forces having a field day in the selection of SC/ST candidates as contestants must be ingrained in the community ethos. A certain level of discipline must be enforced within the community so that egotistic individuals may abide by the decision of the community. Such disciplinary measures will be required in the beginning stages of internal governance.
Measures of internal governance of Adijan communities with its systems and structures will aim at strengthening the community for effective and impactful participation in the instruments and mechanisms of national governance. Such participation will prove to the rulers that Adijan community aims at inclusion and equality based on the Constitution of India. For Adijans and minorities, the constitution is the ultimate refuge, provided it is implemented both in letter and spirit.
Constitution is a structural mechanism that has virtually become the handmaid of caste forces, and if it has to be made impactful for all citizens, all oppressed communities must pool their resources and work for its effective implementation. Indulging in egocentric rhetoric will not take the Adijans anywhere near liberation. If the constitution has to work for the excluded individuals and communities in India, Adijan inner strength has to be consolidated through internal governance structures.
None of the suggestions mentioned above will work if there is no concerted and disciplined intellectual development in the Adijan leadership. Such a development will not come merely through reservation and demanding benefits from the government.

Aborigines of Chhota Nagpur and the father of Indian Ethnogarphy, Sarat Chandra Roy Palash Biswas

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Aborigines of Chhota Nagpur and the father of Indian Ethnogarphy, Sarat Chandra Roy

Palash Biswas


I am very happy to translate a very important document on Aborigines of Chhota Nagpur written by Late Sarat Chandra Roy,the Father of Indian Ethnography.

It is very important to know the Ethno History of Segregation of tribal India and the impact of Pune pact which deprived the tribal people of minority rights and enclosed them into excluded or semi excluded areas to subject them to eternal ethnic cleansing and the war waged against the tribes by Indian State never to end.

The Document exposed the impact and implications of Pune pact,the basis of Political reserevation which also divided the Bahujan Samaj namely the segregated tribal people and depressed classes.

Since Pune pact was signed after enactment of Government of India Act,1919 enactment rest of India never did understand Tribal identity,culture,society and psyche which undermined the landed rights of the people on Jal Jangal Jameen.

It is the basic and fundamental root of the great Indian Agrarian crisis crisis and the unabated genocide culture against humanity and nature.

It was very tough to translate because I had to look for exact meaning of ethnic and legal terms in reference to the historical background and colonial governance.I tried my best to avoid Tatsam Hindi to communicate with the Adivasi Bhugol.
I hope ,every one would care to read this very sensitive document in Hindi once published.

At the same time, we have to know Late Sarat Chandra Roy,born in Khulna in east Bengal, who worked for the emancipation and development of tribal India and died in Ranchi.
Sarat Chandra Roy
From Wikipedia, the free encyclopedia
Sarat Chandra Roy
Born 1871
Karapara, Khulna district, East Bengal, British India
Died 1942
Ranchi, Bihar, British india
Nationality Indian
Other names S.C. Roy
Occupation Lawyer, ethnographer, cultural anthropologist, lecturer, reader
Known for Ethnography
Sarat Chandra Roy (1871–1942) was a Bengali speaking Indian scholar of anthropology. He is widely regarded as the father of Indian ethnography, the first Indian ethnographer, and as the first Indian anthropologist.[1]

Contents [hide]
1 Early life
2 Career in anthropology
3 Works
3.1 Books and monographs
3.2 Journal contributions
4 Recognition
5 See also
6 References
Early life[edit]
Born in November 4, 1871 to Purna Chandra Roy, a member of the Bengal Judicial Service, in a village in Khulna district (now in Bangladesh), young Sarat came in contact with tribal people after his father was posted in Purulia. After his father's death in 1885, he was educated at his maternal uncle's home in Calcutta. In 1892, he graduated in English literature from the General Assembly's Institution (now Scottish Church College). He earned a postgraduate degree in English from the same institution, and subsequently studied law at the Ripon College (now Surendranath College). He had worked for some time as a headmaster at the Mymensingh High School, and later as a principal at the GEL Mission High School in Ranchi. In Ranchi, he became aware of the plight of the tribals. He left teaching and started practicing as a lawyer and became a pleader in the district court in the 24 Parganas in Calcutta in 1897. A year later he moved to Ranchi, where he practiced at the court of the judicial commissioner in Ranchi.[2]

Career in anthropology[edit]
His interest into the plight of the "tribal" people developed in the course of his visits as a lawyer, in the interior areas of the Chota Nagpur Division. He was deeply moved by the plight of the Munda, Oraon and other tribal groups, who were subjected to the continued oppression by an apathetic colonial administration, and by a general contempt towards them in courts of law, as "upper-caste" Hindu lawyers had little knowledge of their customs, religions, customary laws and languages. Keeping all this in perspective, he decided to spend years and decades among tribal folks to study their languages, conduct ethnography, and interpret their customs, practices, religion and laws for the benefit of humanity, and also for the established system of colonial civil jurisprudence. In so doing, he wrote pioneering monographs, that would set the ground for broader understanding and future research. Thus although he was not formally trained in either ethnology or anthropology, he is regarded the first Indian ethnologist, or ethnographer or an Indian anthropologist.[3]

In his later years, he spent his time editing Man in India and in other journals, writing and lecturing at the newly established anthropology department at the University of Calcutta, and serving as a reader at Patna University.[4]

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बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले! अलगाव की राजनीति के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों का सैन्य दमन ही राजकाज! पलाश विश्वास

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बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले!

अलगाव की राजनीति के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों का सैन्य दमन ही राजकाज!

पलाश विश्वास

 

दार्जिलिंग फिर जल रहा है और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा  ने शुक्रवार को दार्जिलिंग बंद का आह्वान किया है और पर्यटकों से भी दार्जिलिंग छोड़ने को कहा गया है।इसी के तहत बंगाल सरकार मुख्यमंत्री की अगुवाई में पहाड़ से पर्यटकों को युद्ध स्तर पर सकुशल निकालने में लगी है और दार्जिलिंग में सेना का फ्लैग मार्च हिंसा और आगजनी की वारदातों के बीच जारी है।अस्सी के दशक में दार्जिलिंग में पर्यटन आंदोलन और हिंसा  की वजह पूरी तरह ठप हो गया था।उस घाये सो लोग अभी उबर भी नहीं सके हैं कि नये सिरे से यह राजनीतिक उपद्रव शुरु हो गया है।

गौरतलब है कि दार्जिलिंगमें 43 वर्ष बाद किसी मुख्यमंत्री के रुप में ममता बनर्जी मंत्रियों के साथ कैबिनेट मीटिंग कर रही थीं।जबकि भाषा के सवाल पर यह हिंसा भड़क उठी।

गौरतलब है कि दार्जिलिंग से निर्वाचितभाजपा  सांसद और केंद्रीय मंत्री एसएस अहलूवालिया ने इस हालात के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जिम्मेदार ठहराया है। 'बांग्ला थोप रही हैं ममता बनर्जी' एक टीवी चैनल से खास बातचीत में अहलूवालिया ने कहा कि ममता बनर्जी गलत ढंग से बांग्ला भाषा को लोगों पर थोप रही हैं। उनका आरोप है कि यह फैसला पश्चिम बंगाल की कैबिनेट में पारित नहीं हुआ।

भारत आजाद होने के बावजूद लोक गणराज्य के लोकतांत्रिक ढांचे के तहत राजकाज चलाने की बजाय ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों को अलग थलग करके उनके सैन्य दमन की परंपरा चल रही है।

कश्मीर में, मध्य भारत में और समूचे पूर्वोत्तर में राजकाज इसी तरह सलवा जुडुम में तब्दील है।पृथक उत्तराखंड आंदोलन के दौरान इसी तरह आंदोलनकारियों की हत्या और स्त्रियों से बलात्कार की वारदातों का राजकाज हमने देखा है।

आदिवासियों को बाकी जनता से अलग थलग रखकर उनका सैन्य दमन जिस तरह अंग्रेजों का राजकाज रहा है,नई दिल्ली की सरकार और बाकी सरकारों का राजकाज भी वही है।

बंगाल के दार्जिलिंग पहाड़ों में कोलकाता के राजकाज का अंदाज भी वहीं है।

पहाड़ के जनसमुदायों को अलग अलग बांटकर,उन्हें अलग थलग करके उन्ही के बीच अपनी पसंद का नेतृत्व तैयार करके वहां सत्ता वर्चस्व बहाल रखने का राजनीतिक खेल बेलगाम जारी है।

अस्सी के दशक में सुबास घीसिंग के मार्फत जो राजनीति चल रही थी,बंगाल में वाम अवसान के बाद विमल गुरुंग के मार्फत वहीं राजनीति चल रही है।जिसमें केंद्र और राज्य के सत्ता दलों के परस्परविरोधी हितों का टकराव हालात और पेचीदा बना रहा है।

गोरखा अल्पसंख्यकों पर ऐच्छिक विषय के रुप में बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले है।वहां अमन चैन और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी सेना की है।गोरखा जन मुक्ति मोर्चा ने बिना किसी चेतावनी के उग्र आंदोलन शुरु कर दिया है और पूरे पहाड़ से पर्यटक अनिश्चितकाल तक फंस जाने के डर से नीचे भागने लगे हैं।

बंगाल में सत्तादल के मुताबिक यह वारदात संघ परिवार की योजना के तहत हुई है,जिससे पहाड़ को फिर अशांत करके बंगाल के एक और विभाजन की तैयारी है।

गौरतलब है कि बुधवार को दार्जिंलिंग में हिंसा भड़कने के ठीक एक दिन पहले बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं के साथ बैठक की थी।हालांकि भाजपा ने इस आरोप से सिरे से इंकार किया है।

गौरतलब है कि दार्जिलिंग से पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के समर्थन से हुई है और तबसे लेकर विमल गुरुंग से दीदी और उनकी पार्टी के समीकरण काफी बिगड़ गये हैं।

गोरखा नेता मदन तमांग की हत्या के मामले में विमल और उनके साथी अभियुक्त हैं तो गोरखा परिषद के बाद दीदी ने लेप्चा और तमांग परिषद अलग से बनाकर गोरखा परिषद की ताकत घटाने की कोशिश की है।

हाल में शांता क्षेत्री को राज्यसभा भेजने का फैसला करके गुरुंग से सीधा टकराव ही मोल नहीं लिया दीदी ने बल्कि पहाड़ पर राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के लिए वहां मंत्रिमंडल की बैठक भी बुला कर गुरुंग को खुली चुनौती दी।

जिसके जवाब में यह भाषा आंदोलन शुरु हो गया है,जिससे पहाड़ में लंबे अरसे तक हालात सामान्य होने के आसार नहीं हैं।दरअसल भाषा का सवाल एक बहाना है,स्थानीय निकायों के चुनावों के जरिये पहाड़ में तृणमूल कांग्रेस की घुष पैठ के खिलाफ करीब महीने भर से गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का प्रदर्श आंदोलन जारी है।तो दीदी भी इसकी परवाह किये बिना पहाड़ पर अपना वर्चस्व कायम करने पर आमादा है।बाकी राज्य में भी उनकी यही निरंकुश राजनीतिक शैली है,जिसके तहत वह विपक्षा का नामोनिशन मिटा देने के लिए विकास और अनुदान के साथ साथ शक्ति पर्दशन करके विपक्षी राजनीतिक ताकत को मिट्टी में मिलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को भाषा का मुद्दा अचानक तब मिल गया जबकि पिछले  16 मई को दीदी के खास सिपाहसालार राज्य के शिक्षा मंत्री ने घोषणा कर दी  कि आईसीएसई और सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों सहित राज्य के सभी स्कूलों में छात्रों का बांग्ला भाषा सीखना अनिवार्य किया जाएगा।

शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने कहा कि अब से छात्रों के लिए स्कूलों में बांग्ला भाषा  सीखना अनिवार्य होगाष हालांकि ममता बनर्जी ने साफ किया कहा है कि बांग्ला भाषा को स्कूलों में अनिवार्य विषय नहीं बनाया गया है।लेकिन गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के लिए गोरखा अस्मिता के तहत ऐच्छिक भाषा बतौर भी बांग्ला मंजूर नहीं है।

दरअसल दीदी का वह ट्वीट गोरखा जनमुक्ति के महीनेभर के आंदोलन के लिए ईंधन का काम कर गया जिसमें उन्होंने लिखा  कि दशकों बाद इस क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत हुई है। तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में पहली बार पहाड़ी क्षेत्र में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के एक दशक लंबे एकाधिकार को खत्म कर दिया है।

स्थानीय निकायों के नतीजे पर इस खुली युद्ध घोषणा के बाद पूरी मंत्रिमंडल के साथ दार्जिलिंग में दीदी की बैठक को गोरखा अस्मिता पर हमला बताने और समझाने में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को कोई दिक्कत नहीं हुई।

इसी बीच बांग्ला व बांग्ला भाषा बचाओ कमिटी के सुप्रीमो डॉ मुकुंद मजूमदार ने एक विवास्पद बयान देकर हिंसा को बढ़ाने में आग में घी का काम किया। उन्होंने कहा बंगाल में रहना है तो बांग्ला सीखना और बोलना होगा। बांग्ला भाषा व संस्कृति को अपनाना होगा।

कल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दार्जिलिंग में राज्य मंत्रिमंडल की बैठक की थी और इस बैठक में सारे मंत्री और पुलिस प्रशासन के तमाम अफसर मौजूद थे।पहाड़ में नये सचिवालय बनाने के सिलसिले में यह बैठक राजभवन में हो रही थी कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं और समर्थकों ने मुख्यमंत्री और समूुचे मंत्रिमंडल का घेराव करके पंद्रह बीस गाड़ियों में आग लगी दी और भारी पथराव शुरु कर दिया।

उग्र भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा और आंसूगैस के गोले भी छोड़ने पड़े।फिर इस अभूतपूर्व घेराव और हिंसा के मद्देनजर सेना बुला ली गयी।

सुबह तड़के सारे मंत्रियों को सुरक्षित सिलीगुड़ी ले जाया गया हालांकि दीदी अभी दार्जिलिंग में हैं और आज भी आगजनी और हिंसा के साथ बारह घंटे के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बंद के मध्य दीदी ने हालात सामान्य बनने तक दार्जिलिंग में ही रहने का ऐलान कर दिया है।

स्थानीय जनता की रोजमर्रे की तकलीफों, उनकी रोजी रोटी और उनके लिए अमन चैन सरकार,पुलिस प्रशासन और राजनीति के लिए किसी सरदर्द का सबब नहीं है। पर्यटकों को सुरक्षित पहाड़ों के बारुदी सुरंगों से निकालने की कवायद चल रही है। ताकि नस्ली अल्पसंख्यकों को अलग थलग करके उनसे निबट लिया जाय।हूबहू सलवाजुड़ुम राजकाज की तरह।

 

 


Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!আবার গোরখাল্যান্ড আন্দোলন,আগুন জ্বলছে পাহাড়ে আগ্রাসি ক্ষমতা দখলের রাজনীতিতে! Palash Biswas

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Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!আবার গোরখাল্যান্ড আন্দোলন,আগুন জ্বলছে পাহাড়ে আগ্রাসি ক্ষমতা দখলের রাজনীতিতে! 

Palash Biswas
https://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/1747653288596406/?l=3075488592590064234

GJM calls indefinite shutdown from Monday demanding separate 'Gorkhaland' state

The Mamata Banerjee-led government's decision to make Bengali mandatory up to class 10 had triggered the present round of movement.

মাতৃভাষা রক্ষা করার জন্য মাতৃভাষার শিক্ষা অনিবার্যকরে মাতৃভাষাকে রক্ষা করা যায় না,যদিন না মাতৃভাষার মাধ্যমে জীবিকা ও চাকরির ব্যবস্থা হয়
উগ্র জাতীয়তাবাদে বাংলা আবার ভাগ হওয়ার রাস্তায়,যারা বাংলা দখল করার জন্যগৌরিক পতাকা নিয়ে দাপিযে বেড়াচ্ছে,তাঁরাই কিন্তু ইতিপূর্বে উত্তর প্রদেশ,বিহার, মধ্যপ্রদেশ ও অন্ধ্র প্রদেশ ভাগ  করেছে,বাংলা ভাগ করে বাংলা দখল করতে তাঁদের মাতৃভাষাও বাধা হয়ে দাঁড়াবে না,তাঁদের আগ্রাসী রাজনীতি ও সাম্প্রদায়িক অন্ধ জাতীয়তাবাদই প্রমাণ
রেসিয়াল মাইনোরিটির বিপক্ষে সৈন্য নামিয়ে ভূগোল রক্ষা করা যায় না,ভারতবর্ষের ও বিশ্বের ইতিহাস থেকে আমাদের এখনও শিখতে হবে

ভারতভাগের ফলে বাংলার রক্তপাত ও বিপর্যয় এখনও শেষ হয়নি।উদ্বাস্তু সমস্যার সমাধান হয়নি এবং সীমান্ত পেরিয়ে আজও বাঙালি উদ্বাস্তুরা ভারতবর্ষে বিভিন্ন রাজ্যে ছড়িয়ে পড়ছে 
-- ভারতবর্ষে সবচেয়ে বেশি উদ্বাস্তু বাঙালি
ভারতবর্ষে সবচেয়ে বেশি মানুষ জীবিকা ও চাকরির সন্ধ্যানে ভিন রাজ্যে যেতে বাধ্য হচ্ছে
Media reports:

In the wake of ongoing unrest in the northern West Bengal hills, the Gorkha Janmukti Morcha on Saturday called for an indefinite shutdown in Darjeeling from Monday in support of its demand for a separate Gorkhaland state. "All central and state government offices, banks, Gorkhaland Territorial Administration offices will be closed as part of the shutdown from Monday. However, schools and colleges will be outside the purview of the shutdown," GJM General Secretary Roshan Giri told media persons after the party's central committee meeting.

As part of the protest, Block Development Offices, Sub-divisional Offices and District Magistrate's offices will also be closed. The state government's revenue sources like electricity, mines and boulders will also be part of the shutdown, Giri said.

The Mamata Banerjee-led government's decision to make Bengali mandatory up to class 10 had triggered the present round of movement. On Thursday, Darjeeling turned into a virtual battlefield after GJM supporters clashed with the police when they were stopped from marching to the Raj Bhawan where the state cabinet meeting was underway.

The GJM also announced that signboards in Darjeeling, Kurseong, Kalimpong, Mirik and several parts of Dooars and Terai could be written only in Nepali and/or English.

Giri further said there would be torchlight rallies in various wards and assembly constituencies of the hills from 7 to 8 pm starting Monday for the sake of 'Gorkhaland's revival. "There will also be mass signature campaign in favour of Gorkhaland. The signatures will be sent to the Prime Minister and the Union Home Minister," he added.

Earlier in the day, GJM supremo Bimal Gurung said agitation in Darjeeling hills will not stop until and unless a separate Gorkhaland is created. "If TMC wants to play with fire they will regret it," he said. "We will appeal to the people not to cooperate with the state government. It is taking away so much resources from the hills and what are the people of the hills getting? We are getting nothing. This has to stop. We will fight for our freedom and will not allow the divisive politics in the hills," Gurung said.


ভারতের পশ্চিমবঙ্গের পাহাড়ি জেলা দার্জিলিংয়ে আজ বৃহস্পতিবার প্রথমবারের মতো রাজ্যের মন্ত্রিসভার বৈঠক অনুষ্ঠিত হয়েছে। এ বৈঠককে কেন্দ্র করে অশান্ত হয়ে ওঠে দার্জিলিং। পৃথক গোর্খাল্যান্ড রাজ্যের দাবিতে গোর্খা জনমুক্তি মোর্চার সমর্থকেরা পুলিশের সঙ্গে সংঘর্ষে জড়িয়ে পড়েন। এ সংঘর্ষে পুলিশ সদস্যসহ বেশ কয়েকজন আহত হন। মোর্চার সমর্থকেরা পুলিশের বেশ কয়েকটি গাড়ি পুড়িয়ে দেন। এ ছাড়া সরকারি-বেসরকারি আরও কয়েকটি যাত্রীবাহী বাস পোড়ানো হয়।

এ সহিংসতায় আটকে পড়েন দেশ-বিদেশের কমপক্ষে ১০ হাজার পর্যটক। রাজ্য সরকার পরিস্থিতি নিয়ন্ত্রণে আনার জন্য সেনাবাহিনীর সাহায্য চেয়েছে। এদিকে আগামীকাল সকাল-সন্ধ্যা বন্‌ধের ডাক দিয়েছে জনমুক্তি মোর্চা।

পরিস্থিতি নিয়ন্ত্রণের জন্য দার্জিলিং ছাড়েননি মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়। আজ সকালে দার্জিলিংয়ের রাজভবনে শুরু হয় রাজ্য মন্ত্রিসভার বৈঠক। বৈঠকে মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়, মন্ত্রিসভার অধিকাংশ সদস্য এবং প্রশাসনের শীর্ষ কর্মকর্তারা যোগ দেন।

মমতার এ বৈঠকের প্রতিবাদে রাজ ভবনের কাছে ভানু ভক্ত ভবনের সামনে অবস্থান ধর্মঘট পালন করে দার্জিলিংয়ের গোর্খা জনমুক্তি মোর্চা। মোর্চার নেতা-কর্মীরা রাজভবনের দিকে এগোতে চাইলে পাহাড়ের চারদিকে চারটি ব্যারিকেড তৈরি করে বাধা দেয় পুলিশ। মোর্চার নেতা-কর্মীরা এই ব্যারিকেড ভাঙার চেষ্টা করেন। এ সময় পুলিশের সঙ্গে সংঘর্ষ বেধে যায়। জনমুক্তি মোর্চা পাহাড়ের বিভিন্ন এলাকায় অবরোধ তৈরি করলে কার্যত এলাকাটি অচল হয়ে পড়ে। যানবাহন চলাচল বন্ধ হয়ে যায়। এতে করে দার্জিলিংয়ে অবস্থানরত দেশ-বিদেশের পর্যটকেরা বিপাকে পড়েন। বন্ধ হয়ে যায় দোকানপাট।


প্রসঙ্গত, মুখ্যমন্ত্রীর এই সফর নিয়ে দার্জিলিংয়ের গোর্খা জনমুক্তি মোর্চা পাহাড়জুড়ে আন্দোলন শুরু করেছে। জনমুক্তি মোর্চার নেতা বিমল গুরুংয়ের নেতৃত্বে চলছে এ আন্দোলন। এর আগে আন্দোলনকারীরা তৃণমূলের বিভিন্ন ব্যানার ও পতাকা ছিঁড়ে ফেলেন। মমতাকে কালো পতাকা দেখান। স্লোগান দেন পাহাড় ছাড়ার। এসব হুমকি উপেক্ষা করে মমতা আজ বৃহস্পতিবার যোগ দেন মন্ত্রিসভার বৈঠকে।

জনমুক্তি মোর্চার আন্দোলনের সূত্রপাত হয় মুখ্যমন্ত্রী মমতার একটি ঘোষণাকে কেন্দ্র করে। মুখ্যমন্ত্রী কদিন আগে ঘোষণা দেন, রাজ্যের সব বিদ্যালয়ে দশম শ্রেণি পর্যন্ত সব ছাত্র-ছাত্রীর বাংলা ভাষা পড়তে হবে। এ সিদ্ধান্ত মেনে নিতে পারেনি গোর্খা জনমুক্তি মোর্চা। কারণ, দার্জিলিংয়ের মূল ভাষা নেপালি। বিমল গুরুং বলেছেন, তাঁরা বাংলা ভাষাকে দার্জিলিংয়ের শিক্ষার অন্যতম মাধ্যম হিসেবে মানবেন না। যদিও মুখ্যমন্ত্রী বলেছেন, পশ্চিমবঙ্গে সব বিদ্যালয়ে দশম শ্রেণি পর্যন্ত বাংলা ভাষা পড়তে হবে। পরবর্তীকালে মুখ্যমন্ত্রী দার্জিলিংয়ের একটি সংবাদমাধ্যমকে বলেছেন, বাংলা ভাষা এখানে ঐচ্ছিক হিসেবে পড়তে হবে।

এদিকে এই ইস্যুতে রাজ্য সরকারের সঙ্গে বিমল গুরুংয়ের রাজনৈতিক বাগ্‌বিতণ্ডা শুরু হয়েছে। বিমল গুরুং আরও বলেছেন, তাঁরা পৃথক রাজ্য গোর্খাল্যান্ড নিয়ে ফের আন্দোলনে নেমেছেন। এমনকি তাঁরা জিটিএ বা গোর্খা টেরিটরিয়াল অ্যাডমিনিস্ট্রেশন থেকে তাঁদের সদস্যদের পদত্যাগ করারও হুমকি দিয়েছেন। জিটিএর প্রধান হলেন গোর্খা জনমুক্তি মোর্চার নেতা বিমল গুরুং। ২০১২ সালে এ জিটিএ গঠন হয়।

बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले!

अलगाव की राजनीति के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों का सैन्य दमन ही राजकाज!

पलाश विश्वास

 

दार्जिलिंग फिर जल रहा है और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा  ने शुक्रवार को दार्जिलिंग बंद का आह्वान किया है और पर्यटकों से भी दार्जिलिंग छोड़ने को कहा गया है।इसी के तहत बंगाल सरकार मुख्यमंत्री की अगुवाई में पहाड़ से पर्यटकों को युद्ध स्तर पर सकुशल निकालने में लगी है और दार्जिलिंग में सेना का फ्लैग मार्च हिंसा और आगजनी की वारदातों के बीच जारी है।अस्सी के दशक में दार्जिलिंग में पर्यटन आंदोलन और हिंसा  की वजह पूरी तरह ठप हो गया था।उस घाये सो लोग अभी उबर भी नहीं सके हैं कि नये सिरे से यह राजनीतिक उपद्रव शुरु हो गया है।

गौरतलब है कि दार्जिलिंगमें 43 वर्ष बाद किसी मुख्यमंत्री के रुप में ममता बनर्जी मंत्रियों के साथ कैबिनेट मीटिंग कर रही थीं।जबकि भाषा के सवाल पर यह हिंसा भड़क उठी।

गौरतलब है कि दार्जिलिंग से निर्वाचितभाजपा  सांसद और केंद्रीय मंत्री एसएस अहलूवालिया ने इस हालात के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जिम्मेदार ठहराया है। 'बांग्ला थोप रही हैं ममता बनर्जी' एक टीवी चैनल से खास बातचीत में अहलूवालिया ने कहा कि ममता बनर्जी गलत ढंग से बांग्ला भाषा को लोगों पर थोप रही हैं। उनका आरोप है कि यह फैसला पश्चिम बंगाल की कैबिनेट में पारित नहीं हुआ।

भारत आजाद होने के बावजूद लोक गणराज्य के लोकतांत्रिक ढांचे के तहत राजकाज चलाने की बजाय ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत के तहत नस्ली अल्पसंख्यकों को अलग थलग करके उनके सैन्य दमन की परंपरा चल रही है।

कश्मीर में, मध्य भारत में और समूचे पूर्वोत्तर में राजकाज इसी तरह सलवा जुडुम में तब्दील है।पृथक उत्तराखंड आंदोलन के दौरान इसी तरह आंदोलनकारियों की हत्या और स्त्रियों से बलात्कार की वारदातों का राजकाज हमने देखा है।

आदिवासियों को बाकी जनता से अलग थलग रखकर उनका सैन्य दमन जिस तरह अंग्रेजों का राजकाज रहा है,नई दिल्ली की सरकार और बाकी सरकारों का राजकाज भी वही है।

बंगाल के दार्जिलिंग पहाड़ों में कोलकाता के राजकाज का अंदाज भी वहीं है।

पहाड़ के जनसमुदायों को अलग अलग बांटकर,उन्हें अलग थलग करके उन्ही के बीच अपनी पसंद का नेतृत्व तैयार करके वहां सत्ता वर्चस्व बहाल रखने का राजनीतिक खेल बेलगाम जारी है।

अस्सी के दशक में सुबास घीसिंग के मार्फत जो राजनीति चल रही थी,बंगाल में वाम अवसान के बाद विमल गुरुंग के मार्फत वहीं राजनीति चल रही है।जिसमें केंद्र और राज्य के सत्ता दलों के परस्परविरोधी हितों का टकराव हालात और पेचीदा बना रहा है।

गोरखा अल्पसंख्यकों पर ऐच्छिक विषय के रुप में बांग्ला थोंपने के आरोप में दार्जिलिंग फिर आग के हवाले है।वहां अमन चैन और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी सेना की है।गोरखा जन मुक्ति मोर्चा ने बिना किसी चेतावनी के उग्र आंदोलन शुरु कर दिया है और पूरे पहाड़ से पर्यटक अनिश्चितकाल तक फंस जाने के डर से नीचे भागने लगे हैं।

बंगाल में सत्तादल के मुताबिक यह वारदात संघ परिवार की योजना के तहत हुई है,जिससे पहाड़ को फिर अशांत करके बंगाल के एक और विभाजन की तैयारी है।

गौरतलब है कि बुधवार को दार्जिंलिंग में हिंसा भड़कने के ठीक एक दिन पहले बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं के साथ बैठक की थी।हालांकि भाजपा ने इस आरोप से सिरे से इंकार किया है।

गौरतलब है कि दार्जिलिंग से पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के समर्थन से हुई है और तबसे लेकर विमल गुरुंग से दीदी और उनकी पार्टी के समीकरण काफी बिगड़ गये हैं।

गोरखा नेता मदन तमांग की हत्या के मामले में विमल और उनके साथी अभियुक्त हैं तो गोरखा परिषद के बाद दीदी ने लेप्चा और तमांग परिषद अलग से बनाकर गोरखा परिषद की ताकत घटाने की कोशिश की है।

हाल में शांता क्षेत्री को राज्यसभा भेजने का फैसला करके गुरुंग से सीधा टकराव ही मोल नहीं लिया दीदी ने बल्कि पहाड़ पर राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के लिए वहां मंत्रिमंडल की बैठक भी बुला कर गुरुंग को खुली चुनौती दी।

जिसके जवाब में यह भाषा आंदोलन शुरु हो गया है,जिससे पहाड़ में लंबे अरसे तक हालात सामान्य होने के आसार नहीं हैं।दरअसल भाषा का सवाल एक बहाना है,स्थानीय निकायों के चुनावों के जरिये पहाड़ में तृणमूल कांग्रेस की घुष पैठ के खिलाफ करीब महीने भर से गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का प्रदर्श आंदोलन जारी है।तो दीदी भी इसकी परवाह किये बिना पहाड़ पर अपना वर्चस्व कायम करने पर आमादा है।बाकी राज्य में भी उनकी यही निरंकुश राजनीतिक शैली है,जिसके तहत वह विपक्षा का नामोनिशन मिटा देने के लिए विकास और अनुदान के साथ साथ शक्ति पर्दशन करके विपक्षी राजनीतिक ताकत को मिट्टी में मिलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को भाषा का मुद्दा अचानक तब मिल गया जबकि पिछले  16 मई को दीदी के खास सिपाहसालार राज्य के शिक्षा मंत्री ने घोषणा कर दी  कि आईसीएसई और सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों सहित राज्य के सभी स्कूलों में छात्रों का बांग्ला भाषा सीखना अनिवार्य किया जाएगा।

शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने कहा कि अब से छात्रों के लिए स्कूलों में बांग्ला भाषा  सीखना अनिवार्य होगाष हालांकि ममता बनर्जी ने साफ किया कहा है कि बांग्ला भाषा को स्कूलों में अनिवार्य विषय नहीं बनाया गया है।लेकिन गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के लिए गोरखा अस्मिता के तहत ऐच्छिक भाषा बतौर भी बांग्ला मंजूर नहीं है।

दरअसल दीदी का वह ट्वीट गोरखा जनमुक्ति के महीनेभर के आंदोलन के लिए ईंधन का काम कर गया जिसमें उन्होंने लिखा  कि दशकों बाद इस क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत हुई है। तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में पहली बार पहाड़ी क्षेत्र में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के एक दशक लंबे एकाधिकार को खत्म कर दिया है।

स्थानीय निकायों के नतीजे पर इस खुली युद्ध घोषणा के बाद पूरी मंत्रिमंडल के साथ दार्जिलिंग में दीदी की बैठक को गोरखा अस्मिता पर हमला बताने और समझाने में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को कोई दिक्कत नहीं हुई।

इसी बीच बांग्ला व बांग्ला भाषा बचाओ कमिटी के सुप्रीमो डॉ मुकुंद मजूमदार ने एक विवास्पद बयान देकर हिंसा को बढ़ाने में आग में घी का काम किया। उन्होंने कहा बंगाल में रहना है तो बांग्ला सीखना और बोलना होगा। बांग्ला भाषा व संस्कृति को अपनाना होगा।

कल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दार्जिलिंग में राज्य मंत्रिमंडल की बैठक की थी और इस बैठक में सारे मंत्री और पुलिस प्रशासन के तमाम अफसर मौजूद थे।पहाड़ में नये सचिवालय बनाने के सिलसिले में यह बैठक राजभवन में हो रही थी कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं और समर्थकों ने मुख्यमंत्री और समूुचे मंत्रिमंडल का घेराव करके पंद्रह बीस गाड़ियों में आग लगी दी और भारी पथराव शुरु कर दिया।

उग्र भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा और आंसूगैस के गोले भी छोड़ने पड़े।फिर इस अभूतपूर्व घेराव और हिंसा के मद्देनजर सेना बुला ली गयी।

सुबह तड़के सारे मंत्रियों को सुरक्षित सिलीगुड़ी ले जाया गया हालांकि दीदी अभी दार्जिलिंग में हैं और आज भी आगजनी और हिंसा के साथ बारह घंटे के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बंद के मध्य दीदी ने हालात सामान्य बनने तक दार्जिलिंग में ही रहने का ऐलान कर दिया है।

स्थानीय जनता की रोजमर्रे की तकलीफों, उनकी रोजी रोटी और उनके लिए अमन चैन सरकार,पुलिस प्रशासन और राजनीति के लिए किसी सरदर्द का सबब नहीं है। पर्यटकों को सुरक्षित पहाड़ों के बारुदी सुरंगों से निकालने की कवायद चल रही है। ताकि नस्ली अल्पसंख्यकों को अलग थलग करके उनसे निबट लिया जाय।हूबहू सलवाजुड़ुम राजकाज की तरह।


RSS agenda to use Hindu Refugees to win Bengal and its betryal! Palash Biswas

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RSS agenda to use Hindu Refugees to win Bengal and its betryal!
Palash Biswas
Eminent Bengali writer perfectly explains RSS Agenda of Hindutva to trap partition victim Bengali Refugees whom NDA governemnet led by Bajpayee deprived of citizenship declaring them illegal migrants with Citizenship Amendment act and recently introduced a bill to grant citizenship to Hindu Bengali refuggees which has never intended to be passed or even passes,never to be implemented because of its constitutional flaws.RSS is trying to make Bengali refugees tame Vote Bank and it is proved better in Assam where Refugee leaders have been arrested demanding citizenship  .RSS is admanet to misuse the Bengali Hindu partition victim refugees in Bengal and all oer the country as they used them in Assam.
Only recently Supreme Court Advocate Ambica Ray trying to bail out the refugees from Assmam jail has been arrested.Now eminent writer Kapil Krishna Thakur reacts thus:
Kapil Krishna Thakur wrote:
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ওরা তোমার বাড়িতে যাবে। গিয়ে বলবে, হিন্দুদের এক হওয়া খুব দরকার। তুমি বাঙালি রিফুজিদের কথা তুললে তারা বলবে, দেশছাড়াদের কথা আমরা ছাড়া আর কে ভাবছে? এই দেখ না, লোকসভায় বিল আনছি। আগের সর্বনাশা আইনটা যে ওরাই বানিয়েছিল, সেটা বেমালুম চেপে যাবে।…. ওরা তোমার বাড়িতে যাবে। তুমি দলিত সমাজের মানুষ হলে বলবে, কোনও ভেদাভেদ নেই, চলো, সব ভারতবাসী আমরা এক। যেই তুমি ওদের কথায় ভুলে, ভোটে ওদের জিতিয়ে দেবে, অমনি একটা সাহারণপুর (উত্তর প্রদেশ) ঘটাবে। দলিতরা আম্বেদকর জয়ন্তী কেন করবে, সেই অপরাধে খুন, জখম হয়ে গ্রাম ছাড়া হবে। তাদের মেয়েরা নির্বিচারে ধর্ষণ আর খুন হতে থাকবে। নয়তো কুশীনগরের ঘটনা ঘটবে। দলিতরা যে ঘৃণার বস্তু, সেটা বোঝাবার জন্য বলা হবে, ভালো করে সাবান-শ্যাম্পু দিয়ে চান করে , সেন্ট মেখে, নতুন জামা-কাপড় না পরে এলে মুখ্যমন্ত্রীর সাথে দেখাই হবে না। আর উদ্বাস্তু হিন্দু প্রেমের মহিমা কত গভীর, সেটা বুঝতে হলে আসামের দিক তাকাতে হবে। আসামের বাঙালি হিন্দু উদ্বাস্তুরা ওদের কথায় ভুলে, ঢেলে ভোট দিয়ে ওদের গদিতে বসিয়ে দিয়েছে। তারপর শিলাপাথরে জমায়েত হয়ে ওরা যেই সরকারের প্রতিশ্রুতি পালনের দাবি তুলেছে, অমনি সাজানো মামলায় নিরপরাধ বাঙালি সমাজকর্মীদের জেলে ভরে এখন উগ্রপন্থী তকমা সেঁটে দিয়েছে। হায়, হিন্দু-উদ্বাস্তু প্রেমের কী নমুনা!.... ওরা তবু এ সব না জানার ভান করে তোমার বাড়ি যাবে। তুমি চা-বিস্কুট খাইয়ে সোজা ভাষায় শুধু না-ই বলবে না, এবার থেকে তোমারও কাজ হলো ঘরে ঘরে গিয়ে ওদের এই কীর্তির কথা সবার কাছে বলা। যাতে আরও বেশি মানুষের সর্বনাশ করার সুযোগ ওরা না পায়। চলো শুরু করা যাক।

मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता के ताने बाने के शिकंजे में फंसे किसानों को कर्जमाफी का फायदा भी जमींदार तबके को। भूमि सुधार के मुद्दे के बिना कोई किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है। हालात तो ये है कि रेलवे स्टेशन बेचने के बाद मोदी जी किसानों के किडनी भी बेचेंगे। इसी तरह सुनहले दिन आयेंगे। पलाश विश्वास

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मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता के ताने बाने के शिकंजे में फंसे किसानों को कर्जमाफी का फायदा भी जमींदार तबके को।

भूमि सुधार के मुद्दे के बिना कोई किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है।

हालात तो ये है कि रेलवे स्टेशन बेचने के बाद मोदी जी किसानों के किडनी भी बेचेंगे। इसी तरह सुनहले दिन आयेंगे।

 

पलाश विश्वास

विकास का नमूना यह कि रेलवे विकास के लिए निजीकरण और कर्मचारियों की बेरहम छंटनी।सरकारी उपक्रमों में विनिवेश।

विकास का नमूना यह कि रक्षा प्रतिरक्षा,परमाणु ऊर्जा तक का निजीकरण और विनिवेश।कृषि विकास तीन साल में डेढ़ प्रतिशत और किसानों की बेलगाम बेदखली।

विकास का नमूना यह कि  ठेके पर नौकरी की तर्ज पर ठेके पर खेती।

किसानों को खेत से,खेती से बेदखल करके बड़े किसानों,जमींदारों की थैली भरने के लिए कारपोरेट कंपनियों और पूंजीपतियों की तर्ज पर करीब दस लाख करोड़ की कर्ज माफी से छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरो को क्या मिलेगा,हिसाब लगाइये।

हिसाब लगाइये कि खेती और आजीविका से बेदखली के विकास के बाद आजीविका और रोजगार से छंटनी के बाद अपनों को रेबड़ियां बांटने की इस नौटंकी से किसानों का क्या होगा और कृषि संकट कितना और किस हद तक सुलझेगा।

हालात तो ये है कि रेलवे स्टेशन बेचने के बाद मोदी जी किसानों के किडनी भी बेचेंगे।इसी तरह सुनहले दिन आयेंगे।

सूदखोरी का स्थाई बंदोबस्त आजादी के बावजूद तनिको ढीला नहीं पड़ा है और जमींदारी उन्मूलन के बावजूद जमींदार तबका भारत की राष्ट्र व्यवस्था की मनुस्मृति सैन्य प्रणाली पर काबिज है और राजनीति उन्हींके हित हरित क्रांति के कायाकल्प के बाद इस अबाध कारपोरेट मुक्तबाजार के हिंदू राष्ट्र में भी साध रही है।

जाहिर है कि खेती के खाते से केंद्र और राज्य सरकार के तमाम खर्च और अनुदान की तरह कर्ज माफी की क्रांति भी आयकर मुक्त उनके खजाने को और समृद्ध करेगी और इससे न कृषि संकट के सुलझने के आसार हैं और किसानों और खेतिहर मजदूरों की खदकशी का सिलसिला रुकने की कोई संभावना है।

पक्ष विपक्ष का यह सारा किसान आंदोलन किसानों के ऐसे किसानविरोधी मजदूरविरोधी सामंती समृद्ध तबके,जाति वर्ण,वर्ग  के हित में हो रहा है,जो भूमि सुधार  के खिलाफ हैं और जिनका खेत या खेती से कोई संबंध नहीं है और वे खेती भी पूंजी निवेश करके मुनाफे के कारोबार की तहत सरकारी खजाना लूटने के लिए करते हैं।

खेती के जरिये इन्हीं की जमींदारियों में खेत जोतने वाले किसानों,खेतिहर किसानों के दमन उत्पीड़न, दलितों और स्त्रियों बच्चों पर निर्मम अत्याचार इस हिंदू सवर्ण सैन्य राष्ट्र का रोजनामचा है, ऐसा हिंदू कारपोरेट राष्ट्र जो किसानों के बुनियादी हकहकूक से इंकार करता है।

भूमि सुधार के मुद्दे के बिना कोई किसान आंदोलन आंदोलन नहीं है।

किसानों का कोई स्थानीय,प्रांतीय या राष्ट्रीय संगठन के नेतृत्व में या किसानों के नेतृ्त्व में यह आंदोलन नहीं चल रहा है और जिन किसान सभाओं और सगठनों के करोडो़ं सदस्य बताये जाते हैं,इस आंदोलन में उनकी कोई भूमिका नहीं

संकट को सुलझाने के लिए,कारपोरेट अर्थव्यवस्था,बाजार और महाजनी जमींदारी स्थाई इंतजाम से किसानों को रिहा करने,जलजंगल जमीन आजविका से बेदखली रोकने, भूमि सुधार या कृषि आधारित काम धंधों के विकास या प्रोत्साहन या खेती से जुड़े जनसमुदायों के बच्चों को रोजगार और आजीविका दिलाने और उनको बुनियादी जरुरतें,सेवाएं मुहैय्या कराने का कोई कार्यक्रम इस आंदोलन में नहीं है।

यह विशुद्ध सत्ता की राजनीति है,जिससे सत्ता की गोद में पल रहे जमींदार तबके को ही फायदा होगा और इससे कृषि विकास या किसानों के कल्याण की कोई संभावना नजर नहीं आती है।

वर्धा विश्वविद्यालय के शोध छात्र मजदूर झा का संदेश आया था कि वे लोग सारस नाम की एक पत्रिका निकाल रहे हैं,जिसके पहले अंक को किसानों की मौजूदा  हालत पर केंद्रित किया जा रहा है।हिंदी साहित्य में हाल में जनपदों और किसानों पर क्या लिखा गया है,मुझे इसकी खास जानकारी नहीं है।

प्रेमचंद की परंपरा में साठ और सत्तर के दशक तक जो साहित्य लिखा जाता रहा है,वह गौरवशाली भारतीय साहित्य संस्कृति की परंपरा तमाम तरह की रंग बिरंगी महानगरीय उत्तर आधुनिक छतरियों में इस तरह छुपी हुई है कि मुझे जैसे नाकारा अज्ञानी व्यक्ति के लिए उन्हें देख पाना मुश्किल है।हिंदी साहित्य के प्रेमियों को शायद यह दिख रहा होगा।

माफ करें, मुझे किसानों के पक्ष का कोई समकालीन भारतीय साहित्य दिखता नहीं है।इसलिए ऐसे महानगरीय उपभोक्तावादी साहित्य संस्कृति,माध्यम विधा और उनसे जुडे पाखंडी मौकापरस्त तिकड़मी रथी महारथियों और उनकी गतिविधियों में मुझ जैसे अछूत शरणार्थी किसान की कोई दिलचस्पी नहीं है।

मुद्दे की बात यह है कि भारतीय साहित्य में हाल में दिवंगत बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी के अवसान के बाद किसानों के संघर्ष और भारतीय कृषि के अभूतपूर्व संकट के बारे में जानने के लिए हमें पी साईनाथ जैसे पत्रकार की रपट पर निर्भर होना पड़ा रहा है।

बाकी भारतीय कृषि अभी प्रेमचंद की भाषा में मुक्त बाजार की ट्रिलियन डालर डिजिटल अर्थव्यवस्था में महाजनी व्यवस्था से उबर नहीं सकी है।महाजनी सभ्यता की सामंती मनुस्मृति व्यवस्था ही भारतीय कृषि संकट का आधार है।

अभी अभी भारत में नृतात्विक अध्ययन के जनक और झारखंड के आदिवासियों के उत्थान के लिए समर्पित नृतत्व वैज्ञानिक और समाजशास्त्री दिवंगत शरत चंद्र राय के 1936 में छोटानागपुर के आदिवासियों के हालात पर लिखे एक दस्तावेज का अनुवाद करने का मौका मिला है।यह अनुवाद बहुत जल्द आपके हाथों में होगा और उसका कोई अंश मैं इसलिए शेयर नहीं कर पा रहा हूं।

पुणे करार के तहत आदिवासियों को अलग थलग करके जल जंगल जमीन से बेदखली के लिए गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट के तहत आदिवासियों के नरसंहार का जो अबाध अभियान शुरु हुआ और आदिवासियों को बाकी जन समुदायों से अलग करके राष्ट्र के उनके खिलाफ जारी युद्ध और राजनीतिक संरक्षणके वर्चस्ववाद को समझने के लिए यह दस्तावेज बहुत जरुरी है।

शरत चंद्र राय ने आदिवासियों को अल्पसंख्यक का दर्जा देते हुए विरासत में हासिल उनके जल जगंल जमीन के हक हकूक के संरक्षण के लिए उनके अलगाव का बहुत जबरदस्त विरोध आदिवासी नेताओं के सुर में सुर मिलाकर किया था और आदिवासी किसानों के हित में दूसरी तमाम बातों के अलावा सबसे ज्यादा जोर सूदखोरी रोकने के लिए किया था।जिसपर जाहिर है कि ब्रिटिश हुकूमत ने अमल नहीं किया था।

आजादी के बाद भूमि सुधार आंशिक रुप से बंगाल में वाम शासन के तहत लागू होने के अलावा बाकी देश में इसे लागू करने की कोई गंभीर कोशिश पिछले सात दशकों में नहीं हुई और भारतीय कृषि संकट के संकट का एक बड़ा कारण यह भी है कि खेत जोतने वाले किसानों और खेतिहर मजदूरों को पूरे देश में कहीं उनके हकहकूक मिले ही नहीं है।दूसरी ओर भूमिधारी किसानों की जमीन लगातार बेदखल होती जा रही है।

किसानों और खेतिहर मजदूरों की खुदकशी की सबसे बड़ी वजह उनपर कर्ज के बोझ बढ़ते जाना है।साठ के दशक से हरित क्रांति की वजह से खेती की लागत बेलगाम तरीके से बढ़ते चले जाने और पैदावार और श्रम की कीमत न मिलने के साथ साथ मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में बाजार के शिकंजे में देहात और जनपदों के बुरी तरह फंस जाने के नतीजतन बुनियादी जरुरतों और सेवाओं को खरीदने के लिए बेहिसाब क्रयशक्ति के अभाव और उपभोक्ता संस्कृति के मुताबिक अनुत्पादक खर्च बढ़ते जाने से महाजनी सभ्यता का उत्तर आधुनिक कायाकल्प हो गया है।

सिर्फ महाजन,सूदखोर और दूसरे सामाजिक तत्व ही नहीं,भारतीय बैंकिग प्रणाली भी इस महाजनी सभ्यता के नये अवतार हैं।

वैसे ज्यादातर छोटे किसानों के पास जमीन इतनी कम है कि बैंकों से वे कर्ज नहीं लेते और आज भी साहूकारों,महाजनों और बाजार से बहुत ऊंचे ब्याज पर कर्ज लेते हैं।बैंकों से भी उन्हें कोई राहत मिलती नहीं है।

फिलहाल यूपी चुनाव में किसानों के कर्ज माफ करने के लिए भगवा वायदे के बाद मध्यप्रदेश में किसानों पर भगवा फायरिंग में किसानों के मारे जाने के बाद किसानों को जो राजनीतिक आंदोलन देशभर में रोज तेज हो रहा है,उसकी मुख्य मांग कर्ज माफी है।

इस सिलसिले में महाराष्ट्र में किसानों ने  जब आंदोलन तेज कर दिया तो वहां की भगवा सरकार ने किसानों को आम कर्ज माफी का ऐलान कर दिया है और मध्य प्रदेश सरकार ने भी लगातार तेज होते आंदोलन के बजाय केंद्र में भगवा राजकाज के तीन साल परे होने के मोदी जश्न के लगभग गुड़गोबर होने की आशंका के मद्देनजर कर्ज माफी का वायदा कर दिया है।अमल होने के आसार नहीं हैं।

राजस्थान में किसान आंदोलन तेज होता जा रहा है तो बाकी राज्य सरकारों पर दबाव बढ़ता जा रहा है कि वे किसानों का कर्ज माफ कर दें।

इस सिलसिले में बैंकरों का कहना है कि किसान कर्ज इसलिए नहीं चुका रहे हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि सरकार उनका कर्ज माफ कर देगी। गौरतलब है कि केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने किसान आंदोलन के सिलसिले में किसानों को कर्ज माफी की केंद्र सरकार की जिम्मेदार टालने की रणनीति के तहत बैंकरों से मुलाकात की।

गौरतलब है कि पेशे से कारपोरेट वकील जेटली किसानों को कर्ज माफ करने के खिलाफ हैं और इस सिलसिले में उन्होंने पहले ही साफ कर दिया है कि कर्ज माफी का आर्थिक बोझ संबंधित राज्य सरकार को ही उठाना होगा।

बहरहाल मीडिया के मुताबिक जेटली की इस बैठक में कई सरकारी बैंकों के अधिकारी शामिल हुए। इस बैठक में कई बैंकरों ने आरोप लगाया कि किसान सरकार द्वारा कर्ज माफी की उम्मीद में जान बूझकर बैंक द्वारा लिया गया लोन नहीं चुकाते हैं। बैंकरों ने वित्तमंत्री और मंत्रालय के अधिकारियों के साथ हुई बैठक में भी अपनी चिंता बताई।

अब सवाल है कि बैंक किन किसानों को कर्ज देती है और वे किसान कौन हैं जो कर्ज नहीं चुका रहे हैं।समझने वाली बात यह कि भारतीय बैंक छोटे किसानों को कर्ज देने के बाद छोटी सी छोटी रकम वसूलने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते।ऐसा छप्पन इंच का सीना किन किसानों का है जो कर्ज माफी के इंतजार में कर्ज न चुकाने की हिम्मत करें और बैंक भी उनसे कर्ज वसूल न कर सके।जाहिर है कि जानबूझकर कर्ज न चुकाने की हैसियत रखने वाले किसान यकीनन खुदकशी नहीं करते।

जाहिर है कि भारतीय बैंकिग को दुहने वाले पूंजीपतियों,कारपोरट कंपनियों और सत्ता वर्ग के लोगों के अलावा बेहिसाब जमीन रखने वाले बड़े और संपन्न प्रभावशाली किसानों का एक तबका भी है,जो किसी तरह का टैक्स नहीं भरते और न खुद खेत जोतते हैं,आधुनिक काल के वे जमींदार हैं,जो बैंकों का कर्ज बिना चुकाये कर्ज माफी की रकम भी हजम करने वाले हैं।

हालात पर थोड़ा विस्तार से गौर करें तो मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता के ताने बाने  बैंकरों ने कहा, किसानों में कर्ज न चुकाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसकी वजह से बैंकों पर वित्तीय दबाव बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में किसानों पर करीब 10 लाख करोड़ रुपये के कर्ज हैं।

बैंकरों ने कहा कि पिछले कुछ महीनों में किसानों द्वारा लिया गया लोन 50 प्रतिशत बढ़ा है। एक बड़े के अधिकारी ने कहा कि किसान अपने बैंक खाते से पैसे निकाल रहे हैं ताकि उनके कर्ज का पैसा बैंक अपने आप न काट लें।  दक्षिण भारत के एक सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक ने बताया कि कुछ जगह लोन न चुकाने वाले बैंकों से कर्ज माफी की मांग कर रहे हैं. मुंबई स्थित एक बैंक के सीईओ ने कहा कि अगर किसी को ये लगता हो कि कोई उसे एक लाख रुपये का चेक दे देगा तो वो कर्ज क्यों चुकाएगा?

 

 

 

रणजीत विश्वकर्मा असमय निधन से भीतर से बहुत कुछ टूट बिखर रहा है।

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णजीत विश्वकर्मा  असमय निधन से भीतर से बहुत कुछ टूट बिखर रहा है।

पलाश विश्वास
उत्तराखण्ड आंदोलन व उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के वरिष्ठ नेता रणजीत विश्वकर्मा नहीं रहे . लम्बे समय से गुर्दे की बीमारी से पीड़ित रणजीत दा ने हल्द्वानी के बेस अस्पताल में अपनी देह त्याग दी . लगभग 63 साल के थे रणजीत दा . उन्हें विनम्र अंतिम नमन !
यह खबर सुनकर थोड़ा जोरदार झटका लगा है।अभी नैनीताल में महेश जोशी जी से बात हो सकी है।पवन राकेश दुकान में बिजी हैं।काशी सिंह ऐरी और नारायण सिंह जंत्वाल से लंबे अरसे से संवाद हुआ नहीं है।
  मैं जिन रणजीत विश्वकर्मा को जानता हूं,जो डीएसबी कालेज में मेरे सहपाठी थे और शुरु से काशी सिंह के सहयोगी रहे हैं,मुंश्यारी में उनका घर है।वे मेरे साथ ही अंग्रेजी साहित्य के छात्र थे।उक्रांद से जब काशी विधायक बने तो लखनऊ से मुझे फोन भी किया था। 
महेशदाज्यू ने कंफर्म किया है कि वे मुंश्यारी के है।
फोटो से पहचान नहीं सका क्योंकि रणजीत इतने दुबले पतले थे नहीं।बल्कि मैं और कपिलेश भोज बहुत दुबले पतले थे।दोस्तों में रणजीत हट्टे कट्टे थे।
थोड़ी उलझन उम्र को लेकर भी हो रही है।मुंश्यारी के होने की वजह से हमसे थोड़ी देर से स्कूल में दाखिला हुआ भी होगा तो रणजीत की उम्र साठ साल से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।
उक्रांद में मैं कभी नहीं रहा हूं और हम लोग जब नैनीताल में थे,तब उत्तराखंडआंदोलन के साथ भी नहीं थे।लेकिन काशी सिंह ऐरी के अलावा दिवंगत विपिन त्रिपाठी से भी नैनीताल समाचार की वजह से बहुत अंतरंगता रही थी।नैनीताल छोड़ने के बाद भी जब तक वे जीवित रहे,उनसे संवाद रहा है।पीसी तिवारी भी राजनीति में हैं।उनसे यदा कदा संवाद होता रहता है।जंत्वाल नैनीताल में ही है,वह हम लोगों से जूनियर था डीएसबी में,लेकिन मित्र था।उससे कभी नैनीताल छोड़ने के बाद नैनीताल में एकाद मुलाकात के अलावा अलग से बात हो नहीं सकी है।
डीएसबी के मित्रों में निर्मल जोशी आंदोलन और रंगकर्म में हमारे साथी थे।फिल्मस्टार निर्मल जोशी हम लोगों से जूनियर थे।इन दोनों के निधन को अरसा हो गया।
गिरदा को भी दिवंगत हुए कई साल हो गये।
नैनीताल के ही हमारे पत्रकार सहकर्मी सुनील साह और कवि वीरेनदा हाल में दिवंगत हो गये।
रणजीत बेहद सरल ,मिलनसार,प्रतिबद्ध और ईमानदार मित्र रहे हैं।डीएसबी में हम लोग चार साल साथ साथ थे।चिपको आंदोलन के दौरान हम सभी एक साथ थे,जिसमें राजा बहुगुणा,पीसीतिवारी,जगत रौतेला,प्रदीप टमटा सांसद भी शामिल हैं।
रणजीत विश्वकर्मा  असमय निधन से भीतर से बहुत कुछ टूट बिखर रहा है।

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अब क्या ताजमहल भी तोड़ देंगे? जैसे बाबरी विध्वंस हुआ,जैसे मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा की नगर सभ्यता को ध्व्सत कर दिया, उसी तरह?

भारत में आदिवासियों के खिलाफ युद्ध क्यों जारी है?

भारत में महिलाओं और दलितों पर अमानुषिक अत्याचार क्यों होते हैं?

बाकी भारत के लिए कश्मीर या पूर्वोत्तर के लोग विदेशी क्यों हैं?

गाय हमारी माता कैसे हैं?

दंगों का सिलसिला क्यों खत्म नहीं होता?

सिखों का नरसंहार क्यों हुआ?

गुजरात का नरसंहार क्यों हुआ?

यूपी के मुख्यमंत्री के अभूतपूर्व वक्तव्य में इन सारे सवालों के जबाव है।

जो भी कुछ भारत में हिंदुत्व के प्रतीक नहीं है,वे अब तोड़ दिये जायेंगे।जो भी भारत में सवर्ण हिंदू नहीं हैं,वे मार दिये जायेंगे।

पलाश विश्वास

बेहद खराब दौर चल रहा है भारतीय इतिहास का और निजी जिंदगी पर सरकार,राजनीति और अर्थव्यवस्था के चौतरफा हस्तक्षेप से सांस सांस के लिए बेहद तकलीफ हो रही है।

राजनीति का नजारा यह है कि पैदल सेना को मालूम ही नहीं है कि उनके दम पर उन्हीं का इस्तेमाल करके कैसे लोग करोड़पति अरबपति बन रहे हैं और उनके लिए दो गज जमीन या कफन का टुकड़ा भी बच नहीं पा रहा है।

यह दुस्समय का जलवा बहार है जब भारत की राजनीति ही सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा बन गयी है। नोटबंदी पर तुगलकी अंदाज से जनता का जो पैसा खर्च हो गया है,अब पंद्रह लाख रुपये हर खाते में जमा होने पर भी उसकी भरपाई होना मुश्किल है।

विकास दर में दो प्रतिशत कमी के आंकड़े से गहराते भुखमरी ,बेरोजगारी और मंदी के मंजर को समझा नहीं जा सकता जैसे किसी को अंदाजा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के अनगिनत फैसलों के बावजूद निराधार आधार के डिजिटल इंडिया में हर बुनियादी सेवा को बायोमेट्रिक डैटा से जोड़कर किस तरह जनसंख्या के सफाये की तैयारी हो रही है।राजनीति में इसपर आम सहमति है।

बाद में जीएसटी की वजह से क्या आंकड़े बनेंगे,यह तो वक्त ही बतायेगा।इस पर भी स्रवदलीयआम सहमति है।

फिलहाल तीन साल पूरे होने के बाद कालाधन निकालने का नया शगूफा भी शुरु हो गया कि स्विस सरकार आटोमैटिकैलि स्विस बैंकों में जमा की जानकारी भारत को दे देगा।मारीशस, दुबई और दुनियाभर से कालाधन की जो अर्थव्वस्था भारत में चल रही है,उससे बदली हुई परिस्थितियों में कितना काला धन नोटबंदी की तर्ज पर स्विस बैंक से भारतीय नागरिकों के खाते में आना है,यह देखते रहिये।

हमारे पांव अब भी गावों के खेत खलिहान में जमे हुए हैं और मौत कहां होगी,यह अंदाजा नहीं है तो महानगर में प्रवास से हमारा कोई कायाकल्प नहीं हुआ है।

हम विद्वतजनों में शामिल नहीं हैं।निजी रिश्तों से ज्यादा देशभर के जाने पहचाने लोगों से हमारे रिश्ते रहे हैं।विचारधारा के स्तर पर हम सौ टका खरा हों न हों,अपने दोस्तों और साथियों से दगा हमने कभी नहीं किया और किसी की पीठ पर छुरा भोंका नहीं है।

इसलिए देश भर में जो घटनाएं दुर्घटनाएं हो रही हैं ,उनके शिकार लोगों की पीड़ा से हम वैसे ही जुड़े हैं,जैसे जन्मजात शरणार्थी और अछूत होने के बाद बहुजनों और किसानों,मजदूरों,विस्थापितों और शरणार्थियों से हम जुड़े हैं।

किसानों पर जो बीत रही है,वह सिर्फ कृषि संकट का मामला नहीं है और न ही सिर्फ बदली हुई अर्थव्यवस्था का मामला है।

यह एक उपभोक्ता समाज में तब्दील बहुजनों,किसानों और मजदूरों के उत्पादन संबंधों में रचे बसे सामाजिक ताने बाने का बिखराव का मामला है।

अर्थव्यवस्था के विकास के बारे में तमाम आंकड़ों और विश्लेषण का आधार उपभोक्ता संस्कृति है।यानी जरुरी गैर जरुरी जरुरतों और सेवाओं पर बेलगाम खर्च से बाजार की ताकतों को मजबूत करने का यह अर्थशास्त्र है।

इस प्रक्रिया में जो सांस्कृतिक नींव भारतीय समाज ने खो दी है,उसकी नतीजा यह धर्मोन्माद, नस्ली नरसंहार संस्कृति,असहिष्णुनता और मानवताविरोधी प्रकृति विरोधी ,धर्म विरोधी,आध्यात्म विरोधी, इतिहास विरोधी वर्चस्ववादी राष्ट्रवाद है,जिसका मूल लक्ष्य सत्ता वर्ग के कुलीन तबके के जनसंख्या के एक फीसद के अलावा बाकी लोगों का सफाया और यही राजनीति और राजकाज है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह जनपदों का संकट है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह भारतीय समाज का संकट है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह मनुष्यता,प्रकृति और पर्यावरण का संकट है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह भारतीय समाज,संस्कृति का संकट है।

कृषि संकट सिर्फ किसानों का संकट नहीं है,यह राजनीति और दर्शन, इतिहास, धर्म,आध्यात्म का भी संकट है।

हम मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा के अवशेषों को लेकर चाहे जितना जान रहे होते हैं,उस सभ्यता का कोई सही इतिहास हमारे पास नहीं है।

आजादी की लड़ाई का सही इतिहास भी हमारे पास नहीं है।

अंग्रेजों से पहले भारत में जो सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था रही है,उसके बारे में हम ब्यौरेवार कुछ नहीं जानते।

यह सांस्कृतिक वर्चस्व का मामला जितना है ,उससे कही ज्यादा सत्ता और राष्ट्र का रंगभेदी सैन्य चरित्र का मामला है।

अभी अभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जैसे फतवा दे दिया है कि ताजमहल हमारी संस्कृति नहीं है,उससे हमलावर सांस्कृतिक वर्चस्व के इतिहास को समझने की दृष्टि मिल सकती है।

उत्तर प्रदेश का विभाजन हो गया है लेकिन हमारे नैनीताल छोड़ने के वक्त उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहा है।

जनम से उत्तर प्रदेश का वाशिंदा होने की वजह से हम उस प्रदेश की सहिष्णुता, बहुलता,विविधता और साझे चूूल्हें की विरासत को अब भी महसूस करते हैं।

अस्सी के दशक में मंदिर मस्जिद विवाद और आरक्षण विरोधी आंदोलन से लेकर हालात बेहद बदल गये हैं और दैनिक जागरण और दैनिक अमर उजाला में काम करते हुए यह बदलाव हमने नजदीक से देखा भी है।

फिरभी सिर्फ जनसंख्या की राजनीति के तहत संवैधानिक पद से लखनऊ से घृणा और हिसां की यह भाषा दिलो दिमाग को लहूलुहान करती है।

तो क्या बाबरी विध्वंस के बाद भारतीय इतिहास और संस्कृति के लिए दुनियाभर के लोगों के सबसे बड़े आकर्षण ताजमहल को तोड़ दिया जाएगा?

गौरतलबहै कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए ताजमहलएक इमारत के सिवा कुछ नहीं है। उन्होंने इसे भारतीय संस्कृति का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया। उत्तरी बिहार के दरभंगा में गुरुवार (15 जून) को एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, देश में आने वाले विदेशी गणमान्य व्यक्ति ताजमहलऔर अन्य मीनारों की प्रतिकृतियां भेंट करते थे जो भारतीय संस्कृति को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।

भारत में आदिवासियों के खिलाफ युद्ध क्यों जारी है?

भारत में महिलाओं और दलितों पर अमानुषिक अत्याचार क्यों होते हैं?

बाकी भारत के लिए कश्मीर या पूर्वोत्तर के लोग विदेशी क्यों हैं?

गाय हमारी माता कैसे हैं?

दंगों का सिलसिला क्यों खत्म नहीं होता?

सिखों का नरसंहार क्यों हुआ?

गुजरात का नरसंहार क्यों हुआ?

इस अभूतपूर्व वक्तव्य में इन सारे सवालों के जबाव है।

जो भी कुछ भारत में हिंदुत्व के प्रतीक नहीं है,वे अब तोड़ दिये जायेंगे।जो भी भारत में सवर्ण हिंदू नहीं हैं,वे मार दिये जायेंगे।

 

हिंदुत्व एजंडा को राष्ट्रपति ने दी वैधता! फिरभी विचारधारा के धारकों वाहकों की खामोशी हैरतअंगेज! आरएसएस प्रणव को फिर राष्ट्रपति बनाये तो क्या विपक्ष समर्थन करेगा? क्या भारत के राष्ट्रपति भवन से निकलकर प्रणव मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय प्रचारक बनकर गायत्री मंत्र जाप का प्रशिक्षण देगें? पलाश विश्वास

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हिंदुत्व एजंडा को राष्ट्रपति ने दी वैधता!

फिरभी विचारधारा के धारकों वाहकों की खामोशी हैरतअंगेज!

आरएसएस प्रणव को फिर राष्ट्रपति बनाये तो क्या विपक्ष समर्थन करेगा?

क्या भारत के राष्ट्रपति भवन से निकलकर प्रणव मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय प्रचारक बनकर गायत्री मंत्र जाप का प्रशिक्षण देगें?

पलाश विश्वास

 

संघ परिवार के सुप्रीमो से भारत के राष्ट्रपति की शिष्टाचार मुलाकात से एकात्मकता यात्रा के समापन पर नई दिल्ली पहुंचने के बाद संघ सुप्रीमो बालासाहेब देवरस की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अगवानी का इतिहास याद आ रहा है।

आपातकाल के दौरान आरएसएस पर रोक लगाने वाली इंदिरा गांधी का यह कदम भारत की राजनीति में हिंदुत्व के पुनरूत्थान का टर्निंग पाइंट कहा जा सकता है और इसके बाद आपरेशन ब्लू स्टार के साथ साथ राम जन्म भूमि आंदोलन के साथ संग परिवार और कांग्रेस के चोली दामन के रिश्ते के साथ साथ कारपोरेट हिंदुत्व के शिकंजे में यह भारत राष्ट्र फंसता ही चला गया है।

गौरतलब है कि प्रणव मुखर्जी इंदिरा गांधी के खास सिपाहसालार और रणनीतिकार रहे हैं और हिंदुत्व के पुनरूत्थान के साथ ही मुक्तबाजारी कारपोरेट हिंदुत्व एजंडे में उनकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।इसी के साथ आधार परियोजना,कर सुधार से लेकर आटोमेशन और निजीकरण, विनिवेश से लेकर डायरेक्ट टैक्स कोड और जीएसटी जैसे आर्थिक सुधार उन्हीके शुरु किये हैं,जिसपर संघ परिवार अब बेहद तेजी से अमल कर रहा है।

प्रणव मुखर्जी के बजट में इन्हीं सुधारों पर 2011 में मेरी एक किताब भी प्रकाशित हुई थीः प्रणव मुखर्जी का बजेट = पोटाशियम सायनाइड।

इस शिष्टाचार मुलाकात के नतीजे भी दीर्घकालीन होगें।

गौरतलब है कि भारत के राष्ट्रपति के लिए संवैधानिक पद पर बहाल किसी देशी विदेशी व्यक्ति के साथ शिष्टाचार मुलाकात के लिए न्यौता दिये जाने की परिपाटी है।

गौरतलब है कि संघ सुप्रीमो हमारी जानकारी के मुताबिक ऐसे किसी संवैधानिक पद पर नहीं है और न ही वे किसी लोकतांत्रिक संस्थान या किसी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करते हैंं।

इस शिष्टाचार का मतलब क्या है,यह समझना मुश्किल है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ घोषित तौर पर अराजनीतिक हिंदू सांस्कृतिक संगठन है जिसका राजनीतिक एजंडा हिंदू राष्ट्र का है और उसकी राजनीतिक शाखा भारत की सत्ता में बहाल होकर रंगभेदी मनुस्मृति राजकाज की नरसंहार संस्कृति का कारपोरेट एजंडा लागू कर रही है।

आज तक राष्ट्रपति भवन से पहले किसी संघ सुप्रीमो के साथ ऐसी शिष्टाचार मुलाकात के लिए किसी राष्ट्रपति के न्यौता दिये जाने की कोई घटना मेरी स्मृति में नहीं है।आजतक किसी भी दौर में संघ परिवार के मुख्यालय से भारत सरकार की नीतियां तय नहीं हो रही थी।

इस लिहाज से यह शिष्टाचार भेंट अभूतपूर्व है।

राष्ट्रपति की इस अभूतपूर्व पहल से संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा को वैधता मिली है क्योंकि भारत के राष्ट्रपति के संवैधानिक पद से लोकतंत्र, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता, विविधता,बहुलता,सत्य,अहिंसा जैसे तमाम मूल्यों के पक्ष में आज तक के सारे वक्तव्य रहे हैं,जिनका संघ परिवार के अतीत,वर्तमान और भविष्य से कोई नाता नहीं रहा है।

भारत के राष्ट्रपति ने संघ परिवार के राष्ट्रद्रोही एजंडा को इस शिष्टाचार मुलाकात से वैधता दी है और विडंबना है कि विचारधाराओं के धारक वाहक  सत्ता वर्ग के विद्वत जन से लेकर राजनीति के तमाम खिलाड़ी इस प्रसंग में खामोश हैं।

क्या दोबारा राष्ट्रपति बनकर रायसीना हिल्ज के राजमहल में पांच साल और ठहरने के इरादे से संघ परिवार के समर्थन हासिल करने के लिए महामहिम ने यह न्यौता दिया है?

क्योंकि अपने लंबे राजनीतिक अनुभव के मद्देनजर उन्हें मालूम है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए आम सहमति का उम्मीदवार खोजना संघ परिवार के लिए मुश्किल है और मोहन भागवत को सीधे राष्ट्रपति बनाकर कोई बड़ा राजनीतिक जोखिम संघ परिवार उठाने नहीं जा रहा है और संघ परिवार समर्थन कर दें,तो विपक्ष उनके नाम पर सहमत हो सकता है।

क्या भारत के राष्ट्रपति भवन से निकलकर प्रणव मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय प्रचारक बनकर गायत्री मंत्र जाप का प्रशिक्षण देगें?

गौरतलब है कि शिवसेना भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए शुरु से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत को राष्ट्रपति बनाने की मुहिम छेड़ी हुई है।इस बीच राष्ट्रपति चुनाव के लिए चुनाव आयोग ने अधिसूचना जारी कर दी है और समूचा विपक्ष अब भी संघ परिवार के उम्मीदवार का नाम घोषित किये जाने का इंतजार कर रहा है ताकि सहमति से नया राष्ट्रपति का चुनाव हो सके।

इसी परिदृश्य में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने मोहन भागवत से मुलाकात कर ली है। मीडिया के मुताबिक राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जीने शुक्रवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवतको राष्ट्रपति भवन में दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया।

आरएसएस के सूत्रों के मुताबिकभागवत राष्ट्रपति से मुलाकात के लिए रुद्रपुर से शुक्रवार को ही राष्ट्रीय राजधानी पहुंचे। वह संघ के स्वयंसेवक शिक्षण और प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल होने के लिए गुरुवार को रुद्रपुर में थे।

गौर करें कि संघ के स्वयंसेवक शिक्षण और प्रशिक्षण शिविर से लौटकर मोहन भागवत सीधे राष्ट्रपति भवन गये।जिसका महिमामंडन का यह शिष्टाचार है।

बहरहाल  राष्ट्रपति चुनाव से ऐन पहले हुई इस मुलाकात ने राजनीतिक हलकों में अटकलों को हवा दी है। इस पर संघ परिवार की सफाई है कि यह पूर्व निर्धारित शिष्टाचार भेंट थी और इसके कोई निहितार्थ नहीं निकाले जाने चाहिए।

क्या इस मुलाकात के बाद संघ परिवार के अनुमोदन पर प्रणव मुखर्जी को दोबारा राष्ट्रपति चुनने के किसी प्रस्ताव पर विपक्ष समहत हो जायेगा?

गौरतलब है कि कांग्रेस जमाने में तमाम घोटालों में महामहिम के नाम नत्थी हैं।लेकिन भारत के राष्ट्रपति होने की वजह से संवैधानिक रक्षाकवच के चलते उनपर कोई मामला बनता ही नहीं है और उनकी भूमिका की जांच पड़ताल हो सकती है।

उनके इस संवैधानिक रक्षा कवच का लाभ पक्ष विपक्ष के राजनेताओं और सत्ता वर्ग को भी मिली है जिसकी वजह से वे राष्ट्रपति लगभग आम सहमति से बन गये।अब भी वही स्थिति जस की तस है।

वैसे भी अपनी दिनचर्या गायत्री मंत्र से शुरु करने वाले प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन को हिंदुत्व का धर्मस्थल में तब्दील कर दिया है और वे अपने कार्यकाल के दौरान अपने पैतृतिक गांव जाकर दुर्गा पूजा करते रहे हैं।

वे न सिर्फ बंगाल के ब्रह्मणवादी वर्चस्व के बल्कि भारतीय ब्राह्मणवादी मनुस्मृति कुलीन निरंकुश रंगभेदी सैन्यतंत्र के भीष्म पितामह हैं।इस हैसियत से उनकी संघ सुप्रीमो के साथ शायद शिष्टाचार मुलाकात बनती है और इसलिए सत्ता वर्ग को इससे खास ऐतराज भी नहीं है।

ओबीसी प्रधानमंत्री के बाद दलित राष्ट्रपति का हिंदुत्व दांव, मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष विपक्ष चारों खाने चित्त! विपक्ष के ब्राह्मणवाद के मुकाबले ओबीसी, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को भी जहां जरुरत पड़ी,वहां नेतृत्व देने से संघ परिवार हिचका नहीं। विचारधारा की इतनी परवाह थी तो संसद में आर्थिक सुधारों या आधार पर विपक्ष कैसे सहमत होता रहा।नीति निर्माण में सहमति �

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ओबीसी प्रधानमंत्री के बाद दलित राष्ट्रपति का हिंदुत्व दांव, मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष विपक्ष चारों खाने चित्त!

विपक्ष के ब्राह्मणवाद के मुकाबले ओबीसी, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों  और अल्पसंख्यकों को भी जहां जरुरत पड़ी,वहां नेतृत्व देने से संघ परिवार हिचका नहीं।

विचारधारा की इतनी परवाह थी तो संसद में आर्थिक सुधारों या आधार पर विपक्ष कैसे सहमत होता रहा।नीति निर्माण में सहमति और राजकाज के समक्ष आत्मसमर्पण,बहुजनों को नेतृत्व देने से इंकार और सिर्फ वोट बैंक के लिहाज से भाजपा के हिंदुत्व के विरोध में अपने हिंदुत्व की राजनीति के तहत मनुस्मृति की बहाली- विपक्ष की विचारधारा का सच यही है।जो हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ तो कतई नहीं है।सारी विपक्षी कवायद वोट बैंक साधने की है और इस खेल में संघ परिवार ने उसे कड़ी शिकश्त दे दी है।

जाति वर्ण के सत्ता वर्ग के हित में विपक्ष को संघ परिवार की इस जीत से कोई फर्क नहीं पड़ा और कहना होगा कि मोदी की निरंकुश सत्ता में विपक्ष की भी हिस्सेदारी है और मोदी के उत्थान में भी उसका हाथ है।

पलाश विश्वास

मेरे विचारधारा वाले मित्र माफ करेंगे कि यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि संघ परिवार ने बहुजनों को अपने पक्ष में करने के सिलसिले में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक विपक्ष को कड़ी शिकस्त दे दी है।

ओबीसी प्रधानमंत्री चुनकर देश की जनसंख्या के पचास फीसद को उन्होंने हिंदुत्व अश्वमेधी अभियान की पैदल सेना बना लिया है और अब दलित राष्ट्रपति बनवाकर विपक्ष के दलित वोटबैंक और अंबेडकरी आंदोलन दोनों पर कब्जा करने के लिए भारी बढ़त हासिल कर ली है।

आखिर तक विपक्ष को संघ परिवार की रणनीति की हवा नहीं लगी या संघ परिवार विपक्षी दलों में ओबीसी,दलित,आदिवासी और अल्पसंख्यकों को नेतृत्व न देने की जिद को जानकर यह ट्रंप कार्ड खेला है,कहना मुश्किल है।

द्रोपदी मुर्मु का नाम चल ही रहा था और आडवाणी ,मुरली मनोहर जैसे लोग पहले ही हाशिये पर कर दिये गये हैं और मोहन भागवत को राष्ट्रपति बनाकर संघ परिवार अपने हिंदुत्व एजंडे के समावेशी मुखौटा को बेपर्दा करने वाला नहीं है,क्या विपक्ष के लिए संघ परिवार के सोशल इंजीनियरिंग के तौर तरीके समझना इतना भी मुश्किल था।

मोदी को जब संघ परिवार ने प्रधानमंत्रित्व का उम्मीदवार चुना तो उसका जबाव खोजने के लिए विपक्ष का सही उम्मीदवार पेश करने की कवायद की जगह अंधाधुंध मोदी का विरोध हिंदुत्व की राजनीति की जमीन पर किया गया,जो उग्र धर्मोन्मादी हिंदुत्व के ओबीसी कायाकल्प के आगे फ्लाप हो गया।इसी के साथ हिंदुत्व ध्रूवीकरण और असहिष्णु धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी चल पड़ी जो अब  भी जारी है।

संघ परिवार ने अपनी राजनीति के हिसाब से सामाजिक यथार्थ के मुकाबले खुद को काफी हद तक बदल लिया है लेकिल संघ विरोधी हिंदुत्व राजनीति का सामंती और औपनिवेशिक चरित्र और मजबूत होता गया।विचारधारा के पाखंड के सिवाय उसके पास कुछ भी नहीं बचा।न जनाधार ,न आंदोलन और न वोटबैंक।

हिंदुत्व के इस अभूतपूर्व पुनरूत्थान के लिए, भारतीय जनता और बारतीय लोकतंत्र,इतिहास और संस्कृति से विस्वासघात का सबसे बड़ा अपराधी यह पाखंडी,मौकापरस्त,जड़ों से कटा,जनविरोधी विपक्ष है जिसने पूरा देश,देश के सारे संसाधन और पूरी अर्थव्यवस्था नरसंहारी कारपोरेट हिंदुत्व के हवाले कर दी।

जमीन पर प्रतिरोध की बात रही दूर,राजनीतिक विरोध की जगह राजनीतिक आत्मसमर्पण की उसकी आत्मघाती राजनीति का उदाहरण पिछला लोकसभा चुनाव रहा है,जिसपर हमने अभी चर्चा नहीं की कि कैसे मोदी को विपक्ष ने भस्मासुर बना दिया।फिर राष्ट्रपति चुनाव में संघ परिवार के साथ विपक्ष का  लुकाछिपी खेल सत्ता व्रग की नूरा कुश्ती का ही जलवाबहार है।

इस बार भी विपक्ष प्रधानमंत्रित्व की तर्ज पर राष्ट्रपति चुनाव में धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवार पर सहमति जताने में जुटा रहा और संघ परिवार के सोशल इंजीनियरिग और डायवर्सिटी मिशन से बेखबर रहा,सीधे तौर पर मामला यही लगता है लेकिन थोड़ी गहराई से देखें तो यह बात समझने वाली है कि मनुस्मृति मुक्तबाजारी रंगभेदी हिंदुत्व का एजंडा लागू करने के लिए संघ परिवार ने कांग्रेस और वामदलों के विपरीत, विपक्ष के ब्राह्मणवाद के मुकाबले ओबीसी, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों  और अल्पसंख्यकों को भी जहां जरुरत पड़ी,वहां नेतृत्व देने से परिवार हिचका नहीं।

कांग्रेस लगातार मुंह की खाने के बावजूद वंश वर्चस्व के शिकंजे से उबर नहीं सकी तो भारतीय राजनीति में हाशिये पर चले जाने के बावजूद वामदलों ने किसी भी स्तर पर अभी तक दलितों, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को नेतृत्व देने की पहल नहीं की ।

यही नहीं,भारत में हिंदी प्रदेशों के महत्व को सिरे से नजरअंदाज करते हुए हिंदी भाषियों के नेतृत्व और प्रतिनिधित्व से भा वामदलों ने दशकों से परहेज किया है।

बंगाली और मलयाली वर्चस्व की वजह से वाम दलों का राष्ट्रीय चरित्र ही नहीं बन सका है।

बंगाल में कड़ी शिकश्त  मिलने के बाद संगठन में बदलाव की जबर्दस्त मांग के बावजूद पार्टी में कोई खास संगठनात्मक बदलाव नहीं किया गया तो केरल में दलित और ओबीसी नेतृत्व को लगातार हाशिये पर डाला गया है।

इसके विपरीत संघ परिवार ने लगातार हर स्तर पर दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों को जोड़कर हिंदुत्व के ध्रूवीकरण की रणनीति बनायी है।

दलित,पिछड़ा और अल्पसंख्यक वोटबैंक तोड़कर ही संघ परिवार को यूपी जीतने में मदद मिली है,इस सच को उग्र हिंदुत्व के प्रतीक योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से विपक्ष भूल गया।

दलित और ओबीसी राजनीति में भी मजबूत जातियों का वर्चस्व है, जिसका फायदा भाजपा ने कमजोर जातियों को अपने पाले में खीचकर किया और लगातार विपक्ष के दलित,पिछड़ा और आदिवासी चेहरों को अपने खेमे मेंशामिल करने से कोई परहेज नहीं किया।

नतीजा ,ओबीसी प्रधानमंत्री के बाद दलित राष्ट्रपति का हिंदुत्व दांव, मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष विपक्ष चारों खाने चित्त!

अब कोई फर्क शायद नहीं पड़ने वाला है कि रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाने के संघ परिवार के सोशल इंजीनियरिंग का हम चाहे जो मतलब निकाल लें।

मोहन भागवत,द्रोपदी मुर्मु और आडवाणी के नाम चलाकर विपक्ष को चारों खाने चित्त कर देने की उनकी रणनीति अपना काम कर गयी है और विपक्षी एकता तितर बितर है।क्षत्रपों के टूटने के आसार है और दलित वोट बैंक खोने के डर से कोविंद के विरोध का जोखिम वोटबैंक राजनीति में जीने मरने वाले राजनीतिक दलों के लिए लगभग असंभव है।

खबर यह है कि संघ परिवार के दलित प्रत्याशी के मुकाबले अपने घोषित उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी की जगह किसी दलित चेहरे की खोज चल रही है।जबकि अपना उम्मीदवार को आसानी से जिताने के लिए पर्याप्त वोट का जुगाड़ पहले ही संघ परिवार ने कर लिया है।

हालत यह है कि विपक्ष की बोलती बंद हो गयी है और अब जबकि एनडीए प्रत्याशी के रूप में रामनाथ कोविंदके नाम का ऐलान हो गया है, कांग्रेस समेत समूचे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) तथा वामदलों, तृणमूल कांग्रेस, आदि विपक्षी पार्टियों को फैसला करना होगा कि वे राष्ट्रपति पद के लिए अपना प्रत्याशी खड़ा करना चाहते हैं या एनडीए के प्रत्याशी को ही समर्थन देंगे।

हालांकि कांग्रेस ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में सावधानी बरतते हुए यह तो कहा है कि बीजेपी ने रामनाथ कोविंदके नाम की घोषणा कर एकतरफा फैसला किया है, लेकिन कोविंदतथा उनकी उम्मीदवारी को लेकर कोई टिप्पणी करने से इंकार कर दिया है।

अब गोपाल कृष्ण गांधी के बदले सिर्फ भाजपाई उम्मीदवार के विरोध की वजह से मीरा कुमार जैसे किसी दलित चेहरे को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया जाता है तो विपक्ष की धर्मनिरपेक्षता का पाखंड भी बेनकाब होने वाला है।

अब भाजपाई उम्मीदवार की जीत तय मनने के बावजूद अपना दलित उम्मीदवार खड़ा करता है विपक्ष तो सवाल यह है कि संघ परिवार के एजंडे के विरोध के बावजूद उसने संघ परिवार के उम्मीदवार पर सहमति उसका नाम घोषित होने के बाद देने का दांव क्यों खेला,क्यों नहीं अपनी विचारधारा के मुताबिक अपने उम्मीदवार का ऐलान पहले ही कर दिया चाहे वह दलित हो न हो?

विचारधारा की इतनी परवाह थी तो संसद में आर्थिक सुधारों या आधार पर विपक्ष कैसे सहमत होता रहा।नीति निर्माण में सहमति और राजकाज के समक्ष आत्मसमर्पण,बहुजनों को नेतृत्व देने से इंकार और सिर्फ वोट बैंक के लिहाज से भाजपा के हिंदुत्व के विरोध में अपने हिंदुत्वकी राजनीति के तहत मनुस्मृति की बहाली- विपक्ष की विचारधारा का सच यही है।

विपक्ष की यह हिंदुत्व राजनीति  हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ तो कतई नहीं है।

सारी विपक्षी कवायद वोट बैंक साधने की है और इस खेल में संघ परिवार ने उसे कड़ी शिकश्त दे दी है।

जाति वर्ण के सत्ता वर्ग के हित में विपक्ष को संघ परिवार की इस जीत से कोई फ्रक नहीं पड़ा और कहना होगा कि मोदी की निरंकुश सत्ता में विपक्ष की भी हिस्सेदारी है और मोदी के उत्थान में भी उसका हाथ है।

वोटबैंक की राजनीति को किनारे रखकर हिंदुत्व राजनीति में भाजपा के सबसे प्राचीन सहयोगी शिवसेना सुप्रीम उद्धव ठाकरे ने हालांकि भाजपा के इस फैसले को वोटबैंक की राजनीत कह दिया है।मराठी मीडिया के मुताबिकः

राष्ट्रपतिपदाचे उमेदवार म्हणून दलित चेहरा असलेले बिहारचे राज्यपाल कोविंद यांच्या उमेदवारीला शिवसेनेने विरोध दर्शवला आहे. 'दलित समाजाची मते मिळवण्यासाठी जर दलित उमेदवार दिला जात असेल तर त्यात आम्हाला रस नाही', अशा स्पष्ट शब्दात उद्धव ठाकरे यांनी कोविंद यांची उमेदवारी शिवसेनेला मान्य नसल्याचे स्पष्ट संकेत दिले आहेत.


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दलित राष्ट्रपति का हकीकतःगुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ'! हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले गजब का दलित एजंडा है।जिससे समूचा विपक्ष तितर बितर है और संघ के खेमे में दलित हितों के बहाने एंट्री और रीएंट्री की दौड़। देश में मेहनतकश तबका, देश के किसान, बहुजन समाज, बहुसंख्य आम जनता इसी तरह अलग अलग इसी तरह बंटे हुए हैं।छात्र युवा स्

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दलित राष्ट्रपति का हकीकतःगुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ'!

हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले गजब का दलित एजंडा है।जिससे समूचा विपक्ष तितर बितर है और संघ के खेमे में दलित हितों के बहाने एंट्री और रीएंट्री की दौड़।

देश में मेहनतकश तबका, देश के किसान, बहुजन समाज, बहुसंख्य आम जनता इसी तरह अलग अलग इसी तरह बंटे हुए हैं।छात्र युवा स्त्री तमाम सामाजिक शक्तियां इसी तरह बंटी हुई है।निजीकरण,विनिवेश और एकाधिकार कारपोरेट नरसंहारी रंगभेदी राजकाज का प्रतिरोध इसलिए संभव नहीं है।

हर छोटे बड़े चुनाव में चुनाव में इसी तरह सैकडो़ं,हजारों बंटवारा होता है और सत्ता वर्ग की एकता,उनके हित अटूट हैं।

 

पलाश विश्वास

गुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ',जिग्नेश मेवाणी ने फेसबुक वाल पर बाकायदा एक प्रेस बयान जारी किया है।जिसे आप आगे पूरे ब्यौरे के साथ पढ़ेंगे।

दलित अस्मिता की राजनीति धुंआधार है और चूंकि संघ परिवार ने दलित कार्ड खेल दिया है,तो विपक्ष का खेल खत्म है।

दूसरी ओर,संघ की बुनियादी हिंदुत्व प्रयोगशाला में दलितों की स्थिति यह है।

गोरक्षा कार्यक्रम में जैसे मुसलमान मारे जा रहे हैं,वैसे ही दलित मारे जा रहे हैं।

राजकाज का असल योगाभ्यास यही है।

राजनेताओं को दलितों की कितनी परवाह है,उनके वोट के सिवाय, इसका खुलासा उसी तरह हो रहा है कि मुसलमानों की परवाह कितनी है मुस्लिम वोट बैंक के सिवाय,यह निर्मम हकीकत।

वनवासी कल्याण कार्यक्रम से सलवा जुड़ुम का रिश्ता घना है।आदिवासी फिर भी लड़ रहे हैं बेदखली के खिलाफ अपने हकहकूक के लिए।

दलितों का राष्ट्रपति फिर बन रहा है।

ओबीसी के कितने तो मुख्यमंत्री हैं और अब सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री भी है।

मुसलमान प्रधानमंत्री नहीं बने,बहरहाल राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति बनते रहते हैं तो कभी कभार मुख्यमंत्री भी।

सत्ता में भागेदारी का मतलब यही है।

जाहिर है कि दलित नहीं लडे़ंगे अपने हकहकूक के लिए।

जाहिर है कि ओबीसी नहीं लड़ेंगे अपने हकहकूक के लिए।

जाहिर है कि मुसलमान नहीं लड़ेगे अपने हक हकूक के लिए।

लड़ेंगे तो राष्ट्रद्रोही बनाकर मार दिये जायेंगे।

देश में मेहनतकश तबका, देश के किसान, बहुजन समाज, बहुसंख्य आम जनता इसी तरह अलग अलग इसी तरह बंटे हुए हैं।छात्र युवा स्त्री तमाम सामाजिक शक्तियां इसी तरह बंटी हुई है।

निजीकरण,विनिवेश और एकाधिकार कारपोरेट नरसंहारी रंगभेदी राजकाज का प्रतिरोध इसलिए संभव नहीं है।

हर छोटे बड़े चुनाव में चुनाव में इसी तरह सैकडो़ं,हजारों बंटवारा होता है और सत्ता वर्ग की एकता,उनके हित अटूट हैं।

दलितों की परवाह विपक्ष को पहले थी तो उसने संघ परिवार से पहले दलित उम्मीदवार की घोषणा क्यों नहीं कर दी?

अगर विचारधारा का ही सवाल है तो संघ परिवार की विचारधारा और हिंदुत्व के एजंडे के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष विरोधियों को राष्ट्रपति पद पर संघ की सहमति से उम्मीदवार चुनने की नौबत क्यों आयी?

अब चूंकि मायावती ने कह दिया है कि राष्ट्रपति पद के लिए दलित उम्मीदवार ही उन्हें मंजूर होगा तो पहले से लगभग तय विपक्ष के उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी को बदलकर पहले मीरा कुमार,सुशील कुमार सिंधे और बाबासाहेब के पोते प्रकाश अंबेडकर के नाम चलाये गये और विपक्षी एकता ताश के महल की तरह तहस नहस हो जाने के बाद अब स्वामीनाथन का नाम चल रहा है।

यानी हिंदुत्व के दलित कार्ड के मुकाबले वाम लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष दलित कार्ड का खुल्ला खेल फर्रूखाबादी?

समता ,न्याय,सामाजिक न्याय का क्या हुआ?

इसमें कोई शक नहीं है कि स्वामीनाथन बेशक बेहतर उम्मीदवार हैं तमाम राजनेताओं के मुकाबले।तो पहले विपक्ष को उनका नाम क्यों याद नहीं आया,यह समझ से परे हैं।

जब मोहन भागवत और लालकृष्ण आडवाणी के नाम चल रहे थे ,तब भी क्या विपक्ष को समझ में नहीं आया कि किसी स्वयंसेवक को ही राष्ट्रपति बनाने के पहले मौके को खोने के लिए संघ परिवार कतई तैयार नहीं है।

यह जानना दिलचस्प होगा कि संघ परिवार की ओर से पेश किस नाम पर विपक्ष आम सहमति बनाने की उम्मीद कर रहा था?

मोहन भागवत?

लाल कृष्ण आडवाणी?

मुरली मनोहर जोशी?

सुषमा स्वराज?

सुमित्रा महाजन?

प्रणव मुखर्जी?

गौरतलब है कि विपक्षी मोर्चाबंदी में ताकतवर नेता ममता बनर्जी ने भागवत और जोशी के अलावा बाकी सभी नामों का विकल्प सुझाव दिया है।

दार्जिलिंग में जैसे आग लगी हुई है और उस आग को ईंधन देने में लगा है संघ परिवार और बंगाली सवर्ण उग्र राष्ट्रवाद,अगर बंगाल का विभाजन कराने में कामयाब हो गया संघ परिवार,तो दीदी की अनंत लोकप्रियता काअंजाम क्या होगा कहना मुश्किल है।

संघ परिवार और केंद्र की जांच एजंसियों ने जैसी घेराबंदी दीदी की की है,बचाव के लिए संघम शरणं गच्छामि मंत्र के सिवाय कोई चारा उनके पास

नहीं बचा है।

दीदी फिलहाल विदेश यात्रा पर हैं और दार्जिलिंग के साथ साथ सिक्किम भी बाकी देश से कटा हुआ है।आज स्कूलों को खाली करने के लिए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने बारह घंटे की मोहलतदी है।दीदी की वपसी तक हालात कितने काबू में होंगे कहना मुश्किल है।

जैसे प्रणव मुखर्जी का प्रबल विरोध करने के बाद दीदी ने वोट उन्हीं को दिया था,बहुत संभव है कि इस बार भी कम से कम दार्जिलिंग बचाने के लिए दीदी नीतीश की तरह संघ परिवार के साथ हो जाये।वैसे वे संघ परिवार के पहले मंत्रिमंडल में भारत की रेलमंत्री भी रही हैं।

प्रणव मुखर्जी और संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत की शिष्टाचार मुलाकात पर हम पहले ही लिख चुके हैं।

संघ परिवार चाहता तो विपक्ष उनके नाम पर भी सहमत हो जाता,क्योंकि सहमति के इंतजार में उसने गोपालकृष्ण का नाम तय होने पर भी घोषित नहीं किया जबकि सहमति न होने की वजह यह बतायी जा रही है कि संघ परिवार ने पहले से नाम नहीं बताया।

अब संघ परिवार ने नाम बताया तो विपक्ष अपना प्रत्याशी बदलकर दलित चेहरे की खोज में लगा है।

हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले गजब का दलित एजंडा है।जिससे समूचा विपक्ष तितर बितर है और संघ के खेमे में दलित हितों के बहाने एंट्री और रीएंट्री की दौड़।

सत्ता की राजनीति, वोटबैंक की राजनीति,सत्ता में साझेदारी,संसदीय राजनीति में विचारधारा के ये विविध बहुरुपी आवाम हैं,जिसकी शब्दावली बेहद फरेबी हैं लेकिन इससे निनानब्वे प्रतिशत भारतवासियों, किसानों, मेहनतकशों, दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, मुसलमानों और बहुसंख्य हिंदुओं और स्त्रियों के भले बुरे,जीवन मरण का कुछ लेना देना नहीं है।

राष्ट्रपति चुनाव का दलित कार्ड दरअसल वोटबैंक का एटीएम कार्ड है और इसे सत्ता की चाबी भी कह सकते हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव में ओबीसी कार्ड खेलने के बाद संघ परिवार राष्ट्रपति चुनाव में दलित कार्ड भी खेल सकता है,विपक्ष के हमारे धुरंधर राजनेताओं को इसकी हवा क्यों नहीं लगी?

नाथूराम गोडसे को महानायक बनाने पर आमादा संघ परिवार जिस तेजी से गांधी नेहरु का नामोनिशान मिटाने पर तुला हुआ है,ऐसी हालत में गोपाल कृष्ण गांधी के वह कैसे राष्ट्रपति बनने देता?

तमिलनाडु,ओड़ीशा,तेंलगना और आंध्र के क्षत्रपों ने पहले से संघी कोविंद को अपना समर्थन दे दिया है।

समाजवादी मुखिया मुलायम पहले से ही राजी रहे हैं और वे मायावती अखिलेश समझौते के खिलाफ हैं।

नीतीश कुमार के जदयू ने लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी राजद की परवाह किये बिना संघ परिवार का समर्थन कर दिया और जाहिर है कि वे देर सवेर संघ परिवार से फिर नत्थी होने की जुगत लगा रहे हैं।

वे पहले भी संघ परिवार के साथ रहे हैं और उनके इस कदम से किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए।शरद यादव तो अटल जमाने में संघी गठबंधन के मुखिया भी रहे हैं।

अब चाहे दलित उम्मीदवार भी विपक्ष कोई खड़ा कर दें, देश का पहला केसरिया राष्ट्रपति बनना तय है और प्रधानमंत्री के साथ भारत के राष्ट्रपति भी स्वयंसेवक ही बनेंगे।वे दलित हों न हों,केसरिया होंगे कांटी खरा सोना,इसमें कोई शक नहीं है।

जाहिर है कि चुनाव में प्रतिद्वंद्विता अब प्रतीकात्मक ही होगी जिसके लिए सिर्फ वामपंथी अडिग हैं।जबकि हकीकत यह है कि  वामपंथी बंगाल में सत्ता गवांने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर चले जाने के बाद ऐसी कोई ताकत नहीं हैं कि अकेले दम संघियों से पंजा लड़ा सके।

वाम का सारा दम खम कांग्रेस के भरोसे हैं।उनकरी विचारधारा अब कुल मिलाकर कांग्रेस की पूंछ है जिसका केसरिया रंगरोगन ही बाकी है।

गौरतलब है कि कांग्रेस के साथ वे दस साल तक सत्ता में नत्थी रहे हैं।

पांच साल के मनमोहन कार्यकाल के दौरान परमाणु संधि को लेकर समर्थन वापसी में नाकामी के बावजूद उन्होंने कांग्रेस का दामन छोड़ा नहीं है।तब सोमनाथ चटर्जी को पार्टीबाहर कर दिया लेकिन परमाणु संधि या भारत अमेरिकी संबंध या कारपोरेट हमलों की जनसंहार संस्कृति के खिलाफ कुछ भी जन जागरण उन्होंने नहीं किया है।उनकी धर्मनिरपेक्षता का जरुर जलवा बहार है।

वैसे आपातकाल के बाद जनता पार्टी सरकार में संघी खास भूमिका में थे,तब वाम ने उस सरकार का समर्थन दिया था और वीपी मंत्रिमंडल के समर्थन में वाम और संघ परिवार दोनों थे।इसलिए वैचारिक शुद्धता का सवाल हास्यास्पद है। इसी वैचारिक शुद्धता के बहाने कामरेड ज्योति बसु को उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से रोका था।लेकिन केंद्र की सत्ता से नत्थी हो जाने में उनकी वैचारिक शुद्धता वैदिकी हो जाती है।

इस पर भी गौर कीजिये कि सोशल मीडिया पर बहुत लोगों ने लिखा है कि सिख नरसंहार के वक्त सिख राष्ट्रपति जैल सिंह थे तो गुजरात नरसंहार के दौरान मुसलमान राष्ट्रपति थे।

सत्ता में जो लोग इस वक्त दलितों के जो राम श्याम मंतरी संतरी हैं,वे देश में दलितों,दलित  स्त्रियों  के खिलाफ  रोजाना हो रहे अत्याचारों के खिलाफ कितने मुखर हैं,संसद से लेकर सड़क तक सन्नाटा उसका गवाह है।

कोविंद बेशक राष्ट्रपति बनेंगे।लेकिन उनसे पहले आरके नारायण भी राष्ट्रपति बन चुके हैं,जो दलित हैं,उनके कार्यकाल में दलितों पर अत्याचार बंद हुए हों या समता और न्याय की लड़ाई एक इंच आगे बढ़ी हो,ऐसा सबूत अभी तक नहीं मिला है।

मायावती चार बार मुख्यमंत्री यूपी जैसे राज्य की बनी रहीं,बाकी देश की छोड़िये ,यूपी में दलितों का क्या कायाकल्प हुआ बताइये।होता तो दलित संघी कैसे हो रहे हैं?

स्त्री अस्मिता की बात करें तो इस देश में स्त्री प्रधानमंत्री, सबसे शक्तितशाली प्रधानमंत्री का नाम इंदिरा गांधी है।तो राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील भी बनी हैं।

सुचेता कृपलानी से अब तक दर्जनों मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन पितृसत्ता को तनिक खरोंच तक नहीं आयी।स्त्री आखेट तो अब कारपोरेट खेल है।

बाबासाहेब दलित थे,भारत के संविधान का मसविदा उन्होंने रचा और राजकाज राजनीति में कांग्रेस के बाद अब संघ परिवार भी परमेश्वर बाबासाहेब हैं,इसलिए नहीं कि उन्होंने संविधान रचा,इसलिए कि उनके नाम पर दलितों के वोट मिलते हैं। बाबासाहेब के संवैधानिक रक्षाकवच के बादवजूद दलितों,पिछडो़ं,आदिवासियों और स्त्रियों पर अत्याचार का सिलसिला जारी है।

पंचायत से लेकर विधानसभाओं और संसद से लेकर सरकार और प्रशासन में आरक्षण और कोटे के हिसाब से जाति,धर्म,लिंग,भाषा,नस्ल, क्षेत्र के नाम जो लोग पूरी एक मलाईदार कौम है,वे अपने लोगों का भला कैसे साध रहे हैं और उनपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ किस तरह सन्नाटा बुनते हैं,इसे साबित करने की भी जरुरत नहीं है।

जाहिर सी बात है कि ओबीसी प्रधानमंत्री हो या दलित राष्ट्रपति,ओबीसी या दलितों के हित साधने के लिए वे चुने नहीं जाते हैं,उनके चुनने का मकसद विशुद्ध राजनीतिक होता है।

जैसे अब यह मकसद हिंदू राष्ट्र का कारपोरेट एजंडा है।

जाति के नाम पर कोविंद का समर्थन और विरोध दोनों वोटबैंक की राजनीति है,इससे दलितों पर अत्याचार थमने वाले नहीं हैं।

गुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ',जिग्नेश मेवाणी ने फेसबुक वाल पर बाकायदा एक प्रेस बयान जारी किया है।कृपया पढ़ लेंः

गुजरात के बनासकांठा जिले के डिशा तहसील के बुराल गांव की 18 साल की दलित लड़की जब स्वच्छता अभियान के सारे नारो के बावज़ूद जब घर पर टॉयलेट नही होने के चलते खुले में शौच करने गई तब दबंग जाति के एक इंसान रूपी भेड़िये ने उस के साथ बलात्कार किया।

10 जून दोपहर के 12 बजे यह घटना घटी।

पीड़िता ने घर जाकर अपने माँ बाप को यह बात बताई।

दोपहर के 2 बजे पीड़िता, उस के माता-पिता और बराल गांव के कुछ लोग डिशा रूरल पुलिश थाने में मामले कि रिपोर्ट दर्ज करवाने गए।

थाना इन्चार्ज मौजूद नही थे।

डयूटी पर बैठे पुलिस स्टेशन ऑफीसर ने कहा कि थाना इन्चार्ज (पुलिस इंस्पेक्टर) वापस आएंगे उस के बाद ही करवाई होगी।

पीड़िता, उसके माता पिता और गांव के लोग बारबार गिड़गिड़ाते रहे,

लेकिन रिपोर्ट दर्ज नही करी गई।

फिर पीड़िता के माता-पिता ने लोकल एडवोकेट मघा भाई को थाने बुलाया।

वकील साहब ने कहा कि मामला इतना संगीन है,

बलात्कार हुआ है और आप पुलिस इंस्पेक्टर का इंतजार कर रहे हो, यह कैसे चलेगा ?

इसके बाद भी कोई कार्यवाही नही हुई।

पुलिस स्टेशन ऑफिसर ग़लबा भाई ने कहा कि इंस्पेक्टर साहब आपको धानेरा तहसील के एक चौराहे पर मिलेंगे।

बलात्कार का शिकार यह दलित लड़की अपने मां-बाप और गांव के लोगो के साथ रोती गिड़गिड़ाती हुई धानेरा हाई वे पर पहुंची और अपनी आपबीती सुनाई।

सुनकर पुलिस इंस्पेक्टर डी. डी. गोहिल ने कहा - बलात्कार हुआ और तू दलित है तो जा जाकर पहले अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट लेकर आ।

यह है गुजरात का गवर्नेन्स,

यह है गुजरात मॉडल,

यह है दलितो के साथ गुजरात पुलिस का रवैया,

बाद में पीड़ित लड़की अपने मां बाप के साथ 24 किलोमीटर दूर अपने गांव वापस गई और कास्ट सर्टिफिकेट लेकर पुलिस थाने पहुंची।

फिर जो हुआ वह और भी भयानक है।

बगल के पुलिस थाने की शर्मिला नाम की एक महिला पुलिस कर्मी ने मामला दर्ज करवाने आई इस पीड़िता को एक अंधेरे कमरे में ले जाकर दो चांटे मारकर धमकी देते हुए कहा कि यदि बलात्कार का मामला दर्ज करवाया तो तुझे और तेरे मां-बाप को जेल में डाल देंगे।

बाद में इस थाने में IPC की धारा 376(Rape) के बजाय 354 (sexual abuse) के लिए मुकद्दमा दर्ज किया गया।

यहाँ तक कि इस पीड़िता के बारबार कहने के बावजूद उस की मेडिकल जांच नही करवाई गई।

यानी कुछ भी करके मामले को रफादफा करने की कोशिश की गई।

यहाँ उल्लेखनीय है कि कुछ दिन पहले ही BJP के कुछ नेता नालिया सैक्स रैकेट में इनवॉल्व पाये गए थे और गुजरात पुलिस और बीजेपी के नेताओं का वास्तविक चरित्र उजागर हुआ था।

यह भी उल्लेखनीय है कि गुजरात में 2004 में 24 दलित बहनो के ऊपर बलत्कार हुए थे जो 2014 में 74 तक पहुंच गए।

हम लोगो ने पाटिदार समाज की नेता रेशमा पटेल और चिराग पटेल और बनासकांठा के साथी चेतन सोलंकी वगैरा के साथ मिलकर आज प्रेस कॉन्फ्ररेन्स के जरिये यह ऐलान किया है कि यदि 25 तारीख शाम के 6 बजे तक धारा 376 के तहत मुकदमा दर्ज नही किया गया और यदि थाना इन्चार्ज के खिलाफ एट्रोसिटी एक्ट की धारा -4 के तहत करवाई नही हुई तो हम सब मिलकर 26 तारीख को सुबह 11 बजे बनासकांठा जिले की बनास नदी के उपर का bridge (ब्रिज) और हाई वे बंद करवा देंगे।

बलात्कार के मामले में कोई समझौता नही चलेगा।

गुजरात सरकार तैयारी कर ले हमे रोकने की,

हम तैयारी कर लेंगे रास्ता रोकने की।

इंकलाब ज़िन्दाबाद।

Jignesh Mevani की वाल से

 

 

आपातकाल में अंधेरा था तो रोशनी भी थी,अब अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं है! जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है। स्वयंसेवक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के बजाय मनुस्मृति व्यवस्था के प्रति होगी,जो बहसंख्य निनन्याब्वे फीसद जन गण के लिए मौत की घंटी होगी। यह राष्ट्र अब युद्धोन्मादी सैन्य राष्ट्र है। स्�

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आपातकाल में अंधेरा था तो रोशनी भी थी,अब अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं है!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

स्वयंसेवक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के बजाय मनुस्मृति व्यवस्था के प्रति होगी,जो बहसंख्य निनन्याब्वे फीसद जन गण के लिए मौत की घंटी होगी।

यह राष्ट्र अब युद्धोन्मादी सैन्य राष्ट्र है। स्वयंसेवकों की हैसियत से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इसके कर्णधार हैं।ऐसी परिस्थिति किसी भी तरह के आपातकाल से भयंकर हैं।

पलाश विश्वास

आज आदरणीय आनंद स्वरुप वर्मा ने समकालीन तीसरी दुनिया में प्रकाशित आपातकाल से संबंधित सामग्री शेयर किया है।

इसके अलावा प्रधान स्वयंसेवक ने अपनी अमेरिका यात्रा के मध्य देश की जनता से मंकी बातें की हैं।

सोशल मीडिया में उनके करोड़ों फालोअर है और समूचा मीडिया उनका माउथ पीस है।इसलिए आपातकाल के बारे में उनकी टिप्पणी का जबाव देने की हैसियत हमारी नहीं है।

शायद यह हैसियत किसी की नहीं है।

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

दो दिन के लिए नजदीक ही अपने फुफेरे भाई के वहां उनके गांव में गया था।इधर मेरे पास अनुवाद का कोई काम भी नहीं है।कल सुबह ही लौट आया।

कल से कोशिश कर रहा हूं कि कुछ लिखूं लेकिन शब्द चूक रहे हैं।लिखना बेहद मुश्किल हो गया है।

कल शेक्सपीअर के मैकबैथ से लेडी मैकबैथ के कुछ संवाद फेसबुक पर पोस्ट किये थे।शेक्सपीअर ने यह दुखांत नाटक महारानी एलिजाबेथ के स्वर्मकाल में तब लिका था,जब शुद्धतावादी प्युरिटन आंदोलनकारियों ने लंदन में थिएटर भी बंद करवा दिये थे।

लेडी मैकबेथ अब निरंकुश सत्ता का चरित्र है और उसके हाथों पर लगे खून के दाग सात समुंदर के पानी से बी धोया नहीं जा सकता।शुद्धतावादियों का तांडव भी मध्ययुग से लेकर अब तक अखंड हरिकथा अनंत है।

आज मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में पोस्ट किया है।

शेक्सपीअर से लोकर मुक्तिबोध की दृष्टि से इस कटकटेला अंधियारे में रोशनी की खोज कर रहा हूं,लेकिन अफसोस कि रोशनी कहीं दीख नहीं रही है।

दार्जिलिंग जल रहा है और बाकी देश में कोई हलचल नहीं है।

किसानों की खुदकशी को फैशन बताया जा रहा है।

उत्तराखंड के खटीमा से भी एक किसान की खुदकशी की खबर आयी है,जो मेरे लिए बेहद बुरी खबर है।उत्तराखंड की तराई में किसानों की इतनी बुरी हालत कभी नहीं थी।

इस राष्ट्र की जनता अब जनता नहीं, धर्मोन्मादी अंध भीड़ है।सिर्फ आरोप या शक के आधार पर वे कहीं भी किसी की जान ले सकते हैं।ऐसे लोग नागरिक नहीं हो सकते।

ऐसे लोग मनुष्य भी हैं या नहीं,यह कहना मुश्किल है।

वैदिकी हिंसा की संस्कृति अब संस्थागत है,इस संस्थागत हिंसा को रोक पाना असंभव है।

राष्ट्र भी  अब कारपोरेट मुक्त बाजार है।

जब आपातकाल लगा था,उस वक्त राजनीति कारपोरेट एजंडे के मुताबिक कारपोरेट फंडिंग से चल नहीं रही थी और न ही सर्वदलीय संसदीय सहमति से एक के बाद एक जनविरोधी नीतियां लागू करके जनसंख्या सफाया अभियान चल रहा था।

गौरतलब है कि आपातकाल से पहले,आपातकाल के दौरान और आपातकाल के बाद भी प्रेस सेंसरशिप के बावजूद सूचना महाविस्फोट से पहले देश के गांवों और जनपदों से सूचनाएं खबरें आ रही थी।दमन था तो उसका प्रतिरोध भी था।

अंधेरा था,तो रोशनी भी थी।

खेती तब भी भारत की अर्थव्यवस्था थी और किसान मजदूर थोक आत्महत्या नहीं कर रहे थे।

छात्रों,युवाओं,महिलाओं,किसानों और मजदूरों का आंदोलन कभी नहीं रुका।साहित्य और संस्कृति में भी आंदोलन चल रहे थे।

देश के मुक्तबाजार बन जाने के बाद सूचना महाविस्फोट के बाद सूचनाएं सिरे से गायब हो गयी हैं।

आम जनता की कहीं भी किसी भी स्तर पर सुनवाई नहीं हो रही है।किसी को चीखने की या रोने या हंसने की भी इजाजत नहीं है।

जिस ढंग से बुनियादी जरुरतों और सेवाओं को आधार कार्ड से नत्थी कर दिया गया है,उससे आपकी नागरिकता दस अंकों की एक संख्या है,जिसके बिना आपका कोई वजूद नहीं है।न आपके नागरिक अधिकार हैं और न मानवाधिकार।आपके सपनों,आपके विचारों आपकी गतिविधियों,आपकी निजी जिंदगी और आपकी निजता और गोपनीयता पर राष्ट्र निगरानी कर रहा है।आपकी कोई स्वतंत्रता नहीं है और न आप स्वतंत्र हैं।

जिस तरीके से नोटबंदी लागी की गयी,संगठित असंगठित क्षेत्र के लाखों लोगों के हाथ पांव काट दिये गये,उनकी आजीविका चीन ली गयी और उसका कोई राजनीतिक विरोध नहीं हुआ,वह हैरतअंगेज है।

जिसतरह संघीय ढांचे को तिलांजलि कारपोरेट व्रचस्व और एकाधिकार के लिए किसानों के बाद अब कारोबारियों और छोटे मंझौले उद्यमियों का सफाया होने जा रहा है,उसके मुकाबले आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी के किस्से कुछ भी नहीं हैं।

आपातकाल लागू करने में तत्कालीन राष्ट्रपति से जैसे आदेशनामा पर दस्तखत करवा लिया गया,उसके मद्देनजर देश में बनने वाले पहले केसरिया राष्ट्रपति की भूमिका भी खतरनाक साबित हो सकती है।

क्योंकि प्रधानमंत्री प्रधान स्वयं सेवक हैं तो राष्ट्रपति भी देश के प्रथम नागरिक के बजाय प्रथम स्वयंसेवक होगें।

प्रधानमंत्री जिस तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजंडे के मुताबिक हिदंत्व का फासीवादी रंगभेदी मनुस्मृति राजकाज चला रहे हैं,जाहिर है कि राष्ट्रपति भी भारतीय नागरिकों का राष्ट्रपति होने के बजाये संघ परिवार का राष्ट्रपति होगा।

स्वयंसेवक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के बजाय मनुस्मृति व्यवस्था के प्रति होगी,जो बहसंख्य निनन्याब्वे फीसद जन गण के लिए मौत की घंटी होगी।

यह राष्ट्र अब युद्धोन्मादी सैन्य राष्ट्र है। स्वयंसेवकों की हैसियत से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इसके कर्णधार हैं।ऐसी परिस्थिति किसी भी तरह के आपातकाल से भयंकर हैं।

इस सिलसिले में शुभा शुभा का यह फेसबुक पोस्ट गौर तलब हैः

यह नाज़ुक समय है।हम भारतीय जनतंत्र के अन्तिम दौर में पैर रख रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के साथ ही संविधान के विसर्जन की तैयारी है। इसका इतना उत्साह 'भक्तों'में है कि औपचारिक विसर्जन से पहले ही वे हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने निकल पड़े हैं। मध्यप्रदेश में रासुका लगाकर किसी ख़ून-ख़राबे की योजना हो सकती है ताकि किसान आन्दोलन को दफनाने का काम बिना बदनाम हुए हो सके।ईद पर और भी हत्या, ख़ून-ख़राबे की कोशिश हो सकती हैं। तनाव पैदा करने की कोशिश क ई जगह हुई है। इस समय विवेक की असली परीक्षा है। हिन्दू राष्ट्रवादी हर कोशिश करेंगे कि लोग आपस में ही निपट लें , वे अपने हत्याकांड को लोगों से करवाना चाहेंगे । हमें हत्यारे गिरोहों को अलग करके देखा होगा।आपसी यक़ीन क़ायम रखते हुए मिली जुली निगरानी कमैटी और हैल्पलाईन तैयार करनी होंगी। आइसोलेशन से बचना होगा और सामाजिक समर्थन जुटाने के उपाय करने होंगे।अब बीच में कुछ है नहीं। नागरिकों को मिलकर आत्मरक्षा और उससे आगे के उपाय ख़ुद करने होंगे। हमें हिन्दू राष्ट्र के ख़िलाफ़ व्यापक मोर्चो की दिशा में बढ़ना होगा । यह सब मैं अपने लिए ही लिख रही हूं ताकि मेरे होश बने रहें और मैं लाचारी में नहीं जीना चाहती।आप भी अपनी बात कहें।आपसी यक़ीन और विवेक ही हमारा साथ देंगे। संकीर्ण आलोचना, आपसी छीछालेदर और वृथा भावुकता हमारी मुश्किल बढ़ाने वाली बातें हैं। अल्पसंख्यक , दलित , महिलाएं और तमाम प्रगतिशील ताकतें हिन्दू राष्ट्र के निशाने पर हैं।

यह पोस्ट मैंने झारखंड में सलमान की हत्या की ख़बर पढ़ने के बाद लिखी है।


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